Kavita - Aatma Ki Pribhasha - Umashankar Joshi

Hindi Kavita

Hindi Kavita
हिंदी कविता

कविता - आत्मा की मातृभाषा - उमाशंकर जोशी
Kavita - Aatma Ki Pribhasha - Umashankar Joshi

कॉलेज का मेरा पहला बरस था। दिवाली की छुट्टियाँ शुरू होते ही पन्द्रह रुपये मँगनी पर लेकर हम तीन मित्र अहमदाबाद से आबू जाने के लिए गाड़ी में बैठे। गाड़ी से आबूरोड तो पहुँचे, पर फिर पहाड़ चढ़े, चल कर उतरे और वतन का सौ मील जितना डूँगरमाला से गुजरता विकट मार्ग भी पैदल ही काटा।

मूल में मैं डूँगरों का। उत्तर गुजरात के मेरे गाँव में मेरे घर के पीछे ही डूँगर है। परन्तु अर्बुदगिरि का अनुभव मुझे प्रकृति-प्रेम में लहराता ही रहा। शरद पूर्णिमा की रात्रि थी। काव्यदीक्षा के लिए तरसते तरुण चित्त को अर्बुदगिरि की पर्वतश्री ने शरदपूर्णिमा के प्रफुल्ल आलोक में धन्य मन्त्र दिया : 

सौन्दर्यो पी : उरझरण गाशे पछी आपमेळे.

हमें पहाड़ मुँह खोलकर पानी पीते दिखाई नहीं देते, हम पर पानी पड़ते ही लुढ़क जाता दीखता है, फिर भी चुपचाप हम अपने भीतर उसे संगृहीत कर लेते हैं। भीतर पानी का पर्याप्त संचय हुआ कि फिर चाहे शिलाएँ कैसी भी क्यों न हों, उनके द्वार तोड़कर निर्झर अपने आप बाहर फूट आता है। मानो हमारा-कठोर पर्वतों का ह्रदय ही गाने लग गया हो ! विश्व में सौन्दर्य की सतत धारा-वर्षा हो रही है। तूने यदि उसे भीतर उतारा होगा तो फिर तेरा उरनिर्झर अपने आप गाने लग जाएगा।

उस समय काव्यजीवन का आरम्भ करने के लिए यह मन्त्र पर्याप्त था।
गुजरात कॉलेज की पत्रिका में वह कविता छपी। उस समय मैं संस्कृत में भी रचनाएँ किया करता था। इस राह पर चढ़ गया इण्टर के वर्ग में, संस्कृत के अध्यापक ने कीट्स की ‘ला बेल दाम साँ मेर्सी’ की दो कड़ियों का अनुवाद कर लाने के लिए कहा, इस पर से। अनुवाद करते समय संस्कृत भाषा की भरपूर साधनसज्जा का मुझे अनुभव हुआ।
umashanker-joshi

लम्बालकां लघुगतिं ललितां स्थलीषु
उन्मत्तचारुदृशमीक्षितवान् सुबालाम्।
तत्कण्ठभूषणमहं कृतवांश्च मालां
काञ्चीं च सौरभवहामपि कंकणं च।।
बद्धभावेव मय्येषा दृष्टिं चिक्षेप कामिनी।
ततो दीर्घं च निःश्वस्य मुग्धैषा चित्रवत् स्थिता।।

अन्तिम चरण में मैंने जोड़ा था। बाद में ‘तत्रापश्यं गिरिपथचरस्त्वां भ्रमन्तीं सुखेन’-इन शब्दों से आरम्भ होता साबरमती से उद्बोधन, ‘सुधाऽऽस्वादं यत्ते स्मितं नाहं याचे, तदभिलषिताः सन्तु बहवः।...’-ये प्रणयोद्गार आदि स्वतन्त्र संस्कृत रचनाएँ भी, कॉलेज-पत्रिका में प्रकाशित हुईं।

इतने में 1930 की सत्याग्रह की लड़ाई शुरू हुई। कच्चे जेल में था, तब वहाँ से एक कविमित्र को भेजी हुई रचनाएँ, कुछ महीनों के बाद जेल से बाहर आया उसके पूर्व ही, अग्रगण्य मासिक-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं। सूरत में एक समारम्भ में एक कृति को नृत्य के साथ प्रस्तुत करने वाली बालिका का चित्र भी एक अंक में प्रकाशित हो चुका था। आरम्भ था-

