Gopal Das Neeraj Geetika

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gopaldas-neeraj
गीतिका गोपालदास नीरज(toc)

खुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की - Gopal Das Neeraj

खुशबू-सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की,
खिड़की खुली है ग़ालिबन उनके मकान की
 
हारे हुए परिन्दे ज़रा उड़ के देख तो,
आ जायेगी ज़मीन पे छत आसमान की
 
बुझ जाये सरेशाम ही जैसे कोई चिराग़,
कुछ यूँ है शुरुआत मेरी दास्तान की
 
ज्यों लूट लें कहार ही दुल्हन की पालकी,
हालत यही है आजकल हिन्दोस्तान की
 
औरों के घर की धूप उसे क्यूँ पसंद हो
बेची हो जिसने रौशनी अपने मकान की
 
जुल्फ़ों के पेंचो-ख़म में उसे मत तलाशिये,
ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की
 
'नीरज' से बढ़कर और धनी कौन है यहाँ,
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की
 

अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई - Gopal Das Neeraj

अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई ।
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई ।
 
आप मत पूछिये क्या हम पे सफ़र में गुज़री ?
था लुटेरों का जहाँ गाँव वहीं रात हुई ।
 
ज़िंदगी भर तो हुई गुफ़्तुगू ग़ैरों से मगर
आज तक हमसे हमारी न मुलाकात हुई ।
 
हर ग़लत मोड़ प' टोका है किसी ने मुझको
एक आवाज़ तेरी जब से मेरे साथ हुई ।
 
मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है
एक क़ातिल से तभी मेरी मुलाक़ात हुई ।
 

हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे - Gopal Das Neeraj

हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे ।
होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे ।
 
इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे ।
 
वो न ज्ञानी, न वो ध्यानी, न बरहमन, न वो शैख,
वो कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे ।
 
इक सदी तक न वहाँ पहुँचेगी दुनिया सारी
एक ही घूँट में मस्ताने जहाँ तक पहुँचे।
 
एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द ज़बाँ,
कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे ।
 
चाँद को छू के चले आए हैं विज्ञान के पंख,
देखना ये है कि इन्सान कहाँ तक पहुँचे ।
 

कि दूर-दूर तलक एक भी दरख़्त न था - Gopal Das Neeraj

...कि दूर-दूर तलक एक भी दरख़्त न था ।
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख़्त न था ।
 
हम इतने लीन थे तैयारियों में जाने की
वो सामने थे, उन्हें देखने का वक़्त न था ।
 
लुटा के अपनी खुशी जिसने चुन लिए आंसू
वो बादशाह था, गो उस पे ताजी तख़्त न था।
 
मैं जिसकी खोज में ख़ुद खो गया था मेले में
कहीं वो मेरा ही अरमान तो कम्बख़्त न था।
 
लिखी थी जिस पे विधाता ने दास्तां सुख की
मेरी किताब में वो पेज ही पैबस्त न था।
 
जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया, न खौल उठा
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था।
 
उन्हीं फकीरों ने बदली है वक्त की धारा
कि जिनके पास ख़ुद अपने लिए भी वक्त न था।
 
शराब करके पिया उसने ज़हर जीवन-भर
हमारे शहर में नीरज-सा कोई मस्त न था।
 
(पाठ-भेद)
दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था
तुम्हारे घर का सफर इस कदर तो सख्त न था
 
इतने मसरूफ थे हम जाने की तैयारी में
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था
 
मैं जिसकी खोज में खुद खो गया था मेले में
कहीं वो मेरा ही अहसास तो कम्बख्त ना था
 
जो जुल्म सह के भी चुप रह गया ना खौला था
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था
 
उन्हीं फकीरों ने इतिहास बनाया है यहां
जिन पे इतिहास को लिखने के लिये वक्त न था
 
शराब कर के पिया उसने जहर जीवन भर
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था
 

