इत्यलम् - 'अज्ञेय' | Ityalam - 'Agyeya'

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Sachchidananda-Hirananda-Vatsyayan-Agyeya
 
इत्यलम् - 'अज्ञेय' |  Ityalam - 'Agyeya' (toc)

1. अकाल-घन

घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर,

उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये।

घन अकाल में आये, आ कर रो गये।


जीवन की उलझन का जिस को मैं ने माना था अन्तिम हल

वह भी विधि ने छीना मुझ से मुझे मृत्यु भी हुई हलाहल!

विस्मृति के अँधियारे में भी स्मृति के दीप सँजो गये-

घन अकाल में आये, आ कर रो गये।


जीवन-पट के पार कहीं पर काँपीं क्या तेरी भी पलकें?

तेरे गत का भाल चूमने आयीं बढ़ पीड़ा की अलकें!

मैं ही डूबा, या हम दोनों घन-सम घुल-घुल खो गये?

घन अकाल में आये, आ कर रो गये।


यहाँ निदाघ जला करता है-भौतिक दूरी अभी बनी है;

किन्तु ग्रीष्म में उमस सरीखी हाय निकटता भी कितनी है!

उठे बवंडर, हहराये, फिर थकी साँस-से सो गये!

घन अकाल में आये, आ कर रो गये।


कसक रही है स्मृति कि अलग तू पर प्राणों की सूनी तारें,

आग्रह से कम्पित हो कर भी बेबस कैसे तुझे पुकारें?

'तू है दूर', यहीं तक आ कर वे हत-चेतन हो गये?

घन अकाल में आये, आ कर रो गये!


दिल्ली जेल, जुलाई, 1933


2. चलो, चलें!

जीवन-पट की धुँधली लिपि को व्यथा-नीर से धो चलें।

कहाँ फूल-फल, पत्ते-पल्लव? दावानल में राख हुए सब,

उजड़े-से मानस-कानन में नया बीज हम बो चलें।

इच्छा का है इधर रजत-पथ उधर हमारा कंटकमय पथ,


जीवन की बिखरी विभूति पर दो आँसू हम रो चलें!

विश्व-नगर से लुट कर आये, यह ममत्व भी क्यों रह जाये?

हो ही चुके पराजित तो अब अपनापन भी खो चलें!

आँख दिये की काजल-काली, चिर-जागर से है अरुणाली,

स्नेही! हम भी थके हुए हैं चिर निद्रा में सो चलें!

चलो चलें!

जीवन-पट की धुँधली लिपि को व्यथा-नीर से धो चलें!


मुलतान जेल, 1 नवम्बर, 1933


3. विशाल जीवन

है यदि तेरा हृदय विशाल, विराट् प्रणय का इच्छुक क्यों?

है यदि प्रणय अतल, तो अपनी अतल-पूर्ति का भिक्षुक क्यों?

दावानल की काल-ज्वाल जलती-बुझती एकाकी ही-

जीवन हो यदि ऊँचा तो ऊँची समाधि हो रक्षक क्यों?

मुलतान जेल, 5 दिसम्बर, 1933


4. वन-पारावत

भग्नावशेष पर मन्दिर के, नभ पृष्ठ-भूमि पर चित्रित-से,

दो वन-पारावत बैठे हैं।

मधु आगम से उन में जागी कोई दुर्निवार झंकार-

क्योंकि प्रकृति-लय से हैं मिले हुए उन के प्राणों के तार!

कुछ माँग रही इठला-इठला, निज उच्छल गरिमा से विकला


चंचल कपोत की नृत्यकला।

कृत्रिम निग्रह-पथ के पथिकों को मानो कह जाती हो-

कितनी तुच्छ कामना वह कि दबाने से दब जाती हो!

चंचु-द्वय की मंजुल क्रीड़ा, हर चुकी कपोती की व्रीडा

जागी अपूर्णता की पीड़ा।


लज्जा तो आकांक्षा को आकर्षक करने ही को है-

और प्रणय का चरम प्रस्फुटन आत्म-व्यंजना ही तो है!

खग-युगल! करो सम्पन्न प्रणय, क्षण के जीवन में ही तन्मय

हो अखिल अवनि ही निभृत निलय।


हाय तुम्हारी नैसर्गिकता! मानव-नियम निराला है-

वह तो अपने ही से अपना प्रणय छिपानेवाला है।


लाहौर किला, 8 मार्च, 1934


5. कीर

प्रच्छन्न गगन का वक्ष चीर जा रहा अकेला उड़ा कीर,

जीवन से मानो कम्प-युक्त आरक्त धार का तीक्ष्ण तीर!

प्रकटित कर उर की अमिट साध, पर कर जीवन की गति अबाध,

कृषि-हरित रंग में दृश्यमान उत्क्षिप्त अवनि का प्राण-ह्लाद!


आरक्त कीर का चंचु, क्योंकि आरक्त सदा ही ह्लाद-गान,

आरक्त कंठ-रेखा-कि ह्लाद का दुर्निवार प्राणावसान!

कैसी बिखरी वह मूक पीर, उल्लसित हुआ कैसा समीर!

प्रच्छन्न गगन का वक्ष चीर जा रहा अकेला उड़ा कीर!


लाहौर किला, 8 मार्च, 1934


6. द चाइल्ड इज द फ़ादर आफ़ द मैन

तरुण अरुण तो नवल प्रात में ही दिखलाई पड़ता लाल-

इसीलिए मध्याह्न में अवनि को झुलसाती उसकी ज्वाल!

मानव किन्तु तरुण शिशु को ही दबना-झुकना सिखला कर

आशा करते हैं कि युवक का ऊँचा उठा रहेगा भाल!


लाहौर, 4 अप्रैल, 1934


7. ध्रुव

मानव की अन्धी आशा के दीप! अतीन्द्रिय तारे!

आलोक-स्तम्भ सा स्थावर तू खड़ा भवाब्धि किनारे!

किस अकथ कल्प से मानव तेरी धु्रवता को गाते:

हो प्रार्थी प्रत्याशी वे उसको हैं शीश नवाते।


वे भूल-भूल जाते हैं जीवन का जीवन-स्पन्दन:

तुझ में है स्थिर कुछ तो है तेरा यह अस्थिर कम्पन!


