Nida Fazli Selected Nazme | चुनिंदा नज़्में निदा फ़ाज़ली

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Selected Nazme Nida Fazli
चुनिंदा नज़्में निदा फ़ाज़ली(toc)

आदमी की तलाश - Nida Fazli

अभी मरा नहीं ज़िंदा है आदमी शायद
यहीं कहीं उसे ढूँडो यहीं कहीं होगा
बदन की अंधी गुफा में छुपा हुआ होगा
बढ़ा के हाथ
हर इक रौशनी को गुल कर दो
हवाएँ तेज़ हैं झँडे लपेट कर रख दो
जो हो सके तो उन आँखों पे पट्टियाँ कस दो
न कोई पाँव की आहट
न साँसों की आवाज़
डरा हुआ है वो
कुछ और भी न डर जाए
बदन की अंधी गुफा से न कूच कर जाए
यहीं कहीं उसे ढूँडो
वो आज सदियों बाद
उदास उदास है
ख़ामोश है
अकेला है
न जाने कब कोई पसली फड़क उठे उस की
यहीं कहीं उसे ढूँडो यहीं कहीं होगा
बरहना हो तो उसे फिर लिबास पहना दो
अँधेरी आँखों में सूरज की आग दहका दो
बहुत बड़ी है ये बस्ती कहीं भी दफ़ना दो
अभी मरा नहीं
ज़िंदा है आदमी शायद
 
nida-fazli

इक़रारनामा - Nida Fazli

(शीला किणी के लिए)
 
ये सच है
जब तुम्हारे जिस्म के कपड़े
भरी महफ़िल में छीने जा रहे थे
उस तमाशे का तमाशाई था मैं भी
और मैं चुप था
 
ये सच है
जब तुम्हारी बेगुनाही को
हमेशा की तरह सूली पे टांगा जा रहा था
उस अंधेरे में
तुम्हारी बेजुबानी ने पुकारा था मुझे भी
और मैं चुप था
 
ये सच है
जब सुलगती रेत पर तुम
सर बरहना
अपने बेटे भाइयों को तनहा बैठी रो रही थीं
मैं किसी महफ़ूज गोशे में
तुम्हारी बेबसी का मर्सिया था
और मैं चुप था
 

इतनी पी जाओ - Nida Fazli

इतनी पी जाओ
कि कमरे की सियह ख़ामोशी
इस से पहले कि कोई बात करे
तेज़ नोकीले सवालात करे
इतनी पी जाओ कि दीवारों के बे-रंग निशान
इस से पहले कि
कोई रूप भरें
माँ बहन भाई को तस्वीर करें
मुल्क तक़्सीम करें
इस से पहले कि उठें दीवारें
ख़ून से माँग भरें तलवारें
यूँ गिरो टूट के बिस्तर पे अँधेरा हो जाए
जब खुले आँख सवेरा हो जाए
इतनी पी जाओ!
 

इत्तिफ़ाक़ - Nida Fazli

हम सब
एक इत्तिफ़ाक़ के
मुख़्तलिफ़ नाम हैं
मज़हब
मुल्क
ज़बान
इसी इत्तिफ़ाक़ की अन-गिनत कड़ियाँ हैं
अगर पैदाइश से पहले
इन्तिख़ाब की इजाज़त होती
तो कोई लड़का
अपने बाप के घर में पैदा होना पसंद नहीं करता
 

इंतिज़ार - Nida Fazli

मुद्दतें बीत गईं
तुम नहीं आईं अब तक
रोज़ सूरज के बयाबाँ में
भटकती है हयात
चाँद के ग़ार में
थक-हार के सो जाती है रात
फूल कुछ देर महकता है
बिखर जाता है
हर नशा
लहर बनाने में उतर जाता है
वक़्त!
बे-चेहरा हवाओं सा गुज़र जाता है
किसी आवाज़ के सब्ज़े में लहक जैसी तुम
किसी ख़ामोश तबस्सुम में चमक जैसी तुम
किसी चेहरे में महकती हुई आँखों जैसी
कहीं अबरू कहीं गेसू कहीं बाँहों जैसी
चाँद से
फूल तलक
यूँ तो तुम्हीं तुम हो मगर
तुम कोई चेहरा कोई जिस्म कोई नाम नहीं
तुम जहाँ भी हो
अधूरी हो हक़ीक़त की तरह
तुम कोई ख़्वाब नहीं हो
जो मुकम्मल होगी
 

एक कहानी - Nida Fazli

तुम ने
शायद किसी रिसाले में
कोई अफ़्साना पढ़ लिया होगा
खो गई होगी रूप की रानी
इश्क़ ने ज़हर खा लिया होगा
तुम अकेली खड़ी हुई होगी
सर से आँचल ढलक रहा होगा
या पड़ोसन के फूल से रुख़ पर
कोई धब्बा चमक रहा होगा
काम में होंगे सारे घर वाले
रेडियो गुनगुना रहा होगा
तुम पे नश्शा सा छा गया होगा
मुझ को विश्वाश है कि अब तुम भी
शाम को खिड़की खोल देने पर
अपनी लड़की को टोकती होगी
गीत गाने से रोकती होगी
 

