Nazmein Firaq Gorakhpuri नज़्में फ़िराक़ गोरखपुरी

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

Nazmein Firaq Gorakhpuri
नज़्में फ़िराक़ गोरखपुरी

1. दीवाली के दीप जले - Firaq Gorakhpuri

नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले
 
धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले

नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले
 
लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले
 
निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले
 
लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले
 
कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले
 
मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले
 
तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले
 
जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले
 
भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले
 
firaq-gorakhpuri

देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले
 
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले
 
जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले
 
रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले
 
जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले
 
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले
 
लाखों चराग़ों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले
 
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले
 
ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले
 
बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले
 
छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज 'फ़िराक़' सुनाता है
ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले
 

2. जुगनू - Firaq Gorakhpuri

(बीस बरस के उस नौजवान के जज़्बात,जिसकी माँ
उसी दिन मर गई जिस दिन वह पैदा हुआ)
 
ये मस्त-मस्त घटा ये भरी-भरी बरसात
तमाम हद्दे-नज़र तक घुलावटों का समाँ!
फ़जा-ए-शाम में डोरे-से पड़ते जाते हैं
जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है
दहक उठा है तरावट की आँच से आकाश
जे-फ़र्श-ता-फ़लक अंगड़ाइयों का आलम है
ये मद भरी हुई पुरवाइयाँ सनकती हुई
झिंझोड़ती है हरी डालियों को सर्द हवा
ये शाख़सार के झूलों में पेंग पड़ते हुये
ये लाखों पत्तियों का नाचना ये रक्से-नबात
ये बेख़ुदी-ए-मसर्रत ये वालहाना रक्स
ये ताल-सम ये छमाछम-कि कान बजते हैं
हवा के दोश प कुछ ऊदी-ऊदी शक्लों की
नशे में चूर-सी परछाइयाँ थिरकती हुई
उफ़ुक़ प डूबते दिन की झपकती हैं आखें
ख़मोश सोजे़-दरूँ से सुलग रही है ये शाम!
 
मेरे मकान के आगे है एक सह्‌ने-वसीअ
कभी वो हँसती नज़र आती कभी वो उदास
उसी के बीच में है एक पेड़ पीपल का
सुना है मैंने बुजु़र्गों से ये कि उम्र इसकी
जो कुछ न होगी तो होगी कोई छियानवे साल
छिड़ी थी हिन्द में जब पहली जंगे-आज़ादी
जिसे दबाने के बाद उसको ग़द्‌र कहने लगे
ये अह्‌ले हिन्द भी होते हैं किस क़दर मासूम!
वो दारो-गीर वो आज़ा़दी-ए-वतन की जंग
वतन से थी कि ग़नीमे-वतन से ग़द्दारी
बिफ़र गए थे हमारे वतन के पीरो-जवाँ
दयारे-हिन्द में रन पड़ गया चार तरफ़
उसी ज़माने में ,कहते हैं,मेरे दादा ने
जब अरजे़-हिन्द सिंची ख़ून से ‘सपूतों’ के
मियाने-सह्‌न लगाया था ला के इक पौदा
जो आबो-आतशो-ख़ाको-हवा से पलता हुआ
ख़ुद अपने क़द से बजोशे-नुमूँ निकलता हुआ
फ़ुसूने-रूहे-नबाती रगों में चलता हुआ
निगाहे-शौक़ के साँचों में रोज़ ढलता हुआ
 
सुना है रावियों से दीदनी थी उसकी उठान
हर-इक के देखते ही देखते चढ़ा परवान
वही है आज ये छतनार पेड़ पीपल का
वही है आज ये छतनार पेड़ पीपल का
वो टहनियों के कमण्डल लिये,जटाधारी
ज़माना देखे हुए है ये पेड़ बचपन से
रही है इसके लिए दाख़िली कशिश मुझमें
रहा हूँ देखता चुपचाप देर तक उसको
मैं खो गया हूँ कई बार इस नज़ारे में
वो उसकी गहरी जड़ें थीं कि ज़िन्दगी की जड़ें
पसे-सुकूने-शजर कोई दिल धड़कता था
मैं देखता था कभी इसमें ज़िन्दगी का उभार
मैं देखता था उसे हस्ती-ए-बशर की तरह
कभी उदास,कभी शादमा,कभी गम्भीर!
 
फ़जा का सुरमई रंग और हो चला गहरा
धुला-धुला-सा फ़लक है धुआँ-धुआँ-सी है शाम
है झुटपुटा की कोई अज़दहा है मायले-ख़्वाब
सुकूते-शाम में दरमान्दगी का आलम है
रुकी-रुकी सी किसी सोच में है मौज़ें-सबा
रुकी-रुकी सी सफ़ें मलगजी घटाओं की
उतार पर है सरे-सह्‌न रक्स पीपल का
वो कुछ नहीं है अब इक जुंबिशे-ख़फी के सिवा
ख़ुद अपनी कैफ़ियत-नीलगूँ में हर लह्‌जा
ये शाम डूबती जाती है छिपती जाती है
हिजाबे-वक़्त सिरे से है बेहिसो-हरकत
रुकी-रुकी दिले-फ़ितरत की धड़कनें यकलख़्त
ये रंगे-शाम कि गर्दिश हो आसमाँ में नहीं
बस एक वक्फ़ा-ए-तारीक,लम्हा-ए-शह्‌ला
समा में जुंबिशे-मुबहम-सी कुछ हुई ,फौ़रन
तुली घटा के तले भीगे-भीगे पत्तों से
हरी-हरी कई चिंगारियाँ-सी फूट पड़ीं
कि जैसे खुलती-झपकती हों बेशुमार आँखें
अजब ये आँख-मिचौली थी नूरो-जु़लमत की
सुहानी नर्म लवें देते अनगिनत जुगनू
घनी सियाह खु़नक पत्तियों के झुरमुट से
मिसाले-चादरे-शबताब जगमगाने लगे
कि थरथराते हुए आँसुओं से साग़रे-शाम
छलक-छलक पड़े जैसे बग़ैर सान-गुमान
बतूने-शाम में इन जिन्दा क़ुमक़ुमों की चमक
किसी की सोई हुई याद को जगाती थी-
वो बेपनाह घटा वो भरी-भरी बरसात
वो सीन देख के आँखें मेरी भर आती थीं
मेरी हयात ने देखीं हैं बीस बरसातें
मेरे जनम ही के दिन मर गई थी माँ मेरी
वो माँ कि शक्ल भी जिस माँ कि मैं न देख सका
जो आँख भर के मुझे देख भी सकी न ,वो माँ
मैं वो पिसर हूँ जो समझा नहीं कि माँ क्या है
मुझे खिलाइयों और दाइयों ने पाला था
वो मुझसे कहती थीं जब घिर के आती थी बरसात
जब आसमान में हरसू घटाएँ छाती थीं
बवक़्ते-शाम जब उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू
दिए दिखाते हैं ये भूली भटकी रूहों को!
मजा़ भी आता था मुझको कुछ उनकी बातों में
मैं उनकी बातों में रह-रह के खो भी जाता था
पर उनकी बातों में रह-रह के दिल में कसक-सी होती थी
कभी-कभी ये कसक हूक बन के उठती थी
 
