कुँवर नारायण की कविता संग्रह: कोई दूसरा नहीं - एक जन्मदिन जन्मस्थान पर...

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Apne Saamne - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: कोई दूसरा नहीं - एक जन्मदिन जन्मस्थान पर...

एक जन्मदिन जन्मस्थान पर...
क़स्बे की साँझ, बुझे कण्डों का धुआं,
बल्‍बों की फुन्सियाँ जल उठीं यहाँ वहाँ।
अभी गये साल यहाँ आई है बिजली-
लेकिन बस एक सड़क छूते हुए निकली :
कुत्ता-लोट सड़कें और कौव्वों की काँव-काँव,
धूल भरे चौराहे पूछ रहे नाम गाँव...

घोड़ी बेच घिर्राऊ रिक्शा ले आये,
इक्का-दिन बीते अब रिक्शा-दिन आये :
एक जून दाल भात, एक जून चना,
भरते पेट घोड़ी का कि भरते पेट अपना :
जान लिए लेती है रिक्शा खिंचाई,
बाक़ी कमर तोड़ रही बढ़ती महँगाई।

यादों की पगडण्डी, खेतों की मेड़-मेड़
कुएँ की जगत पर पीपल का वही पेड़...
पेड़ तले पंडित सियाराम का मदरसा
लगता था तब भी पंडिताइन के घर-सा :
वही अंकगणित और वही वर्णमाला-
चलती है सृष्टिवत्‌ उनकी कार्यशाला :
वह सादा जीवन जो अनायास बीत गया
कितने निर्द्वन्द्व भाव एक युद्ध जीत गया :
रुधे कण्ठ, भरी आँख, उनका आशीर्वाद-
"कैसे हो बेटे तुम? दिखे बहुत दिनों बाद..."
वही तो चौक है-वही तो बजाजा है-
वैसी ही भीड़भाड़, वैसी ही आ जा है :
गेहूँ की बोरी से टेक लगाये, अधलेटा,
भज्जामल अढ़तिये का सिड़बिल्ला बेटा,
वैसे तो जनमजात तुतला और बैला था
पर इससे क्‍या होता-रुपयों का थैला था!
नुक्कड़ पर दीख गये बूढ़े इरफ़ान मियाँ,
सब उनको प्यार से कहते हैं "बड़े मियाँ" :
बाबा के जिगरी दोस्त, गाँव के बुजुर्गवार,
झगड़ों मुक़द्दमों में सबके सलाहकार...
मेरे आदाब पर दिल से दुआएँ दीं,
सेहत के बारे में एक दो सलाहें दीं।
बापू की 'बेटा' सुन आँखें भर आई-
नीम के झरोखों में सिसकी पुरवाई :
"बेटा घर आया है", कहने को होंठ हिले
पर शायद इतना भी कहने को न शब्द मिले!
एक वृक्ष वंचित ज्यों अपनी ही छाया से-
उदासीन होता मन अपनी ही काया से।
ताड़ों पर झूलते पतंग-दिन बचपन के;
बीत रहे बुआ के विधवा-दिन पचपन के।
अम्मा की ऐनक पर बरसों की जमी धूल,
रखा रामायण पर गुड़हल का एक फूल :
दोने से निकाल कर प्रसाद दिया मंगल का,
आँखों से प्यार लगा अब छलका तब छलका :
आँचल क्‍यों बार बार आँखों तक जाता है?
आँसू का खुशियों से यह कैसा नाता है :
कभी उसे वही, कभी बदल गया लगता हूँ,
कभी कुछ दुबला तो कभी थका लगता हूँ-
"ज़रा देर लेट ले-सफ़र की थकान है-''
"ठीक हूँ अम्मा, तू नाहक परेशान है..."
बहन को देख कर अम्मा ने आह भरी-
"छब्बिस की हो गई इस असाढ़ माधुरी,"
कहने लगीं, आले पर रखते हुए लालटेन,
"दस बीघा खेती है, थोड़ी-बहुत लेनदेन,
तीस की माँग थी, पच्चिस पर माने हैं,
बाक़ी हाल घर का तू खुद ही सब जाने है।
लड़की का भाग्य-कौन जाने क्‍या होना है-
भरेगी माँग या अभी और रोना है..."

