कुँवर नारायण की कविता संग्रह: परिवेश : हम-तुम - अजामिल-मुक्ति

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Parivesh : Hum-Tum - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: परिवेश : हम-तुम - अजामिल-मुक्ति

अजामिल-मुक्ति
इस राज के सम्राट,
ओ ऋतुराज!
मेरे स्वप्न के आलोक-मंडित गुम्बदों को
चूम कर आयी हवा तुमको जगाती है :
(उसे क्‍या नाम दूँ?)

किसी प्रस्तावना की अप्सरा-छाया
अभी तक गर्म है आसंग से तेरे,
पड़ी अर्धांगिनी माया लजाती है।
(इसे क्‍या नाम दूँ?)

किरण-वल्गा सँभालो,
विहग उड़ते अश्व-
सीमाएँ न अपनी अवधि की ही तोड़कर उड़ जाएँ!
मुट्ठी भर सुनहले फूल
उस फूली लता पर खिलखिलाते,
डोलता मानो चंवर
खाली सिंहासन पर।
अनंग ऋतुराज,
हर पतझार में तुम याद आते हो।
(तम्हें क्या नाम दूँ?)

ओ मधुमक्खियों,
आनन्द की छलिया पंखुड़ियों पर
लुढ़क कर सोखतीं मकरन्द छवि-किंजल्क पर बेहोश,
प्रतिद्वन्द्वी तुम्हरी-खोमचे पर भिनभिनाती मक्खियाँ
सस्ती मिठाई पर भिड़ी :
या सिर्फ दुर्गति पर अड़ी।
(उन्हें क्या नाम दूँ?)

चाहे गगन का राह,
चाहे राह चलते,
बीत जाते स्वप्न सोते-जागते :
पर, शब्द....
लाखों स्वप्न के संसर्ग से उत्पन्न अक्षय नाम,
जो तुम मर्म बनकर
मोह के हर संस्करण पर छूट जाओगे,
असंगत नाम!
दैनिक वाङ्मय में किसी विश्वातीत के सुचक
मरण के पूत क्षण में याद आओगे,
हमारे पास कितने सुक्ष्म अर्थों में
अजामिल-मुक्ति लाओगे
 

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