यतीम दिल को मेरे ये ख़याल होता था
ये शाम मुझको बना देती काश! इक जुगनू
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह
कहाँ-कहाँ वो बिचारी भटक रही होगी!
ये सोच कर मेरी हालत अजीब हो जाती
पलक की ओट से जुगनू चमकने लगते थे
कभी-कभी तो मेरी हिचकियाँ -सी बंध जातीं
कि माँ के पास किसी तरह मैं पहुँच जाऊँ
और उसको राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ
दिखाऊँ अपने खिलौने दिखाऊँ अपनी क़िताब
कहूँ कि पढ़ के सुना तू मेरी क़िताब मुझे
फिर उसके बाद दिखाऊँ उसे मैं वो कापी
कि टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनी थीं कुछ जिसमें
ये हर्फ़ थे जिन्हें लिक्खा था मैंने पहले-पहल
दिखाऊँ फिर उसे आंगन में वो गुलाब की बेल
सुना है जिसको उसी ने कभी लगाया था
ये जब की बात है जब मेरी उम्र ही क्या थी
नज़र से गुज़री थीं कुल चार-पाँच बरसातें!
 
गुज़र रहे थे महो-साल और मौसम पर
हमारे शहर में आती थी घिर के जब बरसात
जब आसमान में उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू
हवा की मौ-रवाँ पर दिये जलाये हुए
फ़जा में रात गए जब दरख्त पीपल का
हज़ारों जुगनुओं से कोहे-तूर बनता था
हजारों वादी-ए-ऐमन थीं जिसकी शाखों में
ये देखकर मेरे दिल में ये हूक उठती थी
कि मैं भी होता इन्हीं जुगनुओं में इक जुगनू
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह
वो माँ ,मैं जिसकी महब्बत के फूल चुन न सका
वो माँ,मैं जिसकी महब्बत के बोल सुन न सका
वो माँ,कि भींच के जिसको कभी मैं सो न सका
मैं जिसके आँचलों में मुँह छिपा के रो न सका
वो माँ,कि सीने में जिसके कभी चिमट न सका
हुमक के गोद में जिसकी कभी मैं चढ़ न सका
मैं जेरे-साया-ए-उम्मीद बढ़ न सका
वो माँ,मैं जिससे शरारत की दाद पा न सका
मैं जिसके हाथों महब्बत की मार खा न सका
सँवारा जिसने न मेरे झंडूले बालों को
बसा सकी न जो होंठों से मेरे गालों को
जो मेरी आँखों में आँखें कभी न डाल सकी
न अपने हाथों से मुझको कभी उछाल सकी
वो माँ,जो कोई कहानी मुझे सुना न सकी
मुझे सुलाने को जो लोरियाँ भी गा न सकी
वो माँ,जो दूध भी अपना मुझे पिला न सकी
वो माँ,जो अपने हाथ से मुझे खिला न सकी
वो माँ, गले से जो अपने मुझे लगा न सकी
वो माँ ,जो देखते ही मुझको मुस्करा न सकी
कभी जो मुझसे मिठाई छिपा के रख न सकी
कभी जो मुझसे दही भी बचा के रख न सकी
मैं जिसके हाथ में कुछ देखकर डहक न सका
पटक-पटक के कभी पाँव मैं ठुनक न सका
कभी न खींचा शरारत से जिसका आँचल भी
रचा सकी न मेरी आँखों में जो काजल भी
वो माँ,जो मेरे लिए तितलियाँ पकड़ न सकी
जो भागते हुए बाजू मेरे जकड़ न सकी
बढा़या प्यार कभी करके प्यार में न कमी
जो मुँह बना के किसी दिन न मुझसे रूठ सकी
जो ये भी कह न सकी-जा न बोलूंगी तुझसे!
जो एक बार ख़फा़ भी न हो सकी मुझसे
वो जिसको जूठा लगा मुँह कभी दिखा न सका
कसाफ़तों प मेरी जिसको प्यार आ न सका
जो मिट्टी खाने प मुझको कभी न पीट सकी
न हाथ थाम के मुझको कभी घसीट सकी
वो माँ जो गुफ्तगू की रौ में सुन के मेरी बड़
कभी जो प्यार से मुझको न कह सकी घामड़!
शरारतों से मेरी जो कभी उलझ न सकी
हिमाक़तों का मेरी फ़लस़फ़ा समझ न सकी
वो माँ जिसे कभी चौंकाने को मैं लुक न सका
मैं राह छेंकने को जिसके आगे रुक न सका
जो अपने हाथ से वह रूप मेरा भर न सकी
जो अपनी आँखों को आईना मेरा कर न सकी
गले में डाली न बाहों की पुष्पमाला भी
न दिल में लौहे-जबीं से किया उजाला भी
वो माँ,कभी जो मुझे बद्धियाँ पिन्हा न सकी
कभी मुझे नये कपडों से जो सजा न सकीं
वो माँ ,न जिससे लड़कपन के झूठ बोल सका
न जिसके दिल के दर इन कुंजियों से खोल सका
वो माँ मैं पैसे भी जिसके कभी चुरा न सका
सजा़ से बचने को झूठी कसम भी खा न सका
वो माँ कि ‘हाँ’ से भी होती है बढ़के जिसकी ‘नहीं’
दमे- इताब जो बनती फ़रिश्ता रहमत का
जो राग छेड़ती झुँझला के भी महब्बत का
वो माँ,कि घुड़कियाँ भी जिसकी गीत बन जायें
वो माँ,कि झिड़कियाँ भी जिसकी फूल बरसायें
वो माँ,हम उससे जो दम भर को दुश्मनी कर लें
तो ये न कह सके-अब आओ दोस्ती कर लें !
कभी जो सुन न सकी मेरी तूतली बातें
जो दे न सकी कभी थप्पडों की सौगा़तें
वो माँ,बहुत से खिलौने जो मुझको दे न सकी
ख़िराजे़-सरखु़शी-ए-सरमदी जो ले न सकी
वो माँ,लड़ाई न जिससे कभी मैं ठान सका
वो माँ,मैं जिस प कभी मुठ्ठियाँ न तान सका
वो मेरी माँ, कभी मैं जिसकी पीठ पर न चढ़ा
वो मेरी माँ,कभी कुछ जिसके कान में न कहा
वो माँ, कभी जो मुझे करधनी पिन्हा न सकी
जो ताल हाथ से देकर मुझे नचा न सकी
जो मेरे हाथ से इक दिन दवा भी पी न सकी
कि मुझको जिन्दगी देने में जान ही दे दी
वो माँ,न देख सका जिन्दगी में जिसकी चाह
उसी की भटकी हुई रूह को दिखाता राह!
 
