Gopal Das Neeraj Lahar Pukare

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

gopal-das-neeraj
लहर पुकारे गोपालदास नीरज(toc)
 

पूर्ण होकर रुदन भी युग-गान बनता है - Gopal Das Neeraj

पूर्ण होकर रुदन भी युग-गान बनता है,
मधुरतम गान बनता है ।
 
जब ह्रदय का एक आँसू
सब समर्पण भाव लेकर,
नयन-सीपी में उतर कर,
अर्चना का अर्घ्य बनता,
एक क्षण पाषाण भी भगवान बनता है,
मधुरतम गान बनता है ।
 

जय जय जय जयति हिन्द - Gopal Das Neeraj

जय जय जय जयति हिन्द !
 
प्राची दिशि हरित भरित
श्यामलांग बंग-देश,
शोभित शुभ पश्चिमांग
काबुल कल किरण-वेश,
 
पद्तल नीलाम्बरांग
गर्जित हर-हर अशेष
 
भाल-मुकुट स्वर्ण वर्ण
तुंग श्रृंग विश्व-वंद्य !
जय जय जय जयति हिन्द !
 
लहर-लहर स्वर्ग गंग
गाती तप, त्याग-गीत,
यमुन अधर मुरली धर
मुखरित करती सुप्रीति,
 
कल-कल ध्वनि-सरयू नित,
ध्वनित रामराज नीति,
 
पढ़तीं सुस्वतंत्र मंत्र
रावी ऋजु, सबल सिंध ।
जय जय जय जयति हिन्द !
 
मंथर मृदु मलय पवन
हरता तन पीर सघन
खिल खिल कर सुवसंत
करता सुख सुमन-चयन,
 
झर-झर कर पावस रस
धोता कल कमल चरन,
 
करते स्तुति गुन-गुन, बन,
मगन-मन मिलिन्द वृन्द ।
जय जय जय जयति हिन्द !
 
हिन्दू, सिख, मुसलमान,
पारसीक किरिस्तान,
वन्दन-हित नमित अमित
वष्टि कंठ, पूत प्रान,
 
'एकोओहँबहुस्याम'
'सर्वखल्विदं'-गान
 
गाते गांधी सुभाष नेहरू आनन्दकन्द ।
जय जय जय जयति हिन्द !
 

तब मानव कवि बन जाता है - Gopal Das Neeraj

तब मानव कवि बन जाता है!
 
जब उसको संसार रुलाता,
वह अपनों के समीप जाता,
पर जब वे भी ठुकरा देते
वह निज मन के सम्मुख आता,
पर उसकी दुर्बलता पर जब मन भी उसका मुस्काता है!
तब मानव कवि बन जाता है!
 

मधु पीते-पीते थके नयन, फ़िर भी प्यासे अरमान ! - Gopal Das Neeraj

मधु पीते-पीते थके नयन, फिर भी प्यासे अरमान !
जीवन में मधु, मधु में गायन, गायन में स्वर, स्वर में कंपन
कंपन में साँस, साँस में रस, रस में है विष, विष मध्य जलन
जलन में आग, आग में ताप, ताप में प्यार, प्यार में पीर
पीर में प्राण, प्राण में प्यास, प्यास में त्रृप्ति, तृप्ति का नीर
और यह तृप्ति, तृप्ति ही क्षणिक, विश्व की मीठी मधुर थकान!
फिर भी प्यासे अरमान!!
 
जीवन पाया, पर जीवन में क्या दो क्षण सुख के बीत सके?
मन छलने वाले मिले बहुत, पर क्या मिल मन के मीत सके?
यह रेगिस्तानी प्यास मिली, मधु पाकर और मचलती है,
यह ठन्डी मीठी आग मिली, जो जीवन पीकर जलती है
सब कुछ मिल गया, मगर न मिले प्याले में डूबे प्राण!
फिर भी प्यासे अरमान!!
 
मणि-खचित-दया के प्याले में, मैंने न कभी पीना सीखा
जग के चरणों में नत-मस्तक होकर न कभी जीना सीखा
कितनी कोमल निर्ममता से पर तुम सपनों के चित्रकार!
क्षण भर में छल कर गये प्राण, मानव की करके मधुर हार
आँसू बन आए, चले गए, इतने पर भी एहसान!
फिर भी प्यासे अरमान!!
 

जीवन जहाँ - Gopal Das Neeraj

जीवन जहाँ ख़त्म हो जाता !
 
