Hindi Kavita
हिंदी कविता
1. निर्जन की नीरव डाली का मैं फूल - Gopal Das Neeraj
निर्जन की नीरव डाली का मैं फूल
कल अधरों में मुस्कान लिये आया था,
पर आज झर गया खिलने के पहले ही,
जग से कुछ मन की कहने के पहले ही,
साथी हैं बस तन से लिपटे दो शूल [
निर्जन की नीरव डाली का मैं फूल ।
2. कितना एकाकी मम जीवन - Gopal Das Neeraj
कितना एकाकी मम जीवन !
किसी पेड़ पर यदि कोई चिड़िया का जोड़ा बैठा होता
तो न उसे भी एक आँख भर मैं इस डर से देखा करता-
कहीं नज़र लग जाय न उनको !
कितना एकाकी मम जीवन !
3. अपनी कितनी परवशता है - Gopal Das Neeraj
अपनी कितनी परवशता है!
जग से निन्दित पीड़ित होकर,
जीवन में कुछ सार न पाकर,
घूँट हलाहल के खुद पीकर,
जब कि चाहता 'मैं' जाना मर,
तभी पकड़ गर्दन कोई कहता 'पागल' यह कायरता है
अपनी कितनी परवशता है!
4. मुझको अपने जीवन में हा ! कभी न शान्ति मिलेगी - Gopal Das Neeraj
मुझको अपने जीवन में हा ! कभी न शान्ति मिलेगी ।
जब कि प्रकृति रो रो नित निशि भर,
कर न सकी भू का ठंडा उर,
फिर इन तप्त आँसुओं से क्या दिल की आग बुझेगी?
मुझको अपने जीवन में हा! कभी न शान्ति मिलेगी।
विरह ज्वलन, पीडा उमड़न को-
ही जब चिर सुख-सत्य मान कर,
भीषण क्रान्ति न अपने उर के
अरमानों की मैं पाया हर,
फिर क्या मर कर मेरे उर की यह चिर क्रान्ति मिटेगी।
मुझको अपने जीवन में हा! कभी न शान्ति मिलेगी।
5. कितनी अतृप्ति है - Gopal Das Neeraj
कितनी अतृप्ति है...
कितनी अतृप्ति है जीवन में ?
मधु के अगणित प्याले पीकर,
कहता जग तृप्त हुआ जीवन,
मुखरित हो पड़ता है सहसा,
मादकता से कण-कण प्रतिक्षण,
पर फिर विष पीने की इच्छा क्यों जागृत होती है मन में ?
कवि का विह्वल अंतर कहता, पागल, अतृप्ति है जीवन में।
6. साथी ! सब सहना पड़ता है - Gopal Das Neeraj
साथी ! सब सहना पड़ता है।
उर-अन्तर के अरमानों को,
छालों को मधु-वरदानों को,
और मूक गीले गानों को
निर्मम कर से स्वयं कुचल कर
और मसल कर-
भी तो जननी के सम्मुख
असमर्थ हमें हँसना पड़ता है।
संचित जीवन-कोष लुटा कर
पाषाणों पर हृदय चढ़ाकर
सब अपने अधिकार मिटाकर
घूँट हलाहल-सी भी पीकर-
अपने ही हाथों से कंपित
और विनिन्दित-
भी हो, खुशी न खुशी से
पर मर-२ कर जीना पड़ता है।
जीवन के एकाकी-पथ पर
कुछ कांटों की सेज बिछाकर
कर का जलता दीप बुझाकर
पग अपने सहला-सहला कर-
अपने ही हांथों से विह्वल
तन-मन व्याकुल-
भी हो पर जीवन-पथ पर
हमको प्रतिपल बढ़ना पड़ता है।
साथी, सब सहना पड़ना पड़ता है।
7. क्यों उसको जीवन भार न हो - Gopal Das Neeraj
क्यों उसको जीवन भार न हो!
जो जीवन ताप मिटाती है
युग-२ की प्यास बुझाती है
इसके अधरों तक जाकर वह मधु मदिरा ही विष बन जाए।
क्यों उसको जीवन भार न हो..
जो हिम सी शीतल शांत सजल
है जीवन पंथी की मंजिल
वह अमर मौत भी एक बार जिसकी मिट्टी से घबराए।
क्यों उसको जीवन भार न हो..
लिखकर दिल हल्का हो जाता
गाकर जिसको गम सो जाता
पर इसके प्राणों में उसकी कविता ही क्रन्दन उपजाए।
क्यों उसको जीवन भार न हो..
8. मुझको जीवन आधार नहीं मिलता है - Gopal Das Neeraj
मुझको जीवन आधार नहीं मिलता है
आशाओं का संसार नहीं मिलता है।
मधु से पीड़ित-मधुशाला से निर्वासित,
जग से, अपनों से निन्दित और उपेक्षित-
जीने के योग्य नहीं मेरा जीवन पर
मरने का भी अधिकार नहीं मिलता है।
मुझको जीवन आधार नहीं मिलता है..
भव-सागर में लहरों के आलोड़न से,
मैं टकराता फ़िरता तट के कण-कण से,
पर क्षण भर भी विश्राम मुझे दे दे जो
ऐसा भी तो मँझधार नहीं मिलता है।
मुझको जीवन आधार नहीं मिलता है..
अब पीने को खारी मदिरा पीता हूँ,
अन्तर में जल-जल कर ही तो जीता हूँ,
पर मुझे जला कर राख अरे जो कर दे
ऐसा भी तो अंगार नहीं मिलता है।
मुझको जीवन आधार नहीं मिलता है..
9. तुमने कितनी निर्दयता की - Gopal Das Neeraj
तुमने कितनी निर्दयता की !
सम्मुख फैला कर मधु-सागर,
मानस में भर कर प्यास अमर,
मेरी इस कोमल गर्दन पर रख पत्थर का गुरु भार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
अरमान सभी उर के कुचले,
निर्मम कर से छाले मसले,
फिर भी आँसू के घूँघट से हँसने का ही अधिकार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
जग का कटु से कटुतम बन्धन,
बाँधा मेरा तन-मन यौवन,
फिर भी इस छोटे से मन में निस्सीम प्यार उपहार दिया।
तुमने कितनी निर्दयता की !
10. क्यों रुदनमय हो न उसका गान - Gopal Das Neeraj
क्यों रुदनमय हो न उसका गान!
मृत्यु का ही कर भयंकर
भग्न छाती पर अरे घर
पूर्ण जो कर सके अपने हृदय के अरमान।
क्यों रुदनमय हो न उसका गान!
