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अनोखा गुजराती कवि -उमाशंकर जोशी : डॉ. लता सुमन्त
Anokha Gujrati Kavi -Umashankar Joshi : Dr. Lata Sumant
उमाशंकर का आगमन गुजराती साहित्य की ही नहीं,भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।गाँधीयुग, अनुगाँधीयुग और स्वातंत्र्योत्तरकाल के दौरान चलनेवाली उनके सर्जन और चिंतन की प्रवृत्ति ने जीवन कला और कविता के अनेक आयामों के दर्शन कराए हैं।जिसका उल्लेख भारतीय साहित्य और संस्कृति के इतिहासकारों को भी करना पड़ेगा।
उमाशंकर का पालन - पोषण गाँधीवादी विचारधारा से प्रेरित और पोषित आन्दोलनों के बीच हुआ था।कवि ने प्रत्यक्ष रुप से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था।उत्तर गुजरात से आए उमाशंकर आजीवन अध्यापक थे।साहित्यप्रवाहों से घनिष्ठ संबंध बनाए रखने के अलावा संस्कृत महाकाव्यों और पुराणों का उन्होंने गहन अध्ययन किया था। देश -विदेश के राजकीय और सांस्कृतिक परिवेशों का मार्मिक परामर्श वे करते रहते थे।उमाशंकरजी ने रवीन्द्र साहित्य का आकंठ रसपान किया था।वे आजीवन कर्मयोगी थे।।उनका कविकर्म खुद एक अध्यात्म प्रवृत्ति बन गया था।
उनका जन्म 21 जुलाई 1911 के दिन उत्तरगुजरात के बामणा गाँव में हुआ था।शामलाजी के निकटवर्ती पर्वतप्रदेश में - डुंगरावाला के नाम से जाने जानेवाले दो जमीदारों के यहाँ वे काम करते थे। बामणा में उनका घर पर्वत की तलहटी में कुछ ऊँचाई पर था।पर्वतों तथा उनके मध्य स्थित शामलाजी के प्राकृतिक सौन्दर्य का उन्होने बचपन से ही पान किया था। प्रकृति के स्नेहासिक्त।आँचल तथा परिवार के गहन प्यार ने कवि के संस्कारों को पोषित किया था।
बचपन में उन्हें पर्वतों की कन्दराओं में उदयाचल के सामने क्षितिज पर, गिरिमालाओं के मस्तक पर क्ऱ़ीडा करनेवाले उषा के रंग,बीच - बीच में झलकनेवाली सारसों की ध्वनि, हरे - भरे खेत, वर्षाऋतु के उत्सव और मेले इन सबके व्दारा कुदरत और मानवजीवन के संस्पर्श की अनोखी अनुभूति होती थी।उनके गीतों पर गांँव के लग्नोत्सवा ेंऔर मेलों का ऋण बहुत है।शब्दों के प्रति सजगता उनमें खिलती उम्र से ही थी।ब्राह्मणों के वेदोच्चार,छंदगान,और विशेष रूप से ग्रामीण समाज के लोगों की भाषा के प्रति वे बचपन से ही आकर्षित थे।
बामणा में चौथी पास करने के पश्चात आगे शिक्षा की असुविधा के कारण उन्होंने इड़र छात्रालय में शिक्षा प्राप्त की। यहाँ समग्र वर्ष के दौरान एक सहाध्यायी से छंद का परिचय प्राप्त किया।
मैट्रिक की पढाई के लिए वे जब अहमदाबाद आए तब तक सरस्वतीचंद्रभाग -1,दलपत काव्य, गिरधर कृत रामायण, साहित्यरत्न, काव्य माधुर्य, लोर्ड ओवेबरी का प्लेझर्स ऑफ लाइफ का डॉ। हरिप्रसाद देसाई व्दारा किया गया अनुवाद, संसार का सुख आदि पुस्तकों का पठन किया।इ़डर में उस प्रदेश के नायकों एवं भोजकों द्वारा अभिनित नाटक देखते तथा छात्रालय में विद्यार्थीयों द्वारा अभिनीत नाटकों के सूत्रधार बनते थे।
