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हिंदी कविता
Apne Saamne - Kunwar Narayan
कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - आपद्धर्म
आपद्धर्म
कभी तुमने कविता की ऊँचाई से
देखा है शहर?
अच्छे-भले रंगों के नुकसान के वक़्त
जब सूरज उगल देता है रक्त।
बिजली के सहारे रात
स्पन्दित एक घाव स्याह बक्तर पर।
जब भागने लगता एक पूँछदार सपना
आँखों से निकलकर
शानदार मोटरों के पीछे। वह आती है
घर की दूरी से होटल की निकटता तक
लेकिन मुझे तैयार पाकर लौट जाती है
मेरा ध्यान भटकाकर उस अँधेरे की ओर
जो रोशनी के आविष्कार से पहले था।
उसकी देह के लचकते मोड़,
बेहाल सड़कों से होकर अभी गुज़रे हैं
कुछ गए-गुज़रे देहाती ख्याल, जैसे
पनघट, गोरी, बिन्दिया बगैरह
और इसी अहसास को मैंने
अक्सर इस्तेमाल से बचाकर
रहने दिया कविता की ऊँचाई पर,
और बदले में मोम की किसी
सजी बनी गुड़िया को
बाहों में पिघलने दिया।
जलते-बुझते नीऑन-पोस्टरों की तरह
यह सधी-समझी प्रसन्नता!
सोचता हूँ।
इस शहर और मेरे बीच
किसकी ज़रूरत बेशर्म है?-
एक ओर हर सुख की व्यवस्था,
दूसरी ओर प्यार आपद्धर्म है।
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