क्या करेगी शान्त उसका
हृदय-मदिरा की मधुरता
शान्ति केवल पा सके जो उर बना पाषाण।
क्यों रुदनमय हो न उसका गान!
क्या हृदय-अभिलाषा उसकी
और मधु की प्यास उसकी
अश्रु से ज्योतित करे जो आँख का सुनसान।
क्यों रुदनमय हो न उसका गान!
11. मत छुप का वार करो - Gopal Das Neeraj
मत छुप कर वार करो!
है झुकी हुई मेरी गर्दन,
है झुका हुआ मेरा तन-मन,
सम्मुख आकर इक बार नहीं सौ बार प्रहार करो!
मत छुप कर वार करो!
चोटें कर-कर थक जाओगे,
पर मुझको जीत न पाओगे,
मुजको, मेरी हस्ती को भी तुम चाहे छार करो !
मत छुप कर वार करो!
यदि मेरी हार चाहते हो,
मुझ पर अधिकार चाहते हो,
तो मेरी दुर्बलताओं पर तुम प्यार-दुलार करो!
मत छुप कर वार करो!
12. खग! उड़ते रहना जीवन-भर - Gopal Das Neeraj
भूल गया है तू अपना पथ,
और नहीं पंखों में भी गति,
किंतु लौटना पीछे पथ पर अरे, मौत से भी है बदतर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!
मत डर प्रलय झकोरों से तू,
बढ़ आशा हलकोरों से तू,
क्षण में यह अरि-दल मिट जायेगा तेरे पंखों से पिस कर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!
यदि तू लौट पड़ेगा थक कर,
अंधड़ काल बवंडर से डर,
प्यार तुझे करने वाले ही देखेंगे तुझ को हँस-हँस कर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!
और मिट गया चलते चलते,
मंजिल पथ तय करते करते,
तेरी खाक चढाएगा जग उन्नत भाल और आँखों पर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!
13. चल रे! चल रे! थके बटोही! थोडी दूर और मंजिल है - Gopal Das Neeraj
चल रे! चल रे! थके बटोही! थोड़ी दूर और मंज़िल है ।
माना पैर नहीं अब बढ़ते,
और प्यास से प्राण तड़पते,
फूट पत्थरों से जल पड़ता पर जब होती प्यास प्रबल है ।
चल रे! चल रे! थके बटोही! थोड़ी दूर और मंज़िल है ।
देख ज़रा-सा है वह निर्झर,
लेकिन चीर पहाड़ों का उर,
बढ़ता जाता है निज पथ पर,
तू मानव है जिसके कंपन में सोती जग की हलचल है ।
चल रे! चल रे! थके बटोही! थोड़ी दूर और मंज़िल है ।
प्यासा ही तो तुझे समझकर,
बनता जाता पथ विस्तृततर,
खुद को प्यासा कहकर मानव करता खुद से भारी छल है ।
चल रे! चल रे! थके बटोही! थोड़ी दूर और मंज़िल है ।
14. मैंने बस चलना सीखा है - Gopal Das Neeraj
मैंने बस चलना सीखा है।
कितने ही कटुतम काँटे तुम मेरे पथ पर आज बिछाओ,
और भी चाहे निष्ठुर कर का भी धुँधला दीप बुझाओ,
किन्तु नहीं मेरे पग ने पथ पर बढ़कर फिरना सीखा है।
मैंने बस चलना सीखा है ।
कहीं छुपा दो मंज़िल मेरी चारों और तिमिर-घन छाकर,
चाहे उसे राख का डालो नभ से अंगारे बरसा कर,
पर मानव ने तो पग के नीचे मंज़िल रखना सीखा है।
मैंने बस चलना सीखा है ।
कब तक ठहर सकेंगे मेरे सम्मुख ये तूफान भयंकर,
कब तक मुझ से लड़ पावेगा इन्द्र-राज का वज्र प्रखरतर,
मानव की ही अस्थिमात्र से वज्रों ने बनना सीखा है।
मैंने बस चलना सीखा है ।
देखूँ कौन बनेगा नीचा मेरा उन्नत अमर भाल यह,
इतना ही है मुझे मिला दे मिट्टी में बस क्रूर काल वह,
पर इस जग की मिट्टी ने भी देवों पर चढ़ना सीखा है।
मैंने बस चलना सीखा है ।
15. लहरों में हलचल - Gopal Das Neeraj
लहरों में हलचल होती है..
कहीं न ऐसी आँधी आवे
जिससे दिवस रात हो जावे
यही सोचकर कोकी बैठी तट पर निज धीरज खोती है।
लहरों में हलचल होती है..
लो, वह आई आँधी काली
तम-पथ पर भटकाने वाली
अभी गा रही थी जो कालिका पड़ी भूमि पर वो सोती है।
लहरों में हलचल होती है..
चक्र-सदृश भीषण भँवरों में
औ’ पर्वताकार लहरों में
एकाकी नाविक की नौका अब अन्तिम चक्कर लेती है।
लहरों में हलचल होती है..
16. मैं क्यों प्यार किया करता हूँ - Gopal Das Neeraj
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
सर्वस देकर मौन रुदन का क्यों व्यापार किया करता हूँ?
भूल सकूँ जग की दुर्घातें उसकी स्मृति में खोकर ही
जीवन का कल्मष धो डालूँ अपने नयनों से रोकर ही
इसीलिए तो उर-अरमानों को मैं छार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
कहता जग पागल मुझसे, पर पागलपन मेरा मधुप्याला
अश्रु-धार है मेरी मदिरा, उर-ज्वाला मेरी मधुशाला
इससे जग की मधुशाला का मैं परिहार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
कर ले जग मुझसे मन की पर, मैं अपनेपन में दीवाना
चिन्ता करता नहीं दु:खों की, मैं जलने वाला परवाना
अरे! इसी से सारपूर्ण-जीवन निस्सार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
उसके बन्धन में बँध कर ही दो क्षण जीवन का सुख पा लूँ
और न उच्छृंखल हो पाऊँ, मानस-सागर को मथ डालूँ
इसीलिए तो प्रणय-बन्धनों का सत्कार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
17. जीवन-समर, जीवन-समर - Gopal Das Neeraj
जीवन-समर, जीवन-समर !
