Mirza Ghalib Famous Sher | मिर्ज़ा ग़ालिब के मशहूर शेर
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
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वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं
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आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना
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दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक
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बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
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कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए
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हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िंदगी हमारी है
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कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
हम को जीने की भी उम्मीद नहीं
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
कहता हूँ सच कि झूट की आदत नहीं मुझे
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'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशीमाँ होना
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
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तुम सलामत रहो हज़ार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है
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रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए
तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता
पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
पियाला गर नहीं देता न दे शराब तो दे
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
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आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
मुझ से मिरे गुनह का हिसाब ऐ ख़ुदा न माँग
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
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जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में
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आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
कोई दिन और भी जिए होते
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और
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जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'
क्यूँ किसी का गिला करे कोई
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है
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ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे
खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला
शेरों के इंतिख़ाब ने रुस्वा किया मुझे
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे
जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बअ'द
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मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
न दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या
या-रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात
दे और दिल उन को जो न दे मुझ को ज़बाँ और
ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ
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जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
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थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मिरे अशआर में मअ'नी न सही
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न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में
क़त्अ कीजे न तअ'ल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या
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हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बे-सबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना
तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना
कौन है जो नहीं है हाजत-मंद
किस की हाजत रवा करे कोई
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए
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इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
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ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
जिस को हो दीन ओ दिल अज़ीज़ उस की गली में जाए क्यूँ
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल-सरा न हुआ
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यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यूँ हो
उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है
न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है
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क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मिरा भला न हुआ
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं
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दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार
लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामा-बर को देखते हैं
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की
रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है
शर्मिंदगी से उज़्र न करना गुनाह का
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फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद'
दोस्ती नादाँ की है जी का ज़ियाँ हो जाएगा
क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था
मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए
दे मुझ को शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
कुछ तुझ को मज़ा भी मिरे आज़ार में आवे
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अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
जो मय ओ नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़-दाँ अपना
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बे-नियाज़ी तिरी आदत ही सही
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं
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दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं
ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
ने हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई न पूछ
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
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है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यूँ न हो
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो
वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तुहूर की
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए
और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया
साग़र-ए-जम से मिरा जाम-ए-सिफ़ाल अच्छा है
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अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
तलाफ़ी की भी ज़ालिम ने तो क्या की
हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ काफ़र नहीं हूँ मैं
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
लेकिन ख़ुदा करे वो तिरा जल्वा-गाह हो
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं
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उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है
पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने
है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
हम ने दश्त-ए-इम्काँ को एक नक़्श-ए-पा पाया
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'
सरगश्ता-ए-ख़ुमार-ए-रुसूम-ओ-क़ुयूद था
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आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुद्दआ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबाँ होना
जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है
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ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूँ
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