उठते-गिरते,
जीवन-पथ पर
चलते-चलते,
पथिक पहुँच कर,
इस जीवन के चौराहे पर,
क्षणभर रुक कर,
सूनी दृष्टि डाल सम्मुख जब पीछे अपने नयन घुमाता !
जीवन वहाँ ख़त्म हो जाता !
 

उसकी प्यास प्रबल कितनी थी - Gopal Das Neeraj

उसकी प्यास प्रबल कितनी थी?
सम्मुख पाकर
मधु, विष के लहराते सागर
मधु पर झुककर भी
लेकिन कुछ
सोच, समझ कर;
प्यासी दृष्टि डाल उस पर जो केवल विष पी पाया!
उसकी प्यास प्रबल कितनी थी?
 

तुम और मैं - Gopal Das Neeraj

तुम जीवन की सुनसान डगर
मैं कपित शंकित चरण,
चरण तुम तरुण अरुण भी करुण
और मैं दबी शर्म-सी शरण ।
 
मधुर मैं टूटा शिशु का स्वप्न,
थपकतीं तुम कर की ममता,
दान-सी तुम महानता मौन,
भिक्षु-झोली की मैं लघुता ?
 
प्रथम तुम वर्षा ऋतु की बूँद,
विधुर-उर की मैं उठती पीर,
तृषित मैं मधु का मधुपी बाल
और तुम चंचल सुरसरि-नीर ।
प्रथम तुम सजल उषा की किरन
और मैं अन्तिम नभ-तारा,
प्रथम तुम दो नयनों की बात
और मैं मन जीता हारा ।
 
युगों की तुम अनंत अथ बाट,
बाट तकती थकती मैं आस
गंध तुम मधु-मकरन्द अमन्द
मधुम-मन की मैं मीठी प्यास ।
उदधि तुम अगम, अपार, असीम,
और मैं बुदबुद का अस्तित्व,
देश स्वातंत्रय अंक तुम अमर,
मचलते शिशु का मैं शुभ स्वत्व,
 
प्रबल तुम झननन न झंझा अनिल
और मैं प्राण-दीप-कंपन,
घुमड़ते घन तुम भीमाकार
जीर्ण झोंपड़ियों का मैं रुदन ।
 
गिर रही गिरि से मैं सरि-धार,
अंक भरते तुम प्रिय भुज-कूल,
चपल अंचल बन मैं उड़ रहा,
थामते तुम पाटल-दल-शूल ।
 
मधुर तुम खोयी मंज़िल मिली,
यक्रित मन का मैं अर्जित यत्न,
उग रहे तुम जल में राकेन्दु,
और मैं बाल-चकोर-प्रयत्न ।
 
सुहागिन कामिनि की मैं माँग,
और तुम कुंकुम रक्तिम रेख,
प्रतनु तुम तिय-अवगुंठन गोल
झाँकती मैं चल चितवन एक ।
 
इकाई तुम जीवन की पूर्ण,
अपूर्ण शून्य मैं प्राण-प्रतीक,
प्रीति-रथ-गति बन तुम चल रहे
और मैं बनती-मिटती लीक ।
 
बुझ रहा मैं अग्निल अंगार,
पड़ीं तुम पतली उजली राख,
विफल तुम कृत्रिम कृति, आचरण
गई मैं बात, गई में साख ।
 
जागते बीती तुम निशि अर्ध,
और मैं निद्रित असलित आँख,
प्राण ! तुम पवन पंख बन उड़े,
मृदुल मैं झूल गई कलि पाँख ।
 
भयंकर वज्र-खंड तुम घोष,
और मैं काँप रहा तरु-नीड़
मंच के तुम पट पूर्ण सुखान्त
और मैं उठती दर्शक-भीड़ !
 

क्या हुआ जो साथ छूटा? - Gopal Das Neeraj

क्या हुआ जो साथ छूटा?
साथ मग तो शेष है!
 
श्वास की चलती हवा में,
दो अमर सुख-दुख-विहंगम,
उड़ चले थे विश्व-नभ पर,
खोजने निज नीड़ स्वर्णिम,
 
क्या हुआ सुख थक गया जो?
दुख-विहग तो शेष है !
 
क्या हुआ जो साथ छूटा?
साथ मग तो शेष है!
 
शून्य जग-जीवन-गगन पर,
रात जब आकर उतरती,
कुछ तिमिर वह नील हरता,
कुछ तिमिर यह आँख हरती,
 
क्या हुआ घन में छिपा शशि है
ज्योति-दृग तो शेष है!
 