कुछ सोच उसके हाल पर,
जो छुद्र कलिका डाल पर,
है जीर्ण तन मन प्राण स्वर,
औ' चल रही आँधी प्रखर,
मुस्कान फिर भी अधर पर,
लेकिन समर लख सामने है तू पड़ा निश्चेष्ट नर ।
जीवन-समर, जीवन-समर,
बन्दी युगों तक जो बना,
हत-भाग्य पंखों से छिना,
अब वही पिंजरा तोड़ कर,
नव-कल्पना के पंख धर,
आंधी-प्रलय का छोड़ डर,
है देख, बाहर आ रहा खग वीरवर, खग धीरवर !
जीवन-समर, जीवन-समर !
मन किन्तु तू मारे पड़ा,
कहते तुझे जग में बड़ा,
लेक्लि बना तू छुद्रतम,
इन कुछ खगों से नीचतम,
आती नहीं तुझको शरम,
उठ-उठ अरे, कायर न बन, लड़ ले समर, वन जा अमर ।
जीवन-समर, जीवन-समर
18. जग ने प्यार नहीं पहचाना - Gopal Das Neeraj
जग ने प्यार नहीं पहचाना !
मेरे अलि-मन को कलियों का परिमल करता पान देखकर,
जग ने अगणित जाल बिछाये उस पर निर्ममता से जी भर,
पर जर्जर तन पर काँटों का कटु संसार नहीं पहचाना!
जग ने प्यार नहीं पहचाना!
मधु की मादकता में निहित कवि का मादक गायन सुनकर,
चीख उठा जग शत-मुख से वासना विनिर्मित है इसका स्वर,
पर उसके मन में होता चिर हाहाकार नहीं पहचाना!
जग ने प्यार नहीं पहचाना!
माणिक-मुक्ताओं से सज्जित कर में मधु की प्याली लखकर,
जग बोला इसने पाली है अमर-वारुणी मधुमय सुखकर,
पर उसके तल में लहराता विष का ज्वार नहीं पहचाना।
जग ने प्यार नहीं पहचाना!
19. तब मेरी पीड़ा अकुलाई - Gopal Das Neeraj
तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
जग से निंदित और उपेक्षित,
होकर अपनों से भी पीड़ित,
जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई!
तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
सांध्य गगन में करते मृदु रव
उड़ते जाते नीड़ों को खग,
हाय! अकेली बिछुड़ रही मैं, कहकर जब कोकी चिल्लाई!
तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
झंझा के झोंकों में पड़कर,
अटक गई थी नाव रेत पर,
जब आँसू की नदी बहाकर नाविक ने निज नाव चलाई!
तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
20. तिमिर का छोर - Gopal Das Neeraj
है नहीं दिखता तिमिर का छोर!
आँख की गति है जहाँ तक
तम अरे, बस, तम वहाँ तक
दूर धुँधली दिख रही पर सित कफ़न की कोर।
है नहीं दिखता तिमिर का छोर!
खो गया है लक्ष्य तम में
धुँध-धुँधलापन नयन में
और पड़ते जा रहे हैं पैर भी कमजोर।
है नहीं दिखता तिमिर का छोर!
मुक्ति-पथ इसमें छुपा है
और जीवन-अथ छुपा है
क्योंकि पहले फ़ूटती है ज्योति तम की ओर।
है नहीं दिखता तिमिर का छोर!
21. इन नयनों से सदैव मैंने सिर्फ नीर झरते देखा है - Gopal Das Neeraj
इन नयनों से सदैव मैंने सिर्फ नीर झरते देखा है !
बिछुड़ा प्यार मिला देखा है,
दीपक बुझा, जला देखा है,
उजड़ा चमन खिला देखा है,
किन्तु नहीं मानव के टूटे दिल को फिर जुड़ते देखा है!
इन नयनों से सदैव मैंने सिर्फ नीर झरते देखा है !
माना जग में गायन-रोदन,
पर उनके भी हैं विभिन्न क्षण,
केवल कवि को ही तो मैंने रो-रोकर हँसते देखा है !
इन नयनों से सदैव मैंने सिर्फ नीर झरते देखा है !
चेतनता की चपल किरण से,
प्राणों के शत-शत कम्पन से,
केवल अपने ही जीवन को नित मैंने तपते देखा है!
इन नयनों से सदैव मैंने सिर्फ नीर झरते देखा है !
22. कोई क्यों मुझसे प्यार करे! - Gopal Das Neeraj
कोई क्यों मुझसे प्यार करे!
अपने मधु-घट को ठुकरा कर मैंने जग के विषपान किए
ले लेकर खुद अभिशाप हाय, मैंने जग को वरदान दिए
फ़िर क्यों न विश्व मुझको पागल कहकर मेरा सत्कार करे।
कोई क्यों मुझसे प्यार करे!
उर-ज्वाला से मेरा परिणय
दु:ख का ताण्डव जीवन-अभिनय
फ़िर शान्ति और सुख मेरे मानस में कैसे श्रृंगार करे।
कोई क्यों मुझसे प्यार करे!
जीवन भर जलता रहा, किन्तु निज मन का तिमिर मिटा न सका
इतना रोया, खुद डूब गया, पर जलता हृदय बुझा न सका
फ़िर क्यों न अश्रु भी नयनों में अब आने से इन्कार करें।
कोई क्यों मुझसे प्यार करे!
23. मधु में भी तो छुपा गरल है - Gopal Das Neeraj
मधु में भी तो छुपा गरल है!
उषा विहँसती प्रात गगन में संध्या की स्याही बनने को,
और खोलती आँख ज़िन्दगी केवल मंज़िल तक चलने को,
चिर-किशोर मधुमय वसंत भी पतझर का ही पाता फल है!
मधु में भी तो छुपा गरल है!
शलभ नहीं जलने का आदी यह इच्छुक शाश्वत जीवन का,
फिर भी उसको जलना पड़ता-क्योंकि तृषित दीपक-चुम्बन का
यही सत्य-संघर्ष विश्व में पाप और अति सुन्दर छल है!
मधु में भी तो छुपा गरल है!
कहता मधुप प्राण सुमनों में, शूलों में हैं चाहें मेरी,
इसीलिए शूलों से बिंधकर उलझा करती आहें मेरी,
इसी कल्पना की प्रति-ध्वनि तो जग-जीवन की चाल सरल है !
मधु में भी तो छुपा गरल है!
24. रोने वाला ही गाता है - Gopal Das Neeraj
रोने वाला ही गाता है!
मधु-विष हैं दोनों जीवन में
दोनों मिलते जीवन-क्रम में
पर विष पाने पर पहले मधु-मूल्य अरे, कुछ बढ़ जाता है।
रोने वाला ही गाता है!
