Hindi Kavita
हिंदी कविता
ओटक्कुषल् (बाँसुरी) : जी. शंकर कुरुप
Otakkuzhal : Govind Sankara Kurup
1. बाँसुरी (ओटक्कुष़ळ) Govind Sankara Kurup
लीला-भाव से जीवित गीतों को गाने वाले
दिशा और काल की सीमाओं से निर्बंध हे महामहिमामय !
मैं जनमा था अज्ञात-अपरिचित
किन्तु तेरी वैभवशालिनी दया ने
मुझे बना दिया बाँसुरी
चराचर को आनन्दित करनेवाली ।
तू ने अपनी सांस की फूँक से
उत्पन्न कर दी है प्राणों की सिहरन
इस निःसार खोखली नली में ।
मन को मगन कर देने वाले
अखिल विश्व के अनोखे गायक !
तू ही तो है जो मेरे अन्दर गीत बनकर बसा है;
अन्यथा क्या बिसात थी इस तुच्छ जड़ वस्तु की
किंचित भी कर सकती राग-आलाप
इस प्रकार हर्षोल्लास से भरकर ।
मन्द हास का मनोरम नवल-धवल फेन,
प्रेम प्रवाह की कलकल मन्द्र ध्वनि,
मानव अहंकार की उद्दाम लहरों का उछाल,
अश्रुसिक्त नेत्रों के नीले कमल,
दैन्य-दारिद्र्य के वर्षाकालीन मेघॊं की काली छाया,
सांसारिक पापों के भँवर जाल
इन सब को साथ लिये-लिये बहती रहे
मेरे अन्दर की संगीत कल्लोलिनी यह सरिता
हे प्रभु !
हो सकता है कि कल यह बंशी
मूक होकर काल की लम्बी कूड़ेदानी में गिर जाये
या यह दीमकों का आहार बन जाये, या यह
मात्र एक चुटकी राख के रूप में परिवर्तित हो जाये ।
तब कुछ ही ऐसे होंगे जो शोक-निःश्वास लेकर
गुणों की चर्चा करेंगे;
लेकिन लोग तो प्रायः बुराइयों के ही गीत गायेंगे ।
जो भी हो, मेरा जीवन तो तेरे हाथों समर्पित होकर
सदा के लिये आनन्द-लहरियों में तरंगित हो गया,
धन्य हो गया !
-१९२९
2. माँ कहाँ है ? (अम्मयेविटे?) Govind Sankara Kurup
"कहाँ है, कहाँ है माँ ?
पिताजी, आप की आँखों से
क्यों बहे जा रही है आँसुओं की धार,
क्यों आप गालों को धो रहे हैं बार-बार ?"
-पूछ रहा है मुन्ना, इस तरह रो-रोकर
कि वज्र भी पिघल जाये !
लाल प्रवाल जैसे उस के होंठ प्रश्नाकुल हैं ।
अस्त सागर के छोर पर पहुँचने के लिए
अत्यन्त उल्लास-विकल सूर्य-शिशु
आह्लाद की किलकारियाँ भरता हुआ
निर्मल सन्ध्या के मनोरम आँचल को
बार-बार घसीटे जा रहा है।
दिनान्त हो गया है,
एक छोटा सितारा अम्बर की ऊपरी मंज़िल पर
खड़ा है अत्यन्त विपन्न और पीत-वर्ण
क्योंकि नहीं दिखाई दे रही है कहीं भी उसे
अपनी माँ, रात्रि ।
वात्सल्य से विकल होकर गोद में उठा लेने के लिए
जब आती है रात्रि बालचन्द्र के साथ
तो सागर आनन्द-विह्वल होकर
लोट-पोट हो जाता है
सिकताओं की प्रभापूर्ण शैया पर !
भूमि और सागर के इन सभी प्रदेशों में
सदा ही माँ को खोजनेवाला बाल-पवन
निराशा से पराभूत और नितान्त दीन
बिलख-बिलखकर रो रहा है
"कहाँ है, कहाँ है माँ ?"
प्यारे मुन्ने!
तू ने शोकाकुल होकर जिस देवी को पुकारा है
वह तो स्वर्ग में निवास कर रही है,
देख तो, वहाँ उसे कितने सारे नक्षत्रों को
निरन्तर पालना-पोसना है, अपना प्यार देना है !
-१९२४
3. पुष्पगीत ! एक (पुष्पगीतम् 1) Govind Sankara Kurup
१
श्याम सुन्दर,
अनादि अनन्त,
हे आकाश!
तेरे विश्वव्यापी हृदय में से चू पड़ी है
स्नेह की एक शीतल ओस-बूंद
जिस ने बना दिया है मुझ पुष्प को
पुलकित और पूर्ण-काम !
जो हाथ सागर को भरते हैं
वे भला इस तुच्छ सीपी को
नितान्त भरा-पूरा बनाने में
क्यों कोई अभाव अनुभव करेंगे ?
किन्तु, मेरा यह मृदुल दल-सम्पुट
तेरे दिये गन्ध आमोद के भार से
पहले से ही विनत है,
फिर, भगवन् ! आप की कृपा का यह चंचल-शीकर
मैं किस प्रकार वहन करूं?
समेट लो इस बूंद को दया करके
हे तेजोराशि!
यह कहीं गिर न जाये सूखी धरती पर
मेरे दौर्बल्य के कारण।
अपनी अंग-श्री द्वारा तू ने
हरा-भरा बनाया है इस टीले की तराई को,
मैंने यहाँ जीवन-भर लूटा है स्वातन्त्र्य-सुख
तेरी प्रेरणा से मैंने सदा ही भोगा है विकास का उल्लास
तू ने मुझे बनाया है नितान्त धन्य!
२
जो पहनते हैं
मन्दार वृक्षों के पल्लवों का
स्वर्णजटित रेशमी छत्र-
उन देवताओं के उद्यान में,
रत्न-शैल के प्रान्तर प्रदेश में,
नहीं खिलना चाहता हूँ मैं !
मैं चाहता हूँ खिलना
उस भूमि में जहाँ
तेज गर्मी की आँच से झुलस गयी है
जो दूब,
उसे अनंद प्रदान करूँ, यही है मेरी अभिलाषा ।
मेरी स्वतन्त्रता के स्वच्छ मुख पर
स्वर्ग के उन महान् पेड़ों की छाया की कालिमा न पड़े,
यही है मेरी प्रार्थना !
परतन्त्रता के रत्नों से जगमगाते महल की अपेक्षा
मेरे लिए सुखकर और सन्तोषदायिनी है
स्वतन्त्रता की घास में उगी-बनी
मेरी छोटी-सी मलिन झोंपड़ी!
मुझे डर है कहीं इन कल्पवृक्षों की
छिछोरी छाया
तुम्हारे प्रियदर्शी मुख को
मेरी आँखों से ओझल न कर दे !