कोई दरख़्त मिले या किसी का घर आये - Gopal Das Neeraj

कोई दरख़्त मिले या किसी का घर आये
मैं थक गया हूँ कहीँ छाँव अब नज़र आये।
 
जिधर की सिम्त मेरे दोस्ती की बैठक थी,
उसी तरफ़ से मेरे सेहन में पत्थर आये।
 
दिलों को तोड़ के मन्दिर जो बनाकर लौटे
उन्हें बताओ कि वह क्या गुनाह कर आये।
 
न जाने फूल महकते हैं किस तरह के वहाँ
जो तेरी सिम्त गये, लौटकर न घर आये।
 
वो क़त्ल किसने किया है सभी को है मालूम
ये देखना है कि इल्ज़ाम किसके सर आये।
 
शराब ये तो सुबह को ही उतर जायेगी,
पिला वो मय कि नहीं होश उम्र-भर आये ।
 
बस एक बिरवा मेरे नाम का लगा देना
जो मेरी मौत की तुम तक कभी खबर आये।
 
वहीं प' ढूँढना 'नीरज' को तुम जहाँ वालो।
जहाँ भी दर्द की बस्ती कोई नज़र आये।
 

बदन प' जिसके शराफ़त का पैरहन देखा - Gopal Das Neeraj

बदन प' जिसके शराफ़त का पैरहन देखा
वो आदमी भी यहाँ हमने बदचलन देखा
 
ख़रीदने को जिसे कम थी दौलते-दुनिया
किसी फ़कीर की मुट्ठी में वो रतन देखा
 
मुझे दिखा है वहाँ अपना ही बदन ज़ख़्मी
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरन देखा
 
बड़ा न छोटा कोई, फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी प' चलते समय एक-सा कफ़न देखा
 
ज़बाँ है और, बयाँ और, उसका मतलब और
अजीब आज की दुनिया का व्याकरण देखा
 
लुटेरे-डाकू भी अपने प' नाज़ करने लगे
उन्होंने आज जो संतों का आचरण देखा
 
जो सादगी है 'कहन' में हमारे "नीरज" की
किसी प' और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा
 

बात अब करते हैं क़तरे भी समन्दर की तरह - Gopal Das Neeraj

बात अब करते हैं क़तरे भी समन्दर की तरह
लोग ईमान बदलते हैं कलेण्डर की तरह ।
 
कोई मंज़िल न कोई राह, न मक़सद कोई
है ये जनतंत्र यतीमों के मुक़द्दर की तरह ।
 
बस वही लोग बचा सकते हैं इस कश्ती को
डूब सकते हैं जो मंझधार में लंगर की तरह ।
 
मैंने खुशबू-सा बसाया था जिसे तन-मन में
मेरे पहलू में वही बैठा है खंजर की तरह ।
 
मेरा दिल झील के पानी की तरह काँपा था
तुमने वो बात उछाली थी जो कंकर की तरह ।
 
जिनकी ठोकर से किले काँप के ढह जाते थे
कल की आँधी में उड़े लोग वो छप्पर की तरह ।
 
तुझसी शोहरत न किसी को भी मिले ऐ 'नीरज'
फूल भी फेंकें गये तुम प' तो पत्थर की तरह ।
 

जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए - Gopal Das Neeraj

जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए
मेरी आवाज में आवाज़ मिलाते रहिए।
 
हमने कल रात जलाये थे जो चौपालों पर
उन अलावों की ज़रा राख हटाते रहिए।
 
नींद आनी है तो तकदीर भी सो जाती है
कोई अब सो न सके गीत वो गाते रहिए।
 
भूखा सोने को भी तैयार है ये देश मेरा
आप परियों के उसे ख़्वाब दिखाते रहिए!
 
