Hindi Kavita
हिंदी कविता
"जीवन और संबंध"
Jeevan aur Sambandh - Suvrat Shukla
(रचनाधीन काव्य "अर्धांगिनी" से)
जीवन की इस यात्रा में कब
आ जाते हैं कितने ही पल।
पर एक बार हैं बीते जो,
ना आते कभी पुनः वे कल।।
मिलते हैं लोग सफ़र में जो
कुछ अपने, कुछ अपनों से ही।
खिलजाते पुष्प असंख्य यहां,
पाते बसंत की ऋतु ज्यों ही।।
ऋतु गए शुष्क हो जाते जो,
ना फिर से वे खिल सकते है।
जो लोग बिछड़ जाते एक पल,
वे पुनः नहीं मिल सकते हैं।।
लाखों आ जाएं भले यहां,
पर हृदय उन्हें ही खोजेगा।
जो अपना था क्यों छोड़ गया,
यह सोच सोच कर रोएगा।।
जीवन भर चाहे कितने ही,
तुम उनका नाम पुकारोगे।
वे लौट कभी न आयेंगे,
कितनी आवाज लगाओगे।।
ये आंखें सिर्फ छलावा हैं,
बस देखा ही करती हैं ये।
परदे के पीछे क्या होता,
ना इसको देख सकी हैं ये।।
संदेह शत्रु संबंधों का,
यह प्रेम नष्ट कर देता है।
दिल में जब यह घर कर लेता,
मन में विष ही भर देता है।।
जिनसे करते तुम प्रेम सदा,
उन पर विश्वास सदा करना।
जाने ना देना रूठ उन्हें,
सर्वदा हृदय में ही रखना।।
यदि एक बार रूठे वे फिर,
वापस ना आयेंगे फिर से।
पीछे तुम प्राण लुटा भी तो,
पर पुनः मिलेंगे ना तुमसे।।
जो प्रेम किया करते तुमको ,
जो कद्र तुम्हारी करते हैं।
जो एक एक हर पग पग पर,
भी ध्यान तुम्हारा रखते हैं।।
जो अपने हैं उनके घावों पर,
चोट कभी ना पहुंचाना।
ऐसा न हो वे खो जायें,
रह जाय तुम्हारा पछताना।।
- सुव्रत शुक्ल
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