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समय की पगडंडियों पर (गीत संग्रह) - त्रिलोक सिंह ठकुरेला | Samay Ki Pagdandiyon Par (Geet Sangrah) - Trilok Singh Thakurela
समर्पण - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
प्रिय जीवन-संगिनी
श्रीमती साधना ठकुरेला
को
समर्पित
दो शब्द - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जीवन की विभिन्न चेष्टाएँ एवं क्रिया-कलाप भावों का संचरण करते हैं। इनमें कुछ स्थायी होते हैं और कुछ अस्थायी । कविता इन्हीं भावों का प्रसार करती है। कविता स्वार्थ बन्धनों को खोलकर मनुष्यता के उच्च शिखर की ओर ले जाती है। गीत काव्य का सहज एवं सर्वप्रिय रूप है। गीत अनादिकाल से ही मानव सभ्यता का सहयात्री रहा है । गीत मानवीय संवेदनाओं की सहज एवं सघन अभिव्यक्ति है। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि जन जीवन के हर व्यवहार में गीत किसी न किसी रूप में उपस्थित है। यदि गीत को जीवन से अलग कर दिया जाये तो जीवन नीरस और सारहीन प्रतीत होगा।
समय की पगडंडियों पर चलते हुए जीवन में बहुत कुछ देखने, समझने और अनुभव योग्य होता है। कभी-कभी भावातिरेक में जीवन की अनुभूतियाँ काव्य रूप में प्रस्फुटित होने लगती हैं। जीवन की सुख दुखात्मक अनुभूतियाँ ध्वन्यात्मक एवं गेय होकर गीत का रूप धारण करती हैं। यही कारण है कि गीतों में जीवन की अनुगूंज सुनायी पड़ती है। बाल्यकाल से ही मुझे कविता एवं लोकगीतों ने प्रभावित किया है। शायद यही कारण है कि जीवन के विभिन्न पड़ावों पर मैंने जो अनुभव किया, उसने मेरे इन गीतों को जन्म दिया। मेरे इन गीतों में जीवन की सुखद अनुभूतियाँ भी हैं एवं समाज और व्यक्ति की पीड़ा भी है। जीवन की त्रासदी एवं सामाजिक विसंगतियाँ मेरे इन गीतों की अभिव्यक्ति बने हैं। संक्षेप में कहूँ तो मैंने इन गीतों में जीवन और जगत के भोगे हुए सत्य को उजागर करने का प्रयास किया है। मुझे इसमें कहाँ तक सफलता मिली है, इसका सही निर्णय आपका मूल्यांकन ही कर सकेगा।
मैं माननीय श्री कुमार रवीन्द्र, श्री माहेश्वर तिवारी एवं श्रीमती साधना ठकुरेला सहित उन सभी का हृदय से आभारी हूँ जिनसे परोक्ष या अपरोक्ष रूप से मुझे यह गीत संकलन पूर्ण करने में सहयोग मिला है।
‘समय की पगडंडियों पर’साहित्य जगत को सौंपते हुए मैं आशान्वित हूँ कि पूर्व की भाँति ही मुझे आपके बहुमूल्य सुझाव प्राप्त होंगे।
- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बंगला संख्या - 99
रेलवे चिकित्सालय के सामने,
आबू रोड- 307026 (राजस्थान)
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जीवन-संगीत का अनुगायन - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
हिन्दी गीत-कविता में नवता के पुरस्कर्ता कवियों में से एक स्मृतिशेष वीरेन्द्र मिश्र ने अपनी गीत-रचना की प्रक्रिया का संकेत देते हुए लिखा है कि, जब-जब कण्ठावरोध होता है, और अधिक सृजन बोध होता है । यह कण्ठावरोध जितना निजी होता है, उदात्त चेतना के साथ उतना ही व्यापक होता जाता है और एक तरह से रचनाकर्म को सामाजिक बोध तक विस्तृत कर देता है। आदिकवि वाल्मीकि के कण्ठ से क्रौंच बध से उत्प्रेरित अनुष्टुप की तरह। ‘समय की पगडंडियों पर’गीत-संग्रह के गीत-कवि त्रिलोक सिंह ठकुरेला की रचनाशीलता से गुजरते हुए कुछ ऐसा ही बोध मन में उपजता है।
आज के समय में टूटते बिखरते परिवार और समाज की पीड़ा के पीछे बढ़ते अर्थवाद को ही सम्भवतः वे एक प्रमुख कारक मानते हैं। उनके पास गहरी संवेदनशीलता से भरा मन है और हुई समकालीन गीत की परम्परा से परिचित है। उनका गीत-कवि इन सबके मिश्रित घोल का परिणाम कहा जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आज के अछान्दस समय में वे छान्दस-काव्य परम्परा के कवि हैं और प्राचीन छन्द कुण्डलिया के साथ-साथ गीतात्मक रचना से जुड़े हैं। उन्हें समाज में हर तरफ घूमते छद्मवेशी बहुरूपियों की उपस्थिति परेशान करती है तो आर्थिक या कुछ अन्य विकृतियों के कारण परिवारों के विघटन की पारिस्थिथीकी भी बेचैन करती हैं और वे कह उठते हैं -
गायब हुई मधुरता मन की
खट्टा हुआ समय।
बहू और बच्चों को लेकर
बेटा गया शहर,
घर में चहल पहल करती है
खाँसी आठ पहर।
पीढ़ियों के अन्तराल से उपजने वाली विसंगतियाँ और उनसे जन्म लेने वाली पीड़ा को कवि गहरी संवेदनशीलता से इस गीत में उकेरता है और इसके माध्यम से अपने रचना- जनपद की विषय-वस्तु का परिचय भी करवाता है।
आर्थिक दबावों से उपजने वाली ऐसी ही स्थिति का एक अन्य चित्र संग्रह के एक अन्य गीत में दृष्टव्य है -
सता रही है
शीत-निशा सी
चढ़ी अजब महँगाई।
समकालीन गीत-कविता में कबीर की उपस्थिति उसे सामाजिक सरोकारों से जोड़ती है। कबीर त्रिलोक सिंह ठकुरेला के गीत में भी हैं उनके रचनाकार के मनोलोक में रचे एक और कबीर । ठकुरेला कबीर के माध्यम से उनके करघे तक ही नहीं, करघे वालों तक पहुँचते हैं और उससे कपड़े की जगह एक ऐसा गीत बुनते है जो अपने समय को तार- तार करती दशा-दिशा की चीर-फाड़ करता है। यह पूरा गीत ठकुरेला के गीत-कवि का एक मानक सामने रखता है -
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया
काशी में
नंगों का बहुमत,
अब चादर की किसे जरूरत,
सिर धुन रहे कबीर
रूई का
धुनना छोड़ दिया
ऐसा मानना है कि सुनना बहुत अहम् होता है बोध-बात में लिपटने की अपेक्षा क्योंकि सुनने से गुनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है, सम्बन्धों का एक पुल बनता है लेकिन कान तो हारे थके आधुनिकता की चकाचौंध की गिरफ्त से निकल कर गाँव लौटते हैं तो वहाँ भी कुछ साबुत बचा नहीं मिलता है। एक संवादहीनता पसरी नज़र आती है और उनका अपना ढाई आखर अनसुना ही रह जाता है -
तन मन थका
गाँव-घर जाकर,
किसे सुनायें
ढाई आखर,
लोग बुत हुए
सच्ची बातें
सुनना छोड़ दिया।
लेकिन यह सुनना पूरी तरह शायद ठप नहीं है, वहाँ कुछ संवाद तो है लेकिन ढाई आखर वाला नहीं, वहाँ तो कपट भरे संवाद करती, विष-भरी हवाएं हैं, हर तरफ अंधेरे का ही राग है और संझा में चौखट पर दीप जलाने के संस्कार कहीं गुम हो गए हैं।
त्रिलोक सिंह ठकुरेला की गीत-कविताओं से होकर गुजरते हुए यह बात साफ हो जाती है कि वे किताब या अध्ययन कक्षों के कवि नहीं हैं, वे खेतोंखलिहानों, बाग-बगीचों, सड़कों- गलियारों पर दृष्टि रखने वाले एक सजग कवि हैं। आज बेटी-बहुएँ कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। रोज सुबह छपकर आने वाले अखबार ऐसी खबरों से भरे रहते हैं। उन्हें पढ़कर कोई भी संवेदनशील मन शान्त नहीं रह सकता फिर कवि और वह भी गीत का कवि तो और भी बेचैन हो उठता है। इसे बेटियों पर लिखे एक गीत से समझा जा सकता है। बेटियाँ, गाँवों की हों या सभ्य-सम्भ्रांत जनों वाले नगरों की, वे कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। यह वही देश है जहाँ एक अपहरण पर एक अलग संस्कृति को पोषित करने वाले देश की सत्ता, का मान भंजन ही नहीं होता बल्कि वह पूरी तरह नष्ट हो जाती है और एक नारी के अपमान के कारण महाभारत छिड़ जाता है जबकि हर दिन किसी न किसी निर्भया का शील भंग किया जाता है, उसे तेजाब से नहलाया जाता है और छोटी से बड़ी चीख तक खामोशी में बदल जाती है या कहें कि दब जाती है। ‘समय की पगडंडियों’पर चलते हुए रचनाकार के पाँव इधर भी आते हैं। एक गीत में ढल कर इसलिए वह उन्हें संभल कर घर से बाहर निकलने की सलाह देता है
बिटिया!