प्राणों की वर्त्तिका बनाकर
ओढ़ तिमिर की काली चादर
जलने वाला दीपक ही तो जग का तिमिर मिटा पाता है।
रोने वाला ही गाता है!
सकल प्रकृति का यही नियम है
रोदन के पीछे गायन है
पहले रोया करता है नभ, पीछे इन्द्रधनुष छाता है।
रोने वाला ही गाता है!
25. मैंने जीवन विषपान किया, मैं अमृत-मंथन क्या जानूँ! - Gopal Das Neeraj
मैंने जीवन विषपान किया, मैं अमृत-मंथन क्या जानूँ!
मैं दीवानों का भेष लिए, सुख-दु:ख का चिन्तन क्या जानूँ!
शैशव में ही जैसे मैंने, जीवन का चिर-अभाव चूमा
यौवन के चंचल दिवसों में, बस हारा हुआ दाँव चूमा
मैं चूमा करता अंगारे, फ़िर मधुमय चुम्बन क्या जानूँ।
अपनी पलकों में रो-रो कर मैं नित मदिरा पी लेता हूँ
उसके जग में ही मर-मर कर, मैं जगती में जी लेता हूँ
मैं मर-मर कर जीता जग में, फ़िर जग का जीवन क्या जानूँ।
सर्वस देकर पीड़ा लेकर, मैंने जग से व्यापार किया
अपना मादक संसार छोड़, चिर पीड़ा का संसार लिया
मैं जीवन का एकाकी पथ, पग-पायल-रुनझुन क्या जानूँ।
सूखी आहों के गीले घन, करते मधु की मीठी किलोल
जर्जर चिर-पीड़ित-प्राण मगर रह जाते बस पीड़ा टटोल
मैं बादल का बिखरा टुकड़ा, नभ का नीलांगन क्या जानूँ।
प्रीतम की प्रीत-पगी प्रतिमा, सावन के बादल सी रिमझिम
भीगी पलकों पर नाच रही, जैसे निशि में गिरती शबनम
मैं पूर्ण एक जल के कण में, पत्थर का पूजन क्या जानूँ।
26. धड़क रही मेरी छाती है - Gopal Das Neeraj
धड़क रही मेरी छाती है
चिर-एकाकी बीहड़ पथ पर-
भी जो रही साथ जीवन-भर,
आज वही छाया भी तो हा! छोड़ मुझे छुपती जाती है।
धड़क रही मेरी छाती है।
आँख जहाँ तक जा पाती है,
तम की रेख नज़र आती है,
किन्तु प्रेत-सी काया किसकी इन नयनों में मंडराती है ।
धड़क रही मेरी छाती है।
यही तिमिर तो जीवन साथी,
छुपी इसी में मेरी थाती,
फिर क्यों सम्मुख देख इसे यों मेरी पीड़ा अकुलाती है?
धड़क रही मेरी छाती है।
27. टूटता सरि का किनारा! - Gopal Das Neeraj
टूटता सरि का किनारा!
सुमन-सौरभ, बेल-पल्लव,
कुसुम-कलियाँ, मधुप-मद्यप-
सरित-सुषमा का सुखद मिट रहा देखो खेल सारा!
टूटता सरि का किनारा!
प्राण-मधु-सौरभ बिछाकर,
ताप था जिसका लिया हर,
वही झंझा आज कुसुमों पर चलाती है कुठारा!
टूटता सरि का किनारा!
जड़-तरणि के डूबने पर,
ले सका था साँस क्षण-मर,
दूब तट पर की पकड़ कर-
एक नाविक, किन्तु देखो मिट रहा वह भी सहारा!
टूटता सरि का किनारा!
28. आज आँधी आ रही है - Gopal Das Neeraj
आज आँधी आ रही है!
पथिक ने जो छोड़ दी थी,
आग बुझने जा रही थी,
पर सुलग कर फ़िर वही अब विश्व-विपिन जला रही!
आज आँधी आ रही!
जा रहे खग, पशु घरों को
किन्तु मैं जाऊँ कहाँ को,
जब कि मेरे हृदय ही में हाय, यह मंडरा रही है!
आज आँधी आ रही है!
काँपते हैं प्राण दुर्बल
हो रही है घोर हलचल,
वायु इतनी आ रही, पर प्राण-वायु जा रही है!
आज आँधी आ रही है!
29. मेरा कितना पागलपन था - Gopal Das Neeraj
मेरा कितना पागलपन था!
मादक मधु-मदिरा के प्याले
जाने कितने ही पी डाले
पर ठुकराया उस प्याले को, जिससे था मधु पीना सीखा।
मेरा कितना पागलपन था!
जिस जल का पार नहीं पाया
मँझधार मुझे उसका भाया
फ़िर उसके रौरव में अपने प्राणों का रव खोना सीखा।
मेरा कितना पागलपन था!
जो मेरे प्राणों में निशदिन मीठी मादकता भरता है
दुख पर चिर-सुख की छाया कर प्राणों की पीड़ा हरता है
उस मन के ठाकुर को ठुकरा पत्थर के पग पड़ना सीखा।
मेरा कितना पागलपन था!
30. अब तो मुझे न और रुलाओ! - Gopal Das Neeraj
अब तो मुझे न और रुलाओ!
रोते-रोते आँखें सूखीं,
हृदय-कमल की पाँखें सूखीं,
मेरे मरु-से जीवन में तुम मत अब सरस सुधा बरसाओ!
अब तो मुझे न और रुलाओ!
मुझे न जीवन की अभिलाषा,
मुझे न तुमसे कुछ भी आशा,
मेरी इन तन्द्रिल पलकों पर मत स्वप्निल संसार सजाओ!
अब तो मुझे न और रुलाओ!
अब नयनों में तम-सी काली,
झलक रही मदिरा की लाली,
जीवन की संध्या आई है, मत आशा के दीप जलाओ!
अब तो मुझे न और रुलाओ!
31. घोर तम अब छा रहा है - Gopal Das Neeraj
घोर तम अब छा रहा है!
हो गया संसार निश्चित,
स्वप्न-सुख से ही निमन्त्रित,
किन्तु वह खग कौन तजकर नीड़ देखो जा रहा है?
घोर तम अब छा रहा है!
दीप सारे बुझ गये हैं,
दृग-कोमल भी मुँद गये हैं,
पर नयन में कौन मेरे स्मृति-दीप जला रहा है?