वो सुन के बुला लें ये इजारा नहीं करते
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लावेंगे क्या
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही
❤ 💕 ❤
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक
आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता
तुझ पे खुल जावे कि इस को हसरत-ए-दीदार है
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
❤ 💕 ❤
'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किए हुए
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो
❤ 💕 ❤
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़र कहे बग़ैर
किस से महरूमी-ए-क़िस्मत की शिकायत कीजे
हम ने चाहा था कि मर जाएँ सो वो भी न हुआ
बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात मुकर्रर कहे बग़ैर
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की
❤ 💕 ❤
दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
तेरी क़सम का कुछ ए'तिबार नहीं है
बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल
जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला
उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब'
हम भी गए वाँ और तिरी तक़दीर को रो आए
या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए
लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं
❤ 💕 ❤
हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'असद'
आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल
इंसान हूँ पियाला ओ साग़र नहीं हूँ मैं
गुंजाइश-ए-अदावत-ए-अग़्यार यक तरफ़
याँ दिल में ज़ोफ़ से हवस-ए-यार भी नहीं
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे
❤ 💕 ❤
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहाँ अपना
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
वगरना हम तो तवक़्क़ो ज़्यादा रखते हैं
मुनहसिर मरने पे हो जिस की उमीद
ना-उमीदी उस की देखा चाहिए
❤ 💕 ❤
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रियाद आया
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
कि अगर तंग न होता तो परेशाँ होता
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
❤ 💕 ❤
जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती
बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
वो इक निगह कि ब-ज़ाहिर निगाह से कम है
है ख़बर गर्म उन के आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ
हुई जिन से तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से
❤ 💕 ❤
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन
जूँ चराग़ान-ए-दिवाली सफ़-ब-सफ़ जलता हूँ मैं
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
इस क़दर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़्गान-ए-यार था
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सज़ा है
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सँभलने दे मुझे ऐ ना-उमीदी क्या क़यामत है
कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
बात पर वाँ ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या
ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है
हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था
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बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम
उल्टे फिर आए दर-ए-काबा अगर वा न हुआ
सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
पर क्या करें कि दिल ही अदू है फ़राग़ का
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है
काम उस से आ पड़ा है कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम सितम-गर कहे बग़ैर
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हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है
बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
सला-ए-आम है यारान-ए-नुक्ता-दाँ के लिए
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है
मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल 'ग़ालिब'
शेर ने की ये तमन्ना के बने फ़न मेरा
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फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़्सून-ए-इंतिज़ार तमन्ना कहें जिसे
न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता
रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
उस दर पे नहीं बार तो का'बे ही को हो आए
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
कि न समझे वो लज़्ज़त-ए-दुश्नाम
छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं
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दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर ना-हक़
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
हम उस के हैं हमारा पूछना क्या
दम लिया था न क़यामत ने हनूज़
फिर तिरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
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अहल-ए-बीनश को है तूफ़ान-ए-हवादिस मकतब
लुत्मा-ए-मौज कम अज़ सैली-ए-उस्ताद नहीं
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
तन्हा गए क्यूँ अब रहो तन्हा कोई दिन और
तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
मेरा सलाम कहियो अगर नामा-बर मिले
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को
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उम्र भर देखा किए मरने की राह
मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
कि भला चाहते हैं और बुरा होता है
लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवारा की ख़बर
अब तक वो जानता है कि मेरे ही पास है
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए
भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये
हो कर असीर दाबते हैं राहज़न के पाँव
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नज़र लगे न कहीं उस के दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं
दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं
आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वादे वफ़ा किए
हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
वर्ना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़
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ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
यानी बग़ैर-ए-यक-दिल-ए-बे-मुद्दआ न माँग
मुज़्महिल हो गए क़वा ग़ालिब
वो अनासिर में ए'तिदाल कहाँ
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब
इस बलग़मी-मिज़ाज को गर्मी ही रास है
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
उस की हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं
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मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ
वो सितमगर मिरे मरने पे भी राज़ी न हुआ
रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़
आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है
ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
वाक़िआ सख़्त है और जान अज़ीज़
शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर
ब-ख़ुदा तुम ही बता दो नहीं लगता इल्हाम
मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था कि सर याद आया
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गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए
जो लफ़्ज़ कि 'ग़ालिब' मिरे अशआर में आवे
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव
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हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के 'असद'
खुला कि फ़ाएदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
कि मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा
बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
ताक़त ब-क़दर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझाएँगे क्या
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
गर मैं ने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था
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दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम्अ रह गई है सो वो भी ख़मोश है