एक चिड़िया - Nida Fazli

जामुन की इक शाख़ पे बैठी इक चिड़िया
हरे हरे पत्तों में छप कर गाती है
नन्हे नन्हे तीर चलाए जाती है
और फिर अपने आप ही कुछ उकताई सी
चूँ चूँ करती पर तोले उड़ जाती है
धुँदला धुँदला दाग़ सा बनती जाती है
मैं अपने आँगन में खोया खोया सा
आहिस्ता आहिस्ता घुलता जाता हूँ
किसी परिंदे के पर सा लहराता हूँ
दूर गगन की उजयाली पेशानी पर
धुँदला धुँदला दाग़ सा बनता जाता हूँ
 

एक तस्वीर - Nida Fazli

सुब्ह की धूप
धुली शाम का रूप
फ़ाख़्ताओं की तरह सोच में डूबे तालाब
अजनबी शहर के आकाश
अँधेरों की किताब
पाठशाला में चहकते हुए मासूम गुलाब
घर के आँगन की महक
बहते पानी की खनक
सात रंगों की धनक
तुम को देखा तो नहीं है
लेकिन
मेरी तंहाई में
ये रंग-बिरंगे मंज़र
जो भी तस्वीर बनाते हैं
वो!
तुम जैसी है
 

एक दिन - Nida Fazli

सूरज एक नटखट बालक सा
दिन भर शोर मचाए
इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे
किरणों को छितराये
कलम, दरांती, बुरुश, हथोड़ा
जगह जगह फैलाये
शाम
थकी हारी मां जैसी
एक दिया मलकाए
धीरे धीरे सारी
बिखरी चीजें चुनती जाये।
 

कल रात - Nida Fazli

कल रात
वो थका हुआ
चुप चुप
उदास उदास
सुनता रहा सड़क से गुज़रती बसों का शोर
पीपल का पत्ता टूट के दीवार ढा गया
आंतों का दर्द नींद की परियों को खा गया
झुँझला के उस ने चाँदी का दीपक बुझा दिया
आकाश को समेट के नीचे गिरा दिया
फैली हुई ज़मीं को धुएँ सा उड़ा दिया
फिर कुछ नहीं
न खेत, न मैदाँ, न रास्ते
बस इक निगाह
खिड़की की रंग-जालियाँ
(बस तीन चार आने की दो चार गोलियां)
 

क़ौमी यक-जेहती - Nida Fazli

वो तवाइफ़
कई मर्दों को पहचानती है
शायद इसी लिए
दुनिया को ज़ियादा जानती है
उस के कमरे में
हर मज़हब के भगवान की एक एक तस्वीर लटकी है
ये तस्वीरें
लीडरों की तक़रीरों की तरह नुमाइशी नहीं
उस का दरवाज़ा
रात गए तक
हिन्दू
मुस्लिम
सिख
ईसाई
हर मज़हब के आदमी के लिए खुला रहता है
ख़ुदा जाने
उस के कमरे की सी कुशादगी
मस्जिद और मंदिर के आँगनों में कब पैदा होगी
 

खेल - Nida Fazli

आओ
कहीं से थोड़ी सी मिट्टी भर लाएँ
मिट्टी को बादल में गूँधें
नए नए आकार बनाएँ
किसी के सर पे चुटिया रख दें
माथे ऊपर तिलक सजाएँ
किसी के छोटे से चेहरे पर
मोटी सी दाढ़ी फैलाएँ
कुछ दिन इन से जी बहलाएँ
और ये जब मैले हो जाएँ
दाढ़ी चोटी तिलक सभी को
तोड़-फोड़ के गड-मड कर दें
मिली-जुली ये मिट्टी फिर से
अलग अलग साँचों में भर दें
नए नए आकार बनाएँ
दाढ़ी में चोटी लहराए
चोटी में दाढ़ी छुप जाए
किस में कितना कौन छपा है
कौन बताए
 

खेलता बच्चा - Nida Fazli

घास पर खेलता है इक बच्चा
पास माँ बैठी मुस्कुराती है
मुझ को हैरत है जाने क्यूँ दुनिया
काबा ओ सोमनात जाती है
 

ख़ुदा का घर नहीं कोई - Nida Fazli

ख़ुदा का घर नहीं कोई
बहुत पहले हमारे गाँव के अक्सर बुज़ुर्गों ने
उसे देखा था
पूजा था
यहीं था वो
यहीं बच्चों की आँखों में
लहकते सब्ज़ पेड़ों में
वो रहता था
हवाओं में महकता था
नदी के साथ बहता था
हमारे पास वो आँखें कहाँ हैं
जो पहाड़ी पर
चमकती
बोलती
आवाज़ को देखें
हमारे कान बहरे हैं
हमारी रूह अंधी है
हमारे वास्ते
अब फूल खिलते हैं
न कोंपल गुनगुनाती है
न ख़ामोशी अकेले में सुनहरे गीत गाती है
हमारा अहद!
माँ के पेट से अंधा है बहरा है
हमारे आगे पीछे
मौत का तारीक पहरा है
 

