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हिंदी कविता
त्रिलोक सिंह ठकुरेला - दोहे | Trilok Singh Thakurela - Dohe
आमंत्रण देता रहा, सदियों से आकाश।
वही बुलन्दी तक गया, काट सका जो पाश।। 1
भाग्य भरोसे जो रहा, दुःखमय उसका अंत।
कर्मभूमि है यह जगत, कहते आये संत।। 2
कर फैलाना छोड़कर, निज कर ओर निहार।
दिन बीता, रजनी हुई फिर आयेगी भोर।
ढांढस रख, संभावना छिपी हुई हर ओर।। 4
दर्पण जैसा ही रहा, इस जग का व्यवहार।
जो बांटे जिस भाव को, पाये बारम्बार।। 5
रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुःख, छाया-धूप।
यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप।। 6
समय बदलता देख कर, कोयल है चुपचाप।
पतझड़ में बेकार है, कुहू- कुहू का जाप।। 7
हंसों को कहने लगे, ऑंख दिखाकर काग।
अब बहुमत का दौर है, छोड़ो सच के राग।। 8
अपमानित है आदमी, गोदी में है स्वान।
मानवता को दे रहे, हम कैसी पहचान।। 9
मोती कितना कीमती, दो कौड़ी की सीप।
पथ की माटी ने दिये, जगमग करते दीप।। 10
लेने देने का रहा, इस जग में व्यवहार।
जो देगा सो पायेगा, इतना ही है सार।। 11
इस दुनिया में हर तरफ, बरस रहा आनन्द ।
वह कैसे भीगे, सखे! जो ताले में बन्द।। 12
जीवन कागज की तरह, स्याही जैसे काम।
जो चाहो लिखते रहो, हर दिन सुबहो-शाम।। 13
नयी पीढ़ियों के लिए, जो बन जाते खाद।
युगों युगों तक सभ्यता, रखती उनको याद।। 14
कौन महत्तम, कौन लघु, सब का अपना सत्व।
सदा जरूरत के समय, जाना गया महत्व।। 15
केवल मीठी बात से, नही बनेगा काम।
काम पराये आ सकें, यही बात अभिराम।। 16
कहते आये सब यही, मतलब का संसार।
वही प्रतिष्ठा पा सका, जिसने बांटा प्यार।। 17
बूँद बूँद है कीमती, पानी है अनमोल।
दो-कोड़ी का है, सखे ! बिन पानी भूगोल।। 18
बादल में बिजली बसी, सागर में है आग।
मुझे न जाने क्या हुआ, रातें काटूँ जाग।। 19
जल-तरंग जैसी उठीं, तन में कई तरंग।
मन की कलियॉं खिल उठीं, महक उठा अंग-अंग।। 20
खजुराहो उद्विग्न है, शर्मिंदा है ताज।
मैं अपने ही रूप पर, वारी जाऊँ आज।। 21
होंठ गुनगुनाने लगे, छलक रहा मकरंद।
मन में भरी मिठास सी, रह-रह गाये छंद।। 22
कौन बजाये बॉंसुरी, मन के तट की ओर।
मंत्र-मुग्ध करने लगा, मुझे कौन चितचोर।। 23
पागल-पन सा छा गया, धार प्रेम का छत्र।
स्वप्न प्रेम के ही दिखे, यत्र-तत्र-सर्वत्र।। 24
दर्पण के सन्मुख खड़ी फिर-फिर देखूँ रूप।
तन-मन रोशन कर रही, यह यौवन की धूप।। 25
प्रीति वाटिका में खिलीं, जब से कलियॉं चार।
मन-भॅंवरा पागल हुआ, बस भाया अभिसार।। 26
जब उसके दिल से जुडे़, मेरे दिल के तार।
यही समझ में आ सका, प्रेम जगत का सार।। 27
मन की सांकल खोलकर, घुस आया है कौन।
भीतर कोलाहल घना, बाहर-बाहर मौन।। 28
बौरायी गोरी फिरे, तन में लागी आग।
मन में सपने भर गया, आकर छलिया फाग।। 29
प्रकृति दिखाती फिर रही, अपनी छवि अभिराम।
पुष्पबाण बरसा रहा, अनथक, मन्मथ काम।। 30
दिल की धड़कन बढ़ गयी, सोच हुआ मन दंग।
मन में बजने लग गयी, बिन छेडे़ ही चंग।। 31
हर कोई दिखने लगा, हर्षित, सबल, समृद्ध।
जैसे फिर से पा गये, नयी जवानी वृद्ध।। 32
अनगिन ख़ुशियॉं छा गयीं, फड़क उठा हर अंग।
सब के तन में जी उठा, आशा लिये अनंग।। 33
बौराये प्रेमी दिखे, बौराये सब आम।
सजनी ने निशि दिन किये, साजन के ही नाम।। 34
मन सतरंगी हो गया, तन पर पड़ते रंग।
सब बहके-बहके फिरें, बिना पिये ही भंग।। 35
फागुन ले अँगड़ाईयॉं, प्रमुदित हुए पलाश।
विरही मन में जग गयी, पुनर्मिलन की आस।। 36
नस-नस रसमय हो गयी, मधुर लगा संसार।
सब चाहें आता रहे, फागुन बारम्बार।। 37
सब तन के लोभी मिले, मन का मीत न एक।
चेहरों की ही बन्दगी, नख़रों का अभिषेक।। 38
मन ख़ुशबू से भर गया, लागी प्रीति-बयार।
पर फूलों के रूप से, भ्रमर करे अभिसार।। 39
रजनीगंधा की महक, रजनी का उजियास।
सजनी का संग छोड़ कर, चकवा शशि की आस।। 40
भ्रमरों ने कीं जा निकट, प्यारी बातें चन्द।
फूल बनीं कलियॉं विहॅंसि, लुटा रहीं मकरन्द।। 41
सारे वातायन खुले, गिर ही गये कपाट।
नयना अपलक जोहते, प्रियतम की ही बाट।। 42
अंतर्मन ख़ाली किया, सारी भटकन बन्द।
मनवा बांसुरिया बना, गाये तेरे चन्द।। 43
आम्र-मंजरी झुक गई, सुन कोयल के बैन।
यादों के सावन घिरे, दोनों ही बेचैन।। 44
प्रियतम हैं परदेश में, बस सुधियॉं हैं पास।
मन की गलियों में दिखे, रात-दिवस मधुमास।। 45
ओस कणों को देख कर, कलियॉं हुईं उदास।
मन गागर में जग गई, सागर जैसी प्यास।। 46
प्रमुदित मन-सूरजमुखी, आती ऊषा देख।
प्रिया-मिलन है सन्निकट, शुभ सगुनों की रेख।। 47
वही गगन, वह चन्द्रमा, वही पहर, वह रात।
पर साजन के बिन सखी! कहॉं रही वह बात।। 48
विरहिन के मन गहन ने, जब भी भरी उड़ान।
प्रियतम तक पहुँची ख़बर, सका न कोई जान।। 49
सुन प्रियतम का आगमन, दहके गोरे गाल।
सहमी लाली भोर की, सहमा लाल गुलाल।। 50
अहंकार को छोड़ कर, ख़ूब झुका आकाश।
धरती के मन में दिखी, जब मिलने की प्यास।। 51
कलियों के घूंघट उठे, भ्रमर उड़े उस ओर।
मिलने की उम्मीद फिर, ले कर आयी भोर।। 52
गोरी गोरे रूप पर, इतरायी सौ बार।
जब प्रियतम की बॉंह के, पडे़ गले में हार।। 53
मिटीं बीच की दूरियाँ, हुई धड़कनें तेज़।
टकरायीं सॉंसे गरम, कितनी ख़ुश थी सेज।। 54
मिलने की घड़ियॉं सुखद, किसे याद श्रृंगार?
गिरे ख़ुशी में झूम कर, गजरा, बिंदी, हार।। 55
दोनों ने मिल मिलन के, ऐसे गाये राग।
दिन उड़ गये कपूर से, रातें बीतीं जाग।। 56
याद न आया और कुछ, भूल गये सब काम।
ऑंखों-ऑंखों में हुई, जब बातें अविराम।। 57
अब उपवन की क्यारियां, याद न आती भूल।
सब की बैठक में सजे, बस कागज के फूल।। 58
गली-गली में फिर रहे, बधिक बदल कर वेश।
मन में छिपी कटारियां, वाणी में उपदेश।। 59
नजरें उसको ढूंढती, बार-बार जा द्वार।
उसका आना बंद है, जब से मिला उधार।। 60
सुबह, शाम, दिन, रात नित, जिसकी चाही खैर।
वह छोटी सी बात पर, निभा रहा है बैर।। 61
ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, काली-गोरी देह।
मिटते देखे भेद सब, जब-जब पनपा नेह।। 62
बेटी कैसे देखती, नवजीवन की भोर।
जब पत्थर जैसे हुए, माता-पिता कठोर।। 63
भला परायों से करे, कोई भी क्या आस।
तोड़ रहे हैं आजकल, अपने ही विश्वास।। 64
कैसे चौकन्ना रहे, कोई व्यथित शिकार।
ले आया है अब बधिक, नये-नये हथियार।। 65
सपने जैसी हो गयीं, सपनों वाली रात।
जागे हैं यह सोचकर, करे न काई घात।। 66
सब अपने दुःख से दुःखी, सब ही दिखे अधीर।
कौन कहे किससे यहॉं, अपने मन की पीर।। 67
मंजिल क्यों मिलती उसे, बैठा रहा उदास।
स्वप्न उसी के सच हुए, जिसके मन थी आस।। 68
बुरा सोचता हो कोई, किन्तु सोच तू नेक।
जैसे को तैसा मिलें, बात याद रख एक।। 69
आते जाते शख्स से, कहे गली की धूल।
चाहे उड़ आकाश में, पृथ्वी को मत भूल।। 70
कौन महत्तम, कौन लघु, सब का अपना सत्व।
सदा ज़्ारूरत के समय, मालुम पड़ा महत्व।। 71
मन की शक्ति से सदा, चलता यह संसार।
टूट गया मन तो समझ, निश्चित अपनी हार।। 72
मिल पाता परिवेश जो, वैसे बनते आप।
एक तत्व के रूप हैं, पानी, हिम कण, भाप।। 73
पक्षपात, अन्याय को देख रहे जो मौन।
‘ठकुरेला’ संसार मे उसे मान दे कौन।। 74
जीवन भर संचित किया, पर न किया उपभोग।
निधि की रक्षा कर रहे, विषधर से वे लोग।। 75
चिंतन की उपज हैं, दुःख एवं आनन्द।
कैसे सुख आ पायेगा, जब मन दर हो बन्द।। 76
‘ठकुरेला’ संसार में, चाहे जितना बोल।
पर कहने से पूर्व ही, शब्द-शब्द को तोल।। 77
मृग-मरीचिका दे सकी, जग को तपती रेत।
जीवन के सन्दर्भ हैं, फसलों वाले खेत।। 78
कुछ दिन दुःख के आगये क्यों करता है खेद।
कौन पराया, कौन निज, खुल जायेगा भेद।। 79
सत्य बात करते रहो, किन्तु कहो रस घोल।
जिसने कड़वा सच कहा, आफत ले ली मोल।। 80
कैसे होगी प्रेम की, उसे कभी पहचान।
जो धन को ही मानता धर्म, कर्म, ईमान।। 81
रंग रूप सबका अलग, अलग अलग आकार।
चाक वही, माटी वही, सब का वही कुम्हार।। 82
जो समर्थ उसके लिए, अगम कौन सी बात।
खारे सागर से करे, सूरज मृदु बरसात।। 83
दुष्ट तजें कब दुष्टता, कुछ भी कह ले नीति।
उनको जीवन भर रूचे, अत्याचार, अनीति।। 84
दुनिया एक सराय सी, आते, जाते लोग।
जो जैसा खर्चा करे, वैसा भोगे भोग।। 85
निर्बल ने तो जिंदगी, काटी रह कर मौन।
भैंस लठैतों की रही, रोक सका है कौन।। 86
हाथ नहीं कुछ आ सका, गा कर थोथे गान।
मिला हमेशा ही उसे, जिसने ठानी ठान।। 87
रिश्तों की क्या अहमियत, जब तक नहीं सनेह।
बिना प्राण किस काम की, सुघड़, सुसज्जित देह।। 88
होठो पर मुस्कान रख, बन जायेंगे काम।
सरल हृदय के साथ प्रभु, हर दिन आठो याम।। 89
मन खाली-खाली रहा, करके संचित कोष।
सब निधियॉं फीकी लगीं, जब आया संतोष।। 90
बातें हों रस से भरी, परहित वाले काम।
लोग लिखेंगे आपका, अपनों में ही नाम।। 91
इस विराठ संसार में, दुःखी न केवल आप।
सब की ही मजबूरियाँ, सब के ही सन्ताप।। 92
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