हुं गुलाम ?
सृष्टि बागनुं अमूल फूल मानवी गुलाम ?
(मैं गुलाम ? सृष्टि के उपवन का अमूल्य पुष्प मनुष्य गुलाम ?)
ह्रदय-चित्त पर राष्ट्रीयता की भावना ने अधिकार कर लिया था।

उस समय केवल राष्ट्रीयता का ही आकर्षण था? या राष्ट्रीय लड़ाई के नेपथ्य में रही किसी व्यापक भावना का भी आकर्षण था?
1930 में जेल में एक अनुभव हुआ। आबू पर प्राप्त अनुभव जिस तरह काव्यजीवन की दीक्षा देनेवाला था, यह जीवन समग्र की दीक्षा में प्रेरित करने वाला था।

साबरमती जेल में मैं साथियों से बिछुड़कर एक के बाद दूसरी बैरक में हटाया जाता था। ऐसे में सितारों की लगन लगी। मुझे हँसी आती कि बाहर खुले आसमान के नीचे था तब कभी तारों का ऐसा आकर्षण न जगा, अब यहाँ बन्द होने की बारी आयी तब ये दूर-दूर से टिमटिमा कर मुझे बिलखाते हैं। बैरक का एक छोर उत्तर की ओर था। वहाँ खिड़की के पास खड़ा मैं सप्तर्षि की ओर ताका करता। उनको छोड़कर और तारों को मैं पहचानता भी नही रहा हूँगा।

उसी समय श्री शंकर दीक्षित की खगोल-विषयक मराठी पुस्तक ‘ज्योतिर्विलास’ का अनुवाद मैंने पढ़ा। तुकाराम के अभंगो का तथा टॉमस ए. केम्पिस के ईसा-अनुसरण की पुस्तक का परिचय भी चल रहा था। राष्ट्रप्रेम की विराट तरंग तो हम सब उठाए हुए थे ही, उसमें ये रंग भी आ मिले। उस समय हर रोज सुबह जल्द उठकर दीवार से जरा दूर-उससे बिना टिके-बैठने की आदत डाली थी। एक दिन अलख सुबह में सर पर जैसे कोई अगोचर स्पर्श हुआ हो और उसके वेग के तले दब कर मेरा सारा अस्तित्व मानो पृथ्वी की सतह के साथ समरेख हो गया हो ऐसा अनुभव हुआ। मानो आत्मविलोपन का- प्रकाशभरे आत्मविलोपन का भाव उमड़ता रहा। शून्यता का नहीं-सभरता का यह अनुभव था।

इस अनुभव की छाया में मुझे एक नाटक सूझा। उसमें नक्षत्र-ग्रह पात्रों के रूप में थे। स्वयं काल भी एक पात्र था। सनातनता के बागे सजकर काल प्रवेश करता है, और अपनी महत्त्वाकांक्षा प्रकट करता है-जो सारे नाटक में बीजरूप है। कहता है कि सृष्टि में सौन्दर्य को प्रस्थापित करने में तो मैं कुछ सफल हुआ हूँ-

तेजने पूर्यु तारलिये,
दीध परिमलने फूलवेश.
विश्वने आंगण वेरवा मारे
प्रेम-भीना सन्देश.

(तेज को तारकों में रूपान्वित किया, सौरभ को पुष्प की सज्जा दी। विश्व के आँगन में मुझे बिखेरने हैं प्रेमभीगे सन्देश।)
अब विश्व में प्रेमतत्त्व को वह प्रतिष्ठित देख पाए कि बस ! इस नाटक के दूसरे अंक में मानव जाति के इतिहास के मुख्य क्षणों को स्पर्श करने का सोचा था। सारा प्रयत्न मानवजीवन में संवादिता की शक्यताएँ खोजने-जाँचने का और प्रेमधर्म की महिमा गाने का था।