ये सोच-सोच के आँखें मेरी भर आती थीं
तो जा के सूने बिछौने प लेट रहता था
किसी से घर में न राज अपने दिल के कहता था
यतीम थी मेरी दुनिया यतीम मेरी हयात
यतीम शामों-सहर थी यतीम थे शबो-रोज़
यतीम मेरी पढ़ाई थी मेरे खेल यतीम
यतीम मेरी मसर्रत थी मेरा गम़ भी यतीम
यतीम आँसुओं से तकिया भीग जाता था
किसी से घर में न कहता था अपने दिल के भेद
हर-इक से दूर अकेला उदास रहता था
किसी शमायले-नादीदा को मैं ताका करता था
मैं एक वहसते-बेनाम से हुड़कता था
 
गुज़र रहे थे महो-साल और मौसम पर
इसी तरह कई बरसात आईं और गईं
मैं रफ़्ता-रफ़्ता पहुँचने लगा बसिन्ने-शऊर
तो जुगनुओं की हकीकत समझ में आने लगी
अब उन खिलाइयों और दाइयों की बातों पर
मेरा यक़ीं न रहा मुझ प हो गया ज़ाहिर
कि भटकी रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़
वो मन-गढ़ंत-सी कहानी थी इक फ़साना था
वो बेपढ़ी-लिखी कुछ औरतों की थी बकवास
भटकती रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़
ये खुल गया -मेरे बहलाने को थी सारी बातें
मेरा यकीं न रहा इन फ़ुजू़ल किस्सों पर–
 
हमारे शह्‌र में आती हैं अब भी बरसातें
हमारे शह्‌र प अब भी घटाएँ छाती हैं
हनोज़ भीगी हुई सुरमई फ़जाओं में
खु़तूते-नूर बनाती हैं जुगनुओं की सफें
फ़जा-ए-तीराँ में उड़ती हुई ये कन्दीलें
मगर मैं जान चुका हूँ इसे बड़ा होकर
किसी की रूह को जुगनू नहीं दिखाते राह
कहा गया था जो बचपन में मुझसे झूठ था सब!
मगर कभी-कभी हसरत से दिल में कहता हूँ
ये जानते हुए,जुगनू नहीं दिखाते चराग!
किसी की भटकी हुई रूह को -मगर फिर भी
वो झूठ ही सही कितना हसीन झूठ था वो
जो मुझसे छीन लिया उम्र के तका़जे़ ने
मैं क्या बताऊँ वो कितनी हसीन दुनिया थी
जो बढ़ती उम्र के हाथों ने छीन ली मुझसे
समझ सके कोई ऐ काश! अह्‌दे-तिफ़ली को
जहान देखना मिट्टी के एक रेजे को
नुमूदे-लाला-ए-ख़ुदरौ में देखना जन्नत
करे नज़ारा-ए-कौनेन इक घिरौंदे में
उठा के रख ले ख़ुदाई को जो हथेली पर
करे दवाम को जो क़ैद एक लमहे में
सुना? वो का़दिरे-मुतलक़ है एक नन्हीं सी जान
खु़दा भी सजदे में झुक जाए सामने उसके
ये अक्लो-फ़ह्‌म बड़ी चीज़ है मुझे तसलीम
मगर लगा नहीं सकते हम इसका अन्दाजा़
कि आदमी को ये पड़ती है किस क़दर महँगी
इक-एक कर के वो तिफ़ली के हर ख़याल की मौत
बुलूगे-सिन में सदमें नए ख़यालों के
नए ख़याल का धक्का नए ख़यालों की टीस
नए तसव्वुरों का कर्ब़, अलअमाँ, कि हयात
तमाम जख़्मे-निहाँ हैं तमाम नशतर हैं
ये चोट खा के सम्भलना मुहाल होता है
सुकून रात का जिस वक़्त छेड़ता है सितार
कभी-कभी तेरी पायल से आती है झंकार
तो मेरी आँखों से आँसू बरसने लगते हैं
मैं जुगनू बन के तो तुम तक पहुँच नहीं सकता
जो तुमसे हो सके ऐ माँ! वो तरीका बता
तू जिसको पाले वो काग़ज़ उछाल दूँ कैसे
ये नज़्म मैं तेरे क़दमों में डाल दूँ कैसे
 
नवाँ-ए- दर्द से कुछ जी तो हो गया हलका
मगर जब आती है बरसात क्या करूँ इसको
जब आसमान प उड़ते हैं हर तरफ़ जुगनू
शराबे-नूर लिये सब्ज़ आबगीनों में
कँवल ज़लाते हुये जु़लमतों के सीनों में
जब उनकी ताबिशे-बेसाख़्ता से पीपल का
दरख़्त सरवे-चरागाँ को मात करता है
न जाने किस लिए आँखें मेरी भर आती हैं!
 
