तुम्हारा खत - सुव्रत शुक्ल | Tumhara Khat - Suvrat Shukla

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तुम्हारा खत - सुव्रत शुक्ल | Tumhara Khat - Suvrat Shukla


धरती ने कागज बनाया
आकाश को।
पेड़ों ने कागज बनाया
जंगलों को।
तुमने कागज बनाया
अपनी हथेली को।

आकाश को ताकती रही धरती,
और उसे हंसाता रहा आकाश।
पेड़ों को चमकाते हुए पत्ते
और उन्हें हरा भरा बनाता पेड़।
तुम्हारी हथेली में की वे पांच उंगलियां,
पांचों उंगलियों में 
समाए ये धरती, आकाश,जल, वायु और अग्नि,
शायद इसीलिए इनका स्पर्श देता है कुछ अलग आभास।

कहते हैं, धरती ने आकाश को लिखा 
एक खत।
उसने तारों को शब्द बना दिया।
फिर पेड़ों ने लिखा वसंत को 
एक खत।
उसने पत्तों को शब्द बना दिया।

फिर तुमने लिखा हमारे लिए
एक खत।
और फिर बंदिशों को हाशिए पर रख 
आंसुओ और भावों को शब्द बना दिया।
इन खतों को वे ही पढ़ सके जिनके नाम लिखे गए थे
ये खत।

तुमने लिखा था जो मैने पढ़ा उसे,
मेरे दो बूंद टपके आंसू और जा मिले उन शब्दों से
और संगम हो गया।
जहां लिखा था तुमने "मेरे..."
और आगे कुछ लिखा नहीं था शायद मिट गया था,
तुम्हारे आंसुओ से।

मैने उन्हें उसी चश्मे से पढ़ा,
जो मेरी आंखो को तुमने इन सालों में दिया।
आज दुनिया कितना आगे जा रही है,
सब भागे से जा रहे हैं
और कोई रुका है तो बस ,
सूरज , जिसे धरती ने लिखा ,
वसंत, जिसे पेड़ों ने लिखा,
और मैं ,जिसे तुमने लिखा ।
और रोक लिया ।
मैं आज भी वहीं रुका हूं
जहां पर रखा हुआ है
"तुम्हारा खत"।

   - सुव्रत शुक्ल


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