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से
सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
देने लगा है बोसा बग़ैर इल्तिजा किए
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे
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रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
गर हया भी उस को आती है तो शरमा जाए है
शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश
सहरा में ऐ ख़ुदा कोई दीवार भी नहीं
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
अक़्ल कहती है कि वो बे-मेहर किस का आश्ना
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या
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तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं
है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबला-नुमा कहते हैं
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
कटे ज़बान तो ख़ंजर को मरहबा कहिए
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
फ़रमाँ-रवा-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान है
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर बिखर गई
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है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला
है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद
हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
मैं और जाऊँ दर से तिरे बिन सदा किए
बे-पर्दा सू-ए-वादी-ए-मजनूँ गुज़र न कर
हर ज़र्रा के नक़ाब में दिल बे-क़रार है
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही
सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया कि यूँ
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ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिए
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
हम को तक़लीद-ए-तुनुक-ज़र्फ़ी-ए-मंसूर नहीं
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और
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ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से
कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना
है यूँ कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है
मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ
माना कि तेरे रुख़ से निगह कामयाब है
हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ
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वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मेरे आगे
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का
ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ
लोग नाले को रसा बाँधते हैं
मैं अदम से भी परे हूँ वर्ना ग़ाफ़िल बार-हा
मेरी आह-ए-आतिशीं से बाल-ए-अन्क़ा जल गया
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ऐ नवा-साज़-ए-तमाशा सर-ब-कफ़ जलता हूँ मैं
इक तरफ़ जलता है दिल और इक तरफ़ जलता हूँ मैं
पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर
चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद'
आप की सूरत तो देखा चाहिए
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कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
यही नक़्शा है वले इस क़दर आबाद नहीं
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर
तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल
मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़
इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं
पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं
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ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है
जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम
मैं मो'तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं
ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को
विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना
हज़ार बार तू जा सद-हज़ार बार आ जा
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पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए
है क्या जो कस के बाँधिए मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
रखता है ज़िद से खींच के बाहर लगन के पाँव
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
दशना इक तेज़ सा होता मिरे ग़म-ख़्वार के पास
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गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़
पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है
इक नौ-बहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़रोग़-ए-मय से गुलिस्ताँ किए हुए
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
कभी मेरे गरेबाँ को कभी जानाँ के दामन को
मुँह न दिखलावे न दिखला पर ब-अंदाज़-ए-इताब
खोल कर पर्दा ज़रा आँखें ही दिखला दे मुझे
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
रू सू-ए-क़िबला वक़्त-ए-मुनाजात चाहिए
❤ 💕 ❤
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर
न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
गरचे दिल खोल के दरिया को भी साहिल बाँधा
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
तू वो नहीं कि तुझ को तमाशा करे कोई
हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई
दिल में फिर गिर्ये ने इक शोर उठाया 'ग़ालिब'
आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला
❤ 💕 ❤
यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब' तो ऐ अहल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं
फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया
कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँकर हो
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
हम औज-ए-ताला-ए-लाला-ओ-गुहर को देखते हैं
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गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँकर हो
मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
करे क़फ़स में फ़राहम ख़स आशियाँ के लिए
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
लरज़े है मौज-ए-मय तिरी रफ़्तार देख कर
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
अजब आराम दिया बे-पर-ओ-बाली ने मुझे
है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर
याँ क्या धरा है क़तरा ओ मौज-ओ-हबाब में
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जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल
दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे
मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश
तू और एक वो ना-शुनीदन कि क्या कहूँ
लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हनूज़
लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
ख़ून-ए-जिगर में एक ही ग़ोता दिया मुझे
की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा
आवे न क्यूँ पसंद कि ठंडा मकान है
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नश्शा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
मस्त कब बंद-ए-क़बा बाँधते हैं
शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
लोग कहते हैं कि है पर हमें मंज़ूर नहीं
ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना
यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही सामने तेरे आए क्यूँ
❤ 💕 ❤
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त
हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त
देखा कि वो मिलता नहीं अपने ही को खो आए
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम
आप उठा लेते हैं गर तीर ख़ता होता है
हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
दुआ क़ुबूल हो या रब कि उम्र-ए-ख़िज़्र दराज़!
नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का
❤ 💕 ❤
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी
इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उर्यां होना
निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम
ले लिया मुझ से मिरी हिम्मत-ए-आली ने मुझे
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Mirza Ghalib) #icon=(link) #color=(#2339bd)