डलहौजी, 14 मार्च, 1934


8. सूर्यास्त

अन्तिम रवि की अन्तिम रक्तिम किरण छू चुकी हिमगिरि-भाल,

अन्तिम रक्त रश्मि के नर्तन को दे चुके चीड़-तरु ताल ।

नीलिम शिला-खंड के पीछे दीप्त अरुण की अन्तिम ज्वाल—

जग को दे अन्तिम आश्वासन अस्ताचल की ओट हुए रवि!


खोल हृदय-पट तू दिखला दे अपना उल्लस प्राणोन्माद,

शब्द-शब्द की कम्पन-कम्पन में भर दे अतुलित आह्लाद,

अक्षर-अक्षर हों समर्थ बिखराने को जीवन-अवसाद—

फिर भी वर्णित हुई न होगी इस की एक किरण भर छवि!


स्वयं उसी भैरव सौन्दर्य-नदी में बह जा!

नीरवता द्वारा अपनी असफलता कह जा!

निरुद्वेग, मीठे विषाद में चुप ही रह जा

इस रहस्य अपरिम के आगे आदर से नतमस्तक, रे कवि!


डलहौजी, 3 जून, 1934


9. बद्ध

बद्ध!

हृत वह शक्ति किये थी जो लड़ मरने को सन्नद्ध!

हृत इन लौह शृंखलाओं में घिर कर,

पैरों की उद्धत गति आगे ही बढऩे को तत्पर;

व्यर्थ हुआ यह आज निहत्थे हाथों ही से वार-


खंडित जो कर सकता वह जगव्यापी अत्याचार,

निष्फल इन प्राचीरों की जड़ता के आगे

आँखों की वह दृप्त पुकार कि मृत भी सहसा जागे!


बद्ध!

ओ जग की निर्बलते! मैं ने कब कुछ माँगा तुझ से।

आज शक्तियाँ मेरी ही फिर विमुख हुईं क्यों मुझ से?

मेरा साहस ही परिभव में है मेरा प्रतिद्वन्द्वी-

किस ललकार भरे स्वर में कहता है: 'बन्दी! बन्दी!'


इस घन निर्जन में एकाकी प्राण सुन रहे, स्तब्ध

हहर-हहर कर फिर-फिर आता एक प्रकम्पित शब्द-


बद्ध!


डलहौजी, 9 जून, 1934


10. जीवन-दान

मुक्त बन्दी के प्राण!

पैरें की गति शृंखल बाधित, काया कारा-कलुषाच्छादित

पर किस विकल प्रेरणा-स्पन्दित उद्धत उस का गान!

अंग-अंग उस का क्षत-विह्वल हृदय हताशाओं से घायल,


किन्तु असह्य रणातुर उस की आत्मा का आह्वान!

उस की भूख-प्यास भी नियमित उस की अन्तिम सम्पत्ति परिहृत

लज्जित पर बलिदान देख कर उस का जीवन-दान!

मुक्त बन्दी के प्राण!


डलहौजी, 1934


11. बंदी और विश्व

मैं तेरा कवि! ओ तट-परिमित उच्छल वीचि-विलास!

प्राणों में कुछ है अबाध-तनु को बाँधे हैं पाश!

मैं तेरा कवि! ओ सन्ध्या की तम-घिरती द्युति कोर!

मेरे दुर्बल प्राण-तन्तु को व्यथा रही झकझोर!


मैं तेरा कवि! ओ निशि-विष-प्याले के छलके रिक्त!

परवशता के दाह-नीर से मेरा मन अभिषिक्त!

मैं तेरा कवि! ओ प्रात:तारे के नेत्र, हताश!

मेरा भी तो हृत-वैभव से पूर्ण सकल आकाश!


मै तेरा कवि! ओ कारा की बद्ध अबाध विकलते!

उर पीड़ा-निधि, पर आँखों से आँसू नहीं निकलते!


डलहौजी, 10 जून, 1934


12. उषा के समय

प्रियतम, पूर्ण हो गया गान!

हम अब इस मृदु अरुणाली में होवें अन्तर्धान!

लहर-लहर का कलकल अविरल, काँप-काँप अब हुआ अचंचल

व्यापक मौन मधुर कितना है, गद्गद अपने प्राण!


ये सब चिर-वांछित सुख अपने, बाद उषा के होंगे सपने-

फिर भी इस क्षण के गौरव में हम-तुम हों अम्लान।

नभ में राग-भरी रेखाएँ, एक-एक कर मिटती जाएँ-

किसी शक्ति के स्वागत को है यह बहुरंग वितान।


मरण? पिघल कर सजल शक्ति से, मिल जाना उस महच्छक्ति से!

करें मृत्यु का क्यों न उल्लसित हो कर हम आह्वान!

राग समाप्त! चलो अब जागो, निद्रा में नव-चेतन माँगो!

नयी उषा का मृत्यु हमारी से होगा उत्थान!

प्रियतम, पूर्ण हो गया गान!


डलहौजी, सितम्बर, 1934


13. प्रेरणा

जब-जब थके हुए हाथों से छूट लेखनी गिर जाती है

'सूखा उर का रस-स्रोत' यह शंका मन में फिर जाती है,

तभी, देवि, क्यों सहसा दीख, झपक, छिप जाता तेरा स्मित-मुख-

कविता की सजीव रेखा-सी मानस-पट पर तिर आती है?


डलहौजी, 14 सितम्बर, 1934


14. अंतिम आलोक

सन्ध्या की किरण-परी ने

उठ अरुण पंख दो खोले

कम्पित-कर गिरि-शिखरों के

उर-छिपे रहस्य टटोले ।


देखी उस अरुण किरण ने

कुल पर्वत-माला श्यामल—

बस एक शृंग पर हिम का

था कम्पित कंचन झलमल ।


प्राणों में हाय पुरानी

क्यों कसक जग उठी सहसा?

वेदना-व्योम से मानो—

खोया-सा स्मृति-घन बरसा!


तेरी उस अन्त-घड़ी में

तेरी आँखों में, जीवन!

ऐसा ही चमक उठा था

तेरा अन्तिम आँसू-कन!


अक्टूबर, 1934


15. तंद्रा में अनुभूति

तंद्रा में अनुभूति

उस तम-घिरते नभ के तट पर स्वप्न-किरण रेखाओं से

बैठ झरोखे में बुनता था जाल मिलन के प्रिय! तेरे।

मैं ने जाना, मेरे पीछे सहसा तू आ हुई खड़ी

झनक उठी टूटे-से स्वर से स्मृति-शृंखल की कड़ी-कड़ी।


बोला हृदय, 'लौट कर देखो प्रतिमा खो मत जाय कहीं!'

