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हिंदी कविता
तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल महफ़िल गाएँगे - Nida Fazli
तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल महफ़िल गाएँगे
जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनाएँगे
तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं
देर न करना घर आने में वर्ना घर खो जाएँगे
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे
अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर-दिल हों मुमकिन है
हम तो उस दिन राय देंगे जिस दिन धोका खाएँगे
किन राहों से सफ़र है आसाँ कौन सा रस्ता मुश्किल है
हम भी जब थक कर बैठेंगे औरों को समझाएँगे
तन्हा हुए ख़राब हुए आइना हुए - Nida Fazli
तन्हा हुए ख़राब हुए आइना हुए
चाहा था आदमी बनें लेकिन ख़ुदा हुए
जब तक जिए बिखरते रहे टूटते रहे
हम साँस साँस क़र्ज़ की सूरत अदा हुए
हम भी किसी कमान से निकले थे तीर से
ये और बता है कि निशाने ख़ता हुए
पुर-शोर रास्तों से गुज़रना मुहाल था
हट कर चले तो आप ही अपने सज़ा हुए
तलाश कर न ज़मीं आसमान से बाहर - Nida Fazli
तलाश कर न ज़मीं आसमान से बाहर
नहीं है राह कोई इस मकान से बाहर
बस एक दो ही क़दम और थे सफ़र वाले
थकान देख न पाई थकान से बाहर
निसाब दर्जा-ब-दर्जा यूँ ही बदलता है
हुआ न कोई भी इस इम्तिहान से बाहर
उसी की जुस्तुजू अक्सर उदास करती है
वो इक जहाँ जो है हर जहान से बाहर
नमाज़ियों से कहो देखें चाँद-सूरज को
निकल रहे हैं मुअज़्ज़िन अज़ान से बाहर
तुम ये कैसे जुदा हो गये - Nida Fazli
तुम ये कैसे जुदा हो गये
हर तरफ़ हर जगह हो गये
अपना चेहरा न बदला गया
आईने से ख़फ़ा हो गये
जाने वाले गये भी कहाँ
चाँद सूरज घटा हो गये
बेवफ़ा तो न वो थे न हम
यूँ हुआ बस जुदा हो गये
आदमी बनना आसाँ न था
शेख़ जी पारसा हो गये
तू क़रीब आए तो क़ुर्बत का यूँ इज़हार करूँ - Nida Fazli
तू क़रीब आए तो क़ुर्बत का यूँ इज़हार करूँ
आइना सामने रख कर तिरा दीदार करूँ
सामने तेरे करूँ हार का अपनी एलान
और अकेले में तिरी जीत से इंकार करूँ
पहले सोचूँ उसे फिर उस की बनाऊँ तस्वीर
और फिर उस में ही पैदा दर-ओ-दीवार करूँ
मिरे क़ब्ज़े में न मिट्टी है न बादल न हवा
फिर भी चाहत है कि हर शाख़ समर-बार करूँ
सुब्ह होते ही उभर आती है सालिम हो कर
वही दीवार जिसे रोज़ मैं मिस्मार करूँ
तेरा सच है तिरे अज़ाबों में - Nida Fazli
तेरा सच है तिरे अज़ाबों में
झूट लिक्खा है सब किताबों में
एक से मिल के सब से मिल लीजे
आज हर शख़्स है नक़ाबों में
तेरा मिलना तिरा नहीं मिलना
एक रस्ता कई सराबों में
उन की नाकामियों को भी गिनिए
जिन की शोहरत है कामयाबों में
रौशनी थी सवाल की हद तक
हर नज़र खो गई जवाबों में
तेरा हिज्र मेरा नसीब है तेरा ग़म ही मेरी हयात है - Nida Fazli
तेरा हिज्र मेरा नसीब है तेरा ग़म ही मेरी हयात है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों तू कहीं भी हो मेरे साथ है
मेरे वास्ते तेरे नाम पर कोई हर्फ़ आये नहीं नहीं
मुझे ख़ौफ़-ए-दुनिया नहीं मगर मेरे रू-ब-रू तेरी ज़ात है
तेरा वस्ल ऐ मेरी दिलरुबा नहीं मेरी किस्मत तो क्या हुआ
मेरी महजबीं यही कम है क्या तेरी हसरतों का तो साथ है
तेरा इश्क़ मुझ पे है मेहरबाँ मेरे दिल को हासिल है दो जहाँ
मेरी जान-ए-जाँ इसी बात पर मेरी जान जाये तो बात है
दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए - Nida Fazli
दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए
जब तक न साँस टूटे जिए जाना चाहिए
यूँ तो क़दम क़दम पे है दीवार सामने
कोई न हो तो ख़ुद से उलझ जाना चाहिए
झुकती हुई नज़र हो कि सिमटा हुआ बदन
हर रस-भरी घटा को बरस जाना चाहिए
चौराहे बाग़ बिल्डिंगें सब शहर तो नहीं
कुछ ऐसे वैसे लोगों से याराना चाहिए
अपनी तलाश अपनी नज़र अपना तजरबा
रस्ता हो चाहे साफ़ भटक जाना चाहिए
चुप चुप मकान रास्ते गुम-सुम निढाल वक़्त
इस शहर के लिए कोई दीवाना चाहिए
बिजली का क़ुमक़ुमा न हो काला धुआँ तो हो
ये भी अगर नहीं हो तो बुझ जाना चाहिए
दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही - Nida Fazli
दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही
चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें
ज़िंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्अ जलाने से रही
फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही
शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की जगह
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने हँसाने से रही
दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती - Nida Fazli
दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती
ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती
कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं
हर एक से अपनी भी तबीअ'त नहीं मिलती
देखा है जिसे मैं ने कोई और था शायद
वो कौन था जिस से तिरी सूरत नहीं मिलती
हँसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत
रोने की यहाँ वैसे भी फ़ुर्सत नहीं मिलती
निकला करो ये शम्अ लिए घर से भी बाहर
कमरे में सजाने को मुसीबत नहीं मिलती
दीवार-ओ-दर से उतर के परछाइयाँ बोलती हैं - Nida Fazli
दीवार-ओ-दर से उतर के परछाइयाँ बोलती हैं
कोई नहीं बोलता जब तनहाइयाँ बोलती हैं
परदेस के रास्ते में लुटते कहाँ हैं मुसाफ़िर
हर पेड़ कहता है क़िस्सा पुरवाईयाँ बोलती हैं
मौसम कहाँ मानता है तहज़ीब की बन्दिशों को
जिस्मों से बाहर निकल के अंगड़ाइयाँ बोलती हैं
सुन ने की मोहलत मिले तो आवाज़ है पतझरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियाँ बोलती हैं
दुआ सलाम में लिपटी ज़रूरतें माँगे - Nida Fazli
दुआ सलाम में लिपटी ज़रूरतें माँगे
क़दम क़दम पे ये बस्ती तिजारतें माँगे
कहाँ हर एक को आती है रास बर्बादी
नए सफ़र की मसाफ़त ज़िहानतें माँगे
चमकते कपड़े महकता ख़ुलूस पुख़्ता मकाँ
हर एक बज़्म में इज़्ज़त हिफ़ाज़तें माँगे
कोई धमाका कोई चीख़ कोई हंगामा
लहू बदन का लहू की शबाहतें माँगे
कोई न हो मिरे तिरे अलावा बस्ती में
कभी कभी यही जज़्बा रिक़ाबतें माँगे
दुख में नीर बहा देते थे सुख में हँसने लगते थे - Nida Fazli
दुख में नीर बहा देते थे सुख में हँसने लगते थे
सीधे-सादे लोग थे लेकिन कितने अच्छे लगते थे
नफ़रत चढ़ती आँधी जैसी प्यार उबलते चश्मों सा
बैरी हूँ या संगी साथी सारे अपने लगते थे
बहते पानी दुख-सुख बाँटें पेड़ बड़े बूढ़ों जैसे
बच्चों की आहट सुनते ही खेत लहकने लगते थे
नदिया पर्बत चाँद निगाहें माला एक कई दाने
छोटे छोटे से आँगन भी कोसों फैले लगते थे
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है - Nida Fazli
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है
अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो बे-कार का रोना है
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है
ये वक़्त जो तेरा है ये वक़्त जो मेरा है
हर गाम पे पहरा है फिर भी इसे खोना है
ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है
आवारा-मिज़ाजी ने फैला दिया आँगन को
आकाश की चादर है धरती का बिछौना है
देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ - Nida Fazli
देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ
होता है यूँ भी रास्ता खुलता नहीं कहीं
जंगल सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ
साहिल की गीली रेत पर बच्चों के खेल सा
हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ
फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ
धुँदली सी एक याद किसी क़ब्र का दिया
और मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ
दो चार गाम राह को हमवार देखना - Nida Fazli
दो चार गाम राह को हमवार देखना
फिर हर क़दम पे इक नई दीवार देखना
आँखों की रौशनी से है हर संग आईना
हर आइने में ख़ुद को गुनहगार देखना
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
मैदाँ की हार जीत तो क़िस्मत की बात है
टूटी है किस के हाथ में तलवार देखना
दरिया के इस किनारे सितारे भी फूल भी
दरिया चढ़ा हुआ हो तो उस पार देखना
अच्छी नहीं है शहर के रस्तों से दोस्ती
आँगन में फैल जाए न बाज़ार देखना
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो - Nida Fazli
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो
सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती
दिल की धड़कन को भी बीनाई बना कर देखो
पत्थरों में भी ज़बाँ होती है दिल होते हैं
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजा कर देखो
वो सितारा है चमकने दो यूँही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बना कर देखो
फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो
नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है - Nida Fazli
नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर अच्छा लगता है
मिलने-जुलने वालों में तो सब ही अपने जैसे हैं
जिस से अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है
मेरे आँगन में आए या तेरे सर पर चोट लगे
सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है
चाहत हो या पूजा सब के अपने अपने साँचे हैं
जो मौत में ढल जाए वो पैकर अच्छा लगता है
हम ने भी सो कर देखा है नए पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है
न जाने कौन सा मंज़र नज़र में रहता है - Nida Fazli
न जाने कौन सा मंज़र नज़र में रहता है
तमाम उम्र मुसाफ़िर सफ़र में रहता है
लड़ाई देखे हुए दुश्मनों से मुमकिन है
मगर वो ख़ौफ़ जो दीवार-ओ-दर में रहता है
ख़ुदा तो मालिक-ओ-मुख़्तार है कहीं भी रहे
कभी बशर में कभी जानवर में रहता है
अजीब दौर है ये तय-शुदा नहीं कुछ भी
न चाँद शब में न सूरज सहर में रहता है
जो मिलना चाहो तो मुझ से मिलो कहीं बाहर
वो कोई और है जो मेरे घर में रहता है
बदलना चाहो तो दुनिया बदल भी सकती है
अजब फ़ुतूर सा हर वक़्त सर में रहता है
नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर - Nida Fazli
नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर
जो हाथ में नहीं है वो पत्थर तलाश कर
सूरज के इर्द-गिर्द भटकने से फ़ाएदा
दरिया हुआ है गुम तो समुंदर तलाश कर
तारीख़ में महल भी है हाकिम भी तख़्त भी
गुमनाम जो हुए हैं वो लश्कर तलाश कर
रहता नहीं है कुछ भी यहाँ एक सा सदा
दरवाज़ा घर का खोल के फिर घर तलाश कर
कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन
फिर इस के बा'द थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर
नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं - Nida Fazli
नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं,
फूल कहॉ जाते हैं जब भी जाते हैं लौट आते हैं।
शायद कुछ दिन और लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,
जो अक्सर याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं।
चलती-फिरती धूप-छॉव से, चहरा बाद में बनता है,
पहले-पहले सभी ख़यालों से तस्वीर बनाते हैं।
आंखों देखी कहने वाले, पहले भी कम-कम ही थे,
अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।
इस धरती पर आकर सबका, अपना कुछ खो जाता है,
कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं।
नशा नशे के लिए है अज़ाब में शामिल - Nida Fazli
नशा नशे के लिए है अज़ाब में शामिल
किसी की याद को कीजे शराब में शामिल
हर इक तलाश यहाँ फ़ासलों से रौशन है
हक़ीक़तें कहाँ होती हैं ख़्वाब में शामिल
वो तुम नहीं हो तो फिर कौन था वो तुम जैसा
किसी का ज़िक्र तो था हर किताब में शामिल
हमें भी शौक़ है अपनी तरफ़ से जीने का
हमारा नाम भी कीजे इ'ताब में शामिल
अकेले कमरे में गुल-दान बोलते कब हैं
तुम्हारे होंट हैं शायद गुलाब में शामिल
ज़मीन रोज़ कहाँ मो'जिज़ा दिखाती है
मिरी निगाह भी होगी नक़ाब में शामिल
उसी का नाम है नग़्मा उसी का नाम ग़ज़ल
वो इक सुकून जो है इज़्तिराब में शामिल
नील-गगन में तैर रहा है उजला उजला पूरा चाँद - Nida Fazli
नील-गगन में तैर रहा है उजला उजला पूरा चाँद
माँ की लोरी सा बच्चे के दूध कटोरे जैसा चाँद
मुन्नी की भोली बातों सी चटकीं तारों की कलियाँ
पप्पू की ख़ामोशी शरारत सा छुप छुप कर उभरा चाँद
मुझ से पूछो कैसे काटी मैं ने पर्बत जैसी रात
तुम ने तो गोदी में ले कर घंटों चूमा होगा चाँद
परदेसी सूनी आँखों में शो'ले से लहराते हैं
भाबी की छेड़ों सा बादल आपा की चुटकी सा चाँद
तुम भी लिखना तुम ने उस शब कितनी बार पिया पानी
तुम ने भी तो छज्जे ऊपर देखा होगा पूरा चाँद
फिर गोया हुई शाम परिंदों की ज़बानी - Nida Fazli
फिर गोया हुई शाम परिंदों की ज़बानी
आओ सुनें मिट्टी से ही मिट्टी की कहानी
वाक़िफ़ नहीं अब कोई समुंदर की ज़बाँ से
सदियों की मसाफ़त को सुनाता तो है पानी
उतरे कोई महताब कि कश्ती हो तह-ए-आब
दरिया में बदलती नहीं दरिया की रवानी
कहता है कोई कुछ तो समझता है कोई कुछ
लफ़्ज़ों से जुदा हो गए लफ़्ज़ों के मआ'नी
इस बार तो दोनों थे नई राहों के राही
कुछ दूर ही हमराह चलें यादें पुरानी
बदला न अपने आपको जो थे वही रहे - Nida Fazli
बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से अजनबी रहे
अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो जे़हन में नाराज़गी रहे
गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे
हर वक़्त हर मकाम पे हँसना मुहाल है
रोने के वास्ते भी कोई बेकली रहे
बात कम कीजे ज़ेहानत को छुपाए रहिए - Nida Fazli
बात कम कीजे ज़ेहानत को छुपाए रहिए
अजनबी शहर है ये, दोस्त बनाए रहिए
दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए
ये तो चेहरे की शबाहत हुई तक़दीर नहीं
इस पे कुछ रंग अभी और चढ़ाए रहिए
ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते मिलाते रहिए
कोई आवाज़ तो जंगल में दिखाए रस्ता
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाए रहिए
बिंदराबन के कृष्ण-कन्हैया अल्लाह-हू - Nida Fazli
बिंदराबन के कृष्ण-कन्हैया अल्लाह-हू