जरा संभल कर जाना,
लोग छिपायें रहते खंजर।
गाँव, नगर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते,
कहीं-कहीं
तेजाब बरसता
नाग कहीं पर पलते।
इसके पीछे कुछ कारक स्थितियों की ओर कवि ने संकेत किया है
युवा वृक्ष
काँटे वाले हैं
करते हैं मन भाया
ठूँठ हो गए
विटप पुराने
मिले न शीतल छाया।
त्रिलोक सिंह ठकुरेला बिम्बों-प्रतीकों के कवि हैं इसलिए युवा वृक्ष और पुराने विटप के माध्यम से वे नई और पुरानी पीढ़ी की ओर संकेत करते हैं। बैरिन धूप का सपनों को जलाना भी एक प्रतीक ही है जो दामिनी, मुन्नी, गुड़िया की व्यथा-कथा की चीख़ को शब्दाषित करता है।
वैश्विक अर्थतंत्र और उदारीकरण की दुरभि-संधि अपनी अमानवीयताएँ गाँव की संस्कृति और शहरी सोच को विकृतियों से भर रही है। कवि ठकुरेला इसे बखूबी जानते-पहिचानते हैं तभी तो साफ-साफ शब्दों में कहते हैं -
गूंगा परिवेश हुआ
गाँव हुआ बहरा
संस्कृति के द्वार पर
धनिकों का पहरा
वणिकों के संधि-पत्र
श्रमिक के अंगूठे।
इस संग्रह में कागजी घोड़े, गाँव तरसते हैं, राज महल के आगे, रुख हवाओं के, दिन बहुरेंगे आदि कई गीत कविताएं हैं जो कवि की सृजनसम्भावना के प्रति विश्वास जगाती हैं। आत्म रुदन और आत्मालाप जैसी रचनाएँ तो वे लोग लिख रहे हैं, जो आज भी मानसिक रूप से उत्तरमध्यकालीन हिन्दी साहित्य के दरबारी कवियों की परम्परा के हैं और मानसिक विलास की तुष्टि के लिए कविताएँ लिख रहे हैं, फिर वह उनकी अपनी तुष्टि के लिए हो या अपने प्रत्यक्ष या परोक्ष पोषक किसी राजा-महाराजा अथवा धन कुबेर की तुष्टि के लिए । ठकुरेला आप बीती के नहीं, कबीर की ही तरह जग बीती के कवि हैं। उन्हें वर्तमान समय की अमानवीय स्थितियाँ बार-बार विचलित करती हैं, लेकिन वे जिजीविषा के कवि हैं, आत्म विश्वास के कवि हैं, जिन्दगी पर यकीन रखने वाले कवि हैं। इसीलिए लिखते हैं -
मन के द्वारे पर
खुशियों के
हरसिंगार रखो।
जीवन की ऋतुएँ बदलेंगी
दिन फिर जाएंगे
और अचानक आतप वाले
मौसम आयेंगे
सम्बन्धों की
इस गठरी में
थोड़ा प्यार रखो
इस गीत के दूसरे चरण में जो एक विश्वासपूर्ण आत्मिक परामर्श झलकता है, वह विचारणीय है -
सरल नहीं जीवन का यह पथ
मिल कर काटेंगे
हम अपना पाथेय और सुख-दुख
सब बाँटेंगे
लौटा देना प्यार
फिर कभी
अभी उधार रखो।
यह प्यार की उधारी दाम्पत्य में ही सम्भव है और उसी से जीवन संघर्ष की ऊर्जा भी मिलती है। इस संग्रह में कई गीत-कविताएँ हैं, जो जीवन के कोमल प्रसंगों से उपजी हैं। इस तरह यह संग्रह निजी होते हुए भी जन-जन का बन जाता है। ये रचनाएँ निज बीती से जग बीती तक फैली हैं जिनमें बिम्बों-प्रतीकों, मिथकों की खूबसूरत लड़ी मिलती है । ठकुरेला अभियन्ता हैं लेकिन अपनी रचनाओं से वे जन-जन के बीच एक सम्वाद का पुल बनाना चाहते है। इसीलिए वे संग्रह के अन्तिम गीत में कहते हैं
रंग भरेंगे
जन-जन मन में
गीत हमारे।
***
फिर लौटेगा
समय चहकता
गाँव-गाँव में
दस्तक देंगे
सबके घर पर
वैभव सारे।
और कवि की इस सद् आशा के साथ मुझे विश्वास है कि ‘समय की पगडंडियों पर’पाठक के चरण चलते हुए अपने समय को पढ़ेंगे, सुनेंगे और गुनेंगे । बयासी गीतों वाले इस संग्रह में ‘डरी हुई सीता’ मिलेगी तो खुशियों के गंधर्व’ भी हैं। ‘कागजी घोड़े’ जीवन-जगत के सत्य को उजागर करते हैं तो प्रेम पाती’, ‘मन वृन्दावन’की सरसराहट भरी छुअन भी है।
यह संग्रह अपने सारे गीतों में जीवन-संगीत की अलग-अलग ध्वनियों में पिरोया एक महागान है। शुभ कामनाओं सहित।
- माहेश्वर तिवारी
‘हरसिंगार’ ब/म-48, नवीन नगर,
मुरादाबाद - 244 001
जिनकी कृपा कटाक्ष से, प्रज्ञा, बुद्धि, विचार ।
शब्द, गीत, संगीत, स्वर, विद्या का अधिकार ।।
विद्या का अधिकार, ज्ञान, विज्ञान, प्रेम-रस ।
हर्ष, मान, सम्मान, सम्पदा जग की सरबस ।
‘ठकुरेला’ समृद्धि, दया से मिलती इनकी ।
मंगल सभी सदैव, शारदा प्रिय हैं जिनकी ।।
हरसिंगार रखो - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मन के द्वारे पर
खुशियों के
हरसिंगार रखो।
जीवन की ऋतुएं बदलेंगी
दिन फिर जायेंगे,
और अचानक आतप वाले
मौसम आयेंगे,
सम्बन्धों की
इस गठरी में
थोड़ा प्यार रखो।
सरल नहीं जीवन का यह पथ
मिलकर काटेंगे,
हम अपना पाथेय और सुख दुख
सब बाँटेंगे,
लौटा देना प्यार
फिर कभी
अभी उधार रखो।
करघा व्यर्थ हुआ - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया
काशी में
नंगों का बहुमत,
अब चादर की किसे जरूरत,
सिर धुन रहे कबीर,
रूई का
धुनना छोड़ दिया
धुंध भरे दिन,
काली रातें,
पहले जैसी
रहीं न बातें,
लोग काँच पर मोहित
मोती
चुनना छोड़ दिया
तन मन थका
गाँव घर जाकर,
किसे सुनायें
ढाई आखर,
लोग बुत हुए
सच्ची बातें
सुनना छोड़ दिया
अर्थ वृक्ष - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
अर्थ वृक्ष की
अभिलाषा में
हम बोते विष-बीज।
गोबर, गाय,
प्रकृति की पूजा
हमने सब बिसराये,
यंत्र, रसायन,
कृमिहर पाकर
मन ही मन बौराये,
चाँदी के
टुकड़ों के आगे
यह जीवन क्या चीज़।
कपट भरे संवाद
कर रहीं
ये विष भरी हवायें,
रोगों की
सौगात बाँटती
हर दिन छद्म दवायें,
अपने पैर
कुल्हाड़ी अपनी
रहे स्वयं ही छीज।
गुमसुम और उदास
हो गये
संध्या और सवेरे,
कदम कदम पर
साथ निभाते हैं
घनघोर अंधेरे,
चौखट पर
हम दीप जलायें
इतनी नहीं तमीज।
मन का उपवन - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
तुम आये तो
मन का उपवन
महक गया।
उड़ने लगीं
तितलियाँ सुख की,
खिले कमल,
पाकर तुम्हें
थिरकता रहता
मन चंचल,
प्रेम-गंध पा
मुग्ध भ्रमर - मन
बहक गया।
कुछ खुशबू
कुछ रंग प्यार के,
गये बरस,
सारा जीवन
मधुमय होकर
हुआ सरस,
सुर्ख गुलाब
खिला चेहरे पर
दहक गया।
प्रिये, तुम्हारा ऋणी रहँगा - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
युगों-युगों तक मैं तन-मन से प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
तुम जीवन-सरिता सी कल-कल,
सरसाती मेरा मन पल-पल,
बिना तुम्हारे कितना बेकल ?
साथ तुम्हारी ही लहरों के, जीवन भर उन्मुक्त बहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
मिलते पथ-वन-शिला-गुफ़ायें,
जगतीं मन में नव-आशायें,
दृश्य भले मन को ललचायें,
बँधा तुम्हारी प्रेम-डोर से, जित जाओगी, राह गहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
माना, हो जाती है खट-पट,
किन्तु सुलह भी होती झटपट,
फिर आगे बढ़ते पग खट-खट,
इसे प्यार के लिये ज़रूरी, एक नया आयाम कहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
जीवन की बगिया में हिल-मिल,
महकेंगे हम साथ-साथ खिल,
दूर कहाँ कोई भी मंज़िल ?
कहाँ नियत कुछ भी जीवन में ? सुख-दुख मिल कर साथ सहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
बिटिया - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बिटिया
जरा संभल कर जाना,
लोग छिपाये रहते खंजर।
गाँव, नगर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते,
कहीं कहीं
तेज़ाब बरसता,
नाग कहीं पर पलते,
शेष नहीं अब
गंध प्रेम की,
भावों की माटी है बंजर।
युवा वृक्ष
काँटे वाले हैं
करते हैं मनभाया,
ठूंठ हो गए
विटप पुराने
मिले न शीतल छाया,
बैरिन धूप
जलाती सपने,
कब सोचा था ऐसा मंजर।
तोड़ चुकीं दम
कई दामिनी
भरी भीड़ के आगे,
मुन्नी, गुड़िया
हुईं लापता,
परिजन हुए अभागे,
हारी पुलिस ,
न वो मिल पायीं,
मिले न अब तक उनके पंजर।
सम्भावना - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आइये,
सम्भावना का घर बनायें।
विखण्डित होते घड़ों को
कौन सा पनघट भरेगा,
नाव में सौ छेद हों
असहाय नाविक क्या करेगा,
बेसुरे गीतों को
कब तक गुनगुनायें ?
