कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - समुद्र की मछली

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Apne Saamne - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - समुद्र की मछली

समुद्र की मछली
बस वहीं से लौट आया हूँ हमेशा
अपने को अधूरा छोड़कर
जहां झूठ है, अन्याय, है, कायरता है, मूर्खता है-
प्रत्येक वाक्य को बीच ही में तोड़-मरोड़कर,
प्रत्येक शब्द को अकेला छोड़कर,
वापस अपनी ही बेमुरौवत्त पीड़ा के
एकांगी अनुशासन में
किसी तरह पुनः आरंभ होने के लिए।

अखबारी अक्षरों के बीच छपे
अनेक चेहरों में एक फक् चेहरा
अपराधी की तरह पकड़ा जाता रहा बार-बार
अद्भुत कुछ जीने की चोर-कोशिश में :
लेकिन हर सजा के बाद वह कुछ और पोढ़ा होता गया,
वहीं से उगता रहा जहाँ से तोड़ा गया,
उसी बेरहम दुनिया की गड़बड़ रौनक में
गुंजायश ढूँढ़ता रहा बेहयाई से जीने की। किसी तरह
बची उम्र खींचकर दोहरा ले
एक से दो और दो से कई गुना या फिर
घेरकर अपने को किसी नए विस्तार से
इतना छोटा कर ले जैसे मछली
और इस तरह शुरू हो फिर कोई दूसरा समुद्र...
 

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