कहने की जरूरत नहीं है कि उस समय ऐसा नाटक लिखने की स्थिति में मैं नहीं था। कुछ अंश लिखे थे, बस वे ही। परन्तु इससे मुझे एक बड़ा लाभ यह पहुँचा कि नाटक लिखने की-कवि होने की-तैयारी कर रहा हूँ ऐसा भाव ही अनुगामी वर्षों में सतत बना रहा। कृति लिखने की सज्जता के लिए शिक्षा का एक पूरा अभ्यासक्रम मुझे अनायास मिल गया। यह काव्यकृति सूझी उसके बाद भले ही इसकी रचना पूरी न हुई, किन्तु उसमें से अन्य अनेक छोटी-बड़ी कृतियों का उद्भव हुआ है। आत्म-विलोपन का वह परम आह्लादाकारी अनुभव विश्व से-मानव जाति से-राष्ट्र से तादात्म्य का अनुभव करने में बार-बार प्रेरित किया करता है।

शोधीश मां मावडी खोवायो बाळ रे
खोवायो धरतीने आंगणे.
खण्ड खण्ड लोकवृन्द टोळे ऊमटियां ने
मळियो आ मानवीनो मेळो रे,
खोळीश मां धरतीने व्होले रे खोळले
हुं जो भळी जाऊं भेळो-
हो मावडी, खोवायो धरतीने आंगणे।

(हे माँ, मत खोजना अपने बाल को, खो गया है वह इस धरती के ही आँगन में। खण्ड खण्ड में लोकवृन्द एक साथ उमड़ आये हैं। और लगा है मनु्यों का यह मेला। मत खोजना, धरती की विशाल गोद में जो मिल जाऊँगा सबके साथ। हे माँ, मैं तो खो गया हूँ धरती के आँगन में।)
‘रखडुनुं गीत’ (यायावर का गीत) उपर्युक्त शब्दों से उभरता है, और ‘विश्वमानवी’ (विश्वमानव) इन पंक्तियों में विरमता है :
व्यक्ति मटीने बनुं विश्वमानवी,
माथे धरूं धूल वसुन्धरानी.
(मिट कर व्यक्ति बनूँ विश्वमानव, सर पर धारण करूँ वसुन्धरा की धूल।)
बाद में ‘सिवान के पत्थर पर’ और ‘विराट प्रणय’ में भी तादात्म्य का भाव ही अलग-अलग रीति से झाँक जाता है।
साबरमती जेल में प्राप्त अनुभव का काव्य तो स्वयं रचा न गया, परन्तु वह काव्यसर्जन के एक अन्तःस्त्रोत के रूप में अनुभूति देता रहा। अनुभूति शब्द प्रयुक्त करता हूँ तब मुझे खयाल है कि कोई इसे चाहे तो भ्रान्ति भी कह सकता है, पर जहाँ तक कवितासर्जन का सम्बन्ध है, भ्रान्ति भी एक हकीकत सी ही परिणामकारक सिद्ध हो सकती है, यह इस मिसाल से देखा जा सकेगा।

1931 में गाँधी-इरविन समझौते के समय में मैं कॉलेज में वापिस न गया। फिर से लड़ाई आ रही है, इस अपेक्षा से गाँधीजी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ में जाकर आचार्य श्री काका साहब कालेलकर के साथ रहा। वहाँ उस नाटक की तैयारी के लिए स्वाध्याय का आरम्भ किया। एक दृश्य ‘युधिष्ठिर का युद्धविषाद’ का मसौदा भी बना लिया। पर इस तैयारी के एक आकस्मिक अंकुर के रूप में ‘विश्वशान्ति’ खण्डकाव्य लिखा गया-पाँच दिन में। गाँधीजी के विभूतिमत्व के परिवेश में यह काव्य चलता है। गोलमेज परिषद में जाना लगभग स्थगित कर दिया गया था और वे विद्यापीठ में आकर कुछ दिन रहे थे, सुबह से प्रार्थनाप्रवचन के दरमियान उनका सान्निध्य पूरा मिलता। ‘विश्वशान्ति’ समिष्टि में समरस होने की अभीप्सा को साकार करने का प्रयत्न है। यह काव्य गाँधीजी द्वारा स्थापित नवजीवन प्रेम से प्रकाशित हुआ। इसका जो स्वागत हुआ उसमें प्रकाशन-संस्था का योगदान भी कम नहीं रहा होगा परन्तु छोटी-सी काव्य पुस्तिका गाँधीजी को पहुँचाने की हिम्मत मैं कर न पाया।