किन्तु कहीं वह स्वप्न न निकले-इस से साहस हुआ नहीं!

हाय, अवस्था कैसी थी वह! वज्राहत-सा हृदय रहा

जाना जब तब अकथ व्यथा से अंग-अंग था कसक रहा।


यही रहेगा क्या प्रियतम! अब सदा के लिए अपना प्यार?

तन्द्रा में अनुभूति, किन्तु जागृति में केवल पीड़ा-भार?


लाहौर, 6 अक्टूबर, 1934


16. घृणा का गान

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, जो भाई को अछूत कह वस्त्र बचा कर भागे,

तुम, जो बहिनें छोड़ बिलखती, बढ़े जा रहे आगे!

रुक कर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान-


सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, जो बड़े-बड़े गद्दों पर ऊँची दूकानों में,

उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में,

तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जल-दान-


सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश,

'मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़ कर केश!'

नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान-


सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, जो पा कर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण-

'नि:शक्तों' की हत्या में कर सकते हो अभिमान!

जिनका मत है, 'नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान'-


सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, जो मन्दिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल,

और इधर कहते जाते हो, 'जीवन क्या है? धूल!'

तुम, जिस की लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान-


सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, सत्ताधारी, मानवता के शव पर आसीन,

जीवन के चिर-रिपु, विकास के प्रतिद्वन्द्वी प्राचीन,

तुम, श्मशान के देव! सुनो यह रण-भेरी की तान-

आज तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!


लाहौर, 30 जनवरी, 1935


17. बंदी-गृह की खिड़की

ओ रिपु! मेरे बन्दी-गृह की तू खिड़की मत खोल!

बाहर-स्वतन्त्रता का स्पन्दन! मुझे असह उस का आवाहन!

मुझ कँगले को मत दिखला वह दु:सह स्वप्न अमोल!

कह ले जो कुछ कहना चाहे, ले जा, यदि कुछ अभी बचा है!


रिपु हो कर मेरे आगे वह एक शब्द मत बोल!

बन्दी हूँ मैं, मान गया हूँ, तेरी सत्ता जान गया हूँ-

अचिर निराशा के प्याले में फिर वह विष मत घोल!

अभी दीप्त मेरी ज्वाला है, यदपि राख ने ढँप डाला है


उसे उड़ाने से पहले तू अपना वैभव तोल!

नहीं! झूठ थी वह निर्बलता! भभक उठी अब वह विह्वलता!

खिड़की? बन्धन? सँभल कि तेरा आसन डाँवाडोल!

मुझ को बाँधे बेड़ी-कडिय़ाँ? गिन तू अपने सुख की घडिय़ाँ!

मुझ अबाध के बन्दी-गृह की तू खिड़की मत खोल।


लाहौर, 21 फरवरी, 1935


18. अचरज

आज सबेरे

अचरज एक देख मैं आया।

एक घने, पर धूल-भरे-से अर्जुन तरु के नीचे

एक तार पर बिजली के वे सटे हुए बैठे थे-


दो पक्षी छोटे-छोटे,

घनी छाँह में, जब से अलग; किन्तु परस्पर सलग।

और नयन शायद अधमीचे।

और उषा की धुँधली-सी अरुणाली थी सारा जग सींचे।


छोटे, इतने क्षुद्र, कि जग की सदा सजग आँखों की

एक अकेली झपकी-

एक पलक में वे मिट जाएँ, कहीं न पाएँ-

छोटे, किन्तु द्वित्व में इतने सुन्दर, जग-हिय ईष्र्या से भर जावे;


भर क्यों-भरा सदा रहता है-छल-छल उमड़ा आवे!

सलग, प्रणय की आँधी में मानो ले दिन-मान,

विधि का करते-से आह्वान।

मैं जो रहा देखता, तब विधि ने भी सब कुछ देखा होगा-


वह विधि, जिस के अधिकृत उन के मिलन-विरह का लेखा होगा-

किन्तु रहे वे फिर भी सटे हुए, संलग्न-

आत्मता में ही तन्मय, तन्मयता में सतत निमग्न!

और-बीत चुका जब मेरे जाने समय युगों का-


आया एक हवा का झोंका-काँपे तार-झरा दो कण नीहार-

उस समय भी तो उन के उर के भीतर

कोई खलिश नहीं थी-कोई रिक्त नहीं था-

नहीं वेदना की टीसों को स्थान कहीं था!


तब भी तो वे सहज परस्पर पंख से पंख मिलाये

वाताहत तम की झकझोर में भी अपने चारों ओर

एक प्रणय का निश्चल वातावरण जमाये

उड़े जा रहे थे, अतिशय निद्र्वन्द्व-


और विधि देख रही-नि:स्पन्द!

लौट चला आया हूँ, फिर भी प्राण पूछते जाते हैं

क्या वह सच था! और नहीं उत्तर पाते हैं-

और कहे ही जाते हैं

कि आज मैं

अचरज एक देख आया।


लाहौर, 1935


19. प्राण तुम्हारी पद-रज फूली

प्राण, तुम्हारी पद-रज फूली

मुझ को कंचन हुई तुम्हारे चंल चरणों की यह धूली।

आयी थी तो जाना भी था, फिर भी आओगी, दुख किस का?

एक बार जब दृष्टि-करों रसे पद-चिह्नों की रेखा छू ली।


वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी, गीत शब्द का कब अभिलाषी?

अन्तर में पराग-सी छायी है स्मृतियों की आशा-धूली।

प्राण, तुम्हारी पद-रज फूली।


1935


20. कीर की पुकार

तड़पी कीर की पुकार: प्राण!

विह्वल नाच उठा यह मेरा छोटा-सा संसार-प्राण!

कितनी जीवनियों की नीरवता छिन्न हुई उस स्वर से सहसा

मेरा यह संगीत अपरिचित जगत हुआ ध्वनि से आलोकित


दुर्निवार कर-स्पर्श प्रताडि़त

स्मृति वीणा झनझना उठी वह लोकोत्तर झनकार! प्राण! प्राण!

