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हिंदी कविता
साहस - सुव्रत शुक्ल | Sahas - Suvrat Shukla
मात्र मनोरथ ही करने से,
कार्य कभी न सिद्ध हुआ।
सोते हुए शेर के मुख में,
मृग न स्वयं प्रविष्ट हुआ।।
कठिन परिश्रम से होते हैं,
सिद्ध सदा ही सारे काम।
साहस, पौरुष बिना यहां,
जीवन रहता है गुमनाम।।
वही महान हुआ पृथ्वी पर,
कंटक पथ, पग बढ़ा सका।
बीज वही बन सका वृक्ष जो,
धरती का सीना वेध सका।।
आंधी जो विपरीत चल रही,
उससे न घबरा ऐ बाज़!
उसका बहना तेरी परीक्षा,
और अधिक ऊंचा उड़ आज।।
युद्धभूमि में घुड़सवार ही,
गिरते हैं धरती पर ।
वे मुर्दे क्या खाक गिरेंगे,
सदा चले जो घुटनों पर।।
पांव हुआ करते हैं घायल,
उन्नत सिर जो चलते हैं।
कीड़ों के घिसते न घुटने,
रेंग रेंग वे चलते हैं।।
हमको क्या रोकेंगी आंधियां,
रातों से हम लड़ते हैं।
पंखों से कुछ काम न होता,
हौसलों से हम उड़ते हैं।।
कुछ सपनों की चाह मुझे ,
उस नील गगन से थोड़ी दूर,
जीवन था गुमनाम भले ही,
मौत मिले मुझको मशहूर।।
- सुव्रत शुक्ल
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