अहमदाबाद केन्द्र से मेट्रिक्युलेशन की परीक्षा प्रथम स्थान में पास करने के पश्चात उन्होंने गुजरात कॅालेज में प्रवेश लिया।1930 में इन्टरआर्टस् की परीक्षा देनी थी वहीं सत्याग्रह की जंग छिड गई जिस कारण से पढाई अधूरी रह गई।
1934 में अेलफिन्सटन कॉलेज में प्रवेश लिया।वहीं से 1936 में अर्थशास्त्र - इतिहास विषयों के साथ बी।ए। ऑनर्स किया और 1938 में गुजराती मुख्य विषय केसाथ एम। ए। प्रथम श्रेणी में पास किया।1936 में विलेपार्ले की गोकणीबाई हाईस्कूल में शिक्षक के रुप में तथा 1938 में सिडनहाम कॅालेज में प्राध्यापक के रुप में कार्य किया।
1937 में ज्योत्सनाबहन के साथ उनका विवाह हुआ। 1939 में अहमदाबाद में स्थाई रुप से निवास किया।1946 तक वहाँ की गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी में अध्यापन - संशोधन किया।1947 में संस्कृतिपत्रिका शुरु की।मेट्रिक में शाकुंतल और उत्तररामचरित के अलावा पूर्वालाप और द्विरेफ नी वातो पढा था।जेल में मराठी - बंगाली भाषा सीखी और तुकाराम के अभंग तथा रवीन्द्र के काव्य पढे।
जेल में खगोल शास्त्र के अध्ययन की जिज्ञासा ने जन्म लिया।इस समय के दौरान टॅामस ई। केम्पीज कृत -इमीटेशन ऑफ क्राइस्ट पढा। इस दौरान बहिर्जगत तथा आंतर्जगत एक रूप हो रहे थे।ऐसे समय में ब्रह्मांड की भूमिका पर काल की पात्र के रूप में कल्पना कर नाट्यरचना करने की प्रेरणा हुई।उसके लिए महाभारत और प्रथम विश्वयुद्ध की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास शुरु किया।
1931 में गाँधी इरविन करार के कारण कॅालेज छोड काका कालेलकर के शिष्य बन गए। काका साहब के सानिध्य ने तथा विद्यापीठ के ग्रंथालय ने उनका ज्ञानकोश समृद्ध किया सिसृक्षा को उत्तेजित किया परिणाम स्वरुप विश्व शातिकाव्य की रचना हुई।
1928 में कॉलेज के प्रथम वर्ष में आबु पर्वत के नखी सरोवर पर शरदपूर्णिमा के दिन जिस काव्य की रचना की वह उनका प्रथम काव्य था।उस पर - ठाकोर ना भणकारा काव्य का प्रभाव है।विश्वशांति पर नानालाल तथा बलवंतराय के प्रभाव के बावजुद उन दोनों से अलग प्रतीत होती है - ईबारत और आकार। ऐसा कवि खुद कहते हैं।विश्व शांति कविता की सराहना नरसिंहराव ने भी की है।उनका पहला नाटक -इसु नु बलिदान के तुरंत बाद - साप ना भारा जैसी यथार्थवादी नाट्यकृतियों की रचना हुई।बाद में वे कहानियाँ भी लिखने लगे।कविता का प्रवाह तो अविरत चल ही रहा था।सुन्दरम् का साथ, रामनारायण की विवेचना और प्रो।ठाकुर की नुकताचीनी,ये सब उमाशंकर के सृजनकार्य में अपरोक्ष रुप से सहायभूत हुए।