कीर, तुम्हारा रुप-रंग है पृथ्वी का आशा-संकेत

यह तीखा आलाप तुम्हारा क्यों फिर घोर व्यथा का हेतु?


ओ मधु के मधु-गायक पक्षी! क्यों व्यापक है तेरा गान?

वर्षा की गति धारासार शरद-शिशिर का पीड़ा-भार,

खर-निदाघ के बरस रहे अंगार-

और-और अतिरिक्त कहीं कुछ, जिसे न बाँधे शब्द-विधान!


स्मृति की शक्ति-विगत जीवन की ममता-

उस अजस्र से तारतम्य की क्षमता-

उर के भीतर कहीं जमा कर, निज पुकार के क्षण में अखिल विश्व

तड़पा कर,


कुछ जो हो जाता नि:स्पन्द, मूक! और हम-तद्गत, विरही, जागरूक!

प्राण! प्राण! प्राण!

कीर, अगर कुछ कहे को समर्थ मैं रहता-

विवश प्रेरणा से बस कहता-

चुप हो, चुप हो, बन्द करो यह तान-


इस छोटे जग में न उठाओ अखिल भुवन का गान!

पर कैसे? जब एक बार तुम बोले, तत्क्षण लुटा जगत्,

अन्त:पट खोले!

एक तथ्य रह गया जगत में दुर्निवार,


विह्वल नाच उठा यह मेरा छोटा-सा संसार-

दु:सह, अनुक्रम बार-बार तड़पी कीर की पुकार: प्राण!

प्राण! प्राण! प्राण!


लाहौर, 27 फरवरी, 1935


21. स्मृति

नये बादल में तेरी याद!

आदिम प्रेयसि! किसी समय जीवन के उजड़े कानन में-

विस्तृत, आशा-हीन गगन में किसी अजाने ही क्षण में;

आशा-अभिलाषा की तप्त उसाँसों से हो पुंजीभूत-


तू अकाल-घन-सी आयी थी बन वसन्त का जीवन-दूत!

नयी बूँदों में तेरा प्यार!

अन्तिम प्रणयिनि! बूँद-बूँद मैं सींच रहा हूँ तेरा नाम:

सदा नये हैं मेरे आँसू उन का पावस है अविराम!


इस अनन्त के अचिर जाल में अभिनव कौन, कौन प्राचीन-

मैं हूँ, तेरी स्मृति है, और विरह-रजनी है सीमा-हीन!


लाहौर, 26 मार्च, 1935


22. राखी

मेरे प्राण स्वयं राखी-से प्रतिक्षण तुझको रहते घेरे

पर उनके ही संरक्षक हैं अथक स्नेह के बन्धन तेरे।

भूल गये हम कौन कौन है, कौन किसे भेजे अब राखी-

अपनी अचिर अभिन्न एकता की बस यही भूल हो साखी!


लाहौर, 29 मार्च, 1935


23. मत माँग

मूढ़, मुझ से बूँदें मत माँग!

मैं वारिधि हूँ, अतल रहस्यों का दानी अभिमानी

पूछ न मेरी इस व्यापकता से चुल्लू-भर पानी!

तुझे माँगना ही है तो ये ओछी प्यासें त्याग-


मेरे खारेपन में भी मम-मय होना बस माँग!

मूढ़ मुझ से बूँदें मत माँग!

मुझ से स्निग्ध ताप मत माँग!

मैं कृतान्त हूँ, मेरी अगणित जिह्वाओं की ज्वाल


जग की झूठी मृदुताओं की भस्मकरी विकराल!

आशा की इस मृदु विडम्बना से ओ पागल, जाग!

मेरा वरद हस्त देता है-आग, आग, बस आग!

मुझ से स्निग्ध ताप मत माँग!


लाहौर, 29 मार्च, 1935


24. गा दो

कवि, एक बार फिर गा दो!

एक बार इस अन्धकार में फिर आलोक दिखा दो!

अब मीलित हैं मेरी आँखें पर मैं सूर्य देख आया हूँ;

आज पड़ी हैं कडिय़ाँ पर मैं कभी भुवन भर में छाया हूँ;


उस अबाध आतुरता को कवि, फिर तुम छेड़ जगा दो!

आज त्यक्त हूँ, पर दिन था जब सारा जग अँजुली में ले कर

ईश्वर-सा मैं ने उस को था एक स्वप्न पर किया निछावर!

उस उदारता को ज्वाला-सा उर में पुन: जला दो!


बहुत दिनों के बाद आज, कवि! मुझ में फिर कुछ जाग रहा है,

दर्प-भरे अप्रतिहत स्वर में जाने क्या कुछ माँग रहा है,

मेरे प्राणों के तारों को छू कर फिर तड़पा दो!

अभी शक्ति है कवि, इस जग को धूली-सा अँजुली में ले कर


बिखरा दूँ, बह जाने दूँ, या रचूँ किसी नूतन ही लय पर!

तुम मुझ को अनथक कृतित्व का भूला राग सुना दो!

कवि, एक बार फिर गा दो!


गुरदासपुर, 12 अप्रैल, 1935


25. दिवाकर के प्रति दीप

लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर!

उषा-वधू के अवगुंठन-सा है लालिम गगनाम्बर

मैं मिट्टी हूँ, मुझे बिखरने दो मिट्टी में मिल कर!


लो यह मेरी ज्योति दिवाकर!

मैं पथ-दर्शक बन कर जागा करता रजनी को आलोकित-

या मैं अनिमिष रूपज्वाल-सा किये रहा शलभों को विकलित;

यह मिथ्या अभिमान नहीं मुझ को छू पाया क्षण-भर।


लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर!

छोटा-सा भी मैं हूँ खर-रवि का प्रतिनिधि काली तमसा में-

रक्षक अथक खड़ा हूँ ले कर उस की थाती मंजूषा में;

नहीं रात-भर जगा किया हूँ इसी मोह में पड़ कर!


लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर!

मैं मिट्टी हूँ पर यह मेरी अचिर साधना की ज्वाला है

मैं ने अविरल अपनी आहुति दे-दे कर इस को पाला है,

स्रष्टा हूँ मैं, यदपि सफल मैं हुआ सृजन में जल कर!


लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर!

जान किसी अनथक ज्वाला से दीप्त तुम्हारी भी है छाती

मैं ही तुम को सौंप रहा हूँ यह अपने प्राणों की थाती,

मूल्य जान कर इस का रखना उर में इसे बसा कर!


