कुँवर नारायण की कविता संग्रह: इन दिनों - एक जले हुए मकान के सामने

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In Dino - Kunwar Narayan

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एक जले हुए मकान के सामने
शायद वह जीवित है अभी, मैंने सोचा।
उसने इन्कार किया-
मेरा तो कत्ल हो चुका है कभी का !

साफ़ दिखाई दे रहे थे
उसकी खुली छाती पर
गोलियों के निशान।

तब भी-उसने कहा-
ऐसे ही लोग थे, ऐसे ही शहर,
रुकते ही नहीं किसी तरह
मेरी हत्याओं के सिलसिले।

जीते जी देख रहा हूँ एक दिन
एक आदमी को अनुपस्थित-
सुबह-सुबह निकल गया है वह
टहलने अपने बिना
लौटकर लिख रहा है
अपने पर एक कविता अपने बरसों बाद
रोज़ पढ़ता है अख़बारों में
कि अब वह नहीं रहा
अपनी शोक-सभाओं में खड़ा है वह
आँखें बन्द किए-दो मिनटों का मौन।

भूल गया है रास्ता
किसी ऐसे शहर में
जो सैकड़ों साल पहले था।

दरअसल कहीं नहीं है वह
फिर भी लगता है कि हर जगह वही है
नया-सा लगता कोई बहुत पुराना आदमी
किसी गुमनाम गली में
एक जले हुए मकान के सामने
खड़ा हैरान
कि क्या यही है उसका हिन्दुस्तान ?

सोच में पड़ गया है वह
इतनी बड़ी रोशनी का गोला
जो रोज़ निकलता था पूरब से
क्या उसे भी लील गया कोई अँधेरा ?
 

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