"मुझे नहीं करना है उस घुघ्घू से शादी,
कुछ माने रखती है मेरी भी आज़ादी!
सबको बस एक फ़िक्र रातदिन सुबहशाम,
लड़की सयानी हुई, शादी का इंतज़ाम-
एक रस्म जल्दी-से-जल्दी निबाह दो
लड़की का मतलब है किसी तरह ब्याह दो :
मुझ पर ही रहने दो तुम सब मेरा जिम्मा,
पढ़ी लिखी हूँ मैं भी, कुछ कर सकती हूँ अम्मा..."
कहने को कह डाला, फिर सहसा फूट पड़ी,
बिजली-सी कड़की और वर्षा-सी टूट पड़ी,
सबको डरा कर फिर ख़ुद ही से डर गई,
घबराई बिल्ली-सी इधर गई उधर गई...

मैंने कहा हँसते हुए, "लगता ये सिरफिरी
सचमुच अब छब्बिस की हो गई माधुरी-
जल्दी यदि तूने कुछ किया नहीं तो अम्मा
अपने सिर ले लेगी दुनिया भर का जिम्मा!"

मुझे देख आँखों की बुझती गोधूली में
बाबा ने टटोला कुछ यादों की झोली में-
"हम में से एक को अकेले भी रहना था,
अच्छा है इस दुख को उसे नहीं सहना था..."

और फिर घिर आई पूर्ववत्‌ उदासी...
बाबा ने इसी साल पूरे किये इक्यासी।
बच्चा अधनींद में "अम्मा' चिल्ला पड़ता,
अपने ही सपनों से अपना ही भय लड़ता :
सोते में लांघ गई शायद बिस्तुइया,
असगुन सोच सिहर गई भीरुचित मैय्या!

दौड़ रहे भइया किसी डाके की गवाही में,
लेना न देना कुछ, ख़ामख़्वाह तबाही में।
भइया को पुलिस ने बुलाया है थाने,
क्या दुर्गति हो उनकी राम जी जानें।

बोले दरोगा जी, "सोच लो रमेश्वर
दुनिया नहीं चलती है खाली ईमान पर,
होते दो-चार ही गांधी से मानव
बाकी आम लोग तो न देवता न दानव,
मामूली लोग हम, छोटी-सी ज़िन्दगी,
क्या हमें सफ़ाई और क्या हमें गन्दगी,
हमको तो किसी तरह पापी पेट भरना है
थाने और घर के बीच गुज़र बसर करना है।"

सिर पकड़े सोच रहे हम भी भइया भी
इस जीवन-दर्शन की यह कैसी चाभी!
थाने से लगा एक घोसी का अहाता
दूध और पानी का सदियों से नाता।

ज्यों ही कमरे से बाहर मुँह निकाला
लिपट गया मुँह भर पर मकड़ी का जाला!
आपे से बाहर हो भइया चिल्लाये-
"ऐसी गवाही से बेहतर है मर जाये!"
"भइया, इस गुस्से की नैतिक औक़ात से
कहाँ कहाँ भिड़िएगा? किस किस की बात से?
आँखें मूँद सो रहिए, ऐसी ही दुनिया है,
अपना भी कूटुम्ब है-मुन्ना है, मुनिया है..."
"मेरे ही दुर्दिन हैं, उनका तो क्या होना,
लेकिन मुँह ढांक कर ऐसा भी क्या सोना!
आज नहीं कल सही-लड़ना तो होगा ही-
कहाँ तक न बोलेगी आख़िर बेगुनाही ?"...

दिल्ली में दो कमरे : सपनों में गाँव :
कभी इस पाँव खड़े कभी उस पाँव :
यह कैसा दिशा-बोध घबराया घबराया-
यह चेहरा बदहवास, वह चेहरा कुम्हलाया..
 

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