यह लो मेरी ज्योति, दिवाकर!

ज्योति तुम्हारी अक्षय है पर जला-जला कर नहीं बनी है-

और इधर यह शिखा कम्पमय-यह मेरी कितनी अपनी है!

मैं मिट्टी हूँ, पर तुम होओ धन्य इसे अपना कर!


यह लो मेरी ज्योति, दिवाकर!

उषा-वधू के अवगुंठन-सा है लालिम गगनाम्बर-

मैं मिट्टी हूँ, मुझे बिखरने दो मिट्टी में मिल कर!

यह लो मेरी ज्योति, दिवाकर!


गुरदासपुर, 27 अप्रैल, 1935


26. विश्वास

तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही

घिरा हुआ है जग से पर है सदा अलग, निर्मोही!

जीवन-सागर हहर-हहर कर उसे लीलने आता दुर्धर

पर वह बढ़ता ही जाएगा लहरों पर आरोही!


जगती का अविरल कोलाहल कर न सकेगा उस को बेकल

ओ आलोक! नयन उस के अनिमिष लखते तुम को ही।

कैसे खोएगा वह पथ को तुम्हीं एक जब पथ-दर्शक हो

एक साँकरा मग है, और अकेला एक बटोही!

तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही!


लाहौर, 8 मई, 1935


27. धूल भरा दिन

पृथ्वी तो पीडि़त थी कब से आज न जाने नभ क्यों रूठा,

पीलेपन में लुटा, पिटा-सा मधु-सपना लगता है झूठा!

मारुत में उद्देश्य नहीं है धूल छानता वह आता है,

हरियाली के प्यासे जग पर शिथिल पांडु-पट छा जाता है।


पर यह धूली, मन्त्र-स्पर्श से मेरे अंग-अंग को छू कर

कौन सँदेसा कह जाती है उर के सोये तार जगा कर!

मधु आता है, तुम को नवजीवन का दाम चुकाना होगा,

मँजी देह होगी तब ही उस पर केसरिया बाना होगा!


परिवर्तन के पथ पर जिन को हँसते चढ़ जाना है सूली,

उन्हें पराग न अंगराग, उन वीरों पर सोहेगी धूली!

झंझा आता है झूल-झूल, दोनों हाथों में भरे धूल,

अंकुर तब ही फूटेंगे जब पात-पात झर चुकें फूल!


मत्त वैजयन्ती निज गा ले शुभागते, तू नभ-भर छा ले!

मुझ को अवसर दे कि शून्यता मुझ को अपनी सखी बना ले!

धूल-धूल जब छा जाएगी विकल विश्व का कोना-कोना,

केंचुल-सा तब झर जाएगा अग-जग का यह रोना-धोना।


आज धूल के जग में बन्धन एक-एक करके टूटेंगे,

निर्मम मैं, निर्मम वसन्त, बस अविरल भर-भर कर फूटेंगे!


लाहौर, मई, 1935


28. अतीत की पुकार

जेठ की सन्ध्या के अवसाद-भरे धूमिल नभ का उर चीर

ज्योति की युगल-किरण-सम काँप कौंध कर चले गये दो कीर।

भंग कर वह नीरव निर्वेद, सुन पड़ी मुझे एक ही बार,

काल को करती-सी ललकार, विहग-युग की संयुक्त पुकार!


कीर दो, किन्तु एक था गान; एक गति, यद्यपि दो थे प्राण।

झड़ गये थे आवरण ससीम शक्तिमय इतना था आह्वान!

गये वे, खड़ा ठगा-सा मैं शून्य में रहा ताकता, दूर

कहीं से पा कर निर्मम चोट हुआ माया का शीशा चूर।


प्राण, तुम चली गयीं अत्यन्त कारुणिक, मिथ्या है यह मोह-

देख कर वे दो उड़ते कीर कर उठा अन्तस्तल विद्रोह!

व्यक्ति मेरा इह-बन्धन-मुक्त उड़ चला अप्रतिरुद्ध, अबाध,

स्वयं-चालित थे मेरे पंख-और तुम-तुम थीं मेरे साथ!


मुझे बाँधे है यह अस्तित्व मूक तुम, किस पर्दे के पार

किन्तु खा कर आस्था की चोट-खुल गये बन्दी-गृह के द्वार!

यही है मिलन-मार्ग का सेतु हृदय की यह स्मृति-प्यार-पुकार-

इसी में, रह कर भी विच्छिन्न हमारा है अनन्त अभिसार!


लाहौर, 17 मई, 1935


29. मैं वह धनु हूँ

मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने

में प्रत्यंचा टूट गई है।

स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि

दिग्दिगन्त में फूट गई है--

प्रलय-स्वर है वह, या है बस

मेरी लज्जाजनक पराजय,

या कि सफलता! कौन कहेगा

क्या उस में है विधि का आशय!

क्या मेरे कर्मों का संचय

मुझ को चिन्ता छूट गई है--

मैं बस जानूँ, मैं धनु हूँ, जिस

की प्रत्यंचा टूट गई है!


लाहौर, 15 जून, 1935


30. निमीलन

निशा के बाद उषा है, किन्तु देख बुझता रवि का आलोक

अकारण हो कर जैसे मौन ज्योति को देते विदा सशोक

तुम्हारी मीलित आँखें देख किसी स्वप्निल निद्रा में लीन

हृदय जाने क्यों सहसा हुआ आद्र्र, कम्पित-सा, कातर, दीन!


गुरदासपुर (रेल में), 1 सितम्बर, 1935


31. विपर्यास

तेरी आँखों में पर्वत की झीलों का नि:सीम प्रसार

मेरी आँखों बसा नगर की गली-गली का हाहाकार,

तेरे उर में वन्य अनिल-सी स्नेह-अलस भोली बातें

मेरे उर में जनाकीर्ण मग की सूनी-सूनी रातें!


लाहौर, 19 सितम्बर, 1935


32. ताजमहल की छाया में

मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,

या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।

साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर-

तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।


पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे

या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे?

हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-

औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?


हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,

देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये

व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:

क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!


मैं निर्धन हूँ,साधनहीन; न तुम ही हो महारानी,

पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!

जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का

प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी!


