कुँवर नारायण की कविता संग्रह: आत्मजयी - नचिकेता

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Kunwar-Narayan-kavita

Aatamjayi - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: आत्मजयी - नचिकेता

नचिकेता
असहमति को अवसर दो
सहिष्णुता को आचरण दो
कि बुद्धि सिर ऊंचा रख सके....
उसे हताश मत करो काइयां तर्कों से हरा-हराकर।
अविनय को स्थापित मत करो,
उपेक्षा से खिन्न न हो जाए कहीं
मनुष्य की साहसिकता।
अमूल्य थाती है यह सबकी
इसे स्वर्ग के लालच में छीन लेने का
किसी को अधिकार नहीं...
आह, तुम नहीं समझते पिता, नहीं समझना चाह रहे,
कि एक-एक शील पाने के लिए
कितनी महान आत्माओं ने कितना कष्ट सहा है....
तुम्हारी दृष्टि में मैं विद्रोही हूं
सत्य, जिसे हम सब इतनी आसानी से
अपनी-अपनी तरफ़ मान लेते हैं, सदैव
विद्रोही सा रहा है ।

तुम्हारी दृष्टि में मैं विद्रोही हूं
क्योंकि मेरे सवाल तुम्हारी मान्यताओं का उल्लंघन करते हैं
नया जीवन-बोध संतुष्ट नहीं होता
ऐसे जवाबों से जिसका संबंध
आज से नहीं अतीत से है।
तर्क से नहीं रीति से है ।

यह सब धर्म नहीं- धर्म सामग्री का प्रदर्शन है
अन्न, घृत, पशु, पुरोहित, मैं....
शायद इस निष्ठा में हर सवाल बाधा है
जिसमें मनुष्य नहीं अदृश्य का साझा है
तुम सब चतुर और चमत्कारी
बहुमत यही है- ऐसा ही सब करते
(कितनी शक्ति है इस स्थिति में ।)
जिससे भिन्न सोचते ही
मैं विधर्मी हो जाता हूं
किसी बहुत बड़ी संख्या से घटा दिया जाता हूं
इस तरह
कि शेष समर्थ बना रहता ग़लत भी
एक सही भी, अनर्थ हो जाता है।

सामूहिक अनुष्ठानों के समवेत मंत्र-घोष
शंख-स्वरों पर यंत्रवत हिलते नर-मुंड आंखें मूंद...
इनमें व्यक्तिगत अनिष्ठा
एक अनहोनी बात
जिसके अविश्वास से
मंत्र झेंपते हैं, देवता मुकर जाते, वरदान भ्रष्ट होते।
तुम जिनसे मांगते हो
मुझे उनकी मांगों से डर लगता है ।
इस समझौते और लेनदेन में कहीं
व्यक्ति के अधिकार नष्ट होते...
अंधेरे में "जागते रहो" अभ्यस्त आवाजों से
सचेत करते रहते पहरेदार, नैतिक आदेशों के
पालतू मुहावरे सोते-जागते कानों में : साथ ही
एक अलग व्यापार ईमान के चोर-दरवाजों से ।

मनुष्य स्वर्ग के लालच में
अक्सर उस विवेक तक की बलि दे देता
जिस पर निर्भर करता
जीवन का वरदान लगना ।

मैं जिन परिस्थितियों में जिंदा हूं
उन्हें समझना चाहता हूं- वे उतनी ही नहीं
जितनी संसार और स्वर्ग की कल्पना से बनती हैं
क्योंकि व्यक्ति मरता है
और अपनी मृत्यु में वह बिलकुल अकेला है
विवश
असान्त्वनीय।

एक नग्नता है नि:संकोच
खुले आकाश की
शरीर की अपेक्षा ।
शरीर हवा में उड़ते वस्त्र आसपास
मैं किसी आदिम निर्जनता का असभ्य एकांत
जितना ढंका उससे कहीं अधिक अनावृत्त
घातक, अश्लील सच्चाइयां
जिन्हें सब छिपाते
पर जिनसे छिप नहीं पाते ।
इन्द्रासन का लोभ
प्रत्येक जीवन,
मानो किसी असफल षड्यंत्र के के बाद
पूरे संसार की निर्मम हत्या है ।

एक आत्मीय सम्बोधन-तुम्हारा नाम,
स्मृति-खंडों के बीच झलकता चितकबरा प्रकाश
एक हंसी बंद दरवाज़ों को खटकटाती है
सुबह किसी बच्चे की किलकारी से तुम जागे हो, पर
आंखें नहीं खोलते उसके उत्पात ने तुम्हें विभोर
कर दिया है : पर, नया दिन, आलस्य की करवटों से
टटोलते - तुम नहीं देखते कि यह दूसरा दिन है
और वह बालक जिसने तुम्हें जगाया, अब बालक नहीं
प्यार अब पर्याप्त नहीं
न जाने कितनी वृत्तियों में उग आया, वह
तुम्हारा विश्वबोध और अपना।
भिन्न, प्रतिवादी, अपूर्व....
अब उसे स्वीकारते तुम झिझकते हो,
उसे स्थान देते पराजित
उसे उत्तर देते लज्जित
 

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