Hindi Kavita
हिंदी कविता
Dohe Nida Fazli
दोहे निदा फ़ाज़ली
अच्छी संगत बैठ कर, संगी बदले रूप
जैसे मिल कर आम से, मीठी हो गई धूप
अन्दर मूरत पर चढ़े घी, पूरी, मिष्टान
मंदिर के बाहर खड़ा, ईश्वर माँगे दान
आएगा पहचान में ख़ूनी हो या ख़ून
अभी हमारे देस में ज़िंदा है क़ानून
आँगन–आँगन बेटियाँ, छाँटी–बाँटी जाएँ
जैसे बालें गेहूँ की, पके तो काटी जाएँ
ईसा, अल्लाह, ईश्वर, सारे मंतर सीख
जाने कब किस नाम से मिले ज्यादा भीख
उस जैसा तो दूसरा मिलना था दुश्वार
लेकिन उस की खोज में फैल गया संसार
ऊपर से गुड़िया हँसे, अंदर पोलमपोल
गुड़िया से है प्यार तो, टाँकों को मत खोल
घर को खोजे रात–दिन, घर से निकले पाँव
वो रस्ता ही खो गया, जिस रस्ते था गाँव
चाहे गीता बांचिये, या पढिये कुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान
चिड़िया ने उड़ कर कहा मेरा है आकाश
बोला शिकरा डाल से यूँही होता काश
चिड़ियों को चहकाकर दे, गीतों को दे बोल
सूरज बिन आकाश है, गोरी घूँघट खोल
चीखे घर के द्वार की लकड़ी हर बरसात
कटकर भी मरते नहीं, पेड़ों में दिन-रात
छोटा कर के देखिए जीवन का विस्तार
आंखों भर आकाश है, बाहों भर संसार
जादू टोना रोज का, बच्चों का व्यवहार
छोटी सी एक गेंद में, भर दें सब संसार
जीवन के दिन रैन का, कैसे लगे हिसाब
दीमक के घर बैठ कर, लेखक लिखे किताब
जीवन भर भटका किये, खली न मन की गाँठ
उसका रास्ता छोड़कर, देखी उसकी बात
झूठी सारी सरहदें धोखा हर तक़्सीम
दिल्ली से लाहौर तक कड़वे सारे नीम
दर्पण में आंखें बनीं, दीवारों में कान
चूड़ी में बजने लगी, अधरों की मुस्कान
नक़्शा ले कर हाथ में बच्चा है हैरान
कैसे दीमक खा गई उस का हिन्दोस्तान
नदिया सींचे खेत को, तोता कुतरे आम
सूरज ठेकेदार सा, सब को बांटे काम
नैनों में था रास्ता हृदय में था गाँव
हुई न पूरी यात्रा छलनी हो गए पाँव
पंछी मानव, फूल, जल, अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार
पूजा घर में मुर्ति मीरा के संग श्याम,
जिसकी जितनी चाकरी, उतने उसके दाम
बच्चा बोला देख कर मस्जिद आली-शान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान
बरखा सब को दान दे, जिसकी जितनी प्यास
मोती सीये सीप में, माटी में घास
बाहर झाड़ू हाथ में भीतर उगे बबूल
उसको भी तो साफ़ कर अंदर है जो धूल
बूढ़ा पीपल घाट का, बतियाए दिन-रात
जो भी गुजरे पास से, सिर पे रख दे हाथ
माटी से माटी मिले, खो कर सभी निशान
किस में कितना कौन है, कैसे हो पहचान
मुझ जैसा इक आदमी मेरा ही हमनाम
उल्टा सीधा वो चले मुझे करे बद-नाम
मैं क्या जानूँ तू बता, तू है मेरा कौन
मेरे मन की बात को, बोले तेरा मौन
मैं था अपने खेत में, तुझको भी था काम
तेरी मेरी भूल का, राजा पड़ गया नाम
मैं भी तू भी यात्री चलती रुकती रेल
अपने अपने गाँव तक सब का सब से मेल
मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार
युग-युग से हर बाग का, ये ही एक उसूल
जिसको हंसना आ गया वो ही मट्टी फूल
यों ही होता है सदा, हर चूनर के संग
पंछी बनकर धूप में, उड़ जाते हैं रंग
रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल
चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल
लेके तन के नाप को, घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से, बाहर निकले पाँव
वो सूफ़ी का क़ौल हो या पंडित का ज्ञान
जितनी बीते आप पर उतना ही सच मान
सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना, खोना, खोजना, सांसों का इतिहास
सब की पूजा एक सी अलग अलग हर रीत
मस्जिद जाए मौलवी कोयल गाए गीत
स्टेशन पर ख़त्म की भारत तेरी खोज
नेहरू ने लिखा नहीं कुली के सर का बोझ
सात समंदर पार से, कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें, फिर भेजें हथियार
सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक, भूखा रहे फकीर
“सा” से “नी” तक सात सुर, सात सुरों का राग
उतना ही संगीत तुझमें, जितनी तुझमें आग
सीता रावण राम का, करें विभाजन लोग
एक ही तन में देखिये, तीनो का संजोग
सीधा सादा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान
सुना है अपने गांव में, रहा न अब वह नीम
जिसके आगे मांद थे, सारे वैद्य-हकीम
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