२० दिसम्बर १९३५, आगरा


33. प्रार्थना

इस विकास-गति के आगे है कोई दुर्दम शक्ति कहीं,

जो जग की स्रष्टा है, मुझ को तो ऐसा विश्वास नहीं।

फिर भी यदि कोई है जिस में सुनने की सहृदयता है;

और साथ ही पूरा करने की कठोर तन्मयता है;


तो मैं आज बिना छोड़े अपनी सक्षमता का अभिमान;

कलाकार से कलाकारवत्, उस से यह माँगूँगा दान:

'गुरु! मैं तुझ से सीखूँ, पर अक्षुण्ण रखूँ अपना विश्वास,

बुझ कर नहीं, दीप्त रह कर ही मैं आ पाऊँ तेरे पास!


'किये चलूँ जो बने, और यदि सफल कभी भी हो पाऊँ-

मार्ग रोकनेवाले यश-स्तम्भों को कभी न ललचाऊँ।

'चिर-जीवन कैसे पाऊँगा, इस डर से मैं नहीं डरूँ-

अपने ही निर्मम हाथों मैं अपना स्मारक ध्वस्त करूँ!'


लाहौर, 23 दिसम्बर, 1935


34. अखंड ज्योति

कर से कर तक, उर से उर तक बढ़ती जा, ओ ज्योति हमारी,

छप्पर-तल से महल-शिखर तक चढ़ती जा, ओ ज्योति हमारी!

पैंतिस कोटि शिखाएँ जल कर कोना-कोना दीपित कर दें-

एक भव्य दीपक-सा भारत जगती को आलोकित कर दे!


हमें दु:ख है, हमें क्लेश है-उसे जला डालेगी ज्वाला;

पद-दलितों के उर से उठ कर सारा नभ छा लेगी ज्वाला!

हमने न्याय नहीं पाया है, हम ज्वाला से न्याय करेंगे-

धर्म हमारा नष्ट हो गया, अग्नि-धर्म हम हृदय धरेंगे!


मिटना स्वयं, बनाना जग को; जलना स्वयं, जलाना जग को;

शोणित तक से सींच, स्वच्छ रखना उस स्वतन्त्रता के मग को!

जग में बहुत मिलेंगे आजादी के गाने गानेवाले,

गली-गली में गत गौरव के पोले गाल बजानेवाले-


ले तू इस अभिमानी, दानी भारत के भी फूल निराले,

दीवाने परवाने, हँस कर अपना-आप जलानेवाले!

बीते दिन अब निश्चलता के, शान्त कहाँ, उद्भान्त कहाँ हैं?


युद्ध हेतु कटिबद्ध हुए बस, पैंतिस कोटि कृतान्त यहाँ हैं!

कहीं बच गया हो कोई तो तू उस में भी स्फूर्ति जगा दे-

विश्व कँपा दे, ज्योति! जगत् में आग लगा दे! आग लगा दे!


1936


35. गोप गीत

नीला नभ, छितराये बादल, दूर कहीं निर्झर का मर्मर

चीड़ों की ऊध्र्वंग भुजाएँ भटका-सा पड़कुलिया का स्वर,

संगी एक पार्वती बाला, आगे पर्वत की पगडंडी:

इस अबाध में मैं होऊँ बस बढ़ते ही जाने का बन्दी!


1936


36. नाम तेरा

पूछ लूँ मैं नाम तेरा

मिलन-रजनी हो चुकी विच्छेद का अब है सबेरा।

जा रहा हूँ-और कितनी देर अब विश्राम होगा,

तू सदय है किन्तु तुझ को और भी तो काम होगा!


प्यार का साथी बना था, विघ्न बनने तक रुकूँ क्यों?

समझ ले, स्वीकार कर ले यह कृतज्ञ प्रणाम मेरा!

और होगा मूर्ख जिस ने चिर-मिलन की आस पाली-

पा चुका, अपना चुका-है कौन ऐसा भाग्यशाली!


इस तडि़त् को बाँध लेना दैव से मैं ने न माँगा-

मूर्ख उतना हूँ नहीं, इतना नहीं है भाग्य मेरा!

श्वास की हैं दो क्रियाएँ-खींचना, फिर छोड़ देना,

कब भला सम्भव हमें इस अनुक्रम को तोड़ देना?


श्वास की उस सन्धि-सा है इस जगत् में प्यार का पल-

रुक सकेगा कौन कब तक बीच पथ में डाल डेरा।

घूमते हैं गगन में जो दीखते स्वच्छन्द तारे,

एक आँचल में पड़े भी अलग रहते हैं बिचारे!


भूल से पल-भर भले छू जायँ उन की मेखलाएँ।

दास मैं भी हूँ नियति का क्या भला विश्वास मेरा!

प्रेम को चिर-ऐक्य कोई मूढ़ होगा तो कहेगा-

विरह की पीड़ा न हो तो प्रेम क्या जीता रहेगा?


जो सदा बाँधे रहे वह एक कारावास होगा-

घर वही है जो थके को रैन-भर का हो बसेरा!

प्रकृत है अनुभूति; वह रस-दायिनी निष्पाप भी है,

मार्ग उस का रोकना ही पाप भी है, शाप भी है;


मिलन हो, मुख चूम लें; आयी बिदा, लें राह अपनी-

मैं न पूछूँ, तुम न जानो क्या रहा अंजाम मेरा!

रात बीती, यदपि उस में संग भी था, रंग भी था,

अलस अंगों में हमारे स्फूर्त एक अनंग भी था;


तीन की उस एकता में प्रलय ने तांडव किया था-

सृष्टि-भर को एक क्षण-भर बाहुओं ने बाँध घेरा!

सोच मत, 'यह प्रश्न क्यों जब अलग ही हैं मार्ग अपने!'

सच नहीं होते, इसी से भूलता है कौन सपने?


मोह हम को है नहीं पर द्वार आशा का खुला है-

क्या पता फिर सामना हो जाय तेरा और मेरा!

कौन हम-तुम? दु:ख-सुख होते रहे, होते रहेंगे,

जान कर परिचय परस्पर हम किसे जा कर कहेंगे?


पूछता है क्योंकि आगे जानता हूँ क्या बदा है-

प्रेम जग का और केवल नाम तेरा, नाम मेरा!

पूछ लूँ मैं नाम तेरा!

मिलन-रजनी हो चुकी विच्छेद का अब है सबेरा!