घोर तम अब छा रहा है!
शान्ति जग में छा रही है,
चेतना अलसा रही है,
मम हदय में कौन हाहाकार किन्तु मचा रहा है?
घोर तम अब छा रहा है!
32. अब तो उठते नहीं पैर भी कैसे चलता जाऊँ पथ पर - Gopal Das Neeraj
अब तो उठते नहीं पैर भी कैसे चलता जाऊँ पथ पर ।
मंजिल पाना तो है दुष्कर,
किन्तु लौटना है दुष्करतर,
फिर न अरे क्यों बन जाऊँ मैं आज इसी पथ का जड़ पत्थर ।
अब तो उठते नहीं पैर भी कैसे चलता जाऊँ पथ पर ।
कितने ही इस पथ पर आते,
पहुंच मगर कितने कम पाते,
में भी उनमें एक पथिक हूँ फिर जाऊँ क्यों लज्जा से डर।
अब तो उठते नहीं पैर भी कैसे चलता जाऊँ पथ पर ।
सफल बनेगा यह जड़ जीवन,
और तपोवन होगा निर्जन,
यदि विश्राम कर सके कोई थका पथिक बाँहों में क्षण-भर ।
अब तो उठते नहीं पैर भी कैसे चलता जाऊँ पथ पर ।
33. पंथी! तू क्यों घबराता है! - Gopal Das Neeraj
पंथी! तू क्यों घबराता है ?
जब तूने जग में खोले दृग,
ऊपर था नभ, नीचे था मग,
अब भी तेरे साथ-साथ यह नभ, पथ चलता जाता है!
पंथी! तू क्यों घबराता है ?
कैसे कहता एकाकी फिर,
उस पर तो किंचित डाल नज़र,
युग-युग से जो सूने मरु पर यह ताड़ खडा लहराता है!
पंथी! तू क्यों घबराता है ?
नव आशा से बढ़ता जा तू
जीवन-विष कटु पीता जा तू
वीरों के कंठों में जाकर विष भी तो मधु बन जाता है!
पंथी! तू क्यों घबराता है ?
34. तेरी भारी हार हुई थी! - Gopal Das Neeraj
तेरी भारी हार हुई थी!
जहाँ भरा या मधु का सागर,
लाते थे सब उर-घट भर-भर,
हाय ! वहाँ से भी तू जब खाली प्याला लाया-
तेरी भारी हार हुई थी!
जग के लोह हथौड़े खाकर,
हिला न जो चोटें भी सहकर,
अपनी ही कविता पढ़कर जब तेरा उर भर आया-
तेरी भारी हार हुई थी!
केवल जो तेरी दया प्राप्त कर,
था भगवान बन गया पत्थर,
दुख से घबरा कर तूने जब उसको शीश झुकाया-
तेरी भारी हार हुई थी!
35. डगमगाते पाँव मेरे आज जीवन की डगर पर - Gopal Das Neeraj
डगमगाते पाँव मेरे आज जीवन की डगर पर!
आह-सा है संकुचित पथ
बिछे काँटे, क्षीण पग-गति
तम-बिछा, आँधी घिरी, बिजली चमकती और सर पर।
डगमगाते पाँव मेरे आज जीवन की डगर पर!
सामने ज्वाला धधकती
प्राण प्यासे, श्वास रूँधती
किन्तु विष मँडरा रहा है, हाय चिर प्यासे अधर पर।
डगमगाते पाँव मेरे आज जीवन की डगर पर!
किन्तु बढ़ना ही पड़ेगा
और लड़ना ही पड़ेगा-
आग से, फिर क्यों ना धर लूँ आज मैं पाषाण उर पर।
डगमगाते पाँव मेरे आज जीवन की डगर पर!
36. अब अलि-गुनगुन गान कहाँ हैं - Gopal Das Neeraj
अब अलि-गुनगुन गान कहाँ हैं!
जिनको लखकर मदमाते थे,
तृप्ति हृदय कितने पाते थे,
वे सुगंध में बहने वाले मधुवन के वरदान कहाँ हैं!
अब अलि-गुनगुन गान कहाँ हैं!
टूट पड़ा वह मधु का प्याला,
और लुट गई है मधुशाला,
मरु-संस्सृति पर स्वर्ग बसाने वाले वे मेहमान कहाँ हैं!
अब अलि-गुनगुन गान कहाँ हैं!
कैसे साबित रहता प्याला,
रहती भी कैसे मधुशाला,
सब कुछ भी देकर पीने के वे उर में अरमान कहाँ हैं!
अब अलि-गुनगुन गान कहाँ हैं!
37. फूल डाल से छूट रहा है - Gopal Das Neeraj
फूल डाल से छूट रहा है।
सोचा था नव नीड़ बनेगा-
मरु-स्थल में जब विकसेगा,
स्वप्न तितलियों का लेकिन बनने से पहले टूट रहा है।
फूल डाल से छूट रहा है।
निर्ममता से कुचल-कुचल कर,
तृण-तृण मिट्टी में बिखराकर,
मिट्टी की भी राख बनाकर,
कौन अरे! अज्ञात आज यों लुटे हुओं को लूट रहा है?
फूल डाल से छूट रहा है।
मधु पाने की आशा लेकर,
आया था प्यासा सुमनों पर,
खाक किंतु उनकी विलोक कर,
बरबस अलि की आंखों से आँसू का सागर फूट रहा है।
फूल डाल से छूट रहा है।
38. फिर भी जीवन से प्यार तुझे - Gopal Das Neeraj
फिर भी जीवन से प्यार तुझे!
तेरी छाया पड़, जाने पर शंकित होते नभ के खग भी,
तेरी मिट्टी का भार वहन कर थक जाते चिर ज़ड़ मग भी,
फिर भी तू पागल कहता है-जीने का है अधिकार मुझे ।
इतना जीवन से प्यार तुझे!
जग की नजरें पहले तुझ पर,
जो बरसाती थीं प्यार अमर,
अब वे ही तो तेरे उर में बनतीं चिर हाहाकार तुझे।
फिर भी जीवन से प्यार तुझे!
था तू जिसके अद्भुत बल पर-
ले नाव चला भवसागर पर,
संहार बन गया है! जब बह तेरा परिचित पतवार तुझे ।
फिर भी जीवन से प्यार तुझे!
39. फिर भी जीवन-अभिलाष तुझे - Gopal Das Neeraj
फिर भी जीवन-अभिलाष तुझे!