(रक्से-नबात=वनस्पतियों का नाच, सोजे़-दरूँ=
हृदय की जलन, सह्‌ने-वसीअ=विशाल दालान,
ग़नीमे-वतन=देश के दुश्मन, पीरो-जवाँ=बूढ़े-जवान,
दीदनी=देखने योग्य, दरमान्दगी=थकन, नूरो-जु़लमत=
अंधेरा-रोशनी, हरसू=चारों तरफ, कोहे-तूर=रोशनी का
पहाड़, जेरे-साया-ए-उम्मीद=आशा की छाया में,
कसाफ़तों=गन्दगी, लौहे-जबीं=ललाट, ख़िराजे़-सरखु़शी-
ए-सरमदी=हमेशा रहने वाली मस्ती का लगाव,
शमायले-नादीदा=अनदेखी आकृति, खु़तूते-नूर=रोशनी
की लकीरें, फ़जा-ए-तीराँ=अँधेरा वातावरण, फ़जा-ए-
तीराँ=अँधेरा वातावरण, अह्‌दे-तिफ़ली=बाल्यकाल,
नुमूदे-लाला-ए-ख़ुदरौ=फूलों का बढ़ना-फैलना,
नज़ारा-ए-कौनेन=विश्व दर्शन, का़दिरे-मुतलक़=
ईश्वर, अक्लो-फ़ह्‌म=बुद्दि-ज्ञान, तसलीम=स्वीकार,
कर्ब़=यातना, अलअमाँ=खुदा पनाह दे, जख़्मे-निहाँ=
छिपा घाव, नवाँ-ए- दर्द=दर्द की आवाज़, आबगीनों=
प्यालों) 

3. आज़ादी - Firaq Gorakhpuri

मिरी सदा है गुल-ए-शम्-ए-शाम-ए-आज़ादी
सुना रहा हूँ दिलों को पयाम आज़ादी
लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
उछल रहा है ज़माना में नाम-ए-आज़ादी
मुझे बक़ा की ज़रूरत नहीं कि फ़ानी हूँ
मिरी फ़ना से है पैदा दवाम-ए-आज़ादी
जो राज करते हैं जम्हूरियत के पर्दे में
उन्हें भी है सर-ओ-सौदा-ए-ख़ाम-ए-आज़ादी
बनाएँगे नई दुनिया किसान और मज़दूर
यही सजाएँगे दीवान-ए-आम-ए-आज़ादी
फ़ज़ा में जलते दिलों से धुआँ सा उठता है
अरे ये सुब्ह-ए-ग़ुलामी ये शाम-ए-आज़ादी
ये महर-ओ-माह ये तारे ये बाम हफ़्त-अफ़्लाक
बहुत बुलंद है इन से मक़ाम-ए-आज़ादी
फ़ज़ा-ए-शाम-ओ-सहर में शफ़क़ झलकती है
कि जाम में है मय-ए-लाला-फ़ाम-ए-आज़ादी
स्याह-ख़ाना-ए-दुनिया की ज़ुल्मतें हैं दो-रंग
निहाँ है सुब्ह-ए-असीरी में शाम-ए-आज़ादी
सुकूँ का नाम न ले है वो क़ैद-ए-बे-मीआद
है पय-ब-पय हरकत में क़याम-ए-आज़ादी
ये कारवान हैं पसमाँदगान-ए-मंज़िल के
कि रहरवों में यही हैं इमाम-ए-आज़ादी
दिलों में अहल-ए-ज़मीं के है नीव उस की मगर
क़ुसूर-ए-ख़ुल्द से ऊँचा है बाम-ए-आज़ादी
वहाँ भी ख़ाक-नशीनों ने झंडे गाड़ दिए
मिला न अहल-ए-दुवल को मक़ाम-ए-आज़ादी
हमारे ज़ोर से ज़ंजीर-ए-तीरगी टूटी
हमारा सोज़ है माह-ए-तमाम-ए-आज़ादी
तरन्नुम-ए-सहरी दे रहा है जो छुप कर
हरीफ़-ए-सुब्ह-ए-वतन है ये शाम-ए-आज़ादी
हमारे सीने में शोले भड़क रहे हैं 'फ़िराक़'
हमारी साँस से रौशन है नाम-ए-आज़ादी
 

4. परछाइयाँ/धुँधलका - Firaq Gorakhpuri

1.
ये शाम इक आईना-ए-नीलगूं,ये नम,ये महक
ये मंजरों की झलक, खेत, बैग, दरिया, गांव
वो कुछ सुलगते हुए,कुछ सुलगने वाले अलाव
सियाहियों का दबे पाँव आसमां से नजूल
लटों को खोल दे जिस तरह शाम की देवी
पुराने वक़्त के बरगद की ये उदास जटाएँ
करीब- ओ- दूर ये गोधूलि की उभरती घटायें
ये कायनात का ठहराव, ये अथाह सुकूत
ये नीम-तीरह फ़ज़ा रोज़-ए-गर्म का ताबूत
धुआँ-धुआँ सी ज़मीं है घुला-घुला सा फ़लक
 
2.
ये चाँदनी ये हवाएँ ये शाख़-ए-गुल की लचक
ये दौर-ए-बादा ये साज़-ए-ख़मोश फ़ितरत के
सुनाई देने लगी जगमगाते सीनों में
दिलों के नाज़ुक ओ शफ़्फ़ाफ़ आबगीनों में
तिरे ख़याल की पड़ती हुई किरन की खनक
 
3.
ये रात!छनती हवाओं की सोंधी-सोंधी महक
ये खेल करती हुई चाँदनी की नरम दमक
सुगंध 'रात की रानी' की जब मचलती है
फ़ज़ा में रूह-ए-तरब करवटें बदलती है
ये रूप सर से कदम तक हसीन जैसे गुनाह
ये आरिज़ों की दमक ये फ़ुसून-ए-चश्म-ए-सियाह
ये धज न दे जो अजंता की सनअतों को पनाह
ये सीना,पड़ ही गई देवलोक की भी निगाह
ये सर-ज़मीन से आकाश की परस्तिश-गाह
उतारते हैं तेरी आरती सितारा-ओ-माह
सिजल बदन की बयाँ किस तरह हो कैफियत
सरस्वती के बजाए हुए सितार की गत
जमाल-ए-यार तिरे गुल्सिताँ की रह रह के
जबीन-ए-नाज़ तिरी कहकशाँ की रह रह के
दिलों में आईना-दर-आईना सुहानी झलक
 
4.
ये छब,ये रूप,ये जीवन,ये सज,ये धज,ये लहक
चमकते तारों की किरनों की नर्म-नर्म फुआर
ये रसमसाते बदन का उठान और ये उभार
फ़ज़ा के आईना में जैसे लहलहाए बहार
ये बेकरार,ये बेइख़्तियार जोशे-नमूद
कि जैसे नूर का फव्वारा हो शफ़क-आलूद
ये जल्वे पैकर-ए-शब-ताब के ये बज़्म-ए-शोहूद
ये मस्तियाँ कि मय-ए-साफ़-ओ-दुर्द सब बे-बूद
ख़जिल हो लाल-ए-यमन उज़्व उज़्व की वो डलक
 
5.
बस इक सितारा-ए-शिंगरफ़ की जबीं पे झमक
वो चाल जिस से लबालब गुलाबियाँ छल्कें
सकूँ-नुमा ख़म-ए-अबरू ये अध-खुलीं पलकें
हर इक निगाह से ऐमन की बिजलियाँ लपकें
ये आँख जिस में कई आसमाँ दिखाई पड़ें
उड़ा दें होश वो कानों की सादा सादा लवें
घटाएँ वज्द में आएँ ये गेसुओं की लटक
 