लाहौर, 1 जून, 1936


37. मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

वह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

तुम विमुख हो, किन्तु मैं ने कब कहा उन्मुख रहो तुम?

साधना है सहसनयना-बस, कहीं सम्मुख रहो तुम!


विमुख-उन्मुख से परे भी तत्त्व की तल्लीनता है-

लीन हूँ मैं, तत्त्वमय हूँ, अचिर चिर-निर्वाण में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी?


क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के सन्ताप से भी?

व्यर्थ जिस को मापने में हैं विधाता की भुजाएँ-

वह पुरुष मैं, मत्र्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

रात आती है, मुझे क्या? मैं नयन मूँदे हुए हूँ,


आज अपने हृदय में मैं अंशुमाली की लिये हूँ!

दूर के उस शून्य नभ में सजल तारे छलछलाएँ-

वज्र हूँ मैं, ज्वलित हूँ, बेरोक हूँ, प्रस्थान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!


मूक संसृति आज है, पर गूँजते हैं कान मेरे,

बुझ गया आलोक जग में, धधकते हैं प्राण मेरे।

मौन या एकान्त या विच्छेद क्यों मुझ को सताए?

विश्व झंकृत हो उठे, मैं प्यार के उस गान में हूँ!


मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

जगत है सापेक्ष, या है कलुष तो सौन्दर्य भी है,

हैं जटिलताएँ अनेकों-अन्त में सौकर्य भी है।

किन्तु क्यों विचलित करे मुझ को निरन्तर की कमी यह-


एक है अद्वैत जिस स्थल आज मैं उस स्थान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

वेदना अस्तित्व की, अवसान की दुर्भावनाएँ-

भव-मरण, उत्थान-अवनति, दु:ख-सुख की प्रक्रियाएँ


आज सब संघर्ष मेरे पा गये सहसा समन्वय-

आज अनिमिष देख तुम को लीन मैं चिर-ध्यान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

बह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!


दिल्ली (एक कवि-सम्मेलन में बैठे-बैठे), 21 जुलाई, 1936


38. विधाता वाम होता है

कर चुका था जब विधाता प्यार के हित सौध स्थापित

विरह की विद्युन्मयी प्रतिमा वहाँ कर दी प्रतिष्ठित!

बुद्धि से तो क्षुद्र मानव भी चलाता काम अपने-


वामता से हीन विधि की शक्ति क्या होती प्रमाणित!

भर दिया रस प्रथम उस में कर दिया फिर प्यार वर्जित-

तब बने अन्धे पतंगे हो चुका जब दीप निर्मित!

पत्थरों के बुत हुए निष्प्राण स्थापित मन्दिरों में,


और उस के पूजने को हाथ मृदु, अनुराग-रंजित!

मोह में आदिम पुरुष ने ज्ञान का फल तोड़ खाया-

इसलिए उस ने प्रिया-सह चिरन्तन निर्वास पाया;

कौन पूछे, उन अभागों को किया पथ-भ्रष्ट जिस ने-

शत्रु जग के उस चिरन्तन साँप को किस ने बनाया?


खेलती विधि मानवों से? काश, हम भी खेल सकते!

भाग्य के हमले अनोखे हम हँसी में झेल सकते।

वह हमें शतरंज के प्यादों सरीखा है हटाता-

काश, हम में शक्ति होती भाग्य को हम ठेल सकते!


तर्क का सामथ्र्य हम में है, इसी से भूल जाते-

जानना हैं चाहते हम पूछते हैं छटपटाते।

बुद्धि ही इस मोह-जग में ज्योति अन्तिम है हमारी-

किन्तु क्या उस की परिधि में नियति को हम बाँध पाते!


लाहौर, अगस्त, 1936


39. आज थका हिय हारिल मेरा!

इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?

शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा!

दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता,

तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में बल भरता,


ऊषा से ही उड़ता आया, पर न मिल सकी तेरी झाँकी

साँझ समय थक चला विकल मेरे प्राणों का हारिल पाखी:

तृषित, श्रान्त, तम-भ्रान्त और निर्मम झंझा-झोंकों से ताडि़त-

दरस प्यास है असह, वही पर किये हुए उस को अनुप्राणित!


गा उठते हैं, 'आओ, आओ!' केकी प्रिय घन को पुकार कर

स्वागत की उत्कंठा में वे हो उठते उद्भ्रान्त नृत्य पर!

चातक-तापस तरु पर बैठा स्वाति-बूँद में ध्यान रमाये,

स्वप्न तृप्ति को देखा करता 'पी! पी! पी!' की टेर लगाये;


हारिल को यह सह्य नहीं है-वह पौरुष का मदमाता है:

इस जड़ धरती को ठुकरा कर उषा-समय वह उड़ जाता है।

'बैठो, रहो, पुकारो-गाओ, मेरा वैसा धर्म नहीं है;

मैं हारिल हूँ, बैठे रहना मेरे कुल का कर्म नहीं है।


तुम प्रिय की अनुकम्पा माँगो, मैं माँगूँ अपना समकक्षी

साथ-साथ उड़ सकने वाला एकमात्र वह कंचन-पक्षी!'

यों कहता उड़ जाता हारिल ले कर निज भुज-बल का सम्बल,

किन्तु अन्त सन्ध्या आती है-आखिर भुज-बल है कितना बल?


कोई गाता, किन्तु सदा मिट्टी से बँधा-बँधा रहता है,

कोई नभ-चारी, पर पीड़ा भी चुप हो कर ही सहता है;

चातक हैं, केकी हैं, सन्ध्या को निराश हो सो जाते हैं,

हारिल हैं-उड़ते-उड़ते ही अन्त गगन में खो जाते हैं।


कोई प्यासा मर जाता है, कोई प्यासा जी लेता है,

कोई परे मरण-जीवन से कड़वा प्रत्यय पी लेता है।

आज प्राण मेरे प्यासे हैं, आज थका हिय-हारिल मेरा,

आज अकेले ही उस को इस अँधियारी सन्ध्या ने घेरा।


मुझे उतरना नहीं भूमि पर तब इस सूने में खोऊँगा

धर्म नहीं है मेरे कुल का-थक कर भी मैं क्यों रोऊँगा?

पर प्रिय! अन्त समय में क्या तुम इतना मुझे दिलासा दोगे-

जिस सूने में मैं लुट चला, कहीं उसी में तुम भी होगे?


इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?