जब मधुबाला ने ही तुझको मदिरा में गरल प्रदान किया,
औ' सर्वस लेकर भी तेरा मदिरालय ने अपमान किया,
फिर भी मदिरालय में जाता इतनी मदिरा की प्यास तुझे!
फिर भी जीवन-अभिलाष तुझे!
जिस पर सर्वस्व लुटा डाला,
जीवन का कोष मिटा डाला,
जब उसने ही जग के सम्मुख, रे पागल, किया निराश तुझे!
फिर भी जीवन-अभिलाष तुझे!
जिसके मद में बहता था तू,
जिसको अपना कहता था तू,
जब उससे हाय, मिला केवल जग जीवन का उपहास तुझे!
फिर भी जीवन-अभिलाष तुझे!
40. भार बन रहा जीवन मेरा - Gopal Das Neeraj
भार बन रहा जीवन मेरा।
था चिर तममय जब जीवन-मग,
कुछ अभ्यस्त हो चले थे पग,
आशा-दीपक ने क्षन को जल किन्तु कर दिया और अंधेरा।
भार बन रहा जीवन मेरा।
अब तो पथ भी नहीं दिखाता,
पग उठ-उठ कर है रह जाता,
प्राण-विहग फिर कहाँ बैठकर कर ले क्षण-भर रैन-बसेरा?
भार बन रहा जीवन मेरा।
आंधी भी तो बढ़ती, आती,
जग पर घोर तिमिर बरसाती,
क्षन में तम से ढंक जायेगा, साथी, अन्तर मेरा-तेरा।
भार बन रहा जीवन मेरा।
41. हाय, नहीं अब कोई चारा - Gopal Das Neeraj
हाय, नहीं अब कोई चारा!
पथ के पद-चिन्हों पर चल-चल,
ढूँढ़ रहा था खोई मंज़िल,
पथिक एक, पर मिटा दिया आंधी ने वह भी एक सहारा!
हाय, नहीं अब कोई चारा!
इसके भी पद-चिन्ह हैं मिटे,
और बिछ गये पथ में कांटे,
लौट सकेगा पीछे भी कैसे भूला पंथी बेचारा!
हाय, नहीं अब कोई चारा!
तप के बादल भी घिर आये,
कौन कहे यह कब फट पायें,
यों ही पथ पर भटक-भटक कर कट जायेगा जीवन सारा!
हाय, नहीं अब कोई चारा!
42. बादल का अन्तर बरस रहा - Gopal Das Neeraj
बादल का अन्तर बरस रहा !
ठंडा पृथ्वी का हृदय हुआ,
फूटी मुस्कान कुसुम दल में,
मधुबन में मधु-होली होती जड़-जग का तृण-तृण सरस रहा !
बादल का अन्तर बरस रहा !
मदमत्त झूमता है कैसा,
वह अलि अपने यौवन-मधु में,
पर क्या मालूम उसे जग में कितनों का उर-मरु विरस रहा !
बादल का अन्तर बरस रहा !
उसके मानस मेँ जगा रही,
पर कितनी प्यास और पीड़ा,
वह विरही चातक बेचारा जो एक बूंद को तरस रहा !
बादल का अन्तर बरस रहा !
43. पेड़ गिरना चाहता है - Gopal Das Neeraj
पेड़ गिरना चाहता है।
सात दिन से से रहे थे,
जो कि दो अण्डे दिये थे,
आज बच्चे बन गये थे,
किन्तु सूना हाय! खग का नीड़ होना चाहता है।
पेड़ गिरना चाहता है।
लो गिरा वह तरु हहरकर,
घोंसला भी तो खिसक कर,
विकल जोड़ा विहग का पर,
प्राण देकर भी अरे! उसको बचाना चाहता है।
पेड़ गिरना चाहता है।
रुक गया वह घोंसला फिर,
दूसरे तरु से उलझ कर,
पर गिरे बच्चे निकल कर,
हाय! खोकर भी खजाना नीड़ रहना चाहता है।
पेड़ गिरना चाहता है।
विहग ने जब दृष्टि डाली,
नीड़ अटका, किंतु खाली,
लख, नयन में रेख काली-
छा गई, उस नीड़ को वह अब मिटाना चाहता है।
पेड़ गिरना चाहता है।
44. चुपके-चुपके मन में रोऊँ, बस मेरा अधिकार यही है - Gopal Das Neeraj
चुपके-चुपके मन में रोऊँ, बस मेरा अधिकार यही है।
जीवन के मरुवत्-प्रदेश पर,
अरमानों के धूम्र-शेष पर,
अश्रु अजस्र बहाता जाऊँ, बस मेरा व्यापार यही है।
चुपके-चुपके मन में रोऊँ, बस मेरा अधिकार यही है।
कर की संचित आशाओं को,
औ' अपूर्ण अभिलाषाओं को,
निर्ममता के कुचलूँ निशिदिन, बस मेरा अभिसार यही है।
चुपके-चुपके मन में रोऊँ, बस मेरा अधिकार यही है।
नेत्र मून्द लूँ रात बना लूँ,
और खोलकर प्रात बना लूँ,
कवि की चेतनता का इस जग में केवल संसार यही है।
चुपके-चुपके मन में रोऊँ, बस मेरा अधिकार यही है।
45. पीर मेरी, प्यार बन जा - Gopal Das Neeraj
पीर मेरी, प्यार बन जा!
लुट गया सर्वस्व जीवन
है बना बस पाप-सा धन
रे हृदय, मधु-कोष अक्षय, अब अनल अंगार बन जा।
पीर मेरी, प्यार बन जा!
अस्थि-पंजर से लिपट कर
क्यों तड़पता आह भर-भर
चिरविधुर मेरे विकल उर, जल अरे जल, छार बन जा।
पीर मेरी, प्यार बन जा!
क्यों जलाती व्यर्थ मुझको
क्यों रूलाती व्यर्थ मुझको
क्यों चलाती व्यर्थ मुझको
री अमर मरू-प्यास, मेरी मृत्यु की साकार बन जा।
पीर मेरी, प्यार बन जा!
46. था न जीवन भार मुझको - Gopal Das Neeraj
था न जीवन भार मुझको!
मैँ न जलना चाहता था,
मैँ न ढलना चाहता था,
प्यार कर जग से मिला था पर यही अधिकार मुझको!
था न जीवन भार मुझको!
भागता मैं यों न जीवन-
क्षेत्र से, हो नत-नयन-मन,
क्या करूं, पर जीत ही मेरी बनी जब हार मुझको!