कहीं ऐसा तो नहीं कि
स्वर्ण शैलों की पीली कान्ति की झिलमिलाहट में
तुम्हारे कोमल अंगों की नाजुक नीलिमा तिरोहित हो जाये ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि
भौंरों की लोभग्रस्त चाटुकारिता के गीतों की गुनगुनाहट में
मैं तुम्हारे मंगलमय मौन-गान को भुला बैठूं ?
३
ऊँचा है रत्नगिरि का शिखर,
उस से ऊँचे जगमगाता है भोर का तारा ।
प्रभात के उस तारे की तरह ही इस वनपुष्प को भी
सदा सुन्दर और समुत्फुल्ल बनाते हो तुम,
धन्य है तुम्हारी समदर्शिता!
जब अपनी लाल-शोणित जिह्वा से चाट-चाटकर
घने अन्धकार को भी तुम लील जाते हो
ताकि संसार का परित्राण हो तमान्धकार से
तो बाल-पवन पास आकर मुझे झकझोरता है,
मैं चौंककर एक अनोखे विस्मय के साथ जाग जाता हूँ।
मेरी कामना है, मैं खड़ा होऊँ
नव-चेतना से भरी इस भूमि के आनन्द में
मात्र सहभागी बनने के लिए, बिना किसी अन्य आशा के।
भले ही न फैले मेरी सुरभि,
न हो मेरे भाग्य में नागरिकों की दृष्टि का आतिथ्य-
स्नेहसिक्त, आदर-भरा!
मैं विनम्र और लज्जाशील
कानन-पुष्प
सदा तुम्हारे पावन प्रवर्द्धित लावण्य को भरपूर भोगते हुए,
प्रेम प्रमुदित और निःशोक झर जाऊँ
मातृभूमि के पवित्र वक्ष पर-
यही है मेरी कामना !
-१९२६
4. पुष्पगीत ! दो (पुष्पगीतम् 2) Govind Sankara Kurup
१
हे शाश्वत, जगत्प्राण !
जब तुम शान्त निश्चल होकर
खड़े थे आधी रात में, और
यद्यपि थे विश्व-भर में व्याप्त
मैंने समझा यही कि तुम रूपहीन का
अस्तित्व ही नहीं है।
क्षमा करो इस अन्ध चपलता को
मैं अज्ञ वन-पुष्प ही तो ठहरा !
हाय तुम्हारे चरणों की अर्चना के लिए
मेरी एक पंखुरी तक न झरी,
मेरा जो स्वल्प परिमल है
वह भी मैंने समर्पित नहीं किया।
मैने नहीं किया अपने पराग का आलेपन
तुम्हारे सुन्दर वक्ष पर-
जब तुम स्वयं खड़े थे निःशब्द
मुझे स्नेह-पूर्वक वक्ष से चिपटाये हुए।
किन्तु
हे अनादि,
लोकालम्बन परिणामहीन पवमान !
यह क्षुद्र पुष्प क्या जानता है
तुम्हारी महिमा?
क्या सीपी नाप सकती है
महासागर को?
नहीं चिन्तन किया कभी
उन तारों के मौन गीत-तत्त्वों
का जो दिखाते हैं रास्ता रात में भी,
नहीं किया तर्पण तुम्हारा कभी
अपने अन्तरंग के मधु से,
तुम्हारे सान्निध्य को भी भूलकर
हो गया था निद्रा-निलीन
यह क्षुद्र वन-पुष्प !
२
शायद ऐसा सोचकर कि
हम तुम्हें भूल न जायें
अत्युग्र घोष के साथ
विस्मयकारी ढंग से रूप बदलकर
वर्षा-मेघों का जटा-जूट प्रकम्पित कर
अपने गर्जन-तर्जन से
बार-बार समूचे संसार को चौंकाते हुए,
बीच-बीच में खींच लेते हो तुम अपनी नंगी तलवार
जो आकाश को दमका देती है,
भयानक रौद्र रूप धारण कर
रच डाला है सब कहीं ताण्डव नृत्य तुमने ।
तुम्हारे इस कृत्रिम क्रोध के कारण
जहाँ गाज गिरी
वहीं गिरिप्रान्त दग्ध हो गया,
भय-विकम्पित मुग्ध तारकों ने
आँखें मूंद लीं,
समुद्र ने करुण स्वर में रुदन किया ।
जब फल सम्पदाएँ सारी नष्ट हो गयीं
तो भय-कम्पित पादपों ने
पात-पात आँसू बहा दिये।
दुःख ही तो है असली आचार्य !
तब हमें अनुभव हो गया कि
आप जो जीवों के आधार हैं
वास्तव में विश्वव्यापी हैं।
तब परिभ्रान्त सागरान्तर में
अगम संकुल उत्तुंग कुल-पर्वत में
तुम्हारे दुरतिक्रम प्रभाव का स्तुतिगीत
सुनाई पड़ा उच्च स्वर में-
हे विश्वात्मन् जय हो तुम्हारी !
३
उपशम हो गया तुम्हारा क्रोध,
मिट गया सारा अन्धकार,
प्रदीप्त हुआ फिर से
पूर्व दिशा का छोर।
पुनः प्राप्त कर अपनी आत्म-शक्ति
आनन्द लास्य करने लगा सागर,
पुलकित हो उठा पर्वत !
हे सौम्य !
मिटने लगी कालिमा
दिग्दिगन्त के मुख पर से,
चमक उठी स्मित-रेखा
तुम्हारी करुणा की कोर से
विमल, रम्य ।
मेरे मूक अधर कम्पित होने लगे
तुम्हारी स्तुति के लिए
अत्यन्त वात्सल्य से पूरित
आँक दिया तुमने अपना चुम्बन
उन पर।
प्रेमाकुल होकर
तुमने अपने कोमल हाथों से
इस पुष्प को उठाया, और
बारम्बार अपनी छाती से लगाया।
यद्यपि सारहीन है मेरा जीवन
तथापि हे पुण्योदार,
तुम्हारे स्पर्शों ने इसे बना दिया नित्यपूत ।
मेरा प्रत्येक कम्पन है
तुम्हारी इच्छा पर आधारित;
यही है मेरी कामना कि
इस मिट्टी में मिट्टी बन जाने से पहले
अपने पराग से
कर सकूँ तुम्हारा अंग-लेपन,
यह मेरा अत्यल्प सौरभ
यदि तुम्हें आमोदित कर सके
तो हो जाऊँ मैं कृतार्थ,
मैं फिर भी खिलूँ किसी जंगल में
तुम्हारे ही परितोष के लिए
-यही है मेरी कामना !
-१९२६
5. सन्ध्या-तारा (सान्ध्यतारम्) Govind Sankara Kurup
१
हे आनन्दकन्द !
बताओ तो, तुम कौन हो-
विश्व-सौन्दर्य के ललाट पर अंकित बिन्दी के समान,
वारुणी दिशा के कानों पर अलंकृत
अम्लान मनोहर कर्णफूल के समान,
नीलाकाश के तीर्थ में प्रवेश कर
अर्चना कर के लौटती हुई श्रांत
दिनान्त-लक्ष्मी के अंगुलि-पोर से स्खलित
रत्न-मुद्रिका के समान ?
