कुँवर नारायण की कविता संग्रह: परिवेश : हम-तुम - घबराहट

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Parivesh : Hum-Tum - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: परिवेश : हम-तुम - घबराहट

घबराहट
आसमान चट्टान-सा बोझिल,
जगह जगह रोशनी के बिल,
और एक धड़कता हुआ छोटा-सा दिल...

फ़र्श पर खून के ताज़े निशान।
खिड़की पर मुँह रखकर झाँक रहा बियाबान।
आँखों पर पड़ी हुई अँधेरे की सिल्लियाँ।
बाहर बरामदे में लड़ती हुई बिल्लियाँ।

पूर्व ते हवा का एक तेज़ झोंका।
सहमा हुआ आसपास चौंका।

हवा घर से होकर कुछ इस तरह निकली
गोया कि पूरे मकान ने एक गहरी साँस ली।

सांपों की तरह काले बादल छाने लगे,
तारों को बीन कर खाने लगे।

बिजली की एक चमक
फिर एक धमक
इतनी भयानक
जैसे मीलों तक
बादल नहीं शीशे का एक समुद्र लटका हो
जो किसी पहाड़ से टकरा कर अभी अभी चिटका हो।

बेतहाशा चारों ओर
पानी गिरने का शोर।
एकाएक मुझे कुछ ऐसा एहसास हुआ
जैसे किसी ने आहिस्ता से सांकल को छुआ :
और एक अपरिचित आवाज़ ने पुकारा...
मैं चुप रहा।
दुबारा।
तिबारा।
एक अज्ञात भय यह कहता रहा कि दरवाज़ा न खोलूँ :
इसी में ख़ैरियत है कि चुप पड़ा रहूं-न बोलूँ।
क्या पता आदमी ऊपर से ठीक-ठाक हो
लेकिन अन्दर से भेड़िये-सा खतरनाक हो!

मैं दम साधे पड़ा रहा :
आगन्तुक पानी में खड़ा रहा।
मैं चाहता था वह हार कर चला जाए :
दरवाज़े से किसी तरह आई हुई बला जाए!

अब बिल्कुल शान्ति थी।
लेकिन, मन में एक अजीब क्रान्ति थी!
आदमी के वेश में जानवर
इससे ज्यादा घातक-यह डर!!

सारी परिस्थिति की एक और भी सूरत थी-
शायद उस आदमी को मदद की ज़रूरत थी।
 

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