था न जीवन भार मुझको!
प्रिय मुझे ज्वाला न होती,
नयन की हाला न खोती,
वेदना उर में न रोती,
क्या करूं, पर हृदय देकर जब मिला अंगार मुझको!
था न जीवन भार मुझको!
47. प्रियतम ! क्यों इतनी निष्ठुरता - Gopal Das Neeraj
प्रियतम ! क्यों इतनी निष्ठुरता?
वैसे तो तुम कभी न आते,
पर जब सपनों में आ जाते,
मुझे वहां भी छलते हो तुम,
क्या सपनों से भी बढ़कर है मानव-जीवन की असत्यता!
प्रियतम ! क्यों इतनी निष्ठुरता?
माना हूं मैं मानव लघु ही,
और मधुर तुम देव ही सही,
प्यार न यदि मुझको करते हो,
तृण समान ठुकरा सकते हो;
क्या जड़ तृण से भी बढ़कर है इस जग के मानव की लघुता !
प्रियतम ! क्यों इतनी निष्ठुरता?
पत्राश्रित निशि-तुहिन-बिन्दु चल-
मैँ मुसकाते तुम नित चंचल
मैंने इतना ही मांगा पर,
बन जाओ मेरे कवि के स्वर,
यह इच्छा भी तो न पूर्ण की;
क्या निशाश्रु से कम कोमल है इस युग के मानव की कविता !
प्रियतम ! क्यों इतनी निष्ठुरता?
48. मधुर, तुम इतना ही कर दो - Gopal Das Neeraj
मधुर, तुम इतना ही कर दो!
यदि यह कहते हो मैं गाऊँ,
जलकर भी आनन्द मनाऊँ-
इस मिट्टी के पंजर में मत छोटा - सा उर दो!
मधुर, तुम इतना ही कर दो!
तेरी मधुशाला के भीतर,
मैं ही खाली प्याला लेकर,
बैठा हूँ लज्जा से दबकर;
मैं पी लूंगा, मधु न सही, इसमें विष ही भर दो!
मधुर, तुम इतना ही कर दो!
तेरे विस्तृत गृह के अन्दर,
रहते सब जग के नारी-नर
तृण भर भी मुझको न ठौर पर;
अरे, न रहने दो मुझको कर उसका पत्थर दो!
मधुर, तुम इतना ही कर दो!
49. कर्त्तव्य-पथ, कर्त्तव्य-पथ - Gopal Das Neeraj
कर्त्तव्य-पथ, कर्त्तव्य-पथ!
चाहे मिटे तेरा प्रणय,
चाहे जले तेरा हृदय,
चिर आंसुओं की बाढ़ में
बह जाय आशा का निलय,
पर तुझे जीना पड़ेगा जब तक पड़ा है सामने-
कर्त्तव्य-पथ, कर्त्तव्य-पथ!
कटु शूल कितने ही चुभें,
ज्वालामुखी कितने फटें,
पग रो पडें, चाहे थकें,
पर तुझे बढ़ना पड़ेगा जब तक पड़ा है सामने-
कर्त्तव्य-पथ, कर्त्तव्य-पथ!
मधु भी अगर बन जाय विष,
अंगार ही बरसाय शशि,
पर हो यही तेरी हविस,
मैं बढ़ूँगा, मैं लड़ूंगा-जब तक पड़ा है सामने-
कर्त्तव्य-पथ, कर्त्तव्य-पथ!
मानव कभी परवश नहीं,
विधि-वाम के आश्रित नहीं,
उसकी दया है विश्व भी,
इसलिए दुर्बल न बन जब तक पड़ा है सामने-
कर्त्तव्य-पथ, कर्त्तव्य-पथ!
50. हार न अपनी मानूँगा - Gopal Das Neeraj
हार न अपनी मानूँगा मैं!
चाहे पथ में शूल बिछाओ,
चाहे ज्वालामुखी बसाओ,
किन्तु मुझे अब जाना ही है-
तलवारों की धारों पर भी हँस कर पैर बढ़ा लूँगा मैं।
हार न अपनी मानूँगा मैं!
मन में मरु-सी प्यास जगाओ,
रस की बूंद नहीं बरसाओ,
किन्तु मुझे जब जीना ही है-
मसल-मसल कर उर के छाले, अपनी प्यास बुझा लूँगा मैं।
हार न अपनी मानूँगा मैं!
चाहे चिर गायन सो जाए,
और हृदय मुर्दा हो जाए,
किन्तु मुझे जब गाना ही है-
बैठ चिता की छाती पर भी, मादक गीत सुना लूँगा मैं।
हार न अपनी मानूँगा मैं!
51. नभ में चपला चपल चमकती - Gopal Das Neeraj
नभ में चपला चपल चमकती।
एक लकीर नील नभ-तल पर पल में बनकर मिट जाती है,
जग के तिमिर-पूर्ण कोने में और अँधेरा कर जाती है,
पर जो बनती रेख हृदय पर कफन फाड़ कर अरे झलकती!
नभ में चपला चपल चमकती।
भूली हुई कपोती वह बैठी जो तरु की एक डाल पर,
प्रतिपल देख रही बिजली पर घूम रहा मन नीड़, बाल पर,
जाने क्यों भीषण रव सुन-सुन उसकी कोमल छाती कंपती!
नभ में चपला चपल चमकती।
पहले ही गिरकर बिजली जिसके सुख-सपने मिटा चुकी है,
और हाय! जिसकी सोने-सी दुनिया सहसा जला चुकी है,
आज ख़ाक पर भी उस घर की निष्ठुर नृत्य भयंकर करती!
नभ में चपला चपल चमकती।
52. नष्ट हुआ मधुवन का यौवन - Gopal Das Neeraj
नष्ट हुआ मधुवन का यौवन।
जो थे मधुमय अमृत लुटाते
जग जीवन का ताप मिटाते
वही सुमन हैं आज ढूँढ़ते जग के कण-कण में दो जल-कण।
नष्ट हुआ मधुवन का यौवन।
कल जो तरू की स्वर्ण-शिखा पर
थे अति सुदृढ़ और सुन्दर वर
आज उन्हीं नीड़ों को देखो, लूट लिया झंझा ने तृण-तृण।
नष्ट हुआ मधुवन का यौवन।
मधुप जा रहा था सुमनों पर
किन्तु प्रलय-झोंकों में पड़ कर
फ़ूलों के बदले शूलों से उलझ गया उसका प्यासा तन।
नष्ट हुआ मधुवन का यौवन।
53. विश्व, न सम्मुख आ पाओगे - Gopal Das Neeraj
विश्व, न सम्मुख आ पाओगे !