बंसी राधा गीता गय्या अल्लाह-हू
थोड़े तिनके थोड़े दाने थोड़ा जल
एक ही जैसी हर गौरय्या अल्लाह-हू
जैसा जिस का बर्तन वैसा उस का तन
घटती बढ़ती गंगा-मय्या अल्लाह-हू
एक ही दरिया नीला पीला लाल हरा
अपनी अपनी सब की नय्या अल्लाह-हू
मौलवियों का सज्दा पंडित की पूजा
मज़दूरों की हैय्या हैय्या अल्लाह-हू
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता - Nida Fazli
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता
वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यूँ नहीं जाता
बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ - Nida Fazli
बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ
बाँस की खर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी थकी दो-पहरी जैसी माँ
चिड़ियों की चहकार में गूँजे राधा मोहन अली अली
मुर्ग़े की आवाज़ से बजती घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी बेटी बहन पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा माथा आँखें जाने कहाँ गई
फटे पुराने इक एल्बम में चंचल लड़की जैसी माँ
मन बै-रागी तन अनूरागी क़दम क़दम दुश्वारी है - Nida Fazli
मन बै-रागी तन अनूरागी क़दम क़दम दुश्वारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फ़नकारी है
औरों जैसे हो कर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधा-पन है कुछ अपनी अय्यारी है
जब जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया
हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनिया-दारी है
ऐब नहीं है इस में कोई लाल-परी न फूल-कली
ये मत पूछो वो अच्छा है या अच्छी नादारी है
जो चेहरा देखा वो तोड़ा नगर नगर वीरान किए
पहले औरों से ना-ख़ुश थे अब ख़ुद से बे-ज़ारी है
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं - Nida Fazli
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं
आज और कल की बात नहीं है सदियों की तारीख़ यही है
हर आँगन में ख़्वाब हैं लेकिन चंद घरों में ताबीरें हैं
जब भी कोई तख़्त सजा है मेरा तेरा ख़ून बहा है
दरबारों की शान-ओ-शौकत मैदानों की शमशीरें हैं
हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी
गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं
मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन - Nida Fazli
मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन
सदियों सदियों वही तमाशा रस्ता रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन
वो मेरी परछाईं है या मैं उस का आईना हूँ
मेरे ही घर में रहता है मुझ जैसा ही जाने कौन
जाने क्या क्या बोल रहा था सरहद प्यार किताबें ख़ून
कल मेरी नींदों में छुप कर जाग रहा था जाने कौन
किरन किरन अलसाता सूरज पलक पलक खुलती नींदें
धीमे धीमे बिखर रहा है ज़र्रा ज़र्रा जाने कौन
मेरी तेरी दूरियाँ हैं अब इबादत के ख़िलाफ़ - Nida Fazli
मेरी तेरी दूरियाँ हैं अब इबादत के ख़िलाफ़
हर तरफ़ है फ़ौज-आराई मोहब्बत के ख़िलाफ़
हर्फ़-ए-सरमद ख़ून-ए-दारा के अलावा शहर में
कौन है जो सर उठाए बादशाहत के ख़िलाफ़
पहले जैसा ही दुखी है आज भी बूढ़ा कबीर
कोई आयत का मुख़ालिफ़ कोई मूरत के ख़िलाफ़
मैं भी चुप हूँ तू भी चुप है बात ये सच है मगर
हो रहा है जो भी वो तो है तबीअत के ख़िलाफ़
मुद्दतों के बा'द देखा था उसे अच्छा लगा
देर तक हँसता रहा वो अपनी आदत के ख़िलाफ़
मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ - Nida Fazli
मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ
दुनिया के कारोबार में हूँ भी नहीं भी हूँ
तेरी ही जुस्तुजू में लगा है कभी कभी
मैं तेरे इंतिज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ
फ़िहरिस्त मरने वालों की क़ातिल के पास है
मैं अपने ही मज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ
औरों के साथ ऐसा कोई मसअला नहीं
इक मैं ही इस दयार में हूँ भी नहीं भी हूँ
मुझ से ही है हर एक सियासत का ए'तिबार
फिर भी किसी शुमार में हूँ भी नहीं भी हूँ
मोहब्बत में वफ़ादारी से बचिए - Nida Fazli
मोहब्बत में वफ़ादारी से बचिए
जहाँ तक हो अदाकारी से बचिए
हर इक सूरत भली लगती है कुछ दिन
लहू की शो'बदा-कारी से बचिए
शराफ़त आदमियत दर्द-मंदी
बड़े शहरों में बीमारी से बचिए
ज़रूरी क्या हर इक महफ़िल में बैठें
तकल्लुफ़ की रवा-दारी से बचिए
बिना पैरों के सर चलते नहीं हैं
बुज़ुर्गों की समझदारी से बचिए
यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख - Nida Fazli
यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख
ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख
ये ही लहू है शहादत ये ही लहू पानी
ख़िज़ाँ नसीब सही ज़ेहन में बहार भी रख
घरों के ताक़ों में गुल-दस्ते यूँ नहीं सजते
जहाँ हैं फूल वहीं आस-पास ख़ार भी रख
पहाड़ गूँजें नदी गाए ये ज़रूरी है
सफ़र कहीं का हो दिल में किसी का प्यार भी रख
यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है - Nida Fazli
यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है
वो कौन है जो है भी नहीं और उदास है
मुमकिन है लिखने वाले को भी ये ख़बर न हो
क़िस्से में जो नहीं है वही बात ख़ास है
माने न माने कोई हक़ीक़त तो है यही
चर्ख़ा है जिस के पास उसी की कपास है
इतना भी बन-सँवर के न निकला करे कोई
लगता है हर लिबास में वो बे-लिबास है
छोटा बड़ा है पानी ख़ुद अपने हिसाब से
उतनी ही हर नदी है यहाँ जितनी प्यास है
ये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी में - Nida Fazli
ये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी में
किसी को ढूँडते हैं हम किसी में
जो खो जाता है मिल कर ज़िंदगी में
ग़ज़ल है नाम उस का शाएरी में
निकल आते हैं आँसू हँसते हँसते
ये किस ग़म की कसक है हर ख़ुशी में
कहीं चेहरा कहीं आँखें कहीं लब
हमेशा एक मिलता है कई में
चमकती है अंधेरों में ख़मोशी
सितारे टूटते हैं रात ही में
सुलगती रेत में पानी कहाँ था
कोई बादल छुपा था तिश्नगी में
बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी
सलीक़ा चाहिए आवारगी में
ये जो फैला हुआ ज़माना है - Nida Fazli
ये जो फैला हुआ ज़माना है
इस का रक़्बा ग़रीब-ख़ाना है
कोई मंज़र सदा नहीं रहता
हर तअ'ल्लुक़ मुसाफ़िराना है
देस परदेस क्या परिंदों का
आब-ओ-दाना ही आशियाना है
कैसी मस्जिद कहाँ का बुत-ख़ाना
हर जगह उस का आस्ताना है
इश्क़ की उम्र कम ही होती है
बाक़ी जो कुछ है दोस्ताना है
ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिकारी क्या - Nida Fazli
ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिकारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है गोटा किनारी क्या
ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या
उसी के चलने-फिरने, हंसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या
हमारा मीर जी से मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या
ये न पूछो कि वाक़िआ' क्या है - Nida Fazli