क्या हुआ जो साथ छूटा?
साथ मग तो शेष है!
 
सत्य क्या है ? कुछ भी नहीं बस
स्वप्न का अंतिम चरण है,
स्वप्न क्या ?-कुछ भी नहीं बस
सत्य की पहली शरण है,
 
क्या हुआ जो सत्य टूटा?
स्वप्न-जग तो शेष है!
 
क्या हुआ जो साथ छूटा?
साथ मग तो शेष है!
 

दूर मत करना चरण से - Gopal Das Neeraj

दूर मत करना चरण से!
 
छोड़ कर संसार सारा,
है लिया इनका सहारा,
यदि न ठौर मिला यहाँ भी क्या मिला फिर मनुज-तन से?
दूर मत करना चरण से !
 
कलुष जीवन-पुष्य होगा,
स्वप्न, सत अक्षुण्ण होगा,
छू सकूँ प्रिय पद तुम्हारे प्यार के गीले नयन से!
दूर मत करना चरण से!
 
यदि तुम्हारी छाँह-चितवन-
में पले यह छुद्र जीवन,
है अटल विश्वास जीवन छीन लाऊँगा मरण से!
दूर मत करना चरण से!
 

अब तुम्हारे ही सहारे - Gopal Das Neeraj

अब तुम्हारे ही सहारे!
 
हो लगाते पार तुम नित,
डूबते बेड़े अनगिनत,
एक मेरी भी लगा दो, ओ दुलारे ! उस किनारे!
अब तुम्हारे ही सहारे!
 
माँगते तुम नाव का कर,
सोचता हूँ मैं नयन भर,
क्या तुम्हें दूँ प्राण ! तन-मन-धन सभी जब हैं तुम्हारे!
अब तुम्हारे ही सहारे!
 
यदि हुबा दी नाव तुमने,
यह रहेगा सोच मन में,
'था नहीं माँझी चतुर'-कह हँसेंगे लोग सारे!
अब तुम्हारे ही सहारे!
 

मैं तुम्हारी तुम हमारे - Gopal Das Neeraj

"मैं तुम्हारी तुम हमारे!"
 
नयन में निज नयन भर कर
अधर पर सुमधुर अधर धर
साध कर स्वर, साध कर उर
एक दिन तुमने कहा था प्रेम-गंगा के किनारे।
"मैं तुम्हारी तुम हमारे!"
था कथित उर-प्यार हारा
मौन था संसार सारा
सुन रहा था सरित-जल, सब मुस्कुराते चाँद-तारे।
"मैं तुम्हारी तुम हमारे!"
 
अब कहीं तुम, मैं कहीं हूँ
अर्थ इसका मैं नहीं हूँ
शेष हैं वे शब्द, क्षत उर-स्वप्न, दो नयनाश्रु खारे।
"मैं तुम्हारी तुम हमारे!"
 

प्राण ! परीक्षा बहुत कठिन है - Gopal Das Neeraj

प्राण ! परीक्षा बहुत कठिन है ।
 
जिस आन्धी के पथ में पड़ कर,
हिल उठते तरु, गिरि, सरि; सागर,
कैसे उसमें अटल रहूँ मैं वज्र नहीं, मिट्टी का तन है !
प्राण ! परीक्षा बहुत कठिन है ।
 
देख रूप-छवि जिस यौवन की,
डोल गये नारद-से मुनि भी,
कैसे दूर रहूँ उससे मैं आखिर मुझमें दुर्बल मन है!
प्राण ! परीक्षा बहुत कठिन है ।
 
मनुज, मनुज निज दुर्बलता में,
देव, देव निज महानता में,
पाप मनुज की महानता का केवल उसका दुर्बल क्षण है!
प्राण ! परीक्षा बहुत कठिन है ।
 

अब तो ले लो प्राण ! शरण में - Gopal Das Neeraj

अब तो ले तो प्राण ! शरण में!
 
मृग-जल से छल छल कर पल-छिन,
विकल कराह रहा प्यासा मन,
बरसो घन बन मदिर मगन मन मुसकाये जीवन तृण-तृण में ।
अब तो ले लो प्राण ! शरण में!
 
चाह अश्रु-मुक्ता ढुलका कर
है प्रतिदान तुम्हें प्रतिपल, पर-
दानी के झोले की समता कैसे भिक्षु करे जीवन में!
अब तो ले लो प्राण ! शरण में!
 