ख़ुदा ख़ामोश है - Nida Fazli

बहुत से काम हैं
लिपटी हुई धरती को फैला दें
दरख़्तों को उगाएँ
डालियों पे फूल महका दें
पहाड़ों को क़रीने से लगाएँ
चाँद लटकाएँ
ख़लाओं के सरों पे नील-गूँ आकाश
फैलाएँ
सितारों को करें रौशन
हवाओं को गती दे दें
फुदकते पत्थरों को पँख दे कर नग़्मगी दे दें
लबों को मुस्कुराहट
अँखड़ियों को रौशनी दे दें
सड़क पर डोलती परछाइयों को
ज़िंदगी दे दें
ख़ुदा ख़ामोश है!
तुम आओ तो तख़्लीक़ हो दुनिया
मैं इतने सारे कामों को अकेला कर नहीं सकता
 

चौथा आदमी - Nida Fazli

बैठे बैठे यूँही क़लम ले कर
मैं ने काग़ज़ के एक कोने पर
अपनी माँ
अपने बाप के दो नाम
एक घेरा बना के काट दिए
और
इस गोल दाएरे के क़रीब
अपना छोटा सा नाम टाँक दिया
मेरे उठते ही, मेरे बच्चे ने
पूरे काग़ज़ को ले कर फाड़ दिया!
 

छोटी सी शॉपिंग - Nida Fazli

गोटे वाली
लाल ओढ़नी
उस पर
चोली-घागरा
उसी से मैचिंग करने वाला
छोटा सा इक नागरा
छोटी सी!
ये शॉपिंग थी
या!
कोई जादू-टोना
लम्बा चौड़ा शहर अचानक
बन कर
एक खिलौना
इतिहासों का जाल तोड़ के
दाढ़ी
पगड़ी
ऊँट छोड़ के
''अलिफ़'' से
अम्माँ
''बे'' से
बाबा
बैठा बाज रहा था
पाँच साल की बच्ची
बन कर जयपुर
नाच रहा था
 

छोटी सी हँसी - Nida Fazli

सूनी सूनी थी फ़ज़ा
मैं ने यूँही
उस के बालों में गुँधी ख़ामोशियों को छू लिया
वो मुड़ी
थोड़ा हँसी
मैं भी हँसा
फिर हमारे साथ
नदियाँ वादियाँ
कोहसार बादल
फूल कोंपल
शहर जंगल
सब के सब हँसने लगे
इक मोहल्ले में
किसी घर के
किसी कोने की
छोटी सी हँसी ने
दूर तक फैली हुई दुनिया को
रौशन कर दिया है
ज़िंदगी में
ज़िंदगी का रंग फिर से भर दिया है
 

जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है - Nida Fazli

जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है
दो आँखों में एक से हँसना एक से रोना है
 
जो जी चाहे वो मिल जाये कब ऐसा होता है
हर जीवन जीवन जीने का समझौता है
अब तक जो होता आया है वो ही होना है
 
रात अँधेरी भोर सुहानी यही ज़माना है
हर चादर में दुख का ताना सुख का बाना है
आती साँस को पाना जाती साँस को खोना है
 

जेब कटने के ब'अद - Nida Fazli

मिरे कुर्ते की बूढ़ी जेब से कल
तुम्हारी याद!!
चुपके से निकल कर
सड़क के शोर-ओ-गुल में खो गई है
बड़ी बस्ती है
किस को फ़िक्र इतनी!
कि किस खोली में कब से तीरगी है
यहाँ
हर एक को अपनी पड़ी है
 

तुम्हारी कब्र पर - Nida Fazli

तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
 
मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था ।
 
मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी ।
 
कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |
 
बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम |
 
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना |
 

तेरा नाम नहीं - Nida Fazli

तेरे पैरों चला नहीं जो
धूप छाँव में ढला नहीं जो
वह तेरा सच कैसे,
जिस पर तेरा नाम नहीं?
 