हे प्रियदर्शिनी,
तुम हो विश्राम की घड़ियों की अग्रदूतिका,
काम-धन्धा सब छोड़कर
श्रम-स्वेद का तरल मुक्ताहार पहनकर
आनन्द की मादक मदिरा पिये,
निहारता है यह उन्मत्त संसार
तुम्हारी ओर एकटक !
पाटल-प्रभ पश्चिमी दिशा को
कान्तिमान करनेवाली
अगाध विस्मय के उन्माद से मत्त प्रेमी की आँखें
तुम्हारा ही पीछा कर रही हैं,
नहीं निहारती हैं वे
लजीली प्रिया के ईषद् आरक्त
सुन्दर ललाट पर झलकनेवाली
स्वेद-कणिकाओं को।
तरुणों की प्यारी
उत्सव का रंग बांधनेवाली रजनी के साथ-साथ
आती हो तुम
अपने नीले-नीले अलकों को हाथों से संवार,
गर्दन ऊँची कर,
गीली घनी नीलम पलकोंवाली
आनन्द-विस्मित आँखों से
तुम्हें देखती है कृषक-बाला,
करती है तुम्हारा स्वागत !
हे विस्मय पुंजिके !
जब तुम खड़ी होती हो सन्ध्या की अरुणिमा में
तब माता के अञ्जन-रञ्जित नयनों की कोर
नहीं जाती है अपने प्यारे शिशु के
विद्रुम अधरों पर चमकनेवाली
चाँदनी की ओर !
देखते ही तुम्हारा मुख
उन्मुख हो चलता है चरवाहा
बिसार कर सुध-बुध
छेड़ता है मधुर तान
पुलकित करता है गाँव का मन-प्राण !
एड़ी तक पहने
नीले-ढीले सुनहले पटम्बर से
सुशोभित सन्ध्या
बढ़ा रही है
तुम्हारी ओर
कोंपलों की मृदुल लाल उँगलियाँ,
किन्तु सिकोड़ लेती है
अपना हाथ डर से
कुम्हला न जाओ कहीं।
२
हे आनन्दकन्द,
बताओ तुम कौन हो-
शान्ति के मन्द हास की कणिका के समान,
विश्वशान्ति की पल्लवित कुन्दलतिका की
प्रथम कलिका के समान,
प्रेम का सौरभ प्रसारित करने के लिए
खुले हुए स्वर्ण सम्पुट के समान !
यह प्रचण्ड तप्त-वासर जो मध्याह्न में
बरसा रहा था अंगार,
अब ढलती आयु में मस्तक पर चढ़ा रहा है
तुम्हारे अमल उदार चरणों की रज,
सहला रहा है भूमण्डल को
सुराग-ललित दुलार से,
दे रहा है पेड़ों और लताओं को
लालिम पटम्बर,
प्रदान करता है सागर-वीचियों को
स्वर्ण कणिकाएं,
बाँटता जा रहा है तारक मण्डल को
अपनी सुषमा का साम्राज्य !
यद्यपि दुखता है मन,
परिशुष्क होता है आनन,
तथापि
यह सान्ध्य-मल्लिका-सुमन
भूलकर सारे सन्ताप
कर रही है दिवस के पैरों पर परिमल लेपन
प्रसन्न-वदन।
हे सौम्य,
परिणाम-रम्य है तुम्हारी संगति से
ग्रीष्म दिवस का जन्म ।
३
बताओ तो हे आनन्दकन्द
कौन हो तुम दृश्यमान
प्रभु की कारुण्य-कणिका के समान-
उस स्वर्णिम दीपक के समान-
उजाला है जिसे किन्हीं अज्ञात हाथों ने
आकाश की वेदिका में दुर्लभ कान्ति-तैल भरकर
इसलिए कि
उद्भासित हो जाये ध्यानमग्न होने का मुहुर्त ।
इस प्रणवाक्षर की दीप्ति में उद्बुद्ध होकर
ऊपर को उठती है मेरी आत्मा
छोड़कर संसार की परछाइयों को
भूलकर अपने नीड को
धीरे-धीरे फैलाकर भावनाओं को
किसी अज्ञात दिव्याकाश में
कर रही है विहार उस नीलाम्बर में
जो लाता है मेरे प्राणों में निर्वृति का लय ।
संसार अपने क्लेशों का जीर्ण वसन
उतार फेंक रहा है,
हो गया है उस का अन्तरंग
अमृत-स्रोत से प्लावित,
खड़ा है आनन्द से स्तब्ध;
हे आनन्द-ज्योति,
न हो जा अदृश्य,
मेरे और तुम्हारे भीतर
प्रोज्वलित है एक ही ज्योति का स्फुलिंग;
अन्यथा कैसे था यह सम्भव
कि जब तुम होती हो द्युतिमान
चमक उठता है मेरा मन दुःख-मुक्त !
चूम लो अपने शीतल अधरों से
मानव की आत्मा
जो मलिन-धूसरित पड़ी है,
भर दो उस में
अपनी ही कान्ति की दमक ।
-१९२७
6. बाद का वसन्त (पिन्नत्ते वसन्तम्) Govind Sankara Kurup
१
अपने मधुर कण्ठ से
मधुमास की विजय-तुरही बजानेवाली कोयल
घोषणा कर रही है :
"पान करो अपने जीवन का मधु
अविलम्ब, आकण्ठ,
बहता जा रहा है समय-रूपी पीयूष
सम्भव है तृषा-शमन का अवसर तुम्हें फिर न मिले ।
यह प्यारा जीवन-
अश्रु-हास्य का रसायन,
अमूल्य होने पर भी क्षणिक है-
जैसे धूप में नन्ही-सी हिम-कणिका-
क्यों खोते हो इस को व्यर्थ ?"
प्यारी-प्यारी तितलियाँ
सतरंगी इन्द्रधनुष की फुहार-सी
भावातुर होकर मण्डरा रही हैं
कानन-कलिकाओं के चारों ओर,
खोल दी हैं आँखें जिन्होंने
कोयल की कूक सुनकर।
उदयारुण का उज्ज्वल मयूख
है आरक्त आनन
मानो पी है मदिरा बारम्बार,
करता है आलिंगन
आसमान पर सोयी कृश मेघमाला का
जगाता है उसे चुम्बनों से ऐसे
कि हो जाते हैं मृदुल कपोल लाल ।
यह नवल पाटल सुन्दरी
अरुण और द्युतिमय है गाल जिस के,
बोल ही नहीं पाती है लज्जा-निमग्न कुछ भी ;
किन्तु जब प्रयाणोन्मुख होता है तरुण पवन
तब रोकना चाहती है बाट उस की
अपने सुललित निश्वासों से।
यह भाव-तरल प्रभात का तारा
भूल गया है स्वयं को
विस्मय से देख-देखकर लावण्यवती कुन्दलता को
खड़ी है जो मनोरम मन्द-हास लिये मुख पर,
नहीं जानता है वह कि
दिवस ने अपने अरुण नयन खोल दिये हैं
और साथी सारे दूर चले गये हैं !