वक्त के हाथ में पत्थर भी है और फूल भी हैं
चाह फूलों की है तो चोट भी खाते रहिए।
 
जाने कब आख़िरी खत अपने नाम आ जाये
आपसे जितना बने प्यार लुटाते रहिए।
 
रोती आँखें उन्हें मुमकिन है कि याद आ जायें
हाथ हत्यारों के अश्कों से धुलाते रहिए।
 
प्यार भी आपको हो जाएगा रफ़्ता-रफ़्ता
दिल नहीं मिलता तो नज़रें ही मिलाते रहिए।
 
क्या अजब है कि समय फिर से मिला दे हमको
टूट जाने प’ भी रिश्तों को निभाते रहिए।
 
आपसे एक गुज़ारिश है यही नीरज की
भूले-भटके ही सही घर मेरे आते रहिए।
 

तेरा बाज़ार तो महँगा बहुत है - Gopal Das Neeraj

तेरा बाज़ार तो महँगा बहुत है
लहू फिर क्यों यहाँ सस्ता बहुत है।
 
सफ़र इससे नहीं तय हो सकेगा
यह रथ परदेश में रुकता बहुत है ।
 
न पीछे से कभी वो वार करता
वो दुश्मन है मगर अच्छा बहुत है।
 
नहीं काबिल ग़ज़ल के है ये महफ़िल
यहाँ पर सिर्फ़ इक मतला बहुत है।
 
चलो फिर गाँव का आँगन तलाशें
नगर तहज़ीब का गन्दा बहुत है।
 
क़लम को फेंक, माला हाथ में ले
धरम के नाम पर धन्धा बहुत है।
 
अकेला भी है और मज़बूर भी है
वो हर इक शख्स जो सच्चा बहुत है।
 
सुलगते अश्क और कुछ ख्वाब टूटे
खजाना इन दिनों इतना बहुत है ।
 
यहाँ तो और भी हैं गीत-गायक
मगर नीरज का क्यों चर्चा बहुत है।
 

निर्धन लोगों की बस्ती में घर-घर कल ये चर्चा था - Gopal Das Neeraj

निर्धन लोगों की बस्ती में घर-घर कल ये चर्चा था
वो सब से धनवान था जिसकी जेब में खोटा सिक्का था।
 
अपने शहर में उस दिन मैंने भूख का ये आलम देखा
दूध के बदले इक माँ के आँचल से खून टपकता था।
 
खेत जले, खलिहान जले, सब पेड़ जले, सब पात जले
मेरे गाँव में रात न जाने कैसा पानी बरसा था।
 
अपने देश की हालत मुझ को बिलकुल वैसी दिखती है
जैसे बाज़ के पंजे में इक गौरैआ का बच्चा था।
 
गीतों की क़िस्मत में इक दिन ऐसा भी दिन आना था
उतना ही वो महँगा था जो जितना ज़्यादा सस्ता था।
 
सारी महफ़िल सुनकर जिसको झूम-झूम कर मस्त हुई
वो तो गीत नहीं था मेरा, आँसू का इक क़तरा था।
 
'नीरज' उसकी याद हृदय में अब भी तड़पा करती है
आधी रात मेरे घर में जो बेला कभी महकता था।
 

कुल शहर बदहवास है इस तेज़ धूप में - Gopal Das Neeraj

कुल शहर बदहवास है इस तेज़ धूप में
हर शख्स ज़िन्दा लाश है इस तेज़ धूप में।
 
हारे-थके मुसाफिरो आवाज़ उन्हें दो
जल की जिन्हें तलाश है इस तेज़ घूप में।
 
दुनिया के आम्नो-चैन के दुश्मन हैं वही तो
सब छाँव जिनके पास है इस तेज़ धूप में।
 
नंगी हरेक शाख हरेक फूल है यतीम
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में ।
 