6.
ये कैफ़-ओ-रंग-ए-नज़ारा ये बिजलियों की लपक
कि जैसे कृष्ण से राधा की आँख इशारे करे
वो शोख़ इशारे कि रब्बानियत भी जाए झपक
जमाल सर से क़दम तक तमाम शोला है
सुकून जुम्बिश ओ रम तक तमाम शोला है
मगर वो शोला कि आँखों में डाल दे ठंडक
 
7.
ये रात नींद में डूबे हुए से हैं दीपक
फ़ज़ा में बुझ गए उड़ उड़ के जुगनुओं के शरार
कुछ और तारों की आँखों का बढ़ चला है ख़ुमार
फ़सुर्दा छिटकी हुई चाँदनी का धुँदला ग़ुबार
ये भीगी भीगी उदाहट ये भीगा भीगा नूर
कि जैसे चश्मा-ए-ज़ुल्मात में जले काफ़ूर
ये ढलती रात सितारों के क़ल्ब का ये गुदाज़
ख़ुनुक फ़ज़ा में तिरा शबनमी तबस्सुम-ए-नाज़
झलक जमाल की ताबीर ख़्वाब आईना-साज़
जहाँ से जिस्म को देखें तमाम नाज़-ओ-नियाज़
जहाँ निगाह ठहर जाए राज़-अंदर-राज़
सुकूत-ए-नीम-शबी लहलहे बदन का निखार
कि जैसे नींद की वादी में जागता संसार
है बज़्म-ए-माह कि परछाइयों की बस्ती है
फ़ज़ा की ओट से वो ख़ामुशी बरसती है
कि बूँद बूँद से पैदा हो गोश ओ दिल में खनक
 
8.
किसी ख़याल में है ग़र्क़ चाँदनी की चमक
हवाएँ नींद के खेतों से जैसे आती हों
हयात ओ मौत में सरगोशियाँ सी होती हैं
करोड़ों साल के जागे सितारे नम-दीदा
सियाह गेसुओं के साँप नीम-ख़्वाबीदा
ये पिछली रात ये रग रग में नर्म नर्म कसक
 

5. आधी रात को - Firaq Gorakhpuri

1.
सियाह पेड़ हैं अब आप अपनी परछाईं
ज़मीं से ता-मह-ओ-अंजुम सुकूत के मीनार
जिधर निगाह करे इक अथाह गुमशुदगी
एक-एक करके अफ़सुर्दा चिरागों की पलकें
झपक गईं जो खुली हैं झपकने वाली हैं
झपक रहा है 'पुरा'चाँदनी के दर्पन में
(झलक रहा है पड़ा चाँदनी के दर्पन में)
रसीले कैफ़ भरे मंज़रों का जगता ख़्वाब
फ़लक पे तारों को पहली जमाहियाँ आईं
 
2.
तमोलियों की दूकानें कहीं कहीं हैं खुली
कुछ ऊँघती हुई बढ़ती हैं शाहराहों पर
सवारियों के बड़े घुँघरुओं की झंकारें
खड़ा है ओस में चुपचाप हरसिंगार का पेड़
दुल्हन हो जैसे हया की सुगंध से बोझल
ये मौज-ए-नूर ये भरपूर ये खिली हुई रात
कि जैसे खिलता चला जाए इक सफ़ेद कँवल
सिपाह-ए-रूस है अब कितनी दूर बर्लिन से
जगा रहा है कोई आधी रात का जादू-
छलक रही है ख़ुम-ए-ग़ैब से शराब-ए-वजूद
फ़ज़ा-ए-नीम नर्गिस-ए-ख़ुमारआलूद
कँवल की चुटकियों में बंद है नदी का सुहाग
 
3.
ये रस की सेज, ये सुकुमार, ये कोमल गात
नयन कमल की झपक काम-रूप का जादू
ये रसमलाई (रस्मसाई) पलक की घनी-घनी परछाईं
फ़लक पे बिखरे हुए चाँद और सितारों की
चमकती उँगलियों से छिड़ के साज़ फ़ितरत के
तराने जागने वाले हैं, तुम भी जाग उट्ठो
 
4.
शुआ-ए-महर ने उनको चूम चूम लिया
नदी के बीच कुमुदनी के फूल खिल उट्ठे
न मुफ़्लिसी हो, तो कितनी हसीन है दुनिया
ये झाँय-झाँय-सी रह-रह के एक झींगुर की
हिना कि टट्टियों में नरम सरसराहट-सी
फ़ज़ा के सीने में ख़ामोश सनसनाहट-सी
लटों में रात की देवी की थरथराहट-सी
ये कायनात अब नींद ले चुकी होगी!
 
5.
ये महव-ए-ख़्वाब हैं रंगीन मछलियाँ तह-ए-आब
कि हौज़-ए-सेहन में अब इन की चश्मकें भी नहीं
ये सर-निगूँ हैं सर-ए-शाख़ फूल गुड़हल के
कि जैसे बेबुझे अंगारे ठंढे पड़ जायें
ये चाँदनी है कि उमड़ा हुआ है रस-सागर
इक आदमी है कि इतना दुखी है दुनिया में
 
6.
क़रीब चाँद के मंडला रही है इक चिड़िया
भँवर में नूर के करवट से जैसे नाव चले
कि जैसे सीना-ए-शाइर में कोई ख़्वाब पले
वो ख़्वाब साँचे में जिस के नई हयात ढले
वो ख़्वाब जिस से पुराना निज़ाम-ए-ग़म बदले
कहाँ से आती है मदमालती लता की लिपट
कि जैसे सैकड़ों परियाँ गुलाबियाँ छिड़काएँ
कि जैसे सैकड़ों बन-देवियों ने झूले पर
अदा-ए-ख़ास से इक साथ बाल खोल दिए
लगे हैं कान सितारों के जिस की आहट पर
इस इंक़लाब की कोई ख़बर नहीं आती
दिल-ए-नुजूम धड़कते हैं कान बजते हैं
 