तुझसे पहले बीत गया जो
वह इतिहास है तेरा
तुझको हीं पूरा करना है
जो बनवास है तेरा
तेरी साँसें जिया नहीं जो
घर आँगन का दिया नहीं जो
वो तुलसी की रामायण है
तेरा राम नहीं
 
तेरा हीं तन पूजा घर है
कोई मूरत गढ़ ले
कोई पुस्तक साथ न देगी
चाहे जितना पढ़ ले
तेरे सुर में सजा नहीं जो
इकतारे पर बजा नहीं जो
वो मीरा की संपत्ति है
तेरा श्याम नहीं
 

दीवानगी रहे बाक़ी - Nida Fazli

तू इस तरह से मिरी ज़िंदगी में शामिल है
जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफ़िल है
 
हर एक रंग तिरे रूप की झलक ले ले
कोई हँसी कोई लहजा कोई महक ले ले
 
ये आसमान ये तारे ये रास्ते ये हवा
हर एक चीज़ है अपनी जगह ठिकाने से
कई दिनों से शिकायत नहीं ज़माने से
 
मिरी तलाश तिरी दिलकशी रहे बाक़ी
ख़ुदा करे कि ये दीवानगी रहे बाक़ी
 

नक़ाबें - Nida Fazli

नीली पीली हरी गुलाबी
मैं ने सब रंगीन नक़ाबें
अपनी जेबों में भर ली हैं
अब मेरा चेहरा नंगा है
बिल्कुल नंगा
अब!
मेरे साथी ही मुझ पर
पग पग
पत्थर फेंक रहे हैं
शायद वो
मेरे चेहरे में अपना चेहरा देख रहे हैं
 

नज़्म बहुत आसान थी पहले - Nida Fazli

नज़्म बहुत आसान थी पहले
घर के आगे
पीपल की शाख़ों से उछल के
आते जाते
बच्चों के बस्तों से निकल के
रंग-ब-रंगी
चिड़ियों की चहकार में ढल के
नज़्म मिरे घर जब आती थी
मेरे क़लम से, जल्दी जल्दी
ख़ुद को पूरा लिख जाती है
अब सब मंज़र
बदल चुके हैं
छोटे छोटे चौराहों से
चौड़े रस्ते निकल चुके हैं
नए नए बाज़ार
पुराने गली मोहल्ले निगल चुके हैं
नज़्म से मुझ तक
अब कोसों लम्बी दूरी है
इन कोसों लम्बी दूरी में
कहीं अचानक
बम फटते हैं
कोख में माओं के
सोते बच्चे कटते हैं
मज़हब और सियासत
दोनों
नए नए नारे रटते हैं
बहुत से शहरों
बहुत से मुल्कों से
अब चल कर
नज़्म मिरे घर जब आती है
इतनी ज़ियादा थक जाती है
मेरे लिखने की टेबल पर
ख़ाली काग़ज़ को
ख़ाली ही छोड़ के रुख़्सत हो जाती है
और किसी फ़ुट-पाथ पे जा कर
शहर के सब से बूढ़े शहरी की
पलकों पर!
आँसू बन कर सो जाती है
 

नया दिन - Nida Fazli

सूरज!
इक नट-खट बालक-सा
दिन भर शोर मचाए
इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे
किरनों को छितराए
क़लम दरांती ब्रश हथौड़ा
जगह जगह फैलाए
शाम! थकी हारी माँ जैसी
इक दिया मलकाए
धीमे धीमे
सारी बिखरी चीज़ें चुनती जाए
 

नया सफ़र - Nida Fazli

आसमाँ लोहा दिशाएँ पत्थर
सर-निगूँ सारे खुजूरों के दरख़्त
कोई हरकत न सदा
बुझ गई बूढ़ी पहाड़ी पे चमकती हुई आग!
थम गए पाक सितारों से बरसते हुए राग
फिर से काँधों पे जमालो सर को
फिर से जिस्मों में लगा लो टाँगें
ढूँड लो खोई हुई आँखों को
अब किसी पर नहीं उतरेगा सहीफ़ा कोई
 

नहीं यह भी नहीं - Nida Fazli

नहीं यह भी नहीं
यह भी नहीं
यह भी नहीं, वोह तो
न जाने कौन थे
यह सब के सब तो मेरे जैसे हैं
सभी की धड़कनों में नन्हे नन्हे चांद रोशन हैं
सभी मेरी तरह वक़्त की भट्टी के ईंधन हैं
जिन्होंने मेरी कुटिया में अंधेरी रात में घुस कर
मेरी आंखों के आगे
मेरे बच्चों को जलाया था
वोह तो कोई और थे
वोह चेहरे तो कहाँ अब ज़ेहन में महफूज़ जज साहब
मगर हाँ
पास हो तो सूँघ कर पहचान सकती हूँ
वो उस जंगल से आये थे
जहाँ की औरतों की गोद में
बच्चे नहीं हँसते
 

नींद पूरे बिस्तर में नहीं होती - Nida Fazli

नींद पूरे बिस्तर में नहीं होती
वो पलंग के एक कोने में
दाएँ
या बाएँ
कसी मख़्सूस तकिए की
तोड़-मोड़ में छुपी होती है
जब तकिए और गर्दन में
समझौता हो जाता है
तो आदमी चैन से
सो जाता है
 

पिघलता धुआँ - Nida Fazli

दूर शादाब पहाड़ी पे बना इक बंगला
लाल खपरैलों पे फैली हुई अँगूर की बेल
सेहन में बिखरे हुए मिट्टी के राजा-रानी
मुँह चिढ़ाती हुई बच्चों को कोई दीवानी
सेब के उजले दरख़्तों की घनी छाँव में
पाँव डाले हुए तालाब में कोई लड़की
गोरे हाथों में सँभाले हुए तकिए का ग़िलाफ़
अन-कही बातों को धागों में सिए जाती है
दिल के जज़्बात का इज़हार किए जाती है
गर्म चूल्हे के क़रीं बैठी हुई इक औरत
एक पैवंद लगी साड़ी से तन को ढाँपे
धुँदली आँखों से मिरी सम्त तके जाती है
मुझ को आवाज़ पे आवाज़ दिए जाती है
इक सुलगती हुई सिगरेट का बल खाता धुआँ
फैलता जाता है हर सम्त मिरे कमरे में
 

पैदाइश - Nida Fazli

बंद कमरा
छटपटाता सा अंधेरा
और
दीवारों से टकराता हुआ
मैं!!
मुंतज़िर हूँ मुद्दतों से अपनी पैदाइश के दिन का
अपनी माँ के पेट से
निकला हूँ जब से
मैं!!
ख़ुद अपने पेट के अंदर पड़ा हूँ
 

फ़क़त चंद लम्हे - Nida Fazli

बहुत देर है
बस के आने में
आओ
कहीं पास की लॉन पर बैठ जाएँ
चटख़्ता है मेरी भी रग रग में सूरज
बहुत देर से तुम भी चुप चुप खड़ी हो
न मैं तुम से वाक़िफ़
न तुम मुझ से वाक़िफ़
नई सारी बातें नए सारे क़िस्से
चमकते हुए लफ़्ज़ चमकते लहजे
फ़क़त चंद घड़ियाँ
फ़क़त चंद लम्हे
न मैं अपने दुख-दर्द की बात छेड़ूँ
न तुम अपने घर की कहानी सुनाओ
मैं मौसम बनूँ
तुम फ़ज़ाएँ जगाओ
 

फ़ातिहा - Nida Fazli

अगर क़ब्रिस्तान में
अलग अलग कत्बे न हों
तो हर क़ब्र में
एक ही ग़म सोया हुआ रहता है
किसी माँ का बेटा
किसी भाई की बहन
किसी आशिक़ की महबूबा
तुम!
किसी क़ब्र पर भी फ़ातिहा पढ़ के चले जाओ
 

फ़ासला - Nida Fazli

ये फ़ासला
जो तुम्हारे और मेरे दरमियाँ है
हर इक ज़माने की दास्ताँ है
न इब्तिदा है
न इंतिहा है
मसाफ़तों का अज़ाब साँसों का दाएरा है
न तुम कहीं हो
न मैं कहीं हूँ
तलाश रंगीन वाहिमा है
सफ़र में लम्हों का कारवाँ है
ये फ़ासला!
जो तुम्हारे और मेरे दरमियाँ है
यही तलब है यही जज़ा है
यही ख़ुदा है
 

बस यूँही जीते रहो - Nida Fazli

बस यूँही जीते रहो
कुछ न कहो
सुब्ह जब सो के उठो
घर के अफ़राद की गिनती कर लो
टाँग पर टाँग रखे रोज़ का अख़बार पढ़ो
उस जगह क़हत गिरा
जंग वहाँ पर बरसी
कितने महफ़ूज़ हो तुम शुक्र करो
रेडियो खोल के फिल्मों के नए गीत सुनो
घर से जब निकलो तो
शाम तक के लिए होंटों में तबस्सुम सी लो
दोनों हाथों में मुसाफ़े भर लो
मुँह में कुछ खोखले बे-मअ'नी से जुमले रख लो
मुख़्तलिफ़ हाथों में सिक्कों की तरह घिसते रहो
कुछ न कहो
उजली पोशाक
समाजी इज़्ज़त
और क्या चाहिए जीने के लिए
रोज़ मिल जाती है पीने के लिए
बस यूँही जीते रहो
कुछ न कहो
 

बुझ गए नील-गगन - Nida Fazli

अब कहीं कोई नहीं
जल गए सारे फ़रिश्तों के बदन
बुझ गए नील-गगन
टूटता चाँद बिखरता सूरज
कोई नेकी न बदी
अब कहीं कोई नहीं
आग के शोले बढ़े
आसमानों का ख़ुदा
डर के ज़मीं पर उतरा
चार छे गाम चला टूट गया
आदमी अपनी ही दीवारों से पत्थर ले कर
फिर गुफाओं की तरफ़ लौट गया
अब कहीं कोई नहीं
 

बूढ़ा - Nida Fazli

हर माँ अपनी कोख से
अपना शौहर ही पैदा करती है
मैं भी जब
अपने कंधों पर
बूढ़े मलबे को ढो ढो कर
थक जाऊँगा
अपनी महबूबा के
कँवारे गर्भ में
छुप कर सो जाऊँगा
हर माँ अपनी कोख से
अपना शौहर ही पैदा करती है
 

बे-ख़्वाब नींद - Nida Fazli

न जाने कौन वो बहरूपिया है
जो हर शब
मिरी थकी हुई पलकों की सब्ज़ छाँव में
तरह तरह के करिश्मे दिखाया करता है
लपकती सुर्ख़ लपट
झूमती हुई डाली
चमकते ताल के पानी में डूबता पत्थर
उभरते फैलते घेरों में तैरते ख़ंजर
उछलती गेंद रबड़ की सधे हुए दो हाथ
सुलगते खेत की मिट्टी पे टूटती बरसात
अजीब ख़्वाब हैं ये
बिना वज़ू किए सोई नहीं कभी मैं तो
मैं सोचती हूँ
किसी रोज़ अपनी भाबी के
चमकते पाँव की पाज़ेब तोड़ कर रख दूँ
बड़ी शरीर है हर वक़्त शोर करती हैं
किसी तरह सही बे-ख़्वाब नींद तो आए
घड़ी घड़ी की मुसीबत से जान छुट जाए
 

मलाला मलाला - Nida Fazli

मलाला मलाला
आँखें तेरी चाँद और सूरज
तेरा ख़्वाब हिमाला...
 
वक़्त की पेशानी पे अपना नाम जड़ा है तूने
झूटे मकतब में सच्चा क़ुरान पढ़ा है तूने
अंधियारों से लड़ने वाली
तेरा नाम उजाला.... मलाला मलाला
 
स्कूलों को जाते रस्ते ऊंचे नीचे थे
जंगल के खूंख्वार दरिन्दे आगे पीछे थे
मक्के का एक उम्मी
तेरी लफ़्ज़ों का रखवाला....मलाला मलाला
 
तुझ पे चलने वाली गोली हर धड़कन में है
एक ही चेहरा है तू लेकिन हर दर्पण में है
तेरे रस्ते का हमराही,
नीली छतरी वाला, मलाला मलाला
 

मशीन - Nida Fazli

मशीन चल रही हैं
नीले पीले लाल लोहे की मशीनों में
हज़ारों आहनी पुर्ज़े
मुक़र्रर हरकतों के दाएरों में
चलते फिरते हैं
सहर से शाम तक पुर-शोर आवाज़ें उगलते हैं
बड़ा छोटा हर इक पुर्ज़ा
कसा है कील-पंचों से
हज़ारों घूमते पुर्ज़ों को अपने पेट में डाले
मशीनें सोचती हैं
चीख़ती हैं
जंग करती हैं
मशीनें चल रही हैं
 

मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में - Nida Fazli

मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग
 
रोज़ मैं चांद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ
 
खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में
 
मैं ही मज़दूर के पसीने में
मैं ही बरसात के महीने में
 
मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू
 
मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग
 
मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ
 
मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ
 

मोर नाच - Nida Fazli

देखते देखते
उस के चारों तरफ़
सात रंगों का रेशम बिखरने लगा
धीमे धीमे कई खिड़कियाँ सी खुलीं
फड़फड़ाती हुई फ़ाख़ताएँ उड़ीं
बदलियाँ छा गईं
बिजलियों की लकीरें चमकने लगीं
सारी बंजर ज़मीनें हरी हो गईं
नाचते नाचते
मोर की आँख से
पहला आँसू गिरा
ख़ूबसूरत सजीले परों की धनक
टूट कर टुकड़ा टुकड़ा बिखरने लगी
फिर फ़ज़ाओं से जंगल बरसने लगा
देखते देखते....
 

मोहब्बत - Nida Fazli

पहले वो रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फिर जिस्म से बिस्तर बन कर
घर के कोने में लगी रहती है
जिस को
कमरे में घटा सन्नाटा
वक़्त-बे-वक़्त उठा लेता है
खोल लेता है बिछा, लेता है
 

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार - Nida Fazli

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार
 
लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम
 
सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप
 
सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास
चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान
 

ये ज़िन्दगी - Nida Fazli

ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है
 
ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है
 
बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा
 
सितारे तोड़ो या घर बसाओ
क़लम उठाओ या सर झुकाओ
 
तुम्हारी आँखों की रोशनी तक
है खेल सारा
 
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
 

रुख़्सत होते वक़्त - Nida Fazli

रुख़्सत होते वक़्त
उस ने कुछ नहीं कहा
लेकिन एयरपोर्ट पर अटैची खोलते हुए
मैं ने देखा
मेरे कपड़े के नीचे
उस ने
अपने दोनों बच्चों की तस्वीर छुपा दी है
तअज्जुब है
छोटी बहन हो कर भी
उस ने मुझे माँ की तरह दुआ दी है
 

लफ़्ज़ों का पुल - Nida Fazli

मस्जिद का गुम्बद सूना है
मंदिर की घंटी ख़ामोश
जुज़दानों में लिपटे आदर्शों को
दीमक कब की चाट चुकी है
रंग
गुलाबी
नीले
पीले
कहीं नहीं हैं
तुम उस जानिब
मैं इस जानिब
बीच में मीलों गहरा ग़ार
लफ़्ज़ों का पुल टूट चुका है
तुम भी तन्हा
मैं भी तन्हा
 

वक़्त से पहले - Nida Fazli

यूँ तो हर रिश्ते का अंजाम यही होता है
फूल खिलता है
महकता है
बिखर जाता है
तुम से वैसे तो नहीं कोई शिकायत
लेकिन
शाख़ हो सब्ज़
तो हस्सास फ़ज़ा होती है
हर कली ज़ख़्म की सूरत ही जुदा होती है
तुम ने
बे-कार ही मौसम को सताया वर्ना
फूल जब खिल के महक जाता है
ख़ुद-ब-ख़ुद
शाख़ से गिर जाता है
 

वालिद की वफ़ात पर - Nida Fazli

तुम्हारी क़ब्र पर
मैं फ़ातिहा पढ़ने नहीं आया
मुझे मालूम था
तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची ख़बर जिस ने उड़ाई थी
वो झूटा था
वो तुम कब थे
कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से मिल के टूटा था
मिरी आँखें
तुम्हारे मंज़रों में क़ैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हूँ
सोचता हूँ
वो वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला
तुम्हारे हाथ मेरी उँगलियों में साँस लेते हैं
मैं लिखने के लिए
जब भी क़लम काग़ज़ उठाता हूँ
तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ
बदन में मेरे जितना भी लहू है
वो तुम्हारी
लग़्ज़िशों नाकामियों के साथ बहता है
मिरी आवाज़ में छुप कर
तुम्हारा ज़ेहन रहता है
मिरी बीमारियों में तुम
मिरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी क़ब्र पर जिस ने तुम्हारा नाम लिखा है
वो झूटा है
तुम्हारी क़ब्र में मैं दफ़्न हूँ
तुम मुझ में ज़िंदा हो
कभी फ़ुर्सत मिले तो फ़ातिहा पढ़ने चले आना
 

वो लड़की - Nida Fazli

वो लड़की याद आती है
जो होंटों से नहीं पूरे बदन से बात करती थी
सिमटते वक़्त भी चारों दिशाओं में बिखरती थी
वो लड़की याद आती है
वो लड़की अब न जाने किस के बिस्तर की किरन होगी
अभी तक फूल की मानिंद होगी या चमन होगी
सजीली रात
अब भी
जब कभी घूँघट उठाती है
लचकती कहकशाँ जब बनते बनते टूट जाती है
कोई अलबेली ख़ुशबू बाल खोले मुस्कुराती है
वो लड़की याद आती है
 

वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की - Nida Fazli

वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की
जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है
सुना है
वो किसी लड़के से प्यार करती है
बहार हो के, तलाश-ए-बहार करती है
न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ
बस उसी वक़्त जब वो आती है
कुछ इंतिज़ार की आदत सी हो गई है
मुझे
एक अजनबी की ज़रूरत हो गई है मुझे
मेरे बरांडे के आगे यह फूस का छप्पर
गली के मोड पे खडा हुआ सा
एक पत्थर
वो एक झुकती हुई बदनुमा सी नीम की शाख
और उस पे जंगली कबूतर के घोंसले का निशाँ
यह सारी चीजें कि जैसे मुझी में शामिल हैं
मेरे दुखों में मेरी हर खुशी में शामिल हैं
मैं चाहता हूँ कि वो भी यूं ही गुज़रती रहे
अदा-ओ-नाज़ से लड़के को प्यार करती रहे
 

सच्चाई - Nida Fazli

वो किसी एक मर्द के साथ
ज़ियादा दिन नहीं रह सकती
ये उस की कमज़ोरी नहीं
सच्चाई है
लेकिन जितने दिन वो जिस के साथ रहती है
उस के साथ बेवफ़ाई नहीं करती
उसे लोग भले ही कुछ कहें
मगर
किसी एक घर में
ज़िंदगी भर झूट बोलने से
अलग अलग मकानों में सच्चाइयाँ बिखेरना
ज़ियादा बेहतर है
 

सब की पूजा एक सी - Nida Fazli

सब की पूजा एक सी, अलग अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत
 
पूजा घर में मूर्ती, मीरा के संग श्याम
जितनी जिसकी चाकरी, उतने उसके दाम
 
सीता, रावण, राम का, करें विभाजन लोग
एक ही तन में देखिये, तीनों का संजोग
 
मिट्टी से माटी मिले, खो के सभी निशां
किस में कितना कौन है, कैसे हो पहचान
 

सरहद-पार का एक ख़त पढ़ कर - Nida Fazli

दवा की शीशी में
सूरज
उदास कमरे में चाँद
उखड़ती साँसों में रह रह के
एक नाम की गूँज....!
तुम्हारे ख़त को कई बार पढ़ चुका हूँ मैं
कोई फ़क़ीर खड़ा गिड़गिड़ा रहा था अभी
बिना उठे उसे धुत्कार कर भगा भी चुका
गली में खेल रहा था पड़ोस का बच्चा
बुला कर पास उसे मार कर रुला भी चुका
बस एक आख़िरी सिगरेट बचा था पैकेट में
उसे भी फूँक चुका
घिस चुका
बुझा भी चुका
न जाने वक़्त है क्या दूर तक है सन्नाटा
फ़क़त मुंडेर के पिंजरे में ऊँघता पंछी
कभी कभी यूँही पंजे चिल्लाने लगता है
फिर अपने-आप ही
दाने उठाने लगता है
तुम्हारे ख़त को.....
 

सलीक़ा - Nida Fazli

देवता है कोई हम में
न फ़रिश्ता कोई
छू के मत देखना
हर रंग उतर जाता है
मिलने-जुलने का सलीक़ा है ज़रूरी वर्ना
आदमी चंद मुलाक़ातों में मर जाता है
 

सितंबर 1965 - Nida Fazli

किसी क़साई ने
इक हड्डी छील कर फेंकी
गली के मोड़ से
दो कुत्ते भौंकते उठ्ठे
किसी ने पाँव उठाए
किसी ने दुम पटकी
बहुत से कुत्ते खड़े हो कर शोर करने लगे
न जाने क्यूँ मिरा जी चाहा
अपने सब कपड़े
उतार कर किसी चौराहे पर खड़ा हो जाऊँ
हर एक चीज़ पे झपटूँ
घड़ी घड़ी चिल्लाऊँ
निढाल हो के जहाँ चाहूँ
जिस्म फैला दूँ
हज़ारों साल की सच्चाइयों को
झुटला दूँ
 

सुना है मैंने - Nida Fazli

सुना है मैंने!
कई दिन से तुम परेशाँ हो
किसी ख़याल में
हर वक़्त खोई रहती हो
गली में जाती हो
जाते ही लौट आती हो
कहीं की चीज़
कहीं रख के भूल जाती हो
किचन में!
रोज़ कोई प्याली तोड़ देती हो
मसाला पीस कर
सिल यूँही छोड़ देती हो
नसीहतों से ख़फ़ा
मश्वरों से उलझन सी
कमर में दर्द की लहरें
रगों में एैंठन सी
यक़ीन जानो!
बहुत दूर भी नहीं वो घड़ी
हर इक फ़साने का उनवाँ बदल चुका होगा
मिरे पलंग की चौड़ाई
घट चुकी होगी
तुम्हारे जिस्म का सूरज पिघल चुका होगा
 

सोने से पहले - Nida Fazli

हर लड़की के
तकिए के नीचे
तेज़ ब्लेड
गोंद की शीशी
और कुछ तस्वीरें होती हैं
सोने से पहले
वो कई तस्वीरों की तराश-ख़राश से
एक तस्वीर बनाती है
किसी की आँखें किसी के चेहरे पर लगाती है
किसी के जिस्म पर किसी का चेहरा सजाती है
और जब इस खेल से ऊब जाती है
तो किसी भी गोश्त-पोस्त के आदमी के साथ
लिपट कर सो जाती है
 

हिजरत - Nida Fazli

ज़रूरी काग़ज़ों की फ़ाइलों से
बे-ज़रूरी
काग़ज़ों को
छाँटा जाता है
कभी कुछ फेंका जाता है
कभी कुछ बाँटा जाता है
कई बरसों के रिश्तों को
पलों में
काटा जाता है
वो शीशा हो
कि पत्थर हो
बिना दुम का वो बंदर हो
निशानों से भरा
या कोई बोसीदा कैलेंडर हो
पुराने घर के ताक़ों में
मचानों में
वो सब!!
छोटा हुआ अपना
कभी बन कर कोई आँसू
कभी बन कर कोई सपना
अचानक
जगमगाता है
वो सब खोया हुआ
अपने न होने से सताता है
मकानों के बदलने से
नए ख़ानों में ढलने से
बहुत कुछ टूट जाता है
बहुत कुछ छूट जाता है
 

हुआ सवेरा - Nida Fazli

हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब
से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
 
नदी में स्नान करने सूरज
सुनारी मलमल की
पगड़ी बाँधे
सड़क किनारे
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
 
हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में
दुआओं के गीत गा रही हैं
महकते फूलों की लोरियाँ
सोते रास्तों को जगा रही
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने
हिला रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
 
फ़रिश्ते निकले रोशनी के
हर एक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल सा धड़क रहा है
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
बच्चे स्कूल जा रहे हैं.....
 

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