कुँवर नारायण की कविता संग्रह: चक्रव्यूह - बीज, मिट्टी और खुली जलवायु

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Chakravyuh : Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: चक्रव्यूह - बीज, मिट्टी और खुली जलवायु

बीज, मिट्टी और खुली जलवायु
ज़िन्दगी की कुछ जड़ें हैं
जो सहज ही जकड़ लेतीं भूमि,.
कुछ फैलाव भी है
माँगते जो प्रतिक्षण आकाश।

ज्योति की चंचल उँगलियां
खोल सकतीं कहीं तम में बन्द
आदिम प्रस्फुटन के द्वार...
दास, जब तुम किसी को आराध्य करते हो,
तुम मुझे कुछ सोचने पर बाध्य करते हो...

पूज्य मिट्टी है मगर पत्थर नहीं,
कर्मभोगी आदमी बंजर नहीं,
मत इनसान को शिशु भयों से घेरो,
उसे पूरी तरह तम से निकलने दो;

कुछ चमकता है स्वर भगवान-सा, पाकर प्रकाश!
चेतना का न्यून अंकुर,
मनुजता की सहज मर्यादा,
उपजने दो खुली सन्तुष्ट, रस जलवायु में,
क्योंकि विकसित व्यक्ति ही वह देवता है
इतर मानव जिसे केवल पूजता है;
आँक लेगा वह पनप कर
विश्व का विस्तार अपनी अस्मिता में,...
सिर्फ उसकी बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो।
 

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