7.
ये साँस लेती हुई काएनात ये शब-ए-माह
ये पुर-सुकूँ ये पुर-असरार ये उदास समाँ
ये नर्म नर्म हवाओं के नील-गूँ झोंके
फ़ज़ा की ओट में मर्दों की गुनगुनाहट है
ये रात मौत की बे-रंग मुस्कुराहट है
धुआँ धुआँ से मनाज़िर तमाम नम-दीदा
ख़ुनुक धुँदलके की आँखें भी नीम ख़्वाबीदा
सितारे हैं कि जहाँ पर है आँसुओं का कफ़न
हयात पर्दा-ए-शब में बदलती है पहलू
कुछ और जाग उठा आधी रात का जादू
ज़माना कितना लड़ाई को रह गया होगा
मिरे ख़याल में अब एक बज रहा होगा
 
8.
गुलों ने चादर-ए-शबनम में मुँह लपेट लिया
लबों पे सो गई कलियों की मुस्कुराहट भी
ज़रा भी सुम्बुल-ए-तुर्की लटें नहीं हिलतीं
सुकूत-ए-नीम-शबी की हदें नहीं मिलतीं
अब इंक़लाब में शायद ज़ियादा देर नहीं
गुज़र रहे हैं कई कारवाँ धुँदलके में
सुकूत-ए-नीम-शबी है उन्हीं के पाँव की चाप
कुछ और जाग उठा आधी रात का जादू
 
9.
नई ज़मीन नया आसमाँ नई दुनिया
नए सितारे नई गर्दिशें नए दिन रात
ज़मीं से ता-ब-फ़लक इंतिज़ार का आलम
फ़ज़ा-ए-ज़र्द में धुँदले ग़ुबार का आलम
हयात मौत-नुमा इंतिशार का आलम
है मौज-ए-दूद कि धुँदली फ़ज़ा की नब्ज़ें हैं
तमाम ख़स्तगी-ओ-माँदगी ये दौर-ए-हयात
थके थके से ये तारे थकी थकी सी ये रात
ये सर्द सर्द ये बे-जान फीकी फीकी चमक
निज़ाम-ए-सानिया की मौत का पसीना है
ख़ुद अपने आप में ये काएनात डूब गई
ख़ुद अपनी कोख से फिर जगमगा के उभरेगी
बदल के केचुली जिस तरह नाग लहराए
 
10.
ख़ुनुक फ़ज़ाओं में रक़्साँ हैं चाँद की किरनें
कि आबगीनों पे पड़ती है नर्म नर्म फुवार
ये मौज-ए-ग़फ़लत-ए-मासूम ये ख़ुमार-ए-बदन
ये साँस नींद में डूबी ये आँख मदमाती
अब आओ मेरे कलेजे से लग के सो जाओ
ये पलकें बंद करो और मुझ में खो जाओ
 

6. जुदाई - Firaq Gorakhpuri

शजर हजर पे हैं ग़म की घटाएँ छाई हुई
सुबुक-ख़िराम हवाओं को नींद आई हुई
रगें ज़मीं के मनाज़िर की पड़ चलीं ढीली
ये ख़स्ता-हाली ये दरमांदगी ये सन्नाटा
फ़ज़ा-ए-नीम-शबी भी है सनसनाई हुई
धुआँ धुआँ से मनाज़िर हैं शबनमिस्ताँ के
सय्यारा रात की ज़ुल्फ़ें हैं रस्मसाई हुई
ये रंग तारों भरी रात के तनफ़्फ़ुस का
कि बू-ए-दर्द में हर साँस है बसाई हुई
ख़ुनुक उदास फ़ज़ाओं की आँखों में आँसू
तिरे फ़िराक़ की ये टीस है उठाई हुई
सुकूत-ए-नीम-शबी गहरा होता जाता है
रगें हैं सीना-ए-हस्ती की तिलमिलाई हुई
है आज साज़-ए-नवा-हा-ए-ख़ूँ-चकाँ ऐ दोस्त
हयात तेरी जुदाई की चोट खाई हुई
मिरी इन आँखों से अब नींद पर्दा करती है
जो तेरे पंजा-ए-रंगीं की थीं जगाई हुई
सरिश्क पाले हुए तेरे नर्म दामन के
नशात तेरे तबस्सुम से जगमगाई हुई
लटक वो गेसुओं की जैसे पेच-ओ-ताब-ए-कमंद
लचक भवों की वो जैसे कमाँ झुकाई हुई
सहर का जैसे तबस्सुम दमक वो माथे की
किरन सुहाग की बिंदी की लहलहाई हुई
वो अँखड़ियों का फ़ुसूँ रूप की वो देविय्यत
वो सीना रूह-ए-नुमू जिस में कनमनाई हुई
वो सेज साँस की ख़ुशबू को जिस पे नींद आए
वो क़द गुलाब की इक शाख़ लहलहाई हुई
वो झिलमिलाते सितारे तिरे पसीने के
जबीन-ए-शाम-ए-जवानी थी जगमगाई हुई
हो जैसे बुत-कदा आज़र का बोल उठने को
वो कोई बात सी गोया लबों तक आई हुई
वो धज वो दिलबरी वो काम-रूप आँखों का
सजल अदाओं में वो रागनी रचाई हुई
हो ख़्वाब-गाह में शोलों की करवटें दम-ए-सुब्ह
वो भैरवीं तिरी बेदारियों की गाई हुई
वो मुस्कुराती हुई लुत्फ़-ए-दीद की सुब्हें
तिरी नज़र की शुआओं की गुदगुदाई हुई
लगी जो तेरे तसव्वुर के नर्म शोलों से
हयात-ए-इश्क़ से उस आँच की तिपाई हुई
हनूज़ वक़्त के कानों में चहचहाहट है
वो चाप तेरे क़दम की सुनी-सुनाई हुई
हनूज़ सीना-ए-माज़ी में जगमगाहट है
दमकते रूप की दीपावली जलाई हुई
लहू में डूबी उमंगों की मौत रोक ज़रा
हरीम-ए-दिल में चली आती है ढिटाई हुई
रहेगी याद जवाँ-बेवगी मोहब्बत की
सुहाग रात की वो चूड़ियाँ बढ़ाई हुई
ये मेरी पहली मोहब्बत न थी मगर ऐ दोस्त
उभर गई हैं वो चोटें दबी-दबाई हुई
सुपुर्दगी ओ ख़ुलूस-ए-निहाँ के पर्दे में
जो तेरी नर्म-निगाही की थीं बिठाई हुई
उठा चुका हूँ मैं पहले भी हिज्र के सदमे
वो साँस दुखती हुई आँख डबडबाई हुई
ये हादसा है अजब तुझ को पा के खो देना
ये सानेहा है ग़ज़ब तेरी याद आई हुई
अजीब दर्द से कोई पुकारता है तुझे
गला रुंधा हुआ आवाज़ थर थर्राई हुई
कहाँ है आज तू ऐ रंग-ओ-नूर की देवी
अँधेरी है मिरी दुनिया लुटी-लुटाई हुई
पहुँच सकेगी भी तुझ तक मिरी नवा-ए-फ़िराक़
जो काएनात के अश्कों में है नहाई हुई
 

