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राजरोग: आलस्य - सुव्रत शुक्ल | Rajrog : Alasya - Suvrat Shukla
एक साधु और एक किसान की
अनुपम एक कहानी।
साधु पड़ा छाया में लेटा,
एक किसान खेत से थककर,
छाया में था आया,
साधु को देखा प्रणाम कर,
कुशल क्षेम बतलाया।
पहले देकर भोजन साधु को,
फिर खुद भोग लगाया।
भोजन कर दोनो लेट गए,
पाए थे शीतल छाया।
पूछा किसान ने लेटे लेटे
"बाबा क्या करते हो?
किस भांति तुम इस शरीर का,
पालन पोषण करते हो?"
बोला साधु "हे पुत्र! मुझे,
ईश्वर का साथ मिला है।
करता हूं आराम, तृप्त रहता,
जो दान मिला है।"
पूछा किसान फिर "हे बाबा!
कुछ काम नहीं क्यों करते?
क्या करूं, कहां जाऊं,
मुझको तो काम नहीं हैं मिलते?
"बाबा मेरे संग खेतों में,
क्या मिल कर काम करोगे?
पाओगे रहना , खाना भी,
पैसों से जेब भरोगे?"
"क्या होगा इन पैसों से ,
मुझको बतलाओ आज,
क्यों करूं इकट्ठा इनको मैं,
खोलो इतना तुम राज।"
"बाबा पैसे लेकर के तुम,
घर अपना बनवाना,
घर बनवा कर शादी कर,
दुल्हन को घर में लाना"
"घर बनवाने, शादी करने से
बोलो क्या होगा?
बोलो जल्दी, चुप क्यों हो?
बोलो ना क्या होगा?"
बाबा जी बच्चे होंगे,
फिर उनको खूब पढ़ाना,
वो पढ़कर के जायेंगे बाहर,
तुम खेती खूब लगाना।
"क्या होगा बच्चे होने से ,
या खेती करने से?
खेती को खूब बढ़ाने से ,
या बच्चों के पढ़ने से?"
बोला किसान " बाबा जी !खेतों में
जब बच्चे काम करेंगे ,
सब सुख होगा पास आपके,
और आप आराम करेंगे।"
बोले बाबा" आराम यहां भी
कर ही रहा हूं प्यारे।
जब इतना आराम यहां फिर
काम करूं क्यों प्यारे।
राज रोग , रोगों का राज,
आलस्य जिसे कहते हैं।
जिसको लग यह फिर,
जीवन भर नहीं संभलते है।
अपने जीवन की खुशियों को,
आलस्य की भेंट चढ़ाते।
जीवन में कुछ कर पाते न,
किस्मत को दोष लगाते।
कठिन कार्य ही साधन है
एकमात्र लक्ष्यों के।
मृग न कभी प्रविष्ट हुए
सोते मुख में सिंहो के।।
- सुव्रत शुक्ल
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