साँप जाने पर
लकीरें पीट कर भी क्या मिला,
अँधता समझी न अब तक
आँसुओं का सिलसिला,
अर्थ खोती रस्म को
तीली दिखायें।
ठूंठ होती जिन्दगी से
फिर नये अंकुर उठेंगे,
भोर होगी, नीड़ से
नवचेतना के सुर उठेंगे।
नयी आशाओं के कोमल पर उगायें।
प्रिये ! मैं गाता रहूँगा - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
यदि इशारे हों तुम्हारे, प्रिये ! मैं गाता रहूँगा।
प्रेम-पथ का पथिक हूँ मैं,
प्रेम हो साकार तुम,
मुझ अकिंचन को हमेशा,
बाँटती हो प्यार तुम,
पात्र लेकर रिक्त, द्वारे नित्य ही आता रहूँगा।
सरस है जीवन तुम्हीं से,
हर दिवस मधुमास है,
रात का हर पल, तुम्हारे-
प्रेम का ही रास है,
वेणु का हर सुर मधुरतम तुम्हीं से पाता रहूँगा।
खिलेंगे जब, तक तुम्हारे-
युगल नयनों में कमल,
तभी तक सुखमय रहेंगे,
जिन्दगी के चार पल,
मैं मधुप हर पंखुडी पर बैठ मुस्काता रहूँगा।
प्रेम से जीवन मेरा
तुमने संवारा जिस तरह,
मैं तुम्हें प्रतिदान इसका
दे सकूँगा किस तरह
नित्य बलिहारी तुम्हारे प्रेम पर जाता रहूँगा।
कड़ियाँ फिर से जोड़ें - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलो वर्जनाओं को तोड़ें ।
जाति, धर्म, भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बँटे हुए हैं,
व्यर्थ फँसे हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं,
आओ,
बिखरे संवादों की
कड़ियाँ-कड़ियाँ फिर से जोड़ें ।
ठकुर सुहाती
करते-करते
अब तो कितने ही युग बीते,
शून्य मिली
उपलब्धि हमारी
सब अनुभव रीते के रीते,
हम यथार्थ से
जुड़े-जुड़े ही
आडंबर के कान मरोड़ें ।
मिट्टी के दीप - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
गुमसुम से बैठ गये
मिट्टी के दीप,
दीप - पर्व
बिजली से सांठ - गाँठ कर रहे।
सम्पत को याद आये
चाक वाले दिन,
दौड़ ये विकास की
चुभो रही है पिन,
वन्ध्या सी हो गयीं
ये मन की सीपियाँ,
स्वाति बूंद स्वप्न हुई
दर्द ही उभर रहे।
सहसा चौंका दिया
अभावों ने आके,
रात दिन बीत रहे
कर कर के फाके,
हर घड़ी डराते है
भूख के पटाखे,
कहने को ज़िंदा हैं,
किन्तु नित्य मर रहे।
गूंगा परिवेश हुआ
गाँव हुआ बहरा,
संस्कृति के द्वार पर
धनिकों का पहरा,
वणिकों के संधि-पत्र
श्रमिक के अँगूठे,
जीवन की नदिया में
प्यास लिये डर रहे।
सुनो ! कबीर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सुनो, कबीर
बचाकर रखना
अपनी पोथी।
सरल नहीं,
गंगा के तट पर
बातें कहना,
घड़ियालों ने
मानव बनकर
सीखा रहना,
हित की बात
जहर सी लगती,
लगती थोथी।
बाहर कुछ,
अन्दर से कुछ हैं
दुनिया वाले,
उजले लोग,
मखमली कपड़े,
दिल हैं काले,
सब ने रखी
ताक पर जाकर
गरिमा जो थी।
कागजी घोड़े - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
थके कागजी घोड़े
लेकिन कलुआ नहीं मिला।
सुरा
पान, पकवान
सभी से की खातिरदारी,
आते जाते
रकम भेंट की
पकड़ायी भारी,
फिर भी रही शिकायत
थोड़ा हलुआ नहीं मिला।
अनसुलगे
चूल्हों की बस्ती
भूखे लोग मिले
मानचित्र पर, किन्तु
हवा के
निर्मित हुए किले
दर्ज हुए अभिलेख
गाँव में ठलुआ नहीं मिला।
हुआ सयाने लोगों द्वारा
अनुसंधान हुआ,
सभा
और नारेबाजी में
उलझ गया नथुआ,
पेट पीठ में मिला
भीड़ में तलुआ नहीं मिला।
गाँव तरसते हैं - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सुविधाओं के लिए अभी भी गाँव तरसते हैं।
सब कहते इस लोकतन्त्र में
शासन तेरा है,
फिर भी ‘होरी' की कुटिया में
घना अंधेरा है,
अभी उजाले महाजनों के घर में बसते हैं।
अभी व्यवस्था
दुःशासन को पाले पोसे है,
अभी द्रौपदी की लज्जा
भगवान-भरोसे है,
अपमानों के दंश अभी सीता को डसते हैं।
फसल मुनाफाखोर खा गये
केवल कर्ज बचा,
श्रम में घुलती गयी जिन्दगी
बढ़ता मर्ज बचा,
कृषक सूद के इन्द्रजाल में अब भी फँसते हैं।
रोजी-रोटी की खातिर
वह अब तक आकुल है,
युवा बहिन का मन
घर की हालत से व्याकुल है,
वृद्ध पिता-माता के रह-रह नेत्र बरसते हैं।
कल्पना की पतंगें काफी उड़ चुकीं, मीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।
है अगर अवरुद्ध पथ, तो दूसरे पथ पर मुड़ो,
बोल दो, मन विहग से तुम बेझिझक होकर उड़ो,
और उड़ते ही रहो, जब तक न मिलती जीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।
जगत में पुरुषार्थ रूपी पुष्प श्रम से ही खिला है,
कहो, जग में, ठहर कर किस नदी को सागर मिला है,
सीख देता यह नदी का थिरकता संगीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।
बहुत सी सापेक्ष गतियां, बहुत कम हैं, यह सही है
पर, वृहद ब्रह्माण्ड में स्थिर कहीं कुछ भी नहीं है,
हर दिशा गाती रही है, सिर्फ गति के गीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ॥
विजय करती धीरता और वीरता का ही वरण,
मंजिलें उनको मिली, पथ में बढ़े जिनके चरण,
कर्मवीरों ने चखा है, प्राप्ति का नवनीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।
विजय का उद्घोष करके तुम विजय पथ पर बढ़ो,
सफलता के शिखर पर निर्द्वन्द होकर तुम चढ़ो,
कभी विचलित कर न पायें घाम, वर्षा, शीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।
खुशियों के गंधर्व - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
खुशियों के गंधर्व
द्वार द्वार नाचे।
प्राची से
झाँक उठे
किरणों के दल,
नीड़ों में
चहक उठे
आशा के पल,
मन ने उड़ान भरी
स्वप्न हुए साँचे।
फूल
और कलियों से
करके अनुबंध,
शीतल बयार
झूम
बाँट रही गंध,
पगलाए भ्रमरों ने
प्रेम-ग्रंथ बाँचे।
प्रेम पाती - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जीवन में रस छलकाती है, प्रिये ! प्रेम-पाती ।
तुम मिलतीं तो जैसे सुख की बारिश आ जाती ।।
प्रिये ! मिलन की शुभ वेला में कण-कण मुस्काता,
चार हुईं आँखों से बरबस नेह बरस जाता,
मन-आँगन का हर कोना आलोकित हो जाता,
स्वयं दीप बन जाता मैं, यदि बनतीं तुम बाती ।
मधु साने से शब्द तुम्हारे, जीवन-अर्थ बने,
प्रेम-पाश की जंजीरों में और समर्थ बने,
आशाओं की डोर, रोज़ बल प्राणों को देती,
सम्बल बन कर रहती तेरी यादों की थाती ।
जिसने आकर कानों में मधु-वेणु बजाई है,
वह मदमाती पवन तुम्हीं से मिलकर आई है,
मन की वीणा के तारों को झंकृत सा करती,
नई रागिनी छेड़ रही है, मन में इठलाती ।
भाव-अभावों की भी अपनी ही मजबूरी है,
कोई भी क्या करे, हाय ! विधि-निर्मित दूरी है,
रोम-रोम हर्षित हो जाता, सपने जी जाते,
जब तेरी आँखों की भाषा गीत नये गाती ।
तुम मिलतीं तो जैसे सुख की बारिश आ जाती।
सुख के फूल खिलाने आया - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जो तन मन से टूट चुके हैं, उनको पुनः जिलाने आया ।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया।
मुझको नहीं शिकायत जग से, जितना मिला सुखी हूँ पाकर,
आ जाते हैं अगर कभी ग़म, करता बिदा उन्हें मैं गाकर,
सबको खुशियाँ बाँट रहा हूँ, उद्बोधन के गीत सुनाकर,
जिनके कण्ठ प्यास से आकुल, उनको अमी पिलाने आया।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया ।।
नहीं हाथ पर हाथ धरे मैं, श्रम से रहा पुराना नाता,
अवचेतन में संचित है यह, जो श्रम करता वह फल पाता,
बिन पुरुषार्थ भाग्य भी जग में, कहाँ, कभी कुछ देकर जाता,
टूटे नींद, जगें सब फिर से, मैं ऐसा कुछ गाने आया ।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया।।
सीमित नहीं स्वार्थ अपने तक, पर-पीड़ा का भान मुझे हैं,
जो ग़म के सागर में डूबे, उनकी भी पहचान मुझे है,
जीयें सभी उल्लसित जीवन, ऐसी, चाह महान मुझे है,
यह सारा जग सबका ही गृह, सबको यही सिखाने आया।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया ।।
सभी जानते शक्ति मिलन की, एक-एक ग्यारह हो जाते,
अगर संगठन हो आपस में, कभी न कोई झंझट आते,
जीवन का यह सफर सुहाना, कट जाता है हँसते-गाते,
सीखें सभी मिलन की भाषा, सबको यहाँ मिलाने आया।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया ।।
जीवन का इतना ही क्रम है, पहले खिलता, फिर मुरझाता,
यह संसार सराय सरीखा, कौन हमेशा ही रह पाता ?
नश्वर देह भले मिट जाये, रहता अमर-प्रेम का नाता,
इस जीवन का सार प्रेम ही, इतना याद दिलाने आया ।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया।
जो तन मन से टूट चुके हैं, उनको पुनः जिलाने आया ।
मैं सब के मन की बगिया में सुख के फूल खिलाने आया ।
राजमहल के आगे - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आँखें फाड़े
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे।
गये बरस
आशायें बोते,
थका न राजा
सोते सोते,
वह अपने
सपनों में खोया,
हारे थके अभागे।
शायद राजा जागे॥
वह समर्थ
उसकी मनमानी,
कौन करेगा
आना कानी,
जो विरोध में बोले,
उस पर
सौ सौ गोले दागे।
शायद राजा जागे॥
किसे पड़ी है
कौन जगाये,
जो बोले
संकट में आये,
सब आँखों पर
पट्टी बाँधे,
स्वार्थ सिद्धि में लागे।
शायद राजा जागे॥
रुख हवाओं का - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
रुख हवाओं का
किधर है, क्या कहें
शब्द साधक
अर्थ के पीछे पड़े हैं
दृष्टियों के होंठ पर
ताले जड़े हैं
मन तनावों का
हमसफर है, क्या कहें
तुलसियों के साथ है
भारी सियासत,
कैक्टस को मिल गये
फिर से अधिक मत,
यह बद्दुआओं का
असर है, क्या कहें
हर कोई अब एक ही
ज़िद पर अड़ा है,
रंगभूमि में वही
सबसे बड़ा है,
होड़ दावों की
जबर है, क्या कहें
नयी पहल - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
उखड़ रहे
आँगन आँगन से
तुलसी दल।
फूल कागजी
बैठक बैठक में
मुसकाते हैं,
मूल्य पुराने
नित्य अपरिचित
होते जाते हैं,
निर्मित हुए
अचानक छल के
रंग महल।
परम्पराएँ
नूतनता की राह
बुहार रहीं,
हो उतावली
चौबारा, घर-द्वार
सुधार रहीं,
पहुँचायेगी
किस दुनिया तक
नयी पहल।
दिन बहुरेंगे - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सुनो,
पेंशन शुरू हो रही
अम्मा जी के दिन बहुरेंगे।
रखने लगी
खयाल अधिक ही
बड़ी बहूरानी,
सुबह शाम
छोटी रख जाती
सिरहाने पानी,
बेटों ने भी
अब यह सोचा
माँ है, मान अधिक देंगे।
पोता कहता
पडो न अम्मां
किसी झमेले में,
अब की बार
तुम्हें लेकर
जाऊँगा मेले में,
कई खिलौने
घर लायेंगे,
दोनों कुछ खा पी लेंगे।
उधर फोन पर
उनकी बेटी
जैसे झूल गयी,
बोली- अम्मां!
