कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - आदमी अध्यवसायी था

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Apne Saamne - Kunwar Narayan

कुँवर नारायण की कविता संग्रह: अपने सामने - आदमी अध्यवसायी था

आदमी अध्यवसायी था
आदमी अध्यवसायी था' अगर
इतने ही की जयन्ती मनाकर
सी दी गई उसकी दृष्टि
उसके ही स्वप्न की जड़ों से। न उगने पाई
उसकी कोशिशें। बेलोच पत्थरों के मुक़ाबले
कटकर रह गए उसके हाथ

सो कौन संस्कार देगा
उन सारे औज़ारों को
जो पत्थरों से ज्यादा उसको तराशते रहे।
चोटें जिनकी पाशविक खरोंच और घावों को
अपने ऊपर झेलता
और वापस करता विनम्र कर
ताकि एक रूखी कठोरता की
भीतरी सुन्दरता किसी तरह बाहर आए।

उसको छूती आँखों का अधैर्य कि वह पारस क्यों नहीं
जो छूते ही चीज़ों को सोना कर दे? क्‍यों खोजना पड़ता है
मिथकों में, वक्रोक्तियों में, श्लेषों में, रूपकों में
झूठ के उल्टी तरफ़ क्‍यों इतना रास्ता चलना पड़ता है
एक साधारण सच्चाई तक भी पहुँच पाने के लिए?
 

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