सबीना
मैं नहीं जानता उसका अतीत
उसका राष्ट्र
नहीं जानता कब हुआ उसका जन्म
कब हुई वह जवान
कब होगी बूढ़ी
कब होगा उसका अन्त...
उसके कमरे की खिड़की से दिखता है केवल
दूर-दूर तक फैला उसका वर्तमान
हर समय झिलमिलाती एक उज्ज्वल सतह :
वह एक झील है
पहाड़ों से घिरी
उसकी आँखें आसमानी
उसका नाम है सबीना...
****
बिल्कुल अपने ढंग की
अकेली है वह-
जैसे झील के बीच
सन्त पावलो का द्वीप,
जैसे पहाड़ की चोटी पर
चेरियोला का गिरजाघर,
पहाड़ों की गागर में
एक छोटा-सा सागर-
मृत्यु की तरह पुरातन
जीवन की तरह सनातन,
एक अपराजित साहस है वह :
लिखते नहीं बनती जो
ऐसी एक कविता का
शीर्षक है सबीना...
***
सात समुद्र पार से
आती है उड़ कर
प्रतिवर्ष भारत में
एक घूमन्तू चिड़िया :
बैठ जाती है किसी भी डाल पर
और उसे ही मान लेती है अपना घर :
उड़ती फिरती
दिखायी देती है कुछ दिन-
चहकती बोलती
सुनायी देती है कुछ दिन-
फिर लौट जाती है एक दिन
अपनी झील के किनारे...
हमारे देश की एक ऋतु
एक बोली है सबीना!
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