चाहे प्यार करो ठुकराओ,
चाहे राखो या बिसराओ,
डाल दिया है सर्वस अपना आज तुम्हारे तरुण चरण में ।
अब तो ले लो प्राण ! शरण में!
 

प्रेम-पंथ - Gopal Das Neeraj

पंथी प्रेम-पंथ दुस्तर, मत
चल इस पर खो जायेगा,
गर्व तुझे अपनेपन का वह
आँसू से धो जायेगा ।
 
इसका है उद्देश्य यहीं मन-
में रखना कुछ चाह नहीं,
चुपके-चुपके जलते जाना
मुख से करना आह नहीं ।
 
इस पथ का है जादि जहाँ से
दिनकर रोज़ निकलता है,
अंत वहाँ है जहाँ साँझ को
जाकर तम में ढलता है ।
 
इसकी मंज़िल पर बरसों तक
लाश बे-कफ़न ही रहती
बिना स्नेह के ही जीवन की
बाती नित जलती रहती ।
 
शूलों की शय्या पर सोते
यहीं सदा ही कमल अमल,
अंगारों पर मुसकाता है
चंचल जल निर्मल-निर्मल ।
 
एक ओर इस बीहड़-पथ के
बसा हुआ नन्दन-कानन,
किन्तु दूसरी ओर पड़ा है
बस विस्तृत निर्जन-निर्जन ।
 
सदा आँधियाँ और बिजलियाँ
करती हैं इस पर नर्त्तन,
यहीं मेघ की क्षुद्र बूँद-सा
बन जाता जग का जीवन ।
 
सर से कफन बाँध चलते हैं
इस पथ के चलने वाले,
और पहुंचते वहीं खोलकर
चलते जो दिल के छाले ।
 
यहाँ न पथ के पत्थर पर भी
क्षण विश्राम किया जाता,
ठोकर खा-खाकर भी बढ़ने-
का ही नाम लिया जाता ।
 
बिंध-बिंधकर भी काँटों में नित
मादक गान किया जाता,
एकत्रित मरने का पहले सब
सामान किया जाता ।
 
यहीं फेंक कर का मधु-प्याला
कटु विषपान किया जाता,
और जवानी का आलम सब
रेगिस्तान किया जाता ।
 

तब किसी की याद आती - Gopal Das Neeraj

तब किसी की याद आती!
 
पेट का धन्धा खत्म कर
लौटता हूँ साँझ को घर
बन्द घर पर, बन्द ताले पर थकी जब आँख जाती।
तब किसी की याद आती!
 
रात गर्मी से झुलसकर
आँख जब लगती न पलभर
और पंखा डुलडुलाकर बाँह थक-थक शीघ्र जाती।
तब किसी की याद आती!
 
अश्रु-कण मेरे नयन में
और सूनापन सदन में
देख मेरी क्षुद्रता वह जब कि दुनिया मुस्कुराती।
तब किसी की याद आती!
 

रेखाएँ - Gopal Das Neeraj

तट से ही कुछ दूर डूबती
जगजीवन की नैया,
विवश पार की की देखता,
माँझी नाव - खिवैया!
 
सरिता के सूने तट पर
शशि की किरणें मुसकातीं,
पर मानव की इच्छाएँ-
यह देख नहीं क्यों पातीं,
 
सागर के वक्ष:स्थल पर
अस्थिर बुद् बुद् जग सारा
अवसानमयी रेखाएँ
पा लेतीं पूर्ण किनारा ।
 

नर होकर कर फैलाता है - Gopal Das Neeraj

नर होकर कर फैलाता है ?
 
का फैलाने से जो मिलता,
इन्द्रासन, सुख-स्वर्ग, अमरता,
खंडहर भी तो एक बार उसके वैभव पर मुसकाता है !
नर होकर कर फैलाता है ?
 
पूर्ण अभी तुझमें अपनापन,
और भरा नस-नस में जीवन;
भीख माँगता तब मानव जब मानव उसका मर जाता है!
नर होकर कर फैलाता है ?
 
नयनों में भावना-भिक्षु भर,
मत जग के सन्मुख फैला कर,
निर्बल को मिलती न भीख पर सबल स्वर्ग-सुख भी पाता है ।
नर होकर कर फैलाता है ?
 

चलते-चलते थक गए पैर - Gopal Das Neeraj

चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
पीते-पीते मुँद गए नयन फिर भी पीता जाता हूँ!
 
