कुँवर नारायण की कविता संग्रह: वाजश्रवा के बहाने - कवयो मनीषा

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Vaajshrava Ke Bahane - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: वाजश्रवा के बहाने - कवयो मनीषा

कवयो मनीषा
अपनी ही एक रचना को
सन्देह से देखते हुए पूछता है रचनाकार
“क्या तुम पहले कभी प्रकाशित हो चुकी हो ?”

रचना ने पहले अपनी ओर
फिर अपने चारों ओर प्रकाशित
प्रभा-मंडल की ओर देखा; फिर
अपने चारों ओर फैले अँधेरों के पार
दूर पास चमकते
एक से अधिक संसारों की सम्भावनाओं को
देख कर उत्तर दिया-

“मैं संगृहीत हूँ अब
रचनाओं के महाकोश में,
मुझे 'कवि' या 'कविता' के
प्रथम अक्षर 'क' से
कहीं भी खोजा जा सकता है।”

(कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्‌ हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥
--ऋग्वेद सृष्टि ( प्रजापति सूक्त) 10/129)

जोथा किन्तु प्रकट न था
प्रकाशित हुआ

मन-और-बुद्धि के संयोग से
रूपायित होती एक कृति,
फैलतीं जीवन की शाखाएँ. प्रशाखाएँ
अपने वैभिन्‍नय
और एकत्व में।

यह सब कैसे हुआ-
अनायास ?
सायास ?
अकारण ?
सकारण ?

क्या यह सब अभी भी हो रहा है
उसी तरह निरन्तर-अनन्तर-आभ्यन्तर-
अपने पूर्वार्द्ध
या उत्तरार्द्ध में ?

कुछ भी हो सकता है
उन गाढ़े रंगों की चौंध के पीछे
एक उड़ते हुए बहुरंगी पक्षी की आत्मा
या एक बेचैन पल में
फड़फड़ाता नीलाकाश

या कुछ भी नहीं,
केवल एक विरोधाभास
कि नीला नहीं
पारदर्शी है आकाश,
और घासफूस के पक्षी पर
मढ़ा है
उड़ते रंगों का मोहक लिबास।
तत्त्वदर्शी देखता है एक मरीचिका की अवधि में
प्यास को अथाह हो जाते एक बूँद की परिधि में

जीवित था एक स्पन्द
जिसके साँस लेते ही
साँस लेने लगी है सम्पूर्ण प्रकृति

उसका रुदन जैसे एक स्तवन से
गूँज उठा हो भुवन का कोना-कोना
वह छा गया है आक्षितिज
व्योम से भी परे तक
प्रदीप्त हैं
लोक परलोक

देखने लगा है संसार
हज़ारों आँखों से,
सोचने लगा है मनुष्य
हज़ारों सिरों से,
काम से लग गये हैं हज़ारों हाथ,
चलने लगा है जीवन हज़ारों पाँवों से,
उड़ने लगी हैं आकांक्षाएँ
हज़ारों पंखों से

कोई तो है
जिसकी हलचलों से भर उठा है
इस खालीपन का कोना-कोना
उसका देखना निमन्त्रित करता है
एक निश्चेष्ट जगत को।

एक आह्लाद की ऊर्जा दौड़ जाती है नसों में
एक नयी उमंग से
झंकृत हो उठता है तन मन

..वह लौट आया है, आज
जो चला गया था कल
वही दिन नहा धो कर
फिर से शुरू हो रहा है
सृष्टि का पहला-पहला दिन

वह जो था-है
अहर्निश
न प्राचीन न अद्यतन
केवल सोता जागता।

शायद नहीं जानता था विधाता भी
अपने विधान से पहले
कि वह एक निर्माता है

(सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्‌।
स भूमिं विश्वतो वृत्वाउत्यतिष्ठद्दशांगुलम्‌॥
--ऋग्वेद ( पुरुषसूक्त) 10/90)

एक संयोग में बन्द
जीवन-मकरन्द
एक स्पन्द मात्र
जब फूट कर
प्रस्फुटित हुआ होगा एक बीज से

प्रकट होते ही उसने पूछा होगा
आश्चर्यचकित
अपनी ही सृष्टि से
कौन था वह सर्वप्रथम
अपने उजाले से भी कहीं अधिक उज्ज्वल ?
कौन था उसका रक्षक?
कौन था सुरक्षित ?-एक जीवाश्म में
सूत्रबद्ध सम्पूर्ण जीव-जगत की लीला में
शब्दों और अंकों की
अक्षय सांकेतिका का अभियन्ता ?

वह प्रथम पुरुष--एक अविभक्त 'मैं'
विभाजित हुआ होगा स्वेच्छा से
'स्व' और 'अन्य' में, कर्ता और कर्म में,
प्रकट हुआ होगा दो अर्धांगों में-
अपने पूर्व वैविध्य और सामाजिकता में
पुरुष और स्त्री

वह जितना अपनी ओर खिंचा हुआ
उतना ही
पृथ्वी पर झुका हुआ,
अपने चारों ओर घूमता
एक ही समय में
आधा दिन आधी रात
एक विशाल हिम-पर्वत की तरह
जितना दिखाई देता जल के बाहर
उससे कहीं अधिक निमग्न
जल में

जितना प्रत्यक्ष उससे कहीं अधिक परोक्ष

प्रमाणित से कहीं अधिक अनुमानित
कौन है वह ?
 

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