काव्यदीक्षा सौन्दर्य की, जीवनदीक्षा प्रेम की-यों मन में उग आना एक बात है, जीए जाते जीवन में प्रतिपल उनका अनुभव-वस्तु बनना और बात है। 1932 में जेल से ‘गंगोत्री’ संग्रह की कुछ कविताएँ और ‘सापना भारा’ एकांकी संग्रह के पहले पाँच नाटक लेकर बाहर आया, जिन पर सामाजिक एवं वैयक्तिक विसंवाद की छायाएँ अंकित हैं। गाँधीजी की प्रेरणा से जेलों में ब्रिटिश सरकार का आतिथ्य चखते युवक समाजवाद की भावना से रँगे जा रहे थे। ‘गंगोत्री’ में ‘भूखे जनों की जठराग्नि जगेगी’ यह उद्घोष और ‘निशीथ’ में ‘बेंक पासेनुं झाड’ (बैंक के नजदीक का पेड़) तथा ‘पांचाली’ जैसी कृतियाँ इस भावना के जीवन्त प्रभाव में हैं।

तीसरे दशक के बाद लगभग सभी गुजराती नवलेखक इस भावना से बहुत कुछ प्रभावित हुए, पाँच वर्ष के बाद ‘प्रगतिवाद’ के पुरस्कर्ता भी बने, परन्तु ‘साहित्य अने प्रगति’ नामक दो लेखसंचय प्रकाशित करके चौथे दशक के अन्त तक तो सबने प्रगतिवाद पर अधिकृत रूप से पर्दा गिराकर आन्दोलन को समेट लिया। दूसरे विश्वयुद्ध के वक्त साम्यवादियों की प्रमाणभूत पक्षीय नीति ने हमारे कदम को सही सिद्ध किया। पक्षवाद में फँसने से हम बच गये, पर समाजवाद की मूल प्रेरणा-सामाजिक न्याय की माँग-किसी न किसी रूप में हमसे लगी ही रही। 40 के नवकवियों में सौन्दर्याभिमुखता प्रकट हुई, परन्तु उसके लाभों के साथ,’ 50 के बाद प्रवेश करते नवकवियों की कविता में पुनःसमाजसन्दर्भ का परिणाम बिम्ब प्रतीक द्वारा आ मिलता है। इसके अनन्तर मानवनियति की, खास करके आधुनिक समय के दबाव के बीच कवि जैसे संवेदनशील व्यक्ति को मनुष्य की गति-स्थिति की कैसी झाँकी होती है इसकी सम्प्रज्ञता (Awareness) कविता द्वारा मूर्त होना चाहती है। ‘छिन्नभिन्न हूँ’ (1956) और ‘शोध’ (1959) रचनाएँ मेरे इस दिशा के प्रयत्न हैं।

विश्वशान्ति के वैयक्तिक अशान्ति के अनुभव की विपरीत गति हमारे युग के सर्जकों के लिए निर्मित हो चुकी थी-अनिवार्य रूप से-ऐसा भी कहा जा सकता है। यह भावनाओं का पीछे हटना नहीं है, अनुभूत यथार्थ का स्वीकार है। इस स्वीकार के बावजूद विश्वशान्ति की अभीप्सा मिटनेवाली नहीं थी, बल्कि धीरे-धीरे वैयक्तिक अशान्ति और विश्वशान्ति दोनों अलग-अलग न दीख कर परस्पर ओतप्रोत प्रतीत होने वाली थीं।

‘निशीथ’ में जो ‘देश-निर्वासित-सा’ नामक कृति है उसे मूल अँग्रेजी में लिखा गया था :

I wonder how this little soul
Was smuggled into life,
Not that I dread the fact of being
That men misname as strife.
From birth to death the mortals roam,
I seek the way from death to birth.
I have wandered and will wander still
An exile on this earth.

(1934 में अँग्रेजी में ऐसे कुछ प्रयत्न किये थे। उस समय बम्बई में रहते श्री हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय से मेरा सम्बन्ध था। उन्होंने ये कृतियाँ प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की थी, लेकिन मैंने बात को आगे बढ़ने नहीं दिया।)

परन्तु वैयक्तिक चेतना की बात को पूर्ण रूप से अंक में भरने का प्रयत्न ‘निशीथ’ की सॉनेटमाला ‘आत्मा के खँडहर’ में होता है। इस सॉनेटमाला का महदंश मैंने बम्बई में तीन दिनों में लिखा। उन दिनों मैं बी.ए. में भारतीय बैंकिंग का अध्ययन कर रहा था, ‘निशीथ’ की प्रमुख रचनाएँ वहीं लिखी गईं, वे बम्बई के जीवन के सूक्ष्म प्रभाव से अंकित हैं। खुद ‘निशीथ’ रचना का जन्म बम्बई की लोकल ट्रेन में, रात को उपनगर लौटते समय कविश्री मेघाणी की मेरे नाम लिखी गई चिट्ठी के कोरे हिस्से पर कुछ पंक्तियों के रूप में, हुआ था। इसमें छन्द वैदिक-सा प्रयुक्त करने पर भी लोकल ट्रेन के गति-आन्दोलन प्रवेश पा चुके हैं।

‘निशीथ’ की कविताओं की भूमिका पूर्व लिखित कृतियाँ ‘विश्वशान्ति’ और ‘गंगोत्री’ से कटी हुई तो नहीं है। एक मुख्य तन्तु है ‘विश्वशान्ति’ के पहले और पाँचवें-छठे खण्ड से संलग्न। मानव-नियति विषयक यह तन्तु ‘निशीथ’ में, ‘विराट प्रणय’ में तथा ‘आत्मा के खँडहर’ में-तीनों में भिन्न-भिन्न रीति से प्रतीत होता है। कवि के खयाल से ‘मंगल शब्द’ के पूर्वार्ध में वैश्विक चित्रण का जो आकर्षण है वह ‘निशीथ’ कविता में पूर्णतया व्यक्त हुआ है। ‘विश्वशान्ति’ के तीसरे खण्ड में झाँकते इतिहासप्रेम को ‘विराट प्रणय’ में अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है।

दूसरा तन्तु है प्रणय कविता का। ‘गंगोत्री’ में ‘अकेले या साथ में’ आदि मौग्ध्य उद्गार ‘रहनुमा बिना’ रचना में भावना-संकेत, ‘मुखर कन्दरा’ जैसी रचनाओं में अपरीक्षित, अननुभूत तथापि विश्वस्त उच्चारण-इन सबके बाद अब विवाहोत्तर कृतियां मिलती हैं। मेरे एक मित्र ने तो कह भी दिया-‘विवाहोत्तर कृतियों को प्रणयकविता कौन कहे ?’
तीसरा एक तन्तु मृत्यु-विषयक संवेदन का है : ‘एक बच्ची को श्मशान ले जाते हुए’ के बाद ‘पिता के फूल’ तथा ‘स्वर्गीय बड़े भाई’ कृतियाँ मिलती हैं।

चौथा तन्तु जीवन की वास्तविकताओं का है, जिनमें केवल विषमताओं के ही नहीं, किन्तु जगत्-जीवन के विशाल फलक पर की, दृष्टि की व्याप्ति से बाहर रह गई निपट वस्तुस्थितियों के कुछ अंश अनुभूति-विषय बनते हैं।

पाँचवाँ तन्तु-बल्कि उसे पाँचवाँ न कहें; यहाँ उपर्युक्त चारों तन्तु समवेत होकर अनुभूति का रूप लेकर स्फुट होना चाहते हों ऐसा लगता है। मेरे लिए तो यह जीवन का, कम-से-कम कवि-जीवन का शायद मुख्य भाग बनाता रहा है। यह दिखाई देता है ‘आत्मा के खँडहर में’। विश्वशान्ति के स्थान पर यहाँ व्यक्ति की अशान्ति शायद विषय-वस्तु बनती है, बुलन्द अभीप्सा जीए जाते विविधरंगी जीवन के स्पर्श से पहलदार बनती हैं। और यथार्थ-निरा यथार्थ, केवल यथार्थ के स्वागत में परिणत होती है। विश्वशान्ति और वैयक्तिक अशान्ति विरोधी वस्तुएँ नहीं रह जातीं। दोनों यथार्थ के सेतु से जुड़ जाती हैं। सॉनेटमाला के अन्तभाग में एक प्रकार के संशयवाद, निराशावाद, शून्यवाद (Nihilism), स्वप्न-आदर्श-भावना विषयक पराजयवाद (Defeatism) और आगे चलकर हमें पाश्चात्य साहित्य द्वारा दिखाये गये निःसारवाद (The Absurd), अस्तित्ववाद (Existentialism) के इंगित हैं, किन्तु परिणाम स्वरूप उबर आती है एक प्रकार की कोई आध्यात्मिक अनुभूति। व्यक्ति दबता, झेलता, मँजकर बाहर आता है यथार्थ का स्वागत करते, उसे अपनाते हुए। मुक्त ह्रदय से, मुक्त चित्त से यथार्थ का निःशेष स्वीकार भी स्वतः एक आध्यात्मिक विजय की भूमिका है।

‘अभिज्ञा’ (1967) में संगृहीत ‘छिन्नभिन्न हूँ’ और ‘शोध’ कृतियाँ आगे बढ़कर एक पूरा काव्यस्तबक बनें ऐसी परिकल्पना है। इस काव्य-संपुट में वे चारों समवेत तन्तु पुनः किस प्रकार प्रत्यक्ष होंगे यह फिलहाल मैं ही न जानता होऊँ तो कैसे कह सकूँ ? अपने ढंग से वह अलग और अनूठा प्रयत्न होना चाहेगा। मुझे कुछ ऐसा लगता है कि सर्जक चेतना कभी-कभी गोल सीढ़ी पर चढ़ती (spiralling) भी देखने को मिलती है।

कहिए कि ‘आत्मा के खँडहर’ में जो बाहर देखने को मिला था उसका साक्षात्कार ‘छिन्नभिन्न हूँ’ में भीतर होता है। ‘आत्मा के खँडहर’ सॉनेट के दृढ़ पद्यबन्द1 में साकार हुआ था, यहाँ छन्दोलय भिन्न, विक्षिप्त है, बल्कि गुजरती पद्यरचना के चारों प्रकार और बीच-बीच में गद्यपंक्तियों के द्वारा लय अन्वित होती चलती है। ‘छिन्नभिन्न छुं’ के बाद दूसरी ही पंक्ति-‘निश्छंद कवितामां धबकवा करता लय समो’ के आरम्भ के तीन शब्द और अन्तिम तीन शब्दों के बीच लय हिचक जाती है।

छिन्नभिन्नता के अनुभव की रचना यदि कलाकृति हो पाई तो इतना तो मनुष्य एक-केन्द्र हो पाया है, ऐसा कहा जा सकता है। साहित्य का माध्यम शब्द है। बाह्य वास्तविकता को शब्द एकत्व अर्पित करता है, इस अर्थ में कला स्वयं एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति है। आज का मु्ख्य प्रश्न यह है कि यन्त्र-संस्कृति में मनुष्य जीए कैसे ? केवल जीए नहीं बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीए। यन्त्र-वैज्ञानिक संस्कृति का पश्चिमी जीवन पर भारी दबाव है और हमारे जीवन पर भी उसका असर न पड़ना असम्भव है। पश्चिम में भी विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की उपलब्धियों के असन्तोष के बीच धर्म की- एक प्रकार की आध्यात्मिकता की-खोज के चिह्न दिखाई दे रहे हैं। किन्तु धर्म का मार्ग विज्ञान के सत्यों के बीच से ही गुजरता है। ‘डिवाइन कॉमेडी’ में इनफरनो (दोजक) और परगेटोरियो (शोधनागार) से होकर ही पेरेडिसो (स्वर्ग) का रास्ता गुजरा है। हमारे देश में भी ऐसे लोग हो सकते हैं जो इन अनुभवों की आँच में पक रहे हों।

दूसरी कृति ‘शोध’ जीवन के सर्जनात्मक सिद्धान्त की खोज को विषय-वस्तु बनाती है। द्रष्टा जब बिखरे वृक्ष नहीं देखता, वृक्ष-रचना-मय हो जाता है तब सौन्दर्यानुभूति प्रकट होती है; द्रष्टा और दृश्य के जुदा न रह जाने से केवल सौन्दर्यवस्तु ही प्राकट्य हो पाती है। यह प्रतीति सहानुभूति के फलक के विस्तरण मात्र से ही नहीं परन्तु तद्रूपता-समरसता पर आधारित है। पुष्प, शिशुओं का कलहास्य-ये इस कविता के शब्द और छन्द हैं और कन्याओं के आशा उल्लास हैं ‘मेरी कविता की नसों का रुधिर’। अन्ततोगत्वा काव्य की सौन्दर्य दीक्षा और जीवन की प्रेमदीक्षा अलग-अलग रह नहीं पातीं। प्रेम और सौन्दर्य एकज्वाल होकर रहते हैं।

-उमाशंकर जोशी

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Umashankar Joshi) #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!