"बिखरा हुआ घर"
राहों में मिले फूल उठाता चला गया,
धागों में उन्हें बांध पिरोता चला गया।
देखा तो एक माला खूबसूरती भरी,
उसमें भी रंग प्यार मिलाता चला गया।
कितने थे स्वप्न,आस, प्रेम के बुने हुए,
मैं देख उनकी खैर मनाता चला गया।
कुछ दिन हुए उन फूलों को संग में मेरे "मोहन"
जालिम कोई नज़र था लगाता चला गया।
अब एक - एक फूल लगे ऐसे बिखरने,
जैसे कोई तलवार अचानक चला गया।
अब आ चुका पतझड़ मेरे उपवन में क्या कहूं,
मेरा फूल कोई और उठाता चला गया।।
कोशिश करूं कितनी ही उन्हें जोड़ने की मैं,
माला से कोई धागे निकाला चला गया।।
फिर भी लगे हैं,कर रहे हम कोशिशें मगर,
रूठा हुआ ऐ वक्त देख फिर मैं आ गया।।
वादा है जोड़ लेंगे अपना "बिखरा हुआ घर",
तूफां था तिनका - तिनका उड़ाता चला गया।।
- पं. सुव्रत शुक्ल "मोहन"
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