शुभे! तुम्हारे स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा।


बड़ोदरा, 30 अगस्त, 1936


40. एक चित्र

मुझे देख कर नयन तुम्हारे मानो किंचित् खिल जाते हैं,

मौन अनुग्रह से भर कर वे अधर तनिक-से हिल जाते हैं।

तुम हो बहुत दूर, मेरा तन अपने काम लगा रहता है-

फिर भी सहसा अनजाने में मन दोनों के मिल जाते हैं,


इस प्रवास में चित्र तुम्हारा बना हुआ है मेरा सहचर,

इसीलिए यह लम्बी यात्रा नहीं हुई है अब तक दूभर।

इस उन्मूलित तरु पर भी क्यों खिलें न नित्य नयी मंजरियाँ-

छलकाने को स्नेह-सुधा जब छवि तेरी रहती चिर-तत्पर?


घुट जाते हैं हाथ चौखटे पर, यद्यपि यह पागलपन है,

रोम पुलक उठते हैं, यद्यपि झूठी यह तन की सिहरन है;

प्राप्ति कृपा है वरदाता की, साधक को है सिद्धि निवेदन-

छवि-दर्शन तो दूर, मुझे तेरा चिन्तन ही महामिलन है!


आगरा, दिसम्बर, 1936


41. चिंतामय

आज चिन्तामय हृदय है, प्राण मेरे थक गये हैं-

बाट तेरी जोहते ये नैन भी तो थक गये हैं;

निबल आकुल हृदय में नैराश्य एक समा गया है

वेदना का क्षितिज मेरा आँसुओं से छा गया है।


आज स्मृतियों की नदी से शब्द तेरे पी रहा हूँ

प्यास मिटने की असम्भव आस पर ही जी रहा हूँ!

पा न सकने पर तुझे संसार सूना हो गया है-

विरह के आघात से प्रिय! प्यार दूना हो गया है!


जब नहीं अनुभूति मिलती लोग दर्शन चाहते हैं,

उदधि बदले बूँद पा कर विधि-विधान सराहते हैं;

किन्तु दर्शन की कमी न बन गयी अनुभूति मुझ को

यह तृषित चिर-वंचना की मिली दिव्य-विभूति मुझ को!


दीखता है, प्राप्ति का कंगाल बन कर मैं रहूँगा;

स्मित-विहत मुख से सदा गाथा भविष्यत् की कहूँगा!

जगत् सोचेगा कि इस कवि ने विरह जाना नहीं है,

विष-लता का विकच काला फूल पहिचाना नहीं है,


जब कि उस के तिक्त फल को आज लौं मैं खा रहा हूँ!

जब कि तिल-मिल भस्म अपने को किये मैं जा रहा हूँ!

किन्तु मुझ को समय उस का दु:ख करने का नहीं है-

भक्त तेरे को यहाँ अवकाश मरने का नहीं है।

भक्त का कोई समय रह जाय भी आराधना से


व्यस्त वह उसमें रहे आराधना की साधना से!

यदि सफल है दिवस वह जिस में भरा है प्यार तेरा-

रैन भी सूनी न होगी अंक ले अभिसार तेरा!

किन्तु कोरे तर्क से कब भक्त का उर भर सका है?


मेघ का घनघोर गर्जन कब तृषा को हर सका है?

बिखर जाते गान हैं सब व्यर्थ स्वर-सन्धान मेरे-

छटपटाते बीतते हैं दीर्घ साँझ-विहीन मेरे-

आज छू दे मन्त्र से, ओ दूर के मेहमान मेरे-

आज चिन्तामय हृदय है थक गये हैं प्रान मेरे!


आगरा, 2 दिसम्बर, 1936


42. द्वितीया

मेरे सारे शब्द प्यार के किसी दूर विगता के जूठे:

तुम्हें मनाने हाय कहाँ से ले आऊँ मैं भाव अनूठे?

तुम देती हो अनुकम्पा से मैं कृतज्ञ हो ले लेता हूँ-

तुम रूठीं-मैं मन मसोस कर कहता, भाग्य हमारे रूठे!


मैं तुम को सम्बोधन कर मीठी-मीठी बातें करता हूँ,

किन्तु हृदय के भीतर किस की तीखी चोट सदा सहता हूँ?

बातें सच्ची हैं, यद्यपि वे नहीं तुम्हारी हो सकती हैं-

तुम से झूठ कहूँ कैसे जब उस के प्रति सच्चा रहता हूँ?

मेरा क्या है दोष कि जिस को मैं ने जी भर प्यार किया था,


प्रात-किरण ज्यों नव-कलिका में जिस को उर में धार लिया था,

मुझ आतुर को छोड़ अकेली जाने किस पथ चली गयी वह-

एक आग के फेरे कर के जिस पर सब कुछ वार दिया था?

मेरा क्या है दोष कि मैं ने तुम को बाद किसी के जाना?


अपना जब छिन गया, पराये धन का तब गौरव पहचाना?

प्रथम बार का मिलन चिरन्तन सोचो, कैसे हो सकता है-

जब इस जग के चौराहे पर लगा हुआ है आना-जाना?


होगी यह कामुकता जो मैं तुम को साथ यहाँ ले आया-

किसी गता के आसन पर जो बरबस मैं ने तुम्हें बिठाया,

किन्तु देखता हूँ, मेरे उर में अब भी वह रिक्त बना है,

निर्बल हो कर भी मैं उस की स्मृति से अलग कहाँ हो पाया?


तुम न मुझे कोसो, लज्जा से मस्तक मेरा झुका हुआ है,

उर में वह अपराध व्यक्त है ओठों पर जो रुका हुआ है-

आज तुम्हारे सम्मुख जो उपहार रूप रखने आया हूँ

वह मेरा मन-फूल दूसरी वेदी पर चढ़ चुका हुआ है!


फिर भी मैं कैसे आया हूँ क्योंकर यह तुम को समझाऊँ-

स्वयं किसी का हो कर कैसे मैं तुम को अपना कह पाऊँ?

पर मन्दिर की माँग यही है वेदी रहे न क्षण-भर सूनी

वह यह कब इंगित करता है किस की प्रतिमा वहाँ बिठाऊँ?


नहीं अंग खो कर लकड़ी पर हृदय अपाहिज का थमता है।

किन्तु उसी पर धीरे-धीरे पुन: धैर्य उस का जमता है।

उर उस को