कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - वह कभी नहीं सोया

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Apne Saamne - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - वह कभी नहीं सोया

वह कभी नहीं सोया
वह जगह
जहाँ से मेरे मन में यह द्विविधा आई
कि अब यह खोज हमें आगे नहीं बढ़ा पा रही
मेरे घर के बिल्कुल पास ही थी।

वह घाटी नहीं तलहटी थी
जिसे हमने खोद निकाला था-
और जिसे खोद निकालने की धुन में
हम सैकड़ों साल पीछे गड़ते चले जा रहे थे
इतनी दूर और इतने गहरे
कि अब हमारी खोज में हमें ही खोज पाना मुश्किल था।

शायद वहीं एक सभ्यता का अतीत हमसे विदा हुआ था
जहाँ साँस लेने में पहली बार मुझे
दिक़्क़त महसूस हुई थी
और मैं बेतहाशा भागा था
उस ज़रा-से दिखते आसमान, वर्तमान और खुली हवा की ओर
जो धीरे-धीरे मुँदते चले जा रहे थे।

एक खोज कहाँ से शुरू होती और कहाँ समाप्त
इतना जान लेने के बाद क्या है और क्‍या नहीं
यहीं से शुरू होती आदमी की खोज,
उसकी रोज़मर्रा कोशिश
कि वह कैसे ज़िन्दा रहे उन तमाम लड़ाईयों के बीच
जो उसकी नहीं-जो उसके लिए भी नहीं-जिनमें
वह न योद्धा कहलाए न कायर,
केवल अपना फर्ज़ अदा करता चला जाए
ईमानदारी से
और फिर भी अपने ही घर की दीवारों में वह
ज़िन्दा न चुनवा दिया जाए।

वह अचानक ही मिल गया।
कुछ निजी कारणों से उसने
अपना नाम नहीं केवल नम्बर बताया।
इतिहास देखकर जब वह वर्षों ऊब गया
उसने अपने लिए क़ब्रनुमा एक कमरा बनाया
और एक बहुत भारी पत्थर को ओढ़कर सो गया।

वह फिर कभी नहीं जागा, यद्यपि उसे देखकर लगता था
कि वह कभी नहीं सोया था। उस ठण्डी सीली जगह में
उसकी अपलक आँखों का अमानुषिक दबाव, उसकी आकृति,
उसकी व्यवहारहीन भाषा-कुछ संकेत भर शेष थे
कि वह पत्थर नहीं आदमी था
और हज़ारों साल से आदमी की तरह
ज़िन्दा रहने की कोशिश कर रहा था।
 

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