क्या अपनी बेटी को
भूल गयी,
लड़कों को तो
सब देते है
क्या बेटी को कुछ समझेंगे।
बगिया का मौसम - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बदल गया
बगिया का मौसम,
चुप रहना।
गया बसंत,
आ गया पतझर,
दिन बदले,
कोयल मौन,
और सब सहमे,
पवन जले,
मुश्किल हुआ
दर्द उपवन का
अब सहना।
आकर गिद्ध
बसे उपवन में
हुआ गजब,
जुटे सियार
रात भर करते
नाटक अब,
अब किसको
आसान रह गया
सच कहना।
जिंदगी उलझन भरी है - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जिंदगी उलझन भरी है, क्या करूँ !
गंध से आकृष्ट होकर
प्रेम भ्रमरों ने लुटाया,
फूल के सान्निध्य में भी
कंटकों का दंश पाया,
बहुत ग़म हैं, आँख नम हैं,
पीर रग-रग में भरी है, क्या करूँ !
मन बहुत बेचैन,
मायावी महल है,
ड्योढ़ियों में साजिशें हैं,
छद्म-छल है,
हर झरोखा, एक धोखा
हर तरफ जादूगरी है, क्या करूँ !
दिख रहे सम्बन्ध
निज विश्वास खोते,
भोर परिलक्षित हुई
आँखें भिगोते,
रिक्त गलियाँ, दग्ध कलियाँ,
आज मानवता डरी है, क्या करूँ !
बिना तुम्हारे - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बिना तुम्हारे कैसा फागुन, कैसी होली रे ।
बिना तुम्हारे जरा न भायी कोकिल बोली रे ।।
रस छलकाती यह फागुन ऋतु
फीकी फीकी है,
हर नव कोंपल बिना तुम्हारे
आग सरीखी है,
कली-कली इतराती जैसे करे ठिठोली रे ।
मधुवन में भ्रमरों के जब से
मंगलाचार हुए,
तुम क्या जानो, नाजुक दिल पर
कितने वार हुए,
आँखों की राहों से मन की पीड़ा डोली रे ।
यह अनंग के पुष्प बाण
हँस हँस कर सह लेता,
थक जाता वह स्वयं, नृत्य को ऐसी गति देता,
यदि देतीं तुम साथ बनी मेरी हमजोली रे ।
मन-सागर में उठती रहती
आशा की लहरें,
तट के अश्व बने फिरते
यह सपने क्यों ठहरें,
साथ सजायेंगे मिल कर हम तुम रंगोली रे ।
बिना तुम्हारे कैसा फागुन, कैसी होली रे ।।
लोग मिले पगलाते - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
हुई विषैली हवा
आजकल।
असहज जीवन
साँसें लेना
भारी लगता है,
हुआ संक्रमित
तन भर अब
बीमारी लगता है,
हुई बेअसर दवा
आजकल।
चाट रही दीमक
रिश्तों को
दरक रहे नाते,
चाँदी के टुकड़ों के पीछे
लोग मिले
पगलाते,
स्वार्थ हुये हैं सवा
आजकल।
चूर हुआ
विश्वास
समय ने जब से लूटा,
हर घर आँगन में
नफरत का
अंकुर फूटा,
जीवन जलता तवा
आजकल।
सौगात - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सखी, भेज दें उनको रक्षाबन्धन पर सौगात ।
मातृभूमि की रक्षा में जो लगे हुए दिन रात ॥
देश-प्रेम-ज्योति से दर्पित,
सदा राष्ट्र के लिए समर्पित,
सब कुछ मातृभूमि हित अर्पित,
जिनके चिन्तन में न राष्ट्र-हित सिवा दूसरी बात ।
सखी, भेज दें उनको रक्षाबन्धन पर सौगात ।।
अरमानों की बलि चढ़ाकर,
प्रहरी हैं सीमा पर जाकर,
धन्य मातृ-भू जिनको पाकर,
आतुर जन्म-भूमि की खातिर सहने को प्रतिघात ।
सखी, भेज दें उनको रक्षाबन्धन पर सौगात ॥
उनसे ही अस्तित्व हमारे,
बचे हुए हैं साँझ सकारे,
भला, क्यों न हों हमको प्यारे,
हरदम रहें गर्व से फूली पाकर ऐसे तात ।
सखी, भेज दें उनको रक्षाबन्धन पर सौगात ।।
सारा गांव खड़ा - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
रामरती के
घर के आगे
सारा गांव खड़ा।
उम्र गयी
पर गया न घर से
दुःखदायी टोटा,
नौ दो ग्यारह हुए
अन्ततः
थाली और लोटा,
एकाकीपन
झेल रहा है
कोने रखा घड़ा।
कभी नमक से
कभी अलोनी
जैसी थी खा ली,
पर भरपेट मिली
जीवन भर
मुखिया की गाली,
कौन भला
उसके मुँह लगता
वह लम्बा तगड़ा।
खून पसीना
एक कर दिये
जीवन भर तरसी,
उसके आँगन
सुख की बदली
कभी नहीं बरसी,
क्रूर काल का
कठिन हथौड़ा
सिर पर आज पड़ा।
मन - वृंदावन - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बदल गया
मन का वृंदावन
मनमोहन।
करते नहीं
आजकल सपने
अभिनन्दन,
बढ़ती रही
पीर दुःखदायक
हुई सघन,
नयनों का ही
रात, दिवस भर
अब दोहन।
नहीं झूमते
मुरली धुन पर
कभी चरण,
होता रहता
सुखमय क्षण का
चीरहरण,
नहीं रहा है जीवन पथ पर
कुछ सोहन।
बदलते मौसम - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बदले बदले से लगते हैं
उत्सव के मौसम।
आई शरद
शक्ति पूजा की
जगह जगह चर्चा,
पूजा-अर्चन, दीपमालिका
कितना ही खर्चा,
किन्तु अहिल्या पाषाणी सी,
क्रोध भरे गौतम।
सिर्फ जलाये गये
हर जगह कागज के पुतले,
अब भी देव डरे सहमे हैं
रावण-राज चले,
वन में राम, बद्ध है सीता,
विवश संत संगम।
इस पिशाचनी महंगाई की
कब तक घात सहें,
भूखी नंगी दीवाली की
किस से व्यथा कहें,
पर्वत बनी समस्याएं हैं,
तिनके जैसे हम।
शहर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
भैया जी के
स्वप्नलोक में
आता रहा शहर।
शीशे जैसी
चिकनी सड़कें
आवाजाही
चहल पहल,
दुल्हन जैसी
सजी दुकानें
नभ को छूते
रंग महल,
नये नये रूपों में
मन को
भाता रहा शहर।
रूठी बैठी
सुख सुविधाएं
टोटे ने
अपनाया घर,
आशाओं की
गठरी लेकर
भैया पहुँचे
बड़े शहर,
उम्मीदों के
गीत सुहाने
गाता रहा शहर
अपनेपन को
कितना खोजा
व्यर्थ लगाये
कितने फेरे,
गूंगी, बहरी
मानवता ही
मिली दौड़ती
साँझ सवेरे,
भरी भीड़ में
एकाकी पन
लाता रहा शहर।
ये सघन घन - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
ये सघन घन
डाकिये हैं
चिट्ठियाँ लाते।
तैरती मुस्कान
खेतों पर
हवा गाती,
बिरहणी
बेकल नदी
फिर प्राण पा जाती,
प्यास से व्याकुल
पपीहे
मुग्ध हो गाते।
शुष्क मन वाली
धरित्री
उर्वरा होती,
छप्परों से भी
टपकते
कीमती मोती,
कृषक स्वप्नों के
सुनहरे पंख
उग आते।
ला सुखद संदेश
मोरों को नचा जाते,
जिस गली जाते
वहाँ
उत्सव नये आते,
जोड़ लेते
सहज ही
अपनत्व के नाते।
झूम झूम कर मन गाता है - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
देख-देख जग की सुन्दरता मुझ को बहुत प्यार आता है ।
बहने लगती जब पुरवाई, झूम-झूम कर मन गाता है ॥
मन की कली-कली खिल जाती, खिलती जब उपवन की क्यारी,
रोम-रोम हो जाता हर्षित देख चाँदनी प्यारी-प्यारी,
उगता सूरज प्रतिदिन मुझ में, नव आशाएं भर जाता है ।
बहने लगती जब पुरवाई, झूम-झूम कर मन गाता है ॥
मीठे बोल सुनाती कोयल, भर जाता मैं भी मिठास से,
पीउ-पीउ करता जब पपीहा, बँध जाता हूँ प्रेम-पाश से,
शुक-पिक मिलन सिखाता मुझ को सब से बड़ा प्रेम नाता है।
बहने लगती जब पुरवाई, झूम-झूम कर मन गाता है ॥
जब घिरतीं घनघोर घटाएं, छटा सँवरती कई गगन में,
रिमझिम-रिमझिम नन्हीं बूंदें, भरतीं स्वप्न सुनहरे मन में,
जब खेतों में मोर नाचते, स्वयं नृत्य करना भाता है ।
बहने लगती जब पुरवाई, झूम-झूम कर मन गाता है ॥
हरी घास के ओस-कणों पर मुझ को प्यार हमेशा आया,
झरने के संगीत-सुरों ने मेरा मन हर बार रिझाया,
नदियों का अल्हड़पन हरदम जीवन में खुशियाँ लाता है ।
बहने लगती जब पुरवाई, झूम-झूम कर मन गाता है ॥
कलरव करते नभ में उड़ते खग-कुल का अपना आकर्षण,
वह हिरणों का प्रणय-समर्पण कर जाता है सुख का वर्षण,