२
दिवंगता रजनी की स्मृतियों में डूबा यह चाँद
हंसना ही भूल गया है,
चला गया है
क्षीण, विवर्ण, अश्रुपंकिल होकर;
जब सुख खिलता है एक ओर
तो दुःख आ पहुंचता है उसे चुनने को दूसरी ओर !
वसन्त ने कोंपलों को
दिव्य सुख की इतनी सारी मदिरा पिला दी
कि उन के आनन नशे से लाल हो गये-
तभी कराहने लगीं निराशा से भरे
अत्यन्त परुष-स्वर में
कुछ सूखी पत्तियाँ।
जो थी मेरी आँखों की सुषमा,
जो थी इस पृथ्वी के लिए सुन्दर देदीप्यमान ऊषा
वह पुण्यलतिका आमूल उखड़ गयी है,
बन गया है मेरा जीवन मरुभूमि ।
हे कुसुम-काल!
तुम्हारे पदार्पण की वेला में भी
मेरा मन क्यों बना हुआ है
निराशा-निहत और असुन्दर ?
निर्दयता से उजाड़ दिया है विधि ने इसे,
कैसे फूटेंगी इस में आशा की कलियाँ और सुख के पल्लव ?
कोकिलाओ, व्यर्थ क्यों पुकार रही हो?
तुम्हारी सखी तो गलकर मिट्टी में मिल गयी है।
क्यों भरतीं लम्बी उसाँसें
नवकलिकाओ ?
क्यों होती हो अकारण ही चकित ?
यह जगत् तो फेन है मृत्यु-सागर का,
परिणामशील है यह !
"तरुण रवि किरणों के आलिंगन में बद्ध,
अनुपम सौन्दर्यमय यह अरुण गुलाब
भरकर अपना प्याला नवजीवन के मकरन्द से
जब लौटकर आयेगा, तो पहचान पाओगे उसे ?"
-उस ने पूछा था मुझ से एक बार,
शोकाकुल दृष्टि लिये।
शायद, पाया हो कोई नया कमनीय रूप
उस पुनीता ने!
अथवा पाया हो उस ने वह शोकहीन चिर-वासन्ती संसार
जहाँ जीवन विकस्वर होता है
अपना परिपूर्ण प्रेम-सौरभ फैलाकर !
जिन हाथों से मैं ने
उस की परिमल-वाहिनी काली अलकें सजायी थीं,
उन्हीं से अलंकृत करूं मैं विकल-भाग्य, निहत-जीवन
उस की समाधि को-
प्रफुल्ल पुष्प द्वारा।
-१९२७
7. वृन्दावन (वृन्दावनम्) Govind Sankara Kurup
वृन्दावन की विटप शाखाओं पर विहार करनेवाले
मन्दानिल का स्पर्श पाकर, हे मेरे मन
अपनी पूत भावना के झीने पंखों को फैलाकर
धीरे-धीरे आगे बढ़ो!
देवताओं को भी पुलक-कंचुक-प्रद है
यह पुण्यमय कानन ।
यही वन आज भी सुरभित कर रहा है
नन्दगोप के उस पुण्यांकुर के शैशव को
जो इस भूमण्डल का भाग्य है,
देवकी देवी का प्राणोच्छ्वास है,
मंगलमयी गोप-बालिकाओं का
मंजुल रत्न-पदक है,
समस्त विश्व को आलोकित करने के लिए अवतरित
मुग्धकारी सुषमा-पूरित सुप्रभात है।
यह वन-स्थली ही तो है वह चकोरी
जिस ने सुधाकर की नवनील चन्द्रिका का पान किया,
यहाँ आज भी सुप्त पड़ी है
उस नीलमणि-वर्णवाले की कान्ति
इन घनी नीली घासों में,
इन पुलक-कण्टकित कदम्ब के पेड़ों में ।
अन्यथा उन्हें कालिन्दी क्या चूमती
अपने तरल मृदुल लहरों के अधरों से ?
गायों को चराता, बीच-बीच में बंसी बजाता,
वह माया-बालक यहाँ ही तो विचरा था !
उस के पैरों की वे मधुर मुद्राएँ
आज भी वन-प्रान्तर की सिकटाओं में
अमिट अंकित हैं।
सान्ध्य सूर्य की किरणें
शायद उन्हीं को चूमने के लिए
इस बीहड़ वन की अनुमति पाने को
आतुर हैं।
उस मनोहर पद-पल्लवों से अंकित
सिकता-भूमि पर
लोट-पोट होकर चला आया है पवन,
और गले लगा लेता है वेणुवन
उस अघहीन को!
शायद प्रकीर्ण पड़ा हो
उस बांसुरी का दिव्यनाद
यहाँ के काँटों में, कंकड़-पत्थरों में,
और इन आविल भू-विभागों में,
जो अनायास खींच लाने में पटु है
नभ में अरुन्धती और सप्तर्षियों से युक्त
नक्षत्र मण्डल को,
केलि-कुंजों में प्रेमार्द्र गोप-मानिनियों को।
इसीलिए तो यह आकाश कान लगाये
नितान्त मूक खड़ा रहता है।
चराचर को मुग्ध कर देनेवाला भव्य गीत
जब प्रवहमान हुआ, प्रेमिल प्रभु के
कोमल अधरों का स्पर्श करनेवाली स्नेह मुरलिका से
तो आनन्दोन्मत्त होकर सुनने लगे मृग-सिंह
भूल गये जाति-वैर!
तब भर गयीं पर्वत की भयानक गुफाएँ भी
इस की मधुरिमा से,
मिट गया स्वर्ग और भूमि का अन्तर
बन गये एक ही भवन के वे दो कक्ष,
नित्य बधिर वृक्षों ने भी
उस हृद्य संगीत का पान किया प्राणों से
करने लगे आनन्द-नर्तन,
अनुगान किया कानन के झरनों ने उस का।
न जाने कब देखेगी मेरी मातृभूमि यह दृश्य
परिवर्तित होने के लिए पूर्ववत् !
हो सकता है
यही शिलातल हो
माधव-दर्शन के लिए उत्सुक राधा की विहार-स्थली
चूम रही है जिसे बाल कदम्ब की मृदुल डाल ।
उस पुण्यशालिनी की
मृदुल प्रेमालाप की कोमल मधुकणिकाएँ
आज भी अक्षुण्ण पड़ी होंगी यहीं
इन शिलाखण्डों की दरारों में
जिन्होंने आगे धकेल दिया है धरा को
और स्वयं बन गये हैं ।
मृत अतीत की रीढ़ की हड्डी ।
राधा-देवी के पद-स्पर्शों से
पावन बने हुए इस प्रदेश को
छोड़ना नहीं चाहता कोयलों का झुण्ड,
पुलकित किया है अपने कोमल नाद से
कलिकाओं को जिन्होंने।
जीवन-सरिता के पार तक फैली हुई है
ऐसी स्मृतियों की छायाएँ।
मल्लिकाओं ने आज भी सुरक्षित कर रखा है
अपने पुष्प-सम्पुटों में
गहरे तम-सी कुटिल कुन्तला राधा की
श्वास-सुरभि को;
अन्यथा
क्यों जाता यह तरुण पवन
नित्य उस ओर
अपनी सांसों में गन्ध भरने?