गाँधी शासन की कंठी - बाँधे बगैर गाँधी जीवन - संदेश को विशाल रुप से आत्मसात कर खुद के सृजन चिंतन में उन्होंने जीवित रखा।साथ ही साथ पश्चिम देशों कि यात्रा,पाश्चात्य -युरोप की कविता तथा फ्रें न्च और अमेरिकन नाटककारों का अध्ययन उनके सृजनकार्य को पोषित और संस्कारित करते रहे।पद्यनाटकों की दिशा में समय - समय पर किये गए प्रयोग उनकी सामर्थ्य तथा तद्नुरुप पुरुषार्थ के साक्षी हैं। उन्हें प्राप्त प्रतिष्ठित पदों में गुजरात युनिवर्सिटी का कुलपति पद, सहित्य अकादमी का अध्यक्ष पद , विश्वभारती का कुलपति पद और गुजराती साहित्य परिषद के चौवीसवें अधिवेशन का प्रमुख पद आदि मुख्य हैं जो सारस्वत सेवा उपरांत भारत के प्रमुख सारस्वत तथा संस्कार पुरुष के रुप में उन्हें प्रतिष्ठित करता है।उनकी रचनाओं को प्राप्त पुरस्कारों में 1936 में - गंगोत्री को रणजीत राम सुवर्णचंद्रक , 1944 में प्राचीना - को महीडा पुरस्कार, 1968में निशीथ - को भारतीय ज्ञानपीठ का 50 हजार रुपए का पुरस्कार आदि प्रमुख हैं।
काव्यवैभव : 1931 से 1981 के दौरान उमाशंकर ने दस काव्यग्रंथ गुजराती साहित्य को दिये।1981 में उनके समग्र ग्रंथों का संग्रह उनके सत्तरवें जन्म पर प्रकाशित हुआ।।उसमें निरुपित प्रथम काव्य की प्रथम पंक्ति है -वहाँ दूर से मंगल शब्द आ रहा।।और काव्य की अंतिम पंक्ति -आखरी शब्द मौन को ही कहना होता है।इन दो पंक्तियों के बीच से गुजरी उनकी कविताओं के भाव - विचारों की तरह अभिव्यक्ति में आए विविध मोड विशेष रुप से कविताओं में निरुपित वैविध्य पूर्ण कला - वैभव की ओर ध्यानाकर्षित करते हैं।
विश्वशांति के मंगल शब्द से उनकी सृजन प्रवृत्ति का आरंभ होता है।उमाशंकर की कविता का मंगलाचरण कुछ इस तरह से शुरु होता है -जब तक इस विशाल विश्वमंदिर के किसी कोने में भीसत्य प्रेम या सौन्दर्यका हनन होगा, तब तक विश्व में अखंड शांति नहीं हो सकेगी।ऐसी मुग्ध भावना से प्रेरित होकर वे विश्वशांति के विचारों का विकास इस काव्य में निरुपित करते हैं।वे वर्तमान को भूत और भविष्य के साथ जोडकर विश्वप्रेम का युग संदेश सुनाते हैं।जीवन के कलाधर गाँधीजी के आगमन का कवि की आर्षवाणी उत्साह पूर्वक स्वागत करती है।
पुण्य फले भारत की प्रजा के, अहो! महाभाग्य वसुन्धराके!
गुलाम घेरे बही मुक्तगंगा, उडे ध्वज अंतर में स्नेह रंगे।
स्नेह के सेतु द्वारा पूर्व तथा पश्चिम को जोडने की प्रार्थना करते हुएकवि युगमूर्ति से कहते हैं
तुम तो पूर्व के हो ना हो पश्चिम के ही
अहिंसा,सत्य और प्रेम किसी, एक के नहीं?
हँसाया भूत और भविष्य ,हसाओ वर्तमान को !
पढाओ प्रेम के मंत्र बावली मनुज जाति को।
विशाल जग के आँंगन में नहीं केवल मनुष्य
पशु हैं, पंखी हैं,पुष्पों वनों की है वनस्पति !
वे संसार की दहलीज पर खडे होकर -वसुधैवकुटुम्बकम् का उद्बोधन करते हैं।
1934 में प्रकाशित गंगोत्री - काव्यसंग्रह में समाजोभिमुखता वास्तविकता के विविध स्तरों पर प्रकट होती दिखाई देती है।स्वातंत्र्य का शंखनाद -शूरसम्मेलन तथा बारणे -बारणे बुद्ध जैसी रचनाओं में सुनाई देता है।स्वातंत्र्य यज्ञ की बलि बनकर इतिहास का पन्ना खुश्बु से भर देने की कवि की आकांक्षा है,
उनके मन में एक ही प्रश्न उठता रहता है
मै गुलाम ?
