इग्नोर - अभिषेक मिश्र | Ignore - Abhishek Mishra

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"इग्नोर"

उनकी यादों की लहरों ने फिर दिया झकझोर,
हर तरफ वही दिखते हैं देखूं जिस भी ओर।
खुश्बू उनकी फिजाओं में फैली चारों ओर,
कैसे बयां करें वो दर्द जब करते है वो इग्नोर।।
भूल गए है आज वो सर्दी वाली रातों को,
समझ न पा रहे आज हृदय के जज्बातों को।
कैसे कोई सहे अकेले ऐसे इन हालातों को,
ऐसे कैसे भूल जाये पिछली सारी बातों को।
दूर दूर तक दिखे अंधेरा देखें जिस भी ओर,
कैसे बयां करें वो दर्द जब करते है वो इग्नोर।।
कहते हैं न स्नेह रखो हमसे ये सब ठीक नहीं, 
क्या उनको पता नहीं कि इस पर होता रोक नहीं।
हर किताब हर पन्ने में आता उनका ही चेहरा है,
ऐसा लगता है जैसे उन्ही का ही पहरा है।
क्या इस रिश्ते की इतनी नाजुक थी डोर,
कैसे बयां करें वो दर्द जब करते है वो इग्नोर।।
क्या इग्नोर करने से उनको वो सब कुछ मिल जाएगा,
ऐसा भी तो नही है कि चेहरा उनका खिल जाएगा।
रिश्ता थोड़ा ऐसा था कि परिभाषा देना मुश्किल है,
पर अब तो लगता है जैसे जीवन बड़ा मुश्किल है।
उम्मीद यही है कि निकले जीवन की नई भोर,
कैसे बयां करें वो दर्द जब करते है वो इग्नोर।।


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