इस श्रीमय प्रदेश पर आकर फूट-फूट पड़ती है
हेमन्त की रजनी;
हाय, इसी सैकत पर ही तो होता था
प्यारी राधा और कृष्ण का विहार!
यहाँ के प्रत्येक धूलि-कण में
बसा हुआ है
उस प्यारे फूल-से कोमल मन्द-हास का दुग्ध !
नहीं तो क्यों संध्या
यहाँ नित आकर श्यामल केशों से
मुंह ढंककर लौट जाती है नितान्त मूक,
और ध्यान-मग्न मूक गगन
बीच-बीच में जब इस ओर निहारता है
तो अपनी मन्द-स्मित प्रभा से
और भी धवल कर लेता है
अपना शरदभ्र-श्मश्रु ?
जब इस सैकत पर टहलती है स्निग्ध चन्द्रिका
हाथों में लिये सोम पुष्प की मंजूषा,
तब अत्यधिक नयन-मोहक हो जाती है
उस की अलौकिक धवलता!
ओ राधिके, वन्दनीय है तू,
सतत खोजने पर भी
जिस नीलरत्न को न पाया ऋषियों ने
वह तुम्हारे हाथों को स्वयं खोजता आ पहुँचा !
निश्चय ही प्रेम ज्ञान से श्रेष्ठ है।
हे कालिन्दी !
बिताया है तुम ने जीवन
मृदुल नीलांशुक बुन-बुनकर
सुन्दरी वृन्दावन-लक्ष्मी के लिए।
निरन्तर तुम्हारे तट पर बसकर
विलीन हो जाऊँ मैं राधाकृष्ण की उन स्मृतियों में
जिन्हें तुम ने अपने अन्तरंग में संजो रखा है।
राधाकृष्ण के मृदुल प्रेमालापों को
मर्मर ध्वनियों के बहाने गुंजरित करता हुआ
यह मनोहर वृन्दावन
विशुद्ध तीर्थचारियों को
सदा ही आनन्द प्रदान करे !
-१९२६
8. कोयल (कुयिळ्) Govind Sankara Kurup
"जीवन तो नहीं है उँगली की पोर जितना
किन्तु कर्तव्य है विशाल व्योम-सा;
तो फिर पिकवर,
क्यों खोये दे रहे हो दुर्लभ वसन्त को
व्यर्थ ही गा-गाकर?"
पथिक ने अपना प्रश्न जारी रखा-
"इस विशाल उपवन में खड़े होकर
चपल तरुगण
जब जीवन-संग्राम की भेरियाँ बजा रहे हैं
तो तुम निरे आलसी के गीतों का मूल्य ही क्या है ?
"हे परभृत,
परिहासमय तुम्हारा जीवन है ।
स्वर्णमाल-विभूषित कणिकारों की ओर से
आ रही है अतृप्ति की आवाज,
अलंभाव बाधक है श्रेय का
किन्तु
चिर-अतृप्ति द्वार है
उन्नति के सौध का।
यह आकाशलक्ष्मी
आदित्य मण्डल के चरखे पर काते जा रही है शुभ्र सूत
बिना किसी आलस्य के,
और यह दिन
उस के निकट रखे जा रहा है
श्वेत नीरद की नयी-नयी पूनियाँ
धुन-धुनकर।
दिन लम्बा नहीं है
और उजाले को
लूट ले जानेवाली रात भी दूर नहीं ;
हमेशा के लिए सो जाना पड़ेगा,
उस से पहले ही दोनों हाथों लूट लो
जीवन की मदिरा,
व्यर्थ न करो उस की एक कणिका भी,
हो जायें तुम्हारे कपोल नशे से लाल-
यह समीर
जो गुलाब के अधरों का चुम्बन ले रहा है,
निश्वास भरकर यही तो कह रहा है !
सागर
अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता है
और धरातल
पराधीन न होने का यत्न करता है।"
कोयल बोली-
"भद्र, कल्याण हो तुम्हारा,
पुण्य-पथ द्वारा तुम अपने लक्ष्य को प्राप्त करो!
स्वातन्त्र्य की श्री-देवी का पावन निवास-मन्दिर है
विश्व-लावण्य के नीलोत्पल दलों में,
इस नभोमण्डल को देखकर
भूल जाता हूँ मैं स्वयं को,
मालूम नहीं
मेरा गीत सार्थक है या निरर्थक ।
मुझ में न तो फूलों की सी सुकोमलता है
न गीध की सी दूर दृष्टि;
मेरी तो कामना यही है-
पेड़ की इस डाली में पड़ा रहूँ कहीं शोक-मुक्त
आकाश की अनश्वर सुन्दरता का गीत गाता हुआ !
जीवन-संग्राम में निरन्तर पराजित होनेवाले
विदीर्ण-हृदय बन्धुओं में अवश्य होंगे ऐसे कोई,
जिन्हें मेरा गाना आनन्द-दान करेगा;
मैं तो क्षुद्र पक्षी हूँ,
यही सही !
-१९२९
9. वन-जुही (काट्टुमुल्ळ्) Govind Sankara Kurup
हे नियति के मृदु निर्मल हास,
नयनों को चूमनेवाले नव्य प्रकाश,
तुम हो अनुपम विश्वोत्सव के निमित्त
आकाश पर ऊँचे फहरानेवाली लाल रेशमी ध्वजा ।
हे निष्पाप,
तुम्हारी सुन्दरता के सागर में
हिलोरें ले रहे हैं पखेरू;
तरुण-पवन के स्पर्श से दोलायमान
ये विकसित श्वेत सुमन मंजरियाँ
उठा रही हैं धवल फेन ।
आकाश के तारक नयन
मूंद लेते हैं पलकें हर्षातिरेक से;
तब पाकर तुम्हारा स्पर्श-पुलक
आनन्द से फूल उठा है
सागर का वक्षस्थल
और पुलकित है अरण्य नख-शिखान्त ।
श्यामलता से भरा बादल का कपोल
अभिराम बन गया है आनन्द की अरुणिमा से,
चूमकर तुम्हारे अंशुक का आँचल
ताण्डव कर रहे हैं ये पल्लव-दल ।
मैं हूँ एक वन-जुही,
नहीं जानती जनगण का आदर,
विनय और लज्जा से विह्वल,
कैसे करूंगी तुम्हारा स्वागत ?
हे मेरे दिव्य अतिथि !