सृष्टिबाग का अमोल फूल मानव गुलाम ?
स्वतंत्र प्रकृति तमाम
एक मनुज ही क्यों गुलाम?
जेल में लिखे गए -एक चुसायला गोटला में भी गुलामी की वेदना और स्वातंत्र्य की अभिव्यक्ति होती है।धाणी नु गीत ,हथोडा नु गीत, मोची और टॉमस हूड के ध साँग आँफ द शर्ट का अनुवाद पहेरण नु गीत में पीडितों की वेदना, संवेदना का सहानुभूति पूर्ण निरुपण हुआ है।आखिर कवि रामजी से कहते हैं
रामजी, क्यों रोटी महँगी?
रक्त मांस इतने सस्ते ?
बुलबुल और भिखारण के संवादकाव्य में भिखारिन बुलबुल से कहती है - गीत जिंदा मृत्यु समान, मीठे आज तो गा !
सोनाथाली - के कथाकाव्य में श्रमजीवी की प्रतिष्ठा की है।इन सभी रचनाओ में कवि का समाजवादी दृष्टिकोण झलकता है। उसकी पराकाष्ठा -जठराग्निमें देखने को मिलती हे ।पेट नी आग और लोही ना आँधण - की बात कवि बार - बार करते हैं।इस प्रकार की रचनाएँ युगवंदना की भूमिका पर पहुँच जाती है।विश्वतोमुखी और विश्वमानवी में मानवता की उपासना की भावना भव्य कल्पना से मंडित होकर आती है।उमाशंकर की ही नही,प्रत्येक सच्चे कवि की मंशा इन पंक्तियों में व्यक्त होती है
व्यक्ति मिट बनूँ मनुज ,
माथे पर धरुँ धूल वसुंधरा की।
पचास वर्ष की सृजन - यात्रा के दौरान उमाशंकर ने अपने साहित्य के द्वारा कलात्मक सत्य प्रकट करनेवाली उक्तियाँ काव्यभूमि में बिखेरी हैं। उनमें विश्वमानवी की भावना के दर्शन सहज ही रवीन्द्रनाथ टैगोर की याद दिला देते हैं।
निशीथ में उमाशंकर की कविता गंगोत्री से एक कदम आगे बढी हुई दिखाई देती है।प्रकृति के भव्य ,सुन्दर,गहन रुप को शब्दों में कैद करने के साथ प्रणय की प्रसन्न मधुर संवेदना उसके वैशिष्ट्य को निरुपित करती है।निशीथ - के प्रणय काव्यों का गुजराती के प्रेमकाव्य के इतिहास में एक अनोखा स्थान है।उनकी प्रणय भावना -निहारी कविता तुममें जबकि तुम्हें भी कविता में - कहने के लिए प्रेरित करती है।हृदय की रखवालीन को विरल जीवन के आनंद की रक्षा के लिए कवि बिनती करते हैं। पृथ्वी का प्रेम पत्नी के प्रति प्रणय में व्यवधान रूप नहीं बनता।विशाल सर्वतोमुखी दृष्टि से कवि खुद प्रिय व्यक्ति को समष्टि रूप में परिवर्तित होते देखते हैं।विराट सर्वस्पर्शी प्रेमभावना का क्रमबद्ध तथा मार्मिक निरुपण गुजराती कविता में पहली बार देखने को मिलता है।
आतिथ्य काव्यसंग्रह में 1940 से 1945 के दौरान लिखी रचनाएँ प्राप्त होती हैं।द्वितीय विश्वयुद्ध पर लिखी गई - मार्गशीर्ष : 1996 - जिसकी रचना1939 में हुई, वह भी इस संग्रह में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण उद्भवित विषमवेदना और चिंतन का इसमें सुन्दर निरुपण हुआ है।साथ ही बंगाल का अकाल,गाँधीजी के उपवास,कस्तुरबा का निधन तथा हिरोशिमा - नागासाकी द्वारा साध्य विजय आदि वैश्विक घटनाएँ भी इनकी कविताओं का विषय बनी हैं।