7. शाम-ए-अयादत - Firaq Gorakhpuri

1.
ये कौन मुस्कुराहटों का कारवाँ लिए हुए
शबाब-ए-शेर-ओ-रंग-ओ-नूर का धुआँ लिए हुए
धुआँ कि बर्क़-ए-हुस्न का महकता शोला है कोई
चटीली जिंदगी की शादमानियाँ लिए हुए
लबों से पंखुड़ी गुलाब की हयात माँगे है
कँवल सी आँख सौ निगाह-ए-मेहरबाँ लिए हुए
क़दम कद़म पे दे उठी है लौ ज़मीन-ए-रह-गुज़र
अदा अदा में बे-शुमार बिजलियां लिए हुए
निकलते बैठते दिनों की आहटें निगाह में
रसीले होंट फ़स्ल-ए-गुल की दास्ताँ लिए हुए
ख़ुतूत-ए-रुख में जल्वा-गर वफ़ा के नक़्श सर-ब-सर
दिल-ए-ग़नी में कुल हिसाब-ए-दोस्ताँ लिए हुए
वो मुस्कुराती आँखें जिन में रक़्स करती है बहार
शफ़क़ की गुल की बिजलियों की शोख़ियाँ लिए हुए
अदा-ए-हुस्न बर्क़-पाश शोला-ज़न नज़ारा-सोज़
फ़ज़ा-ए-हुस्न ऊदी ऊदी बिजलियाँ लिए हुए
जगाने वाले नग़मा-ए-सहर लबों पे मौजज़न
निगाहें नींद लाने वाली लोरियाँ लिए हुए
वो नर्गिस-ए-सियाह-ए-नीम-बाज़, मय-कदा-ब-दोश
हज़ार मस्त रातों की जवानियाँ लिए हुए
तग़ाफ़ुल-ओ-ख़ुमार और बे-ख़ुदी की ओट में
निगाहें इक जहाँ की होशयारियाँ लिए हुए
हरी-भरी रगों में वो चहकता बोलता लहू
वो सोचता हुआ बदन ख़ुद इक जहाँ लिए हुए
ज़-फ़र्क़ ता-क़दम तमाम चेहरा जिस्म-ए-नाज़नीं
लतीफ़ जगमगाहटों का कारवाँ लिए हुए
तबस्सुमश तकल्लुमे तकल्लुमश तरन्नुमे
नफ़स नफ़स में थरथराता साज़-ए-जाँ लिए हुए
जबीन-ए-नूर जिस पे पड़ रही है नर्म छूट सी
ख़ुद अपनी जगमगाहटों की कहकशाँ लिए हुए
सितारा-बार ओ मह-चकाँ ओ ख़ुर-फ़िशाँ जमाल-ए-यार
जहान-ए-नूर कारवाँ-ब-कारवाँ लिए हुए
वो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म शमीम-ए-मस्त से धुआँ धुआँ
वो रुख़ चमन चमन बहार-ए-जावेदाँ लिए हुए
ब-मस्ती-ए-जमाल-ए-काएनात, ख़्वाब-ए-काएनात
ब-गर्दिश-ए-निगाह दौर-ए-आसमाँ लिए हुए
ये कौन आ गया मिरे क़रीब उज़्व उज़्व में
जवानियाँ, जवानियों की आँधियाँ लिए हुए
ये कौन आँख पड़ रही है मुझ पर इतने प्यार से
वो भूली सी वो याद सी कहानियाँ लिए हुए
ये किस की महकी महकी साँसें ताज़ा कर गईं दिमाग़
शबों के राज़ नूर-ए-मह की नर्मियाँ लिए हुए
ये किन निगाहों ने मिरे गले में बाहें डाल दीं
जहान भर के दुख से दर्द से अमाँ लिए हुए
निगाह-ए-यार दे गई मुझे सुकून-ए-बे-कराँ
वो बे-कही वफ़ाओं की गवाहियाँ लिए हुए
मुझे जगा रहा है मौत की ग़ुनूदगी से कौन
निगाहों में सुहाग-रात का समाँ लिए हुए
मिरी फ़सुर्दा और बुझी हुई जबीं को छू लिया
ये किस निगाह की किरन ने साज़-ए-जाँ लिए हुए
सुते से चेहरे पर हयात रसमसाती मुस्कुराती
न जाने कब के आँसुओं की दास्ताँ लिए हुए
तबस्सुम-ए-सहर है अस्पताल की उदास शाम
ये कौन आ गया नशात-ए-बे-कराँ लिए हुए
तिरे न आने तक अगरचे मेहरबाँ था इक जहाँ
मैं रो के रह गया हूँ सौ ग़म-ए-निहाँ लिए हुए
ज़मीन मुस्कुरा उठी ये शाम जगमगा उठी
बहार लहलहा उठी शमीम-ए-जाँ लिए हुए
फ़ज़ा-ए-अस्पताल है कि रंग-ओ-बू की करवटें
तिरे जमाल-ए-लाला-गूँ की दास्ताँ लिए हुए
'फ़िराक़' आज पिछली रात क्यूँ न मर रहूँ कि अब
हयात ऐसी शामें होगी फिर कहाँ लिए हुए
 
2.
मगर नहीं कुछ और मस्लहत थी उस के आने में
जमाल-ओ-दीद-ए-यार थे नया जहाँ लिए हुए
इसी नए जहाँ में आदमी बनेंगे आदमी
जबीं पे शाहकार-ए-दहर का निशाँ लिए हुए
इसी नए जहाँ में आदमी बनेंगे देवता
तहारतों का फ़र्क़-ए-पाक पर निशाँ लिए हुए
ख़ुदाई आदमी की होगी इस नए जहान पर
सितारों के हैं दिल ये पेश-गोईयाँ लिए हुए
सुलगते दिल शरर-फ़िशाँ ओ शोला-बार बर्क़-पाश
गुज़रते दिन हयात-ए-नौ की सुर्ख़ियाँ लिए हुए
तमाम क़ौल और क़सम निगाह-ए-नाज़-ए-यार थी
तुलू-ए-ज़िंदगी-ए-नौ की दास्ताँ लिए हुए
नया जनम हुआ मिरा कि ज़िंदगी नई मिली
जियूँगा शाम-ए-दीद की निशानियाँ लिए हुए
न देखा आँख उठा के अहद-ए-नौ के पर्दा-दारों ने
गुज़र गया ज़माना याद-ए-रफ़्तगाँ लिए हुए
हम इन्क़िलाबियों ने ये जहाँ बचा लिया मगर
अभी है इक जहाँ वो बद-गुमानियाँ लिए हुए
 