झुलसाया जग ने यह जीवन इतना कि राख भी जलती है,
रह गई साँस है एक सिर्फ वह भी तो आज मचलती है,
क्या ऐसा भी जलना देखा-
जलना न चाहता हूँ लेकिन फिर भी जलता जाता हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
 
बसने से पहले लुटता है दीवानों का संसार सुघर,
खुद की समाधि पर दीपक बन जलता प्राणों का प्यार मधुर,
कैसे संसार बसे मेरा-
हूँ कर से बना रहा लेकिन पग से ढाता जात हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
 
मानव का गायन वही अमर नभ से जाकर टकाराए जो,
मानव का स्वर है वही आह में भी तूफ़ान उठाए जो,
पर मेरा स्वर, गायन भी क्या-
जल रहा हृदय, रो रहे प्राण फिर भी गाता जाता हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
 
हम जीवन में परवश कितने अपनी कितनी लाचारी है,
हम जीत जिसे सब कहते हैं वह जीत हार की बारी है,
मेरी भी हार ज़रा देखो-
आँखों में आँसू भरे किन्तु अधरों में मुसकाता हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
 

सजल-सजल निज नील नयन-घन - Gopal Das Neeraj

सजल सजल निज नील नयन-घन!
 
उन्मन मन-मधुकर मुधुवन, बन,
उन्मन जीवन-जन तृन, तृन, कन,
बरसो, बरसो ऐसे बरसो रुदन बने रिमझिम रिमझिम-स्वन!
सजल सजल निज नील नयन-घन!
 
यह मत देखो मैं घुलता हूँ,
यह मत देखो मैं ढलता हूँ,
देखो सूनी गोद प्रकृति की, देखो सदन सदन-सूनापन!
सजल सजल निज नील नयन-घन!
 
भूलो मेरी विह्वलता को,
भूलो मेरी दुर्बलता को
पर बन जाओ स्वाति बूँद चिर तृषित चातकी के जीवन-धन!
सजल सजल निज नील नयन-घन!
 

आज वेदना सुख पाती है - Gopal Das Neeraj

आज वेदना सुख पाती है!
 
तेरी याद अचानक आकर,
मुझे रुला जाती जो क्षणभर,
इसका अर्थ यही है प्रेयसी याद तुझे मेरी आती है!
आज वेदना सुख पाती है!
 
मेरे गीतों में सज-सजकर-
छाती जो तेरी छवि सुंदर,
इसका अर्थ यही है मुझमें तू निज गीत स्वयं गाती है!
आज वेदना सुख पाती है!
 
दूर कहाँ जाएगी निष्ठुर!
मेरा हृदय, प्यार ठुकराकर,
मेरा प्यार प्राप्त कर ही तो प्रेयसी प्रेयसी कहलाती है!
आज वेदना सुख पाती है!
 

एक दिन भी जी मगर - Gopal Das Neeraj

एक दिन भी जी मगर तू ताज बनकर जी,
 
अटल विश्वास बनकर जी;
अमर युग-गान बनकर जी !
 
आज तक तू समय के पदचिह्न-सा खुद को मिटाकर
कर रहा निर्माण जग-हित एक सुखमय स्वर्ग सुन्दर,
स्वार्थी दुनिया मगर बदला तुझे यह दे रही है--
भूलता युग-गीत तुझको ही सदा तुझसे निकलकर,
'कल' न बन तू ज़िन्दगी का "आज" बनकर जी,
अटल विश्वास बनकर जी !
 
जन्म से तू उड़ रहा निस्सीम इस नीले गगन पर,
किन्तु फिर भी छाँह मंज़िल की नहीं पड़ती नयन पर,
और जीवन-लक्ष्य पर पहुंचे बिना जो मिट गया तू-
जग हँसेगा खूब तेरे इस करुण असफल मरण पर,
ओ मनुज ! मत विहग बन आकाश बनकर जी,
अटल विश्वास बनकर जी !
 
एक युग से आरती पर तू चढ़ाता निज नयन ही
पर कभी पाषाण क्या ये पिघल पाये एक क्षण भी,
आज तेरी दीनता पर पड़ रहीं नज़रें जगत की,
भावना पर हँस रही प्रतिमा धवल, दीवार मठ की,
मत पुजारी बन स्वयं भगवान बनकर जी !
अमर युग-गान बनकर जी ।

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