अन्तर ज्वालामुखी चीरकर,
तरल अश्रु बूंदों से छनकर,
जब निकलेगा मूक रुदन मम;
विश्व अरे, तब केवल कानों के ही परदे अजमाओगे!
विश्व, न सम्मुख आ पाओगे ।
चिर-अपूर्ण अरमान विकल ले,
संचित उर के गान विकल ले,
जब सो जायेगा मेरा उर;
चार कदम भी तो मेरी तुम लाश नहीं ले जा पाओगे!
विश्व, न सम्मुख आ पाओगे !
54. आ गई आँधी गगन में - Gopal Das Neeraj
आ गई आँधी गगन में।
ये नहीं दिखते जहां पर,
धूल-कण पहले वहां पर-
देख लो, छा गया कैसा काल अंधड़ एक क्षण में।
आ गई आँधी गगन में।
पेड़ जड़ से टूट गिरते,
और सदन अटूट गिरते,
किन्तु नभ में उड़ रहा वह कौन खग जग के पतन में?
आ गई आँधी गगन में।
दो बटोही सो रहे थे-
तले सुख से, एक तरु के,
गिर रहा वह पेड़ उन पर आ रहे आंसू नयन में।
आ गई आँधी गगन में।
55. अब दीपक बुझने वाला है - Gopal Das Neeraj
अब दीपक बुझने वाला है!
प्राणों की वर्तिका बनाकर,
जलता रहा प्रलय से लडकर,
केवल स्नेह-सुधा के बल पर,
लेकिन कब तक जल पायेगा स्नेह खत्म होने वाला है!
अब दीपक बुझने वाला है!
मिटने की अभिलाषा लेकर,
जलने की बस आशा लेकर,
खुद को यों ही मिटा-मिटाका,
प्राणाहुति को शलभों का मतवाला दल चलने वाला है!
अब दीपक बुझने वाला है!
संभव-और विहंसता दो क्षण,
लेकिन शलभों का पागलपन,
एक साथ जलने को टूटा,
दीप बुझा छा गया घोर तम,
हाय, न जाने उनका ही तो प्यार उन्हें छलने वाला है!
अब दीपक बुझने वाला है!
56. माँझी नौका खोल रहा है - Gopal Das Neeraj
माँझी नौका खोल रहा है!
तन-मन में उत्साह भरा है,
जीवन विशद प्रवाह भरा है,
ऊर्जस्वित नस-नस में तन के मन का साहस बोल रहा है!
गायन करती नौका चल दी,
स्वागत लोल लहरियाँ करतीं,
शून्य-सरित के गायन पर वह अपना गायन तोल रहा है!
लहरें चंचल होती जातीं,
और कालिमा घिरती आती,
प्रकृति-वधू के मधु में विधि निज काली पुड़िया घोल रहा है!
आंधी के आसार दिखाते,
दूर-दूर दो पार दिखाते,
विह्वल औ' विक्षुब्ध विकल वह निज पतवार टटोल रहा है!
किन्तु नहीँ पतवार दिखाती,
बस विस्तृत मंझधार दिखाती,
केवल आंसू ही एकाकी नयनों में अब डोल रहा है।
माँझी नौका खोल रहा है!
57. आज माँझी ने विवश हो छोड़ दी पतवार - Gopal Das Neeraj
आज माँझी ने विवश हो छोड़ दी पतवार।
यत्न कर-कर थक चुका हूँ
नाव आगे नहीं बढ़ती-
और सारा बल मिटा है
भाग्य में मरना बधा है-
सोच कर सूने नयन ने छोड़ दी जलधार।
आज माँझी ने विवश हो छोड़ दी पतवार।
क्यों न हो उसको निराशा
जिसे जीवन में सदा ही-
खिलाती थी मधुर आशा
पर नियति का क्या तमाशा-
पार लेने चला था, पर हाँ! मिली मँझधार।
आज माँझी ने विवश हो छोड़ दी पतवार।
किन्तु है तू तो अरे! नर
बैठता क्यों हार हिम्मत
छोड़ आशा का सबल कर
उठ, जरा तो कमर कसकर
देख पग-पग पर लहरियाँ ही बनेंगी पार।
और यह तूफ़ान क्षण में ही बनेगा छार।
माँझी, छोड़ मत पतवार!
58. मैं रोदन ही गान समझता! - Gopal Das Neeraj
मैं रोदन ही गान समझता!
उर-पीड़ा के अभिशापित दल
जो नयनों में रहते प्रतिपल-
आँसू के दो-चार क्षार कण, आज इन्हें वरदान समझता।
मैं रोदन ही गान समझता!
दुर्बल मन का अलस भाव जो-
अपने से अपना दुराव जो-
निज को ही विस्मृत कर देना आज श्रेष्ठतम ज्ञान समझता।
मैं रोदन ही गान समझता!
अपनी ये कितनी लघुता है
अपनी कितनी परवशता है-
कल जिसको पाषाण कहा था आज उसे भगवान समझता।
मैं रोदन ही गान समझता!
59. तुम गए चितचोर - Gopal Das Neeraj
तुम गए चितचोर!
एक क्षण में मधुर निष्ठुर तुम गए झकझोर।
तुम गए चितचोर!
हाय! जाना ही तुम्हें था
यों रुलाना ही मुझे था
तुम गए प्रिय! पर गए क्यों नहीं हृदय मरोर।
तुम गए चितचोर!
लुट गया सर्वस्व मेरा
नयन में इतना अँधेरा
घोर निशि में भी चमकती है नयन की कोर।
तुम गए चितचोर!
60. निकला नभ में एक सितारा - Gopal Das Neeraj
निकला नभ में एक सितारा।
नील गगन में पंख पसारे,
घर दौड़े खग प्यारे प्यारे,
गूंज उठा रव से दिग्मंडल, नभमंडल, भूमंडल सारा।
निकला नभ में एक सितारा।
नष्ट हुई पश्चिम की लाली,
रेख छा गई तम-सी काली,
किसने सोने की दुनिया पर अपना काला हाथ पसारा।
निकला नभ में एक सितारा।
लख दिनकर को जाता जग से,
कुछ बोली कोकी उस तट से,
कांप उठा सुनकर जिसको मेरे जीवन का कूल-किनारा।
निकला नभ में एक सितारा।
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