3.
नए ज़माने में अगर उदास ख़ुद को पाऊँगा
ये शाम याद कर के अपने ग़म को भूल जाऊँगा
अयादत-ए-हबीब से वो आज ज़िंदगी मिली
ख़ुशी भी चौंक चौक उठी ग़म की आँख खुल गई
अगरचे डॉक्टर ने मुझ को मौत से बचा लिया
पर इस के बअद उस निगाह ने मुझे जिला लिया
निगाह-ए-यार तुझ से अपनी मंज़िलें मैं पाऊँगा
तुझे जो भूल जाऊँगा तो राह भूल जाऊँगा
 
4.
क़रीब-तर मैं हो चला हूँ दुख की काएनात से
मैं अजनबी नहीं रहा हयात से ममात से
वो दुख सहे कि मुझ पे खुल गया है दर्द-ए-काएनात
है अपने आँसुओं से मुझ पे आईना ग़म-ए-हयात
ये बे-क़ुसूर जान-दार दर्द झेलते हुए
ये ख़ाक-ओ-ख़ूँ के पुतले अपनी जाँ पे खेलते हुए
वो ज़ीस्त की कराह जिस से बे-क़रार है फ़ज़ा
वो ज़िंदगी की आह जिस से काँप उठती है फ़ज़ा
कफ़न है आँसुओं का दुख की मारी काएनात पर
हयात क्या इन्हें हक़ीक़तों से होना बे-ख़बर
जो आँख जागती रही है आदमी की मौत पर
वो अब्र-ए-रंग-रंग को भी देखती है सादा-तर
सिखा गया दुख मिरा पुरानी पीर जानना
निगाह-ए-यार थी जहाँ भी आज मेरी रहनुमा
यही नहीं कि मुझ को आज ज़िंदगी नई मिली
हक़ीक़त-ए-हयात मुझ पे सौ तरह से खुल गई
गवाह है ये शाम और निगाह-ए-यार है गवाह
ख़याल-ए-मौत को मैं अपने दिल में अब न दूँगा राह
जियूँगा हाँ जियूँगा ऐ निगाह-ए-आश्ना-ए-यार
सदा सुहाग ज़िंदगी है और जहाँ सदा-बहार
 
5.
अभी तो कितने ना-शुनीदा नग़्मा-ए-हयात हैं
अभी निहाँ दिलों से कितने राज़-ए-काएनात हैं
अभी तो ज़िंदगी के ना-चाशीदा रस हैं सैकड़ों
अभी तो हाथ में हम अहल-ए-ग़म के जस हैं सैकड़ों
अभी वो ले रही हैं मेरी शाएरी में करवटें
अभी चमकने वाली है छुपी हुई हक़ीक़तें
अभी तो बहर-ओ-बर पे सो रही हैं मेरी वो सदाएँ
समेट लूँ उन्हें तो फिर वो काएनात को जगाएँ
अभी तो रूह बन के ज़र्रे ज़र्रे में समाऊँगा
अभी तो सुब्ह बन के मैं उफ़ुक़ पे थरथराऊँगा
अभी तो मेरी शाएरी हक़ीक़तें लुटाएगी
अभी मिरी सदा-ए-दर्द इक जहाँ पे छाएगी
अभी तो आदमी असीर-ए-दाम है ग़ुलाम है
अभी तो ज़िंदगी सद-इंक़लाब का पयाम है
अभी तमाम ज़ख़्म ओ दाग़ है तमद्दुन-ए-जहाँ
अभी रुख़-ए-बशर पे हैं बहमियत की झाइयाँ
अभी मशिय्यतों पे फ़त्ह पा नहीं सका बशर
अभी मुक़द्दरों को बस में ला नहीं सका बशर
अभी तो इस दुखी जहाँ में मौत ही का दौर है
अभी तो जिस को ज़िंदगी कहें वो चीज़ और है
अभी तो ख़ून थोकती है ज़िंदगी बहार में
अभी तो रोने की सदा है नग़मा-ए-सितार में
अभी तो उड़ती हैं रुख़-ए-बहार पर हवाईयाँ
अभी तो दीदनी हैं हर चमन की बे-फ़ज़ाईयाँ
अभी फ़ज़ा-ए-दहर लेगी करवटों पे करवटें
अभी तो सोती हैं हवाओं की वो संसनाहटें
कि जिस को सुनते ही हुकूमतों के रंग-ए-रुख़ उड़ें
चपेटें जिन की सरकशों की गर्दनें मरोड़ दें
अभी तो सीना-ए-बशर में सोते हैं वो ज़लज़ले
कि जिन के जागते ही मौत का भी दिल दहल उठे
अभी तो बत्न-ए-ग़ैब में है इस सवाल का जवाब
ख़ुदा-ए-ख़ैर-ओ-शर भी ला नहीं सका था जिस की ताब
अभी तो गोद में हैं देवताओं की वो माह-ओ-साल
जो देंगे बढ़ के बर्क़-ए-तूर से हयात को जलाल
अभी रग-ए-जहाँ में ज़िंदगी मचलने वाली है
अभी हयात की नई शराब ढलने वाली है
अभी छुरी सितम की डूब कर उछलने वाली है
अभी तो हसरत इक जहान की निकलने वाली है
अभी घन-गरज सुनाई देगी इंक़लाब की
अभी तो गोश-बर-सदा है बज़्म आफ़्ताब की
अभी तो पूंजी-वाद को जहान से मिटाना है
अभी तो सामराजों को सज़ा-ए-मौत पाना है
अभी तो दाँत पीसती है मौत शहरयारों की
अभी तो ख़ूँ उतर रहा है आँखों में सितारों की
अभी तो इश्तिराकियत के झंडे गड़ने वाले हैं
अभी तो जड़ से किश्त-ओ-ख़ूँ के नज़्म उखड़ने वाले हैं
अभी किसान-ओ-कामगार राज होने वाला है
अभी बहुत जहाँ में काम-काज होने वाला है
मगर अभी तो ज़िंदगी मुसीबतों का नाम है
अभी तो नींद मौत की मिरे लिए हराम है
ये सब पयाम इक निगाह में वो आँख दे गई
ब-यक-नज़र कहाँ कहाँ मुझे वो आँख ले गई
 

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