सुनहरे पटम्बर से समाच्छादित
मरकतमय शैल-पीठ के समीप
खड़ी थीं लतिकाएँ।
अपनी ललित शाखाओं में
स्वर्णिम पल्लव-वसन लेकर
चामर झुलाने के लिए,
अनेक ऊँचे पर्वत
फलों का उपहार समर्पित करने के लिए,
सेवा-निरत प्रभात
रजत-नक्षत्रों का दीप लिये;
तब आप मृदुल मुस्कान के साथ
मेरे ही समीप आये, मैं लज्जा-विभोर हूँ।
आप की सादर अभ्यर्थना के लिए
समुद्र का सा मन्द्र-मधुर वाद्य नहीं ;
आप को विराजमान करने के लिए
हृदय को छोड़कर दूसरा सदन नहीं
इस क्षुद्र पुष्प के पास।
सद्यःस्फुटित गुलाब की
आनन्द-दायक सुरभि का एक लघु कण तक मुझ में नहीं,
मुग्ध झरनों की तरह
मनोरम गीत गाना भी मुझे नहीं आता ।
तुम को समर्पित करने के लिए
मधु भी तो मेरे पास नहीं ;
हे मधुर दर्शन, मैं लज्जा से बोल भी नहीं पाती;
न मालूम, आप क्या सोचेंगे अपने मन में ?
कैसे जानेंगे मेरे परम विशुद्ध प्रेम को?
क्या ये ओस-कणों के अश्रु
प्रकट कर सकते हैं मेरे मन के सब भाव ?
चूम लो मुझे, चूमते रहो
जब तक कि मन का तुमुल अन्धकार न मिट जाये ।
हाय !
मेरे जीवन का प्रतिक्षण
तुम प्रणयी के पथ पर
अपंकिल पांवड़ा बिछा पाता।
-१९२९
10. मेरा पुण्य (एण्ट्रे पुण्यम्) Govind Sankara Kurup
मेरा पुण्य
१
मेरे चिर-संचित पुंजीभूत पुण्यों की प्रतीक
मेरी प्रिया ने मनोहर मन्द-हास के साथ मधुर स्वर में पूछा-
"आज फुलवारी जाने में इतना विलम्ब क्यों ?
क्या फूलों से उदास हो गये हो?"
पुलकित होकर
मैं ने अपने मधुर स्वप्न के दोनों हाथ ग्रहण कर उत्तर दिया-
"तारुण्य का वसन्तारम्भ हुआ है
बन्ध-विमुक्त निबिड़-कुन्तलों की भ्रमर-पंक्तियाँ डोल रही हैं,
प्रेम-सुरभिल निश्वास का मन्द पवन बह रहा है,
कुन्द कलिकाओं के रुचिर अग्र अस्पष्ट दीख रहे हैं,
मृदुल पल्लव-युगल मर्मर कर रहा है,
पाटलवर्णी रेशमी साड़ी के झूमते आँचल के पल्लव-भार से
कनक हस्तवल्लियाँ हिल रही हैं,
पाटल अपने प्रत्येक पदविन्यास में
विद्रुम बिखेर रहा है मेरे समीप,
मन्द-मन्द कूजनेवाले नूपुर पक्षी का
मंजु स्वन गूंज रहा है,
लम्बे विस्फारित नील नयनों में
प्रेम की लहरियां उठ रही हैं,
स्नेह-सुरभित प्रसूनों की चुम्बन-वर्षा
मेरे ऊपर हो रही है,
खड़ी है यों जब मेरी नन्दन-लक्ष्मी मेरे सामने
तो मैं कैसे किसी अन्य उपवन की ओर जाऊँगा।
अगर है यह अपराध
तो प्रिये इस अपराध को क्षमा करो,
मेरे मन का भौंरा तुम्हारे चारों ओर मंडरा रहा है।"
२
जब कनक-सूर्य अपनी अरुण रश्मियाँ फैलाये
पास खड़ा हुआ तो
अंजनवर्ण गगन-पिंजरे में बन्द
पञ्चरंगी सारिका सन्ध्या ने
अत्यन्त आनन्द के साथ
अपने जगन्मोहन रंग-बिरंगे पंख धीरे-धीरे फैला दिये ।
मेरे चिर-संचित पुण्य की पुंजीभूत प्रतीक प्रिया ने
मन्द-हास के साथ
मुझ से मधुर स्वर में कहा-
"खिले हुए धवल मुकुलों से लदी
यह नभ-मालती
अपने भार से चारों ओर से
नीचे की ओर झुकी जा रही है
और पश्चिमी दिशा से आकर
सन्ध्या फूल चुन रही है।
खड़ी है वह अरुणारुण मदिरा लेकर
आज क्यों आप की आँखों को तृषा सूख गयी है ?"
समेटकर हाथों में गन्ध-मदिर नील अलकावलि
जो लहरा रही थी अरुण-चरण कमल पर
मैं ने उन्हें चूमा
और प्रणयाकुल दृष्टि लिये बोला-
"इस अरुणाये हुए ललाट पर
श्रम-कणिकाओं के तारे चमचमा रहे हैं,
धीमे-धीमे दोलायमान नील अलकें
रजनी के आगमन की सूचना दे रही हैं,
कर्मजाल को समेट लेनेवाले
कर्मेन्द्रिय-भारवाहकों को श्रम-मुक्ति का
आनन्द दे रही हैं,
नेह-भरी मधुर चितवन से
मेरे मन के सागर को आरक्त कर रही हैं,
नाना विकार-वीचियों का विक्षोभ पैदा करनेवाली
लम्बी-लम्बी साँसें चल रही हैं,
दे रही है नवोन्मेष
मेरे म्लान मलिन तप्त जीवन के सुमन को,
तू जब खड़ी है अत्यन्त निकट, मोहनदर्शिनी !
तो कौन क्यों किसी दूसरी सन्ध्या की खोज करेगा ?
अगर यह अपराध है,
तो क्षमा कर दो इसे प्रिये !
मेरा हृदय-घन घुमड़ रहा है तेरे चारों ओर ।
-१९२८
11. छाया (निष़ळ्) Govind Sankara Kurup
मैं हैं एक अर्थहीन छाया-रूप,
मेरा मलिन जीवन केवल अस्थिर स्वप्न है,
जग की मृग-मरीचिका में आनन्द और उल्लास से वंचित
किसी स्वप्न में डूबता-उतराता सरकता हुआ चला जा रहा हूँ मैं ।
निदाघ की कड़ी धूप में
जब मल्लिका म्लान हो जाती है
तो मैं उस की सहायतार्थ पहुँच जाता हूँ;
मेरे शीतल शरीर से लिपटकर
मुस्कान से मनोहर मुख झुकाकर
सनिश्वास मूक खड़ी रहती है
वह लज्जा-मधुर लता-वधू ।
मैं भींच देता हूँ नयन दिन के
जो परिहास-क्रीड़ा में ठहाका मारकर हँस उठता है,
और चूमता हूँ निद्रा-निमग्न कृषिस्थली के कपोल,
और आनन्दित होता हूँ
ईख के प्ररोह-पुलकों को देख-देखकर ।
कैसी-कैसी दशा बदलती रहती है मेरी!