वो सिर्फ़ तेरा ध्यान बँटाने के लिए है
जितना भी जो प्रकाश है इस तेज़ धूप में।
 
पानी सब अपना पी गई ख़ुद हर कोई नदी
कैसी अजीब प्यास है इस तेज़ धूप में।
 
बीतेगी हाँ बीतेगी ये दुख की घड़ी ज़रूर
नीरज तू क्यों निराश है इस तेज़ धूप में।
 

जो कलंकित कभी नहीं होते - Gopal Das Neeraj

जो कलंकित कभी नहीं होते
वो तो वन्दित कभी नहीं होते।
 
जिनको घायल किया न काँटों ने
वो सुगन्धित कभी नहीं होते।
 
लोग करते न गर हमें बदनाम
हम तो चर्चित कभी नहीं होते।
 
"ढाई आखर" बिना पढ़े जग में
ज्ञानी पंडित कभी नहीं होते।
 
फूल की उम्र गर बड़ी होती
भृंग मोहित कभी नहीं होते।
 
देखते हैं न दिल का दर्पन जो
ख़ुद से परिचित कभी नहीं होते।
 
सिर्फ़ आवाज़ ही बदलती है
स्वर तिरोहित कभी नहीं होते।
 

उनका कहना है कि नीरज ये लड़कपन छोड़ो - Gopal Das Neeraj

उनका कहना है कि नीरज ये लड़कपन छोड़ो
सुख की छांव में चलो दर्द का दामन छोड़ो।
 
अब तो तितली के परों प' भी है नज़र उनकी
अब मुनासिब है यही दोस्तो! गुलशन छोड़ो।
 
काव्य के मंच प' करते हैं विदूषक अभिनय
तुमको अभिनय नहीं आता है तो ये फ़न छोड़ो।
 
तुम तो मुट्ठी में लिए बैठे हो सारा बाज़ार
ग़म के मारों के लिए कोई तो दामन छोड़ो।
 
जब से तुम आये यहाँ खून की बरसात हुई
अब तो कुछ रहम करो छोड़ो ये आंगन छोड़ो।
 
ज़ुल्म का दौर किसी तौर भी बदले न अगर
ज़ीस्त के वास्ते फिर ज़ीस्त का दामन छोड़ो।
 

गीत जब मर जायेंगे फिर क्या यहाँ रह जायेगा - Gopal Das Neeraj

गीत जब मर जायेंगे फिर क्या यहाँ रह जायेगा
इक सिसकता आँसुओं का कारवाँ रह जायेगा।
 
प्यार की धरती अगर बन्दूक से बाँटी गई
एक मुरदा शहर अपने दरमियाँ रह जायेगा ।
 
आग लेकर हाथ में पगले! जलाता है किसे
जब न ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह जायेगा।
 
गर चिराग़ों की हिफ़ाजत फिर उन्हें सौंपी गई
रोशनी मर जायेगी, बाकी धुआँ रह जायेगा।
 
आयेगा अपना बुलावा जिस घड़ी उस पार से
मैं कहाँ रह जाऊँगा और तू कहाँ रह जायेगा।
 
सिर्फ़ धरती ही नहीं, हर शै यहाँ गर्दिश में है
जो जहाँ अब है, नहीं वो कल वहाँ रह जायेगा ।
 
ज़िन्दगी और मौत की नीरज कहानी है यही
फुर्र उड़ जायेगी चिड़िया, आशियाँ रह जायेगा ।
 

भीतर-भीतर आग भरी है बाहर-बाहर पानी है - Gopal Das Neeraj

भीतर-भीतर आग भरी है बाहर-बाहर पानी है
तेरी-मेरी, मेरी-तेरी सब की यही कहानी है।
 
ये हलचल, ये खेल-तमाशे सब रोटी की माया है
पेट भरा है तो फिर प्यारे ऋतु हर एक सुहानी है।
 
ज्ञान-कला का मान नहीं कुछ, धन का बस सम्मान यहाँ
धन है तेरे पास तो तेरी मैली चादर धानी है।
 