वसंतवर्षा उनका स्वतंत्रता प्राप्ति के सात वर्ष बाद प्रकाशित काव्यसंग्रह है।काव्यसंग्रह की प्रकृति और प्रेम की कविताएँ आतिथ्य का सातत्य दर्शाती हैं।इनके मुक्त तुलिका से चित्रित मनोरम ऋतुचित्र मुख्य रुप से आकर्षित करते हैं।श्रावण की धूप से बोझिल डाली,पत्तों की हरी कटोरियों में खिलती थोडी -सी धूप और - चाहे श्रृंग ऊँचे - मगर माँ के श्रृंगस्तनों से शान्ति अमृत पीती धूप - कवि के मन में बस गई है।सुभग कल्पना मृदु भावसंवेदना और गतिशील वर्णनों के कारण वसंतमंजरी तथा मेघदर्शन इस संग्रह की सुन्दर रचनाएँ हैं।मधुरलय तथा कोमल सौन्दर्य दर्शन में कवि रवीन्द्र का प्रभाव झलकता है।
वसंतवर्षा - की अधिकतर रचनाएँ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की हैं।इन कविताओं में कवि का नजरिया बदला हुआ नजर आता है।
15 अगस्त 1947 कविता में कवि कहते हैं
जिस दिन का हम इंतजार कर रहे थे
वह तुम हो ? आओ।
जिसकी उषा का आँचल दुग्ध धवल शहीदों -सा
पवित्र रक्त से हुआ रंजित , वह तुम हो? आओ।
उदित हुए तुम निष्प्रभ चाहे आज
मेघाच्छन्न नभ में ,
पुरुषार्थ के प्रखर प्रताप से मध्याह्न तुम्हारा दीप्त हो ,
भव्य तपोदीप्त।
कवि शुभाशंसा व्यक्त करते हैं परंतु दिल में गमगीनी है :
हजार बार हँसना चाहूँ ,
हृदय में खुशाली नहीं।
अतः कवि प्रभु से प्रार्थना करते हैंः-
प्रभु व्यथित उर में , तिनका एक आस का दे !
चाहे न कुछ दे सके , जरा आत्मश्रद्धा तू दे !
क्योंकि कवि को जगत् जीर्ण दिखाई देता है।आसपास कि दुनिया में होनेवाला नैतिक मूल्यों का हस अब असह्य हो गया है।सब कुछ सड चुका है उसका खाद बनाकर नए मूल्यों से भूमि को हरा - भरा करने की वह रुद्र से प्रार्थना करता है।अभिव्यक्ति की पद्धति निराली है।परंपरित छंद का प्रयोग किया है। रडो न मुज मृत्यु ने ! कविता में कवि राष्ट्रपिता से कहते हैं
हम नहीं रोएँगे ,पिता,मृत्यु आपकी पावन,
कलंकमय दैन्य का, निज रो रहे जीवन।
संग्रह की अंतिम रचना पंखीलोक उमाशंकर की आधुनिक कवित्व शैली का प्रतिनिधित्व करती है।पहली ही पंक्ति में
कान अगर आँख हो तो
शब्द उसे प्रकाश लगे।
इस तरह से- शब्द कवि को ढूँढते हुए आते हैं।
पाणिनी के नियमों से बद्ध शब्द?
या फिर पंखी समान टपकते प्रकाश के टुकडे ?
शब्द अगर बोल पाते तो कवि को जरुर कहते –
कविता बनना कहाँ हमारी हैसियत?
इस तरह से आधी सदी से बह रही ऊमाशंकर की कविता पूर्ववर्ती कविताधारा से पोषण पाकर,अनेक नए उन्मेषों तथा कवित्व शक्ति से युक्त ,नूतन प्रयोगशील धारा के साथ खुद का और गुजराती कविता धारा का सातत्य बनाए रखती है।इतने सुदीर्घ समय पट पर , इतना स्वस्थ , रंगीन वैविध्य पूर्ण स्वर आधुनिक गुजराती कविता के इतिहास में और शायद भारतीय भी -बहुत कम कवियों के सुनाई दिये हैं।
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