कभी मैं कड़ी धूप से तपती तराई में रहता हूँ,
कभी अनजाने शीतल शैल शिखर पर चढ़ता हूँ-
निश्चय ही कोई महान् अदृश्य शक्ति
चला रही है मुझे।
कहाँ है मेरा गन्तव्य स्थान ?
किस वस्तु को प्राप्त करने के लिए भटकता रहा हूँ मैं ?
मुझ में और इन पहाड़ों में कितना अन्तर?
पर्वत है अचल मनोहर,
किन्तु मैं जनमा हूँ चपल विरूप ।
नहीं,
महाशैल और महासागर भी मिटेंगे एक दिन,
कोई भी यहाँ न रहेगा तद्वत्-
यही तो है सृष्टि की स्वाभाविक गति ।
सब के भीतर है किन्तु एक परम सुन्दर शाश्वत सत्य,
ये जो दीखते हैं, उसी के बाहरी रूप हैं ।
हाय ! सन्ध्या आ पहुँची,
विदा, अयि मनोहारिणी धरिणी,
मैं क्षण-भर में तम में विलीन हो जाऊँगा ।
हे मल्लिके ! पुष्प-अश्रुकण न झरने दो,
इस तरह न खोने दो मुझे, रहे-सहे धैर्य को ।
-१९२८
12. प्रभात-समीर (प्रभातवातम्) Govind Sankara Kurup
जय हो तुम्हारी, हे प्रभात-पवन !
सफल हों तुम्हारे महान् यत्न ;
तुम आ रहे हो देवताओं के देश से
स्वर्ग का सन्देश पृथ्वी को देने के लिए।
उदार-हृदया प्रभातलक्ष्मी
अपनी पल्लव-हस्तांगुलियों को उठाकर
तुम्हारी आरब्ध यात्रा को विजयोपलब्धि के लिए
विकारमूक होकर आशीर्वाद दे रही है ।
तारे जो तम के पहरेदार हैं,
देख रहे हैं चौंक-चौंककर तुम्हारी ओर,
हे प्रकाश के अग्रदूत!
तुम्हारे प्रभाव से दिखायी देते है वे कैसे पाण्डुवर्ण !
मन्दगति से चलनेवाले महात्मन् !
पेड़-पादप सुरभिल गुलाब जलकण छिड़क रहे हैं।
सजग लतिकावाला कदम्ब
पराग-सिन्दूर लेप रहा है।
हे महासत्त्व !
रास्ता रोककर खड़े रहनेवाले गिरि-निकरों को
तुम अकेले ही हिलाकर रख देते हो,
किन्तु चूम-चूमकर दुलारते हो
नन्हे-नन्हे नवल तृणांकुर को।
दिशाओं के हर्षारुण मनहर मुख
तुम्हारी ओर घूम गये हैं,
पत्तों के कम्पित अधरों पर
छा गया है तुम्हारा पुण्यनाम ।
अविचल रहनेवाले ये हरे-भरे पर्वत
पुलकित हो विस्मय से विस्फारित गुहा-मुख,
निहारते रहते हैं तुम्हारी गति
हे विश्व के एकमात्र विस्मायक !
कहते हैं, सुखपान-मत्त जागरण-विरोधी
कि तुम पागल हो-
किन्तु हे पुलकप्रद,
उन की इस अज्ञता पर द्रवित होकर
तुम उसाँसें भर लेते हो।
तुम्हीं हो
विगत काल के जीर्ण-मलिन धरातल को
नयी द्युति से जगमगानेवाली
मूल प्रकृति के मन में अंकुरित
अप्रतिरोध्य नव-संकल्प!
जानता है चराचर जगत्
तुम्हारी चतुर सुकुमार भाषा ;
अन्यथा,
आसेतु हिमाचल
ऐसा स्पन्दन कैसे आविर्भूत होता?
हट गया है वह अन्धकार
जिस ने भर दिया आलस्य अपने इन्द्रजाल से यहाँ,
सुनहले नवीन प्रकाश को
फिर से आलिंगन कर रहा है
यह पुण्यपूर्ण पुरातन देश ।
जान गये हैं तुम्हारे सन्देश को
ये शैल-शृंखलाएँ और यह तरंगित विपुल पारावार ।
लो, पहाड़ों की पादप-पंक्तियाँ
नृत्य कर रही हैं,
और सागर का उरस्थल भी
उच्छलित और तरंगित हो रहा है ।
मेरे देश के सुमन
समर्पित कर रहे हैं आप को अपना जीवन,
उन की मदिर गन्ध बना रही है उन्मत्त
आस-पास बहनेवाली सरिताओं को।
हे चैतन्यदायक महात्मन्,
गूंज रही है तुम्हारी शक्तिध्वनि वेणुवन में !
प्रेम-मग्न मन्दस्मित के साथ
खड़ी हैं चारों दिशाएँ हाथों में हाथ डालकर ।
ऊपर मंडरा रही है
श्वेत-लाल-हरी मेघपताका,
हे उन्मेष-दायक!
मेरी जन्मभूमि जाग उठे
और खड़ी रहे सदा इसी झण्डे की मंगलछाया में !
-१९२८
13. मेघगीत (मेघगीतम्) Govind Sankara Kurup
१
हे सविता,
छाया और प्रकाश की सलील रचना कर
जग को सुन्दर और विचित्र बनानेवाले,
ओस-कण में और महासागर में
समभाव से प्रतिबिम्बित होनेवाले अमल प्रकाश,
लोकचक्षु, हे स्वामिन्,
कौन कर सकता है कीर्तन
तुम्हारी गेय महिमा का ?
तुम हो सनातन, प्रकृति के प्रवर्तक!
प्रेम की डोर से बांध लिया है तुम ने
अखिल विश्व को,
तुम्हीं करते हो निर्माण काल का भी !
यह धरित्री-देवी,
विविध धातुओं के अंगरागों से अंकित
मनहर कानन-हरीतिमा के उजागर उत्तरीय से शोभित
अंगों पर बिखरे हैं सुमन
शोभित है वक्र चंचल सरिताओं की कुन्तल राशि से
उर्मिल सागर के विलुलित शिथिल वसन धारण कर
कुसुम सुरभित निश्वास के साथ
मूंद लेती है रजनी की पलकें,
कर रही है तुम्हारी शयन-प्रदक्षिणा।
हे सर्वोपास्य,
ये तारागण हैं तुम्हारे पदयुगल के पराग मात्र ।
२
मैं हूँ क्षुद्र मेघ, निरीह,
और हूँ संसार का घनीभूत वाष्प,
मैं तुम्हारी सृजन चातुरी का निदर्शन हूँ।
हे चित्रचेष्टित,
प्रकाश बोनेवाले अपने हाथों से ही तो
तुम ने बनाया है मेरा जीवन कालिमामय !