ये हिन्दू है वो मुस्लिम है, ये सिख वो ईसाई है
सब के सब हैं ये-वो लेकिन कोई न हिन्दुस्तानी है ।
 
इसके कारण गले कटे और लोगों के ईमान बिके
इस छोटी-सी कुर्सी की तो अदभुत बड़ी कहानी है ।
 
हंस जहाँ पर भूखों मरते, बगुले करते राज जहाँ
वो ही देश है भारत उसका जग में कोई न सानी है ।
 
सौ-सौ बार यहाँ जनमा मैं सौ-सौ बार मरा हूँ मैं
रंग नया है, रूप नया है सूरत मगर पुरानी है।
 

मुझ पे आकर जो पड़ी उनकी नज़र चुपके से - Gopal Das Neeraj

मुझ पे आकर जो पड़ी उनकी नज़र चुपके से
हो गये अंक गुनाहों के सिफ़र चुपके से!
 
ज़िन्दगानी है मेरी जेठ की दोपहरी-सी
बन के बादल कोई बरसो मेरे घर चुपके से।
 
जो हिमालय की तरह तन के खड़ा था इक रोज़
नोट बरसे तो झुका ही दिया सर चुपके से ।
 
सारे संसार की आँखों में खटकता हूँ मैं
तुमको आना हो तो आना मेरे घर चुपके से।
 
किसलिए भीड़, ये भगदड़, ये तमाशे-मेले
ख़त्म हो जायेगा इक रोज़ सफ़र चुपके से ।
 
मेरे हाथों में भी ये चाँद-सितारे होते
वक्त गर काट न देता मेरे पर चुपके से।
 
अपना दरवाज़ा खुला रखना हमेशा 'नीरज'
ज़िन्दगी जाती है, आती है मगर चुपके से।
 

मंच बारूद का नाटक दियासलाई का - Gopal Das Neeraj

मंच बारूद का नाटक दियासलाई का
खेल क्या खूब है ये देश की तबाही का।
 
खुशबुयें छोड़ के फूलों के लिए मरते हो
मालिओ! त्याग दो, मज़हब ये कम-निगाही का।
 
शब्द को एक तमाशा नहीं, तलवार बना
काम लेना है कलम से तो अब सिपाही का।
 
उसको सुकरात की मानिन्द ज़हर पीना पड़ा
जिसने भी फर्ज़ निभाया यहाँ सचाई का।
 
एक कोठे की तवायफ है सियासत सारी
और दल्लाली हुआ काम रहनुमाई का ।
 
जिसको गोली की ही बोली में मज़ा आता हो
केसे समझेगा वो माने ग़ज़ल रुबाई का।
 
कागज़ी फूलों से अब तो न उलझ ऐ नीरज
सामने वक्त खड़ा है तेरी विदाई का।
 

देखना है मुझ को तो नज़दीक आकर देखिये - Gopal Das Neeraj

देखना है मुझ को तो नज़दीक आकर देखिये
प्यार भी हो जायेगा नज़रें मिलाकर देखिये।
 
नीड़ चिड़ियों का नहीं मधुमक्खियों का घर है ये
आप इसका एक भी तिनका हटाकर देखिये।
 
आपके गीतों से यह माहौल बदलेगा ज़रूर
जान अपना ख़ून शब्दों को पिलाकर देखिये।
 
आपको लेना है गर सावन के मौसम का मज़ा
जाइये बादल के नीचे घर बनाकर देखिये।
 
आपकी महफ़िल में अपना भी तो कुछ हक है ज़रुर
एक पल मेरी तरफ़ भी मुस्कुराकर देखिये ।
 
ये अंधेरा इसलिए है ख़ुद अँधेरे में हैं आप
आप अपने दिल को इक दीपक बनाकर देखिये।
 
किस तरह सुर और सरगम से महक उठते हैं घर
गीत नीरज के किसी दिन गुनगुनाकर देखिये ।

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