देख, शावकों की क्रीड़ाएं, सुख का सागर लहराता है ।
बहने लगती जब पुरवाई, झूम-झूम कर मन गाता है ।।
नयना चपल, अधर कलियों से, मुस्काती गालों की लाली,
कर लेते आकर्षित कंगना, ठग लेती पायल मतवाली,
भर जाती जीवन में खुशियाँ, कितना अपनापन आता है ।
बहने लगती जब पुरवाई, झूम-झूम कर मन गाता है ॥
देख-देख जग की सुन्दरता मुझ को बहुत प्यार आता है ।
बहने लगती जब पुरवाई, झूम-झूम कर मन गाता है ॥
नयी भोर आयी है, सपने सजाओ - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
नयी भोर आयी है, सपने सजाओ।
सुहाना समय है, अजी, जाग जाओ।।
मनोहर नज़ारा तुम्हारे लिए है,
यह संसार प्यारा तुम्हारे लिए है,
यह आकाश सारा तुम्हारे लिए है,
कि इतना उठो तुम बुलन्दी को पाओ।
सुहाना समय है, अजी, जाग जाओ।।
तुम्हारे लिए ये कुसुम खिल रहे हैं,
खुशी में ये तरुवर सभी हिल रहे हैं,
गगन और ज़मीं भी गले मिल रहे हैं,
कि तुम भी किसी को गले से लगाओ।
सुहाना समय है, अजी, जाग जाओ।।
तुम्हारे लिए है बहारों की मस्ती,
तुम्हारे लिए है ये जीवन्त बस्ती,
नदियों में इतराती इठलाती कश्ती,
मुश्किल हो कितनी, किनारा ही पाओ।
सुहाना समय है, अजी, जाग जाओ।।
जब कभी संवाद हो - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
शब्द के जंगल उगाकर
क्या करोगे
जब कभी संवाद हो
नवगीत जैसा हो।
वेदना के गीत गाकर
उम्र बीती,
आज तक भी प्रेम गागर
रही रीती,
समय की बहती नदी को
कौन रोके
हर जिया पल सरस हो
नवनीत जैसा हो।
राह में काँटे बिछाने
कौन आया,
कौन जिसने इस हवा को
बरगलाया,
फिर मलय को
बाँसुरी से खेलने
दो रुख प्रथाओं का
किसी मधुमीत जैसा हो।
जिन्दगी अभिशप्त जैसी - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
फिर किसी अभिशप्त जैसी
जिन्दगी होने लगी।
नाग जहरीले कई
बसने लगे है गाँव-घर,
कब निरापद रह सकी है
आजकल कोई डगर,
ओस इंगित कर रही है
रात भी रोने लगी।
संस्कृति लज्जित बहुत ही
मूल्य वनवासी हुए,
औपचारिकता बची
सम्बन्ध आभासी हुए,
बस मुखौटे बेबसी के
जिंदगी ढोने लगी।
विवश मन्दिर और गिरजे
मस्जिदें भी रो रही हैं,
हर तरफ बस मंत्रणाएँ
धर्म पर ही हो रही हैं,
नागफनियों की फसल
नव-सभ्यता बोने लगी।
बगिया के रखवाले - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
हर जड़ में
मट्ठा डाल रहे
बगिया के रखवाले।
सूखे वृक्ष,
लता मुरझाई,
चिड़िया अकुलायीं,
काग जुटे,
चीलों ने
अपनी यश गाथा गायीं,
काले विषधर
पाल रहे
बगिया के रखवाले।
यदा कदा आ जाते
कई कपोत
निशाने पर,
अक्सर खुली छूट
बधिकों के
आने जाने पर,
उल्टे फरमान
निकाल रहे
बगिया के रखवाले।
नहीं सुन रही
चीख पुकारें
अलसाई हाला,
अहंकार ने
मन के द्वारे
लटकाया ताला,
हर बात
हँसी में टाल रहे
बगिया के रखवाले।
संवादों के इंद्रजाल - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
संवादों के इंद्रजाल ने
सबको खूब छला।
संदर्भो को पीछे छोड़ा
नये प्रसंग बने,
मतलब के ताने-बाने के
हम भी अंग बने,
अनुबंधों की बैशाखी ले
जीवन विकल चला।
नैतिकता की चादर
सबके कंधों से ढलकी,
संबंधों की अधजल गगरी
पल पल पर छलकी,
यंत्रों सी जीवन चर्या में
सब अनुराग जला।
मृगतृष्णा के बदहवास पल
दिनभर दौड़ाते,
संध्या की बेला में बुद्धू
वापस घर आते,
रही व्यर्थ ही आँखमिचौनी
किसका हुआ भला।
बेला की गंध - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मेरी साँसों में अब तक
बेला की गंध भरी ।
मेरी यादों में रहती
वह अल्हड़ दोपहरी ।।
काले केशों पर आकर
बेला जब इतराता,
मन के कोने में
बहुरंगी सपने भर जाता,
कामदेव को रति लगती
सकुचाई डरी-डरी।
घूघट के पट सहसा
अपनी मर्यादा खोते,
प्रेम-देह की आशाओं के
पंख लगे होते,
दग्ध साँस से कुंदन बनती
अपनी प्रीति खरी।
मुग्ध - हास बोयें
बचपन के होंठों पर
मुग्ध - हास बोयें।
आओ, उनसे छीन लें
चिंता की आरियां,
सबको सुनायी दें
उनकी किलकारियां,
इंद्रधनुषी स्वप्नों को
वे फिर सजोयें।
बाल-सुलभ लीलाएं
पाती हों पोषण,
कोई न कर पाये
बच्चों का शोषण,
भावों-अभावों में
बच्चे न रोयें।
संस्कार, संस्कृति के दीपक जलायें,
सब मिलकर
खुशियों के नवगीत गायें,
विकृत विचारों को वे अब न ढोयें।
बचपन के होंठों पर मुग्ध - हास बोयें।
सुनो व्याघ्र - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सुनो व्याघ्र ! सोने के कंगन अपने पास रखो।
लोग तुम्हारी बातों के
दल दल में आ फँसते,
उनके भोलेपन पर
तुम चटखारे ले हँसते
दिल के काले ! तुम वाणी में भले मिठास रखो।
स्वर्णिम सपनों को दिखलाकर
बरसों बरस छला,
औरों का रस रक्त चूसकर
अपना किया भला,
तुमने यही हमेशा चाहा-खुद को खास रखो ।
देख तुम्हारे करतब
सबकी तंद्रा भाग गयी,
पहले जैसी बात नहीं,
अब जनता जाग गयी,
अब भी बातों में आ जायें, यह मत आस रखो।
शंखनाद के सुर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
अंधा राजा,
मौन सभासद,
दुःखी हस्तिनापुर।
जगह जगह पर
द्यूत-सभा के
मंडप सजे हुए,
और पाण्डवों के
चेहरों पर
बारह बजे हुए,
चीरहरण के लिए
दुःशासन
बार-बार आतुर।
भीष्म
उचित अनुचित की
गणना करना भूल रहे,
विवश प्रजा के सपने
बीच हवा में
झूल रहे,
छिपी कुटिलता
चट कर जाती
सच के नव अंकुर।
होगा
आने वाले कल में
एक महाभारत,
कुटिल कौरवों को
फिर करना होगा
क्षत विक्षत,
सुनने में आ रहे
अभी से
शंखनाद के सुर।
अभिशप्त यंत्रणा - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सता रही है
शीत-निशा सी
चढ़ी अजब मँहगाई।
मुश्किल हुआ जुटाना
घर के खातिर
दाना-पानी,
करें अधूरी
इच्छायें भी
पल-पल आना-कानी,
अब माँ को भी
घर रखने पर
झगड़े अपना भाई।
झेल रही
अभिशप्त यातना
कंचन जैसी काया,
बिना बुलाए
मेहमानों सा
दुःख मन में उग आया,
और वृद्ध-सी
हुई दोहरी
बेबस ही तरुणाई।
होंठ नहीं खुल सके
कथा सब
आँखों ने कह डाली,
रोज नये
प्रश्नों में उलझीं
कितनी रातें काली,
सूनी आँखें
नहीं देखती
अब सपने हरजाई।
त्रासदी का अंक - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जहाँ तक आँखें गड़ी
आतंक ही आतंक है।
लग रहा है आज फिर
वक्त की नीयत बुरी है,
होंठ पढ़ते मंत्र
लेकिन
हाथ में तीखी छुरी है,
और वधिक उन्माद में भी
हर कदम निःशंक है।
न्याय की आँखें बँधीं
अन्याय के उत्सव हुये हैं,
पूछ काँटों की हुयी
फूल सारे अनछुये हैं,
जिन्दगी के उपवनों में
विषधरों का डंक है।
मौन धारे नीति फिरती
वक्ष पर सह
घाव कितने,
हो गये बलिदान
कुत्सित भाव पर
सद्भाव कितने,
शायद समय के
भाल पर ही
त्रासदी का अंक है।
पार्थ - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
भीति के रथ पर चढ़े हो
किधर जाओगे?
राह में नदिया, नहर,
पर्वत, गहन सागर,
घात में बैठे हुए
नख, दाँत वाले डर,
अनिश्चय की आँधियों से
पार पाओगे?
निर्दयी आतंक
अपना जाल बुनता है,
मूक बधिरों के नगर में
कौन सुनता है,
धूर्तों को
दुःख भरी गाथा सुनाओगे?