हे निरतिशय सनातन तेज,
मैं जडात्मक
बारम्बार रूपान्तर पाता हूँ,
अपनी तमोमय आत्मा में
दुर्वह ज्वाला लिये सर्वदा भटकता फिरता हूँ।
नहीं है मेरी इच्छा से यह,
करती है मेरी गति का परिचालन
कोई महती अदृश्य शक्ति।
उस की एक फूंक से
धीर सागर प्रकम्पित होता है,
उन्नत महाकाय पर्वत
परिवर्तित होता है लघु धूलि-कणिकाओं में ।
मैं तो लक्ष्यहीन हूँ,
इसलिए आँसू बहाता हुआ
नभ में आशावलम्बी होकर
भटक रहा हूँ ।
३
हे चित्रहेती भगवन् !
स्वर्गपथ से जब तू जैत्र-यात्रा करने लगता है
तब यदि मेरे हृदय के टूक-टूक होने की ध्वनि
बन सके तुम्हारा भेरी-रव,
यदि मेरे हृदय का शोणित काम आ सके
तुम्हारे हेतु तोरण बाँधने के,
मेरा श्यामल जीवन
हो सके थोड़ी देर के लिए ही सही, तुम्हारा अलंकार चिह्न,
मेरे अन्तरंग की असहनीय ज्वाला
बन जाये कांचन पताका,
मेरे दुःख की छाया
बिछा सके कालीन तेरे सुभग मग में,
मेरे आँसू छिड़का सकें गुलाब-जल,
तो मैं चाहूँगा यही
कि अगले जन्म में भी मैं मेघ ही बनूँ ।
मैं मलिन हूँ और हूँ भी नश्वर-
किन्तु इस से क्या ?
प्रोज्ज्वल गरिमा के साथ
हे देव, तुम्हारे सम्मुख
हर्ष-स्तम्भ-लज्जा आदि
विविध भावों की रंजक रंगीन छटा
कपोलों पर खिलाये,
खड़ा रह पाऊँ, और
मेरा आर्द्र वाष्पपूर्ण जीवन
जग को प्रेमाधीन करने में सफल हो ।
हे सनातन,
तुम्हारे सुप्रकाश की सुन्दरता पाकर
मेरा मन जगमगाता रहे।
-१९३०
14. वह पेड़ (आ मरम्) Govind Sankara Kurup
वह पेड़ ...
आज भी जब वह पेड़ दिखाई देता है
मेरे प्राणों में पुलक फूटने लगता है
पैर लड़खड़ाने लगते हैं
बरौनियाँ गीली हो जाती हैं
और व्याकुल मन स्पन्दित होने लगता है।
ओ मेरे मन !
जिसे आगे कभी उदित नहीं होना है
उस चन्द्रमा के लिए क्यों चौकड़ियाँ भरते हो ?
किन्तु, नहीं-तप्त प्राणों के लिए
लुप्त मधुर सुख की स्मृति की छाया भी
अत्यन्त आश्वासदायक हो सकती है।
पंख फड़फड़ाकर दिन-रैन के
कालविहंगिनी कितनी दूर चली गयी है !
कितने ही तारे टिमटिमा कर बुझ गये,
कितने ही सुमन खिल-खिलकर झर गये
कितनी ही मोहक सन्ध्याएँ अस्त हुई-
हाँ, सब कुछ किसी स्वप्न के भंवर में घूम रहा है।
किन्तु वह सन्ध्या-
जब मैं ने उन मधुर अधरों से
यह मधु स्पन्दी वाणी सुनी
"मैं अनुराग की दासी हूँ"-
वह कितनी भिन्न थी !
उस दिन के तारे कुछ और ही थे
उस दिन की सन्ध्या कुछ और ही थी
और, उस दिन का मन्द पवन भी भिन्न था !
सान्ध्य-सूर्य के चषक में
भरकर अरुणासव
पान कर रही थी सन्ध्यादेवी दिन के संग
मदारुण गुलाबी कपोल थे उस के।
रसिक पवन
चकित लतिकाओं के अंगों को
बारम्बार आलिंगन में भर रहा था,
यद्यपि वे करती थीं प्रतिरोध मर्मर स्वर में
सुरभि-मत्त मधुकर
प्रीति-संभार से मौन-मूक
अध-खिली चमेली को
उदार चुम्बन रस से
बना रहा था उन्मत्त !
नभ में दूर स्थित तारे
जता रहे थे भाव लोल लोचनों द्वारा,
उत्तर दे रही थीं
रम्य सुमनराजियाँ
सुरभिल निश्वासों के द्वारा,
कामुक व्योम
गमनोद्यत दिन-लक्ष्मी के
सौवर्ण कौशेय का अंचल पकड़कर
चूमता था उसे बारम्बार-
जाने ही नहीं देता था।
खड़ी थी वह
घुंघराली नील केशराशि का जूड़ा बाँधे
गुलाब-शोभित,
हिल्लोल मनोहर उरोजों पर डाले मसृण-साड़ी,
अंग-अंग में प्रस्फुटित
मोहक यौवन से उद्भासित तन,
स्निग्ध गीली पलकों से युक्त
प्रेम-वाचाल नील नयनांचला
मेरे युवा हृदय के सपनों की साकार
प्रतिमा बनी हुई,
आज भी मधुभाषिणी की उस
मुद्रा-भंगिमा की याद
बना देती है मेरे मन को उन्मत्त !
जब कोमल कामिनी ने
अपना पूर्ण सुभग जीवन
सानन्दवाष्प सौंपा मेरे हाथों में
तो मैंने अनुभव किया सगर्व,
मानो कोई अकिंचन
अकस्मात् बन गया हो राजाधिराज !
अब तो उस घड़ी के दुर्लभ सौन्दर्य का
केवल रोमन्थ करने के लिए ही मैं बच गया हूँ।
हाय, प्रेम की विजय-यात्रा को भी
रुक जाना पड़ता है श्मशान में
मृत्यु की साम्राज्य-सीमा श्मशान में पहुँचकर !
लुट गया लावण्य का वह साम्राज्य
और नष्ट हो गया मेरे स्वप्नों का स्वर्ग !
पल-भर में ही मिट जाता है इन्द्रधनुष,
मात्र दिन-भर में मुरझा जाता है सुमन;
अपने वक्षस्थल में प्रभात का चुम्बन पानेवाली हिमकणिका
मुस्कराने भी नहीं पाती है कि मिट जाती है
बिजली नष्ट हो जाती है उत्पन्न होते ही ;
क्षणिकता ही तो है धर्म लावण्य का!
हे अनुराग,
तुम हो स्वर्णिम गुलाब
झर जाते हैं जल्दी ही सुन्दर दल-
फिर काँटों से बेधते हो तुम हृदय-
तुम से मैं घृणा करता हूँ।
-१९३०
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