ये न पूछो कि वाक़िआ' क्या है
किस की नज़रों का ज़ाविया क्या है
सब हैं मसरूफ़ कौन बतलाए
आदमी का अता-पता क्या है
चलता जाता है कारवान-ए-हयात
इब्तिदा क्या है इंतिहा क्या है
जो किताबों में है वो सब का है
तू बता तेरा तजरबा क्या है
कौन रुख़्सत हुआ ख़ुदाई से
हर तरफ़ ये ख़ुदा ख़ुदा क्या है
रात के बा'द नए दिन की सहर आएगी - Nida Fazli
रात के बा'द नए दिन की सहर आएगी
दिन नहीं बदलेगा तारीख़ बदल जाएगी
हँसते हँसते कभी थक जाओ तो छुप के रो लो
ये हँसी भीग के कुछ और चमक जाएगी
जगमगाती हुई सड़कों पे अकेले न फिरो
शाम आएगी किसी मोड़ पे डस जाएगी
और कुछ देर यूँही जंग सियासत मज़हब
और थक जाओ अभी नींद कहाँ आएगी
मेरी ग़ुर्बत को शराफ़त का अभी नाम न दे
वक़्त बदला तो तिरी राय बदल जाएगी
वक़्त नदियों को उछाले कि उड़ाए पर्बत
उम्र का काम गुज़रना है गुज़र जाएगी
राक्षस था न ख़ुदा था पहले - Nida Fazli
राक्षस था न ख़ुदा था पहले
आदमी कितना बड़ा था पहले
आसमाँ खेत समुंदर सब लाल
ख़ून काग़ज़ पे उगा था पहले
मैं वो मक़्तूल जो क़ातिल न बना
हाथ मेरा भी उठा था पहले
अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले
शहर तो बा'द में वीरान हुआ
मेरा घर ख़ाक हुआ था पहले
वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना - Nida Fazli
वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना
किस को मालूम यहाँ कौन है कितना अपना
जो भी चाहे वो बना ले उसे अपने जैसा
किसी आईने का होता नहीं चेहरा अपना
ख़ुद से मिलने का चलन आम नहीं है वर्ना
अपने अंदर ही छुपा होता है रस्ता अपना
यूँ भी होता है वो ख़ूबी जो है हम से मंसूब
उस के होने में नहीं होता इरादा अपना
ख़त के आख़िर में सभी यूँ ही रक़म करते हैं
उस ने रस्मन ही लिखा होगा तुम्हारा अपना
वो ख़ुश-लिबास भी ख़ुश-दिल भी ख़ुश-अदा भी है - Nida Fazli
वो ख़ुश-लिबास भी ख़ुश-दिल भी ख़ुश-अदा भी है
मगर वो एक है क्यूँ उस से ये गिला भी है
हमेशा मंदिर-ओ-मस्जिद में वो नहीं रहता
सुना है बच्चों में छुप कर वो खेलता भी है
न जाने एक में उस जैसे और कितने हैं
वो जितना पास है उतना ही वो जुदा भी है
वही अमीर जो रोज़ी-रसाँ है आलम का
फ़क़ीर बन के कभी भीक माँगता भी है
अकेला होता तो कुछ और फ़ैसला होता
मिरी शिकस्त में शामिल मिरी दुआ भी है
सफ़र को जब भी किसी दास्तान में रखना - Nida Fazli
सफ़र को जब भी किसी दास्तान में रखना
क़दम यक़ीन में मंज़िल गुमान में रखना
जो साथ है वही घर का नसीब है लेकिन
जो खो गया है उसे भी मकान में रखना
जो देखती हैं निगाहें वही नहीं सब कुछ
ये एहतियात भी अपने बयान में रखा
वो एक ख़्वाब जो चेहरा कभी नहीं बनता
बना के चाँद उसे आसमान में रखना
चमकते चाँद-सितारों का क्या भरोसा है
ज़मीं की धूल भी अपनी उड़ान में रखना
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो - Nida Fazli
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो
कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो
यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
हर इक रस्ता अँधेरों में घिरा है - Nida Fazli
हर इक रस्ता अँधेरों में घिरा है
मोहब्बत इक ज़रूरी हादिसा है
गरजती आँधियाँ ज़ाएअ' हुई हैं
ज़मीं पे टूट के आँसू गिरा है
निकल आए किधर मंज़िल की धुन में
यहाँ तो रास्ता ही रास्ता है
दुआ के हाथ पत्थर हो गए हैं
ख़ुदा हर ज़ेहन में टूटा पड़ा है
तुम्हारा तजरबा शायद अलग हो
मुझे तो इल्म ने भटका दिया है
हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो - Nida Fazli
हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो
अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतिजाज भी हो
रहेगी वा'दों में कब तक असीर ख़ुश-हाली
हर एक बार ही कल क्यूँ कभी तो आज भी हो
न करते शोर-शराबा तो और क्या करते
तुम्हारे शहर में कुछ और काम-काज भी हो
हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं
हुकूमतें जो बदलता है वो समाज भी हो
बदल रहे हैं कई आदमी दरिंदों में
मरज़ पुराना है इस का नया इलाज भी हो
अकेले ग़म से नई शाइरी नहीं होती
ज़बान-ए-'मीर' में 'ग़ालिब' का इम्तिज़ाज भी हो
हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए - Nida Fazli
हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए
तुम्हारा घर भी इसी शहर के हिसार में है
लगी है आग कहाँ क्यूँ पता किया जाए
जुदा है हीर से राँझा कई ज़मानों से
नए सिरे से कहानी को फिर लिखा जाए
कहा गया है सितारों को छूना मुश्किल है
ये कितना सच है कभी तजरबा किया जाए
किताबें यूँ तो बहुत सी हैं मेरे बारे में
कभी अकेले में ख़ुद को भी पढ़ लिया जाए
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा - Nida Fazli
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा
किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
आइना देख के निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा
हर चमकती क़ुर्बत में एक फ़ासला देखूँ - Nida Fazli
हर चमकती क़ुर्बत में एक फ़ासला देखूँ
कौन आने वाला है किस का रास्ता देखूँ
शाम का धुँदलका है या उदास ममता है
भूली-बिसरी यादों से फूटती दुआ देखूँ
मस्जिदों में सज्दों की मिशअलें हुईं रौशन
बे-चराग़ गलियों में खेलता ख़ुदा देखूँ
लहर लहर पानी में डूबता हुआ सूरज
कौन मुझ में दर आया उठ के आइना देखूँ
लहलहाते मौसम में तेरा ज़िक्र-ए-शादाबी
शाख़ शाख़ पर तेरे नाम को हरा देखूँ
हर तरफ़ हर जगह बे-शुमार आदमी - Nida Fazli
हर तरफ़ हर जगह बे-शुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
सुब्ह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ भागते दौड़ते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतिज़ार आदमी
घर की दहलीज़ से गेहूँ के खेत तक
चलता फिरता कोई कारोबार आदमी
ज़िंदगी का मुक़द्दर सफ़र-दर-सफ़र
आख़िरी साँस तक बे-क़रार आदमी
हुए सब के जहाँ में एक जब अपना जहाँ और हम - Nida Fazli
हुए सब के जहाँ में एक जब अपना जहाँ और हम
मुसलसल लड़ते रहते हैं ज़मीन-ओ-आसमाँ और हम
कभी आकाश के तारे ज़मीं पर बोलते भी थे
कभी ऐसा भी था जब साथ थीं तन्हाइयाँ और हम
सभी इक दूसरे के दुख में सुख में रोते हँसते थे
कभी थे एक घर के चाँद सूरज नद्दियाँ और हम
मोअर्रिख़ की क़लम के चंद लफ़्ज़ों सी है ये दुनिया
बदलती है हर इक युग में हमारी दास्ताँ और हम
दरख़्तों को हरा रखने के ज़िम्मेदार थे दोनों
जो सच पूछो बराबर के हैं मुजरिम बाग़बाँ और हम
होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है - Nida Fazli
होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है
उन से नज़रें क्या मिलीं रौशन फ़ज़ाएँ हो गईं
आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है
बिखरी ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शाइ'री
झुकती आँखों ने बताया मय-कशी क्या चीज़ है
हम लबों से कह न पाए उन से हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है
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