ऐन्द्रजालिक क्षितिज में
हर ओर ही छल है,
इस अघोषित युद्ध में
बस धैर्य ही बल है,
पार्थ, अपनी शक्ति से
यश गीत गाओगे।
अभिलाषा का रथ - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सच कहना,
अभिलाषा का रथ
कब रुकता।
मिल जाते हैं
प्रियतम के सुख,
प्रेम-डगर, राजमहल,
सत्ता-सुख, सम्पति,
गाँव, नगर,
किन्तु हिसाब
आज तक मन का
कब चुकता।
रहा भागता
तिर्यक पथ पर
पागल-मन,
कम ही रहा
बहुत पाकर भी
जीवन-धन,
झुकता तन,
ये अहंकार शठ
कब झुकता।
प्यास नदी की - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
किसने देखी
कल कल ध्वनि में
प्यास नदी की।
आया पथिक
अंजुरी भरकर
प्यास बुझाई,
चलता बना
स्वयं का घट भर,
हे हरजाई,
वापिस गया
भूल अमृत फल
खूब बदी की।
सभ्य हुए तो
व्यापारी बनकर
सब हरसे,
किसने सुनी
सृष्टि की धड़कन
ताने फरसे,
लिखने लगे
कहानी मिलकर
क्षुब्ध सदी की।
प्रत्यय की बदनामी - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
भोली संज्ञाएँ तो बस
अब सर्वनाम की अनुगामी हैं।
कभी मोल
और कभी आकलन
करती रही शब्द की मण्डी
चलती रहती है
बस बेसुध बैलों की
होकर पगडण्डी,
नई राह की चाह लिये
पर अर्थहीन हैं, बेनामी हैं।
छली व्याकरण
के युग बीते
अब तक बहुत छलावे देखे,
कभी प्रलोभन
कभी यंत्रणा
पग-पग पर बहकावे देखे,
सारा गणित उलझ बैठा है
हाथ लगी बस नाकामी है।
मर्यादा के
परदे में ही
शायद एक सुनहरा कल हो,
फिर से नव अनुसंधानों में
संवादों की
नई फसल हो,
नव-विसर्ग के इन्तजार तक
हर प्रत्यय की बदनामी है।
मौसम की मनमानी - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
राख जम चुकी
अंगारों पर
मौसम की मनमानी है
तेज चल रही
सर्द हवा में
बन्द खिड़कियाँ ऊब रही हैं,
असमंजस में
देह दोहरी
आशंका में डूब रही हैं,
पैबन्दों में
फँसी रजाई अब भी
वही पुरानी है
पसर गया है
मौन हर तरफ
बैठे हैं सब खोये-खोये,
सबके भीतर
दर्द छुपा है
कौन कहाँ तक किससे रोये,
आधी रात
धूप की आशा
बात बड़ी बचकानी है
सूरज आने में
देरी है
रात काट पाना है मुश्किल,
हॉफ चुके हैं
दम पंजों के
बहुत दूर है आगे मंजिल,
उम्र थक चुकी
काँधे बोझिल
ठहरी हुयी कहानी है
खाली घट - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
रहा खोजता
मन अपनापन
जीवन भर।
मृग तृष्णा ने
मरु-भूमि में खोजे
सर, सागर,
जिधर गया
खाली ही घट था या
टूटी गागर,
मिले कुंज में
घात लगाये बैठे
कितने डर।
कई बस्तियां
छान छान करके
इतना पाया,
उतर चुकी
सब के ही भीतर
भोगों की माया,
जोड़ तोड़ में
उलझे पाये सब
बस्ती के घर।
मेरा जीवन - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मेरा जीवन
सुख - दुःख पूरित
अंक गणित ।
और और की
सघन कामना में
जीवन बीता,
आखिर मिला
मुझे जीवन-घट
रीता ही रीता,
किन्तु खड़ा था
बड़ा अकड़कर
मन - गर्वित।
मैंने समझा
मन - चौखट पर
सुख बरसा,
दुख ही मिला
अचानक मुझसे,
मन तरसा,
सब नाते थे
मतलब में रत,
चंचल चित।
माँ के अनगिन रूप - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
जग में परिलक्षित होते हैं
माँ के अनगिन रूप।
माँ जीवन की भोर सुहानी
माँ जाड़े की धूप।
लाड़-प्यार से माँ
बच्चों की झोली भर देती,
झाड़-फूंक करके
सारी बाधाएँ हर लेती,
पा सान्निध्य प्यास मिट जाती
माँ वह सुख का कूप ।
माँ जीवन का मधुर गीत
माँ गंगा सी निर्मल,
आशाओं के द्वार खोलता
माता का आँचल,
समय-समय पर ढल जाती माँ
बच्चों के अनुरूप।
जग में परिलक्षित होते हैं
माँ के अनगिन रूप ।।
गाँव - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
पहले जैसा
प्रेम-गंध से भरा
अभी भी गाँव।
रिश्ते नातों में
अब तक बाकी है
अपनापन,
बरस रहे
हर ड्योढ़ी - आँगन
सुख-सावन,
भरी धूप में
सुखमय लगती
पीपल छाँव।
सुख दुःख में
सम्मिलित होकर
जीते जीवन,
मानवता ही
सबसे बढ़कर
जीवन - धन,
बिछा न पायी
मलिन कुटिलता
अपने दाँव।
सोया शहर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
भाँग खाकर
नींद के आगोश में
खोया शहर।
हर तरफ
दहशत उगाती
रात आकर,
पतित मन
छल-छद्म करता
मुस्कराकर,
और सहसा
घोल देता हवा में
तीखा जहर।
सिकुड़ जाती
आपसी सम्बन्ध की
पतली गली,
नजर आती
देह भी विश्वास की
झुलसी, जली,
प्रकट होती
मानवों के बीच में
चौड़ी नहर।
भ्रम उजालों का - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
छद्मवेशी आवरण में
हर तरफ
बहुरूपिये हैं
हर दिशा ओझल हुई सी
हर तरफ छाया कुहासा
बस्तियों में मातमी धुन,
हर गली में है धुंआ सा,
घुट रहा है दम सभी का
सब गले तक
विष पिये हैं
भय दिखाती लाल आँखें
हर कदम पर आज आड़े,
अस्मिता से खेलते हैं
आततायी, दिन दहाड़े,
देखती लाचार आँखें
किन्तु सबके
मुँह सिये हैं
जी रहे हैं या मरे हैं
बहुत मुश्किल है बताना,
मौन रहने में भला है
अनुभवों से यही जाना,
हैं अँधेरे की शरण में
भ्रम उजालों का
लिए हैं
खट्टा हुआ समय - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
गायब हुई
मधुरता मन की
खट्टा हुआ समय।
बहू और बच्चों को
लेकर
बेटा गया शहर,
घर में
चहल पहल करती है
खाँसी आठ पहर,
बूढ़ी देह
चिढ़ाती रहती
उम्र दिखाती भय।
बहुत दूर तक
कैसे चलते
जो रिश्ते सीढ़ी,
कब तक ढोती
सोच पुरानी
युवा हुई पीढ़ी,
हानि लाभ का
अंक गणित ही
सब कुछ करता तय।
बड़े जतन से
पाला पोषा
ख्वाबों का चंदन,
सहसा हुआ
दृष्टि के आगे
सूना सा आँगन,
अनायास
दस्तक दे जाती
पीड़ाएं अक्षय।
सीता डरी हुई - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
पर्ण कुटी के पास
दशानन,
सीता डरी हुई।
स्वर्ण-मृगों के
मोहजाल में
राम चले जाते,
लक्ष्मण को पीछे
दौड़ाते दुनिया के नाते,
उधर कपट से
मारीचों की
वाणी भरी हुई I
छद्म आवरण पहन
कुटिलता
फैलाती झोली,
वाग्जाल में
उलझ रही हैं
सीताऐं भोली,
विश्वासों की
मानस-काया तो
अधमरी हुई।
हो भविष्य के पन्नों पर
ऐसा कोई कल हो,
व्याघ्र दृष्टि की
लोलुपता का
कोई तो हल हो,
अभी व्यवस्था
दुष्ट जनों की ही
सहचरी हुई।
सब उन्मादे हैं - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
किसे दोष दें
इस बस्ती में
सब उन्मादे हैं
कुँए में ही
भाँग पड़ी है
गाँव हुआ पागल,
बूंद बूंद में
नशा भरा है
छलक रही छागल,
बौरायी बातों की
गठरी
सिर पर लादे हैं
नियम कायदे
रखे ताक पर
करते मनमानी,
खूटी पर
सूखती सभ्यता
माँग रही पानी,
मोहक मुस्कानों के पीछे
झूठे वादे हैं
अन्दर बाहर
बात बात पर
हर दिन दंगल है,
मन में
खरपतवारों की
फसलें हैं, जंगल है
जिस डाली पर
उसको काटें
सीधे सादे हैं
आशा के दीप - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
साँझ सवेरे उद्बोधन के गीत सुनायेंगे ।
भग्न-दिलों में हम आशा के दीप जलायेंगे ।।
अगर सफलता नहीं मिली तो हार न मानेंगे,
कहाँ कमी रह गयी हमारी, हम पहचानेंगे,
एक दिन यही प्रयास हमारे मंजिल पायेंगे ।
भग्न-दिलों में हम आशा के दीप जलायेंगे ।।
कोशिश यही हमारी सब में भाईचारा हो,
जाति, वर्ण, मजहब के कारण क्यों बँटवारा हो,
मानव-धर्म सभी से बढ़कर - यह सिखलायेंगे।
भग्न-दिलों में हम आशा के दीप जलायेंगे ।।
हम सबके सुख दुःख में सम्मिलित होकर जीयेंगे,
हम सबके हित नीलकण्ठ बन विष भी पीयेंगे,
हम सबको आदर्श और सन्मार्ग दिखायेंगे ।
भग्न-दिलों में हम आशा के दीप जलायेंगे ।।
स्वप्न लोक की निरी कल्पना में क्यों खोयेंगे,
हम किरणों की फसल उगायें, ऐसा बोयेंगे,
इस धरती को हम सब मिलकर स्वर्ग बनायेंगे ।
भग्न-दिलों में हम आशा के दीप जलायेंगे ।।
सब के मन में खुशियों की फसलें लहरायेंगी,
कदम कदम पर वनिताएँ मिल मंगल गायेंगी,
भागीरथी प्रयास हमारे व्यर्थ न जायेंगे ।
भग्न-दिलों में हम आशा के दीप जलायेंगे ।।
नया दौर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
परिवर्तन के
नये दौर में
सब कुछ बदल गया।
भूली कोयल
गीत सुरीले
मँहगाई की मारी,
उपवन में
सन्नाटा छाया
पसर गयी लाचारी,
कैसे जुटें
नीड़ के साधन
व्याकुल हुई बया।
जान बूझ कर बन्दर
मिल कर
मस्ती मार रहे,
जहाँ लग रहा दाँव
वहीं से
माल डकार रहे,
कोई जिये मरे
उनको क्या
उन्हें न हया, दया।
जंगल के राजा ने
सुनकर
राशन भिजवाया,
कुछ को थोड़ा बाँट
तिकड़मी
जोड़ रहे माया,
मन में लड्डू फूट रहे
संसाधन
मिला नया।
कितना बदला बदला लगता - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
कितना बदला बदला लगता, मुझको अपना गाँव ।
गली गली में पसरे हैं अब राजनीति के दाँव ।।
नहीं दिख रहे बैल और हल,
खोई है पनघट की हलचल,
कहाँ मुस्कराहट वह चंचल,
कहाँ सुरीले गीत और वह छम छम करते ठाँव ।।
स्वप्न हो गया है अघियाना,
बंद प्रेम-मय आना जाना,
हर कोई खुद में मस्ताना,
कैसे मिले गले अब कोई, ठिठके सबके पाँव ॥
ढप ढोलक की थाप कहाँ अब,
प्रेम-मंत्र का जाप कहाँ अब,
मानवता की छाप कहाँ अब,
कोयल कहाँ, बस गये कौए अमराई की छाँव ।
कितना बदला बदला लगता, मुझको अपना गाँव ।।
समय की पगडंडियों पर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
समय की पगडंडियों पर
चल रहा हूँ मैं निरंतर।
कभी दाएँ, कभी बाएँ,
कभी ऊपर, कभी नीचे,
वक्र पथ कठिनाइयों को
झेलता हूँ आँख मींचे,
कभी आ जाता अचानक
सामने अनजान सा डर।
साँझ का मोहक इशारा
स्वप्न-महलों में बुलाता,
जब उषा नवगीत गाती
चौंक कर मैं जाग जाता,
और सहसा निकल आते
चाहतों के फिर नये पर।
याद की तिर्यक गली में
कहीं खो जाता पुरातन,
विहँस कर होता उपस्थित
बाँह फैलाये नयापन,
रूपसी प्राची रिझाती
विविध रूपों में सँवर कर।
देश - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
हरित धरती,
थिरकती नदियाँ,
हवा के मदभरे सन्देश।
सिर्फ तुम भूखंड की सीमा नहीं हो देश ।।
भावनाओं, संस्कृति के प्राण हो,
जीवन कथा हो,
मनुजता के अमित सुख,
तुम अनकही अंर्तव्यथा हो,
प्रेम, करुणा,
त्याग, ममता,
गुणों से परिपूर्ण हो तपवेश।
सिर्फ तुम भूखंड की सीमा नहीं हो देश ।।
पर्वतों की श्रृंखला हो,
सुनहरी पूरब दिशा हो,
इंद्रधनुषी स्वप्न की
सुखदायिनी मधुमय निशा हो,
गंध, कलरव,
खिलखिलाहट, प्यार
एवं स्वर्ग सा परिवेश।
सिर्फ तुम भूखंड की सीमा नहीं हो देश ।।
तुम्हीं से यह तन,
तुम्हीं से प्राण, यह जीवन,
मुझ अकिंचन पर
तुम्हारी ही कृपा का धन,
मधुरता, मधुहास,
साहस,
और जीवन-गति तुम्हीं, देवेश।
सिर्फ तुम भूखंड की सीमा नहीं हो देश ।।
शंख में रण-स्वर भरो अब - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
कृष्ण ! निशिदिन घुल रहा है सूर्यतनया में जहर ।
बाँसुरी की धुन नहीं है,
भ्रमर की गुन-गुन नहीं है,
कंस के व्यामोह में पागल हुआ सारा शहर ।
पूतना का मन हरा है,
दुग्ध, दधि में विष भरा है,
प्रदूषण के पक्ष में हैं ताल, तट, नदियां, नहर ।
निशाचर-गण हँस रहे हैं,
अपरिचित भय डस रहे हैं,
अब अँधेरे से घिरे हैं सुबह, संध्या, दोपहर ।
शंख में रण-स्वर भरो अब
कष्ट वसुधा के हरो अब,
हाथ में लो चक्र, जाएँ आततायी पग ठहर ।
जय हिंदी, जय भारती - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सरल, सरस भावों की धारा,
जय हिन्दी, जय भारती ।
शब्द शब्द में अपनापन है,
वाक्य भरे हैं प्यार से,
सबको ही मोहित कर लेती
हिन्दी निज व्यवहार से,
सदा बढ़ाती भाई-चारा,
जय हिंदी, जय भारती ।
नैतिक मूल्य सिखाती रहती,
दीप जलाती ज्ञान के,
जन-गण-मन में द्वार खोलती
नूतनतम विज्ञान के,
नव-प्रकाश का नूतन तारा,
जय हिन्दी, जय भारती ।
देवनागरी, भर देती है
संस्कृति की नव-गंध से,
इन्द्रधनुष से रंग बिखराती
नव-रस, नव-अनुबंध से,
विश्व-ग्राम बनता जग सारा,
जय हिन्दी, जय भारती ।
फूल - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
फूल हैं , सुगन्ध बनके बह रहे हैं हम ।
कंटकों में भी खुशी से रह रहे हैं हम ॥
जिंदगी वही है, जो खुशी दे और को,
मौन हैं, मगर सभी से कह रहे हैं हम ।।
चार दिन की जिंदगी हो, कोई गम नहीं,
जितना मिल गया जहाँ में, कोई कम नहीं,
रोयें देखकर अभाव, ऐसे हम नहीं,
ताप भी सहर्ष जग के सह रहे हैं हम ।
फूल हैं, सुगंध बन के बह रहे हैं हम ।।
आम हो कि खास, सबका इंतजार है,
भेदभाव के बिना, सभी से प्यार है,
बस, परोपकार जिंदगी का सार है,
जग असार हो कि सार गह रहे हैं हम ।
फूल हैं, सुगंध बन के बह रहे हैं हम ।।
ध्येय एक हैं, हमारे ढंग हैं अलग,
क्या हुआ जो हर कुसुम के रंग हैं अलग,
माना रूप-रंग, साथ संग हैं अलग,
भेद की दीवार, सारी ढह रहे हैं हम ।
फूल हैं, सुगंध बन के बह रहे हैं हम ।।
मन की घनीभूत पीड़ा को - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मन की घनीभूत पीड़ा को तुमसे कहूँ, प्रियतमा, कैसे?
शब्दों की अपनी सीमा है
मन के भाव न कह पायेंगे,
अगर उन्हें मजबूर करूँगा
वे कुछ का कुछ कह जायेंगे,
अनुभव को सम्प्रेषित कर दें, शब्द कोश में शब्द न ऐसे।
कभी सोचता हूँ तुमसे कह
मैं तुमको भी दुःखी करूँगा,
मुझे और पीड़ा पहुँचेगी
यदि पीड़ा से तुम्हें भरूँगा
वही दशा होगी मेरी भी, आहत स्वयं कोई हो जैसे।
मैं ही दुःखित नहीं हूँ जग में,
औरों के दुःख और बड़े हैं,
जिधर नजर जाती है मेरी
उधर व्यथित और दुःखी खड़े हैं,
रहता नहीं हमेशा कुछ भी, गुजरेंगे दिन जैसे तैसे ।
जीवन में पग पग पर मुझको
तुम ही देती रहीं दिलासा,
तुम्हीं मेरी स्फूर्ति रही हो,
तुमसे मिली मुझे नव-आशा,
प्रिये, तुम्हारे युगल-नयन ही मेरी ताकत बनते वैसे ।
सपनों में ही आओ, तुम - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
तड़फ रहा हूँ बिना तुम्हारे, सपनों में ही आओ तुम ।
मैं अपने मन की कह डालूँ, अपनी मुझे सुनाओ तुम ।।
नहीं कट रहे अब काटे से
बैरी लगते दिन सारे,
लम्बी हुईं विरह की रातें का,
मैं गिन गिन तारे,
आशाओं के मोती अपने आँचल में भर लाओ तुम ।
मुझको सूना सूना लगता
बिना तुम्हारे घर-आँगन,
पथ देखा, पथराईं आँखें
मुरझाया मेरा तन-मन,
प्यासे प्राण पुकारे तुम को, अब जल्दी आ जाओ तुम ।
उपवन खिला महकता, लेकिन
मन की कली न एक खिली,
कोयल गा गा थकी बाग में
मुझको राहत नहीं मिली,
मेरा रोम रोम झंकृत हो, कुछ तो ऐसा गाओ तुम ।
प्यासे नयन, अधर प्यासे हैं,
मन की बात कहूँ कैसे,
तुम बिन भार हुआ यह जीवन
मैं दुःख-दर्द सहूँ कैसे,
मेरा तुम्ही सहारा जग में, मुझे न यूँ बिसराओ तुम ।
साँस साँस नित तुम्हें पुकारे,
प्राण हुए कितने बेकल,
यादों का ही दामन थामे
काट रहा हूँ मैं पल पल,
बिना तुम्हारे मैं मृत जैसा, आकर अमी पिलाओ तुम ।
जीवन में कितना रस है - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
प्रिये, तुम्हारा प्रेमामृत पा, जीवन में कितना रस है ।
चकित काम-रति, मधु ऋतु लज्जित, व्यथित माधुरी बेवश है।।
जीत गया हूँ जगत अखिल यह
जब से तुम पर दिल हारा,
लगने लगा हर घड़ी मुझको,
इस जग का कण कण प्यारा,
बरसायें मधु बात तुम्हारी, रस में डूबी नस नस है ।
तुम्हीं रोम में, साँसों में तुम
तुम प्राणों का स्पंदन,
छलक रहा मन में सुख-सागर
प्रिये, तुम्हारा अभिनन्दन,
बंकिम नयन, अधर रस भीने, रूप तुम्हारा दिलकश है ।
बदल रहा है इस दुनिया को
पल पल, क्षण क्षण परिवर्तन,
बदल रहे तन बदन हमारे
किन्तु न बदले अपना मन,
जैसे अटल खड़ा हो गिरिवर, प्रिये, प्रेम जस का तस है।
चाहत यही शेष मन में अब
तुम्हें हमेशा प्यार करूँ,
हर जीवन में साथ रहो तुम
जितने भी मैं रूप धरूँ,
बने मनुज, पशु, पक्षी, पादप, इस पर कब किसका वश है।
स्वप्न सतरंगी - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
शुभे, जीवन में तुम्हीं ने स्वप्न सतरंगी सजाये ।
तुम नयी आशा जगातीं
जिंदगी में भोर सी,
भर रहीं उत्साह से हरदम
मुझे नद-शोर सी,
सुर तुम्हारे जब मिले, मैंने मिलन के गीत गाये ।
जब कभी घिरती निशा
धर चाँदनी का रूप आतीं,
चीर कर सीना तिमिर का
शोभने, तुम पथ दिखातीं,
बस तुम्हारे ही इशारे मंजिलों की ओर लाये ।
हर घड़ी जीवन सफर में
पवन शीतल बन बही हो,
इस वृहद संसार में
मेरा सहारा तुम रही हो,
रंग जीवन के विविध, पाकर तुम्हारा साथ, भाये।
राह के कंकट हटाकर
पुष्प तुमने ही बिछाये,
देखकर स्मित तुम्हें ही
होंठ मेरे मुस्कराये,
धूप सी इस जिंदगी में, तुम्हीं से घन सघन छाये।
मिलकर पढ़ें वे मंत्र - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आइये, मिलकर पढ़ें वे मंत्र ।
जो जगाएं प्यार मन में,
घोल दें खुशबू पवन में,
खुशी भर दे सर्वजन में,
कहीं भी जीवन न हो ज्यों यंत्र।
स्वर्ग सा हर गाँव घर हो,
सम्पदा-पूरित शहर हो,
किसी को किंचित न डर हो,
हर तरह मजबूत हो हर तंत्र ।
छंद सुख के, गुनगुनायें,
स्वप्न को साकार पायें,
आइये, वह जग बनायें,
हो जहाँ सम्मानमय जनतंत्र ।।
क्या इतना प्यारा जग लगता - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीनव में रंग न भरती ?
क्या जीवन मधुमय हो पाता, यदि तुम मुझको प्यार न करतीं ?
प्रिये, तुम्हारी ही मुस्कानें देख धड़कता है मेरा दिल,
बिना तुम्हारे कैसा जीवन, प्रिये, सोचना ही है मुश्किल,
साथ तुम्हारे ही भाती है, मुझको इस जग की हर महफिल,
जीवन और सार्थक लगता, जब तुम सजतीं और संवरती ।
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीवन में रंग न भरतीं ??
कुछ भी पास रहे न रहे, पर रहे प्रेम-निधि साथ तुम्हारी,
हँसते नयन, मधुर मुस्कानें सुख पहुचायें बारी बारी,
तेरे अपनेपन पर मुग्धे, मेरा यह जीवन बलिहारी,
तुम तन मन से हुईं समर्पित, इससे अधिक और क्या करतीं ?
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीवन में रंग न भरतीं ??
तुम से चैन, तुम्हीं से रस हैं और तुम्हीं से हँसी ठिठोली,
शहद घोलती नित कानों में, रस से भरी तुम्हारी बोली,
लगते खेल सभी ही प्यारे, बनी जिस घड़ी तुम हमजोली,
मैं हर समय तुम्हीं से उपकृत, तुम से ही सुख-बूंदें झरतीं ।
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीवन में रंग न भरतीं ??
जो अनुभूति हुई है मुझको, कैसे मैं उसको इजहारूँ,
कैसे तुमको सुख पहुचाऊँ, तुम पर कितने मोती बारूँ,
दिल तो हार चुका पहले ही, शेष बचा क्या जिसको हारूँ,
तुम अमूल्य निधि हो परिणीते, जग की सब निधि कहाँ ठहरतीं ?
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीवन में रंग न भरतीं ??
मधुर मिलन पर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
सोच रहा हूँ मधुर मिलन पर क्या उपहार दिलाऊँ मैं ?
प्रिये, भरूँ फूलों से आँचल या तारे ले आऊँ मैं ?
अखिल विश्व में क्या है ऐसा
जो सुख से भर दे तुमको,
सोच रहा हूँ कुछ ऐसा हूँ
प्रिये, मुग्ध कर दे तुमको,
करूँ भव्य आयोजन कोई, व्यंजन मधुर खिलाऊ मैं ?
मोती, माणिक, सोना, चाँदी
सब के ढेर लगा दूँ क्या,
जड़े हुए हों चाँद-सितारे
मैं ऐसे पट ला दूँ क्या,
क्या उपयुक्त रहेगा आखिर ? समझ नहीं कुछ पाऊँ मैं।
स्वप्न लोक में नीलगगन की
सैर कराने ले जाऊँ,
सुख की नन्हीं नन्हीं बूंदें
प्रिये, तुम्हीं पर बरसाऊँ,
हाथों में ले हाथ तुम्हारा, झूम खुशी में गाऊँ मैं ?
सब कुछ ही नश्वर है जग में
क्या कुछ सुख दे पायेगा,
प्रिये, प्रेम ही युगों युगों तक
हर दम साथ निभायेगा,
बसूँ तुम्हारी साँस साँस में, प्राणों में बस जाऊँ मैं।
प्रिये, समूचा जग नश्वर है - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
प्रिये, समूचा जग नश्वर है, एक दिन हम भी नहीं रहेंगे।
यायावर बन कर इस जग से
तुम चल दोगी, मैं चल दूंगा,
नहीं सुनोगी गीत किसी दिन
न मैं किसी दिन गीत कहूँगा,
जग में रहें न रहें प्रिये हम, गीत हवा में नित्य बहेंगे।
किसी रूप में रहें सुरक्षित
किन्तु रहेंगी अपनी बातें,
याद रखेंगे चाँद सितारे
अपने मिलन-दिवस, मधु-रातें,
समझ न पाये कोई फिर भी, प्रेम-कथा अनवरत कहेंगे।
शायद मेघ बने हम गरजें
बरस जगत के ताप मिटायें,
या फिर खिलें किसी उपवन में
सारे जग को हम महकायें,
स्मित करें किन्हीं होंठों को, हम काँटों के घाव सहेंगे।
केवल तन के मिट जाने से
सब कुछ नष्ट नहीं हो जाता,
महाप्रलय न मिटा पायेगी
प्रिये, प्रेम का अपना नाता,
यह तो मजबूरी है अपनी, अपनी अपनी राह गहेंगे।
पथ निहारता रहता पीपल - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
पथ निहारता रहता पीपल,
किन्तु न मैं उस तक जा पाता।
इस जीवन की भूल-भुलैया
मुझको अपने में उलझाती,
समय-डाकिया दे जाता है
अब भी स्मृतियों की पाती,
मैं सुदूर, पर कभी न भूला
पीपल से वह प्यारा नाता ।
वह स्निग्ध पात पीपल के
वह सुमधुर संगीत सुहाना,
नटखट बचपन बुनता रहता
मन-भावन सा ताना-बाना,
जब मन होता तभी डाल पर
चढ़ जाता, खुश होकर गाता।
गुल्ली-डंडा, चोर-सिपाही,
कितने खेल छाँह में खेले,
स्वप्न हुए वे दिन सोने से
आते रहते याद अकेले,
मैं कल्पना के विमान में
कभी कभी उन तक हो आता।
उपलब्धियों के शिखर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बहुत कुछ खोकर मिले
उपलब्धियों के ये शिखर ।
गाँव छूटा
परिजनों से दूर
ले आई डगर,
खो गयीं अमराइयाँ
परिहास की वे दोपहर,
मार्ग में आँखें बिछाए
है विकल सा वृद्ध घर ।
हर तरफ
मुस्कान फीकी
औपचारिकता मिली,
धरा बदली
कली मन की
है अभी तक अधखिली,
कभी स्मृतियाँ जगातीं
बात करतीं रात भर ।
भावनाओं की गली में
मौन के
पहरे लगे हैं,
भोर सी बातें नहीं
बस स्वार्थ के ही
रतजगे हैं,
चंद सिक्के बहुत भारी
जिंदगी के गीत पर ।
नये वर्ष में - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
नये वर्ष में
नया नहीं कुछ
सभी पुराना है ।
महँगा हुआ और भी आटा
दाल और उछली,
मँहगाई से लड़े मगर
कब अपनी दाल गली,
सूदखोर का
हर दिन घर पर
आना जाना है ।
सोचा था, इस बढ़ी दिहाड़ी से
कुछ पाएँगे,
थैले में कुछ खुशियाँ भरकर
घर में लाएँगे,
काम नहीं मिलने का
हर दिन
नया बहाना है ।
फिर भी उम्मीदों का दामन
कभी न छोड़ेंगे,
बड़े यतन से
सुख का टुकड़ा टुकड़ा जोड़ेंगे,
आखिर अपने पास यही अनमोल खजाना है
बीत गए युग दीप जलाते - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बीत गए युग दीप जलाते
कब तक दीप जलायें।
विजय-पर्व के भ्रम में जीकर
बीती उम्र हमारी,
मिलती रही हमें पग-पग पर
घुटन और लाचारी,
इन्तजार है, अपने द्वारे
सुख की आहट पायें।
आशाओं के दीप जलाये
घर-आँगन-चौबारे,
अंधकार की सत्ता जीती
हम सदैव ही हारे
जीतेंगे हम, शर्त एक है
स्वयं दीप बन जायें।
मन की काली घनी अमावस
होगी ख़त्म किसी दिन,
उम्मीदों की चिड़ियाँ
आँगन में गायेंगी पल-छिन,
आओ, स्वागत करें भोर का
मंगल-ध्वनियाँ गायें।
पिता - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
पिता ! आप विस्तृत नभ जैसे,
मैं निःशब्द भला क्या बोलूँ ।
देख मेरे जीवन में आतप
बने सघन मेघों की छाया,
ढाढ़स के फूलों से जब तब
मेरे मन का बाग सजाया,
यही चाहते रहे उम्र भर
मैं सुख के सपनों में डोलूँ ।
कभी सख्त चट्टान सरीखे
कभी प्रेम की प्यारी मूरत,
कल्पवृक्ष मेरे जीवन के !
पूरी की हर एक जरूरत,
देते रहे अपरमित मुझको
सरल नहीं मैं उऋण हो लूँ ।
स्मृतियों की पावन भू पर
पिता, आपका अभिनन्दन है,
शत शत नमन, वन्दना शत-शत
श्रद्धा से नत यह जीवन है,
यादों की मिश्री ले बैठा
मैं मन में जीवन भर घोलूँ।
मन मन्दिर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मैं अपना मन मन्दिर कर लूँ
उस मन्दिर में तुम्हें बिठाऊँ।
वंदन करता रहूँ रात-दिन,
नित गुणगान तुम्हारे गाऊँ।।
तुमसे प्यार मिला जब मुझको
जीवन का मतलब पहचाना;
देवि, मेरे मन के आँगन में,
तुम से सुख बरसा मनमाना;
हैं अनगिन उपकार तुम्हारे,
मैं किस तरह उऋण हो पाऊँ।
मैं अनगढ़ पत्थर जैसा था
तुमने कर-कर जतन सँवारा;
जी चाहे न्यौछावर कर दूँ,
मैं तुम पर ये जग ही सारा;
मेरा जीवन सिर्फ तुम्हारा,
बार-बार बलिहारी जाऊँ।
कुछ भी नहीं जगत में जिससे
प्यार कभी भी तोला जाये;
किस मतलब की प्यारी निधियाँ,
अगर प्रेम निधि कोई पाये;
बिना प्रेम के व्यर्थ जिन्दगी,
मन कहता सब को समझाऊँ।
खिलता हुआ कनेर - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बहुधा मुझ से बातें करता
खिलता हुआ कनेर,
अभ्यागत बनने वाले हैं
शुभ दिन देर सवेर,
आग उगलते दिवस जेठ के
सदा नहीं रहने,
झंझाओं के गर्म थपेड़े
सदा नहीं सहने,
आ जायेंगे दिन असाढ़ के
मन के पपीहा टेर,
आशा की पुरवाई होगी
सब के आँगन में,
सुख की नव-कोंपल फूटेंगी
सब के ही मन में,
भावों के मोती बरसेंगे
लग जायेंगे ढेर।
अमराई आमंत्रण देती - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
अमराई आमंत्रण देती, आओ बैठे छाँव तले ।
गीत बयार गुनगुनाती है
घोल रही है रस कोयल,
झूम रही है पत्ती-पत्ती
जैसे बौराया हर पल
भाग-दौड़ वाले जीवन में, फुर्सत के पल चार भले ।
मौन रहूँ मैं, मौन रहो तुम
नयनों को सब कहने दो,
रहने दो अब सारी बातें
मनुहारें भी रहने दो,
देखो उधर मुग्ध हैं कितने, लता वृक्ष जो मिले गले ।
ढलता है सूरज ढल जाए
रजनी आए आने दो,
होने दो सारा जग विस्मृत
सपनों में खो जाने दो,
घिरे जिस घड़ी भी अंधियारी, मन का अंतरदीप जले।
कली फूल बनने को आतुर
फूल सुगन्ध लुटाने को,
इस अमूल्य निधि के आगे
अब शेष रहा क्या पाने को,
मोती माणिक किसे चाहिए, दिल के अन्दर प्यार पले।
गीत हमारे - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
रंग भरेंगे
जन जन मन में
गीत हमारे।
नहीं बीतना
जीवन पल भर
काँव काँव में,
फिर लौटेगा
समय चहकता
गाँव गाँव में,
नहीं रहेंगे
बहुत देर तक
ये अँधियारे।
हरसिंगार
पल्लवित होकर
सुख बाँटेंगे,
शब्द-समूह
दलित दुखियों के
दु:ख छाँटेंगे,
दस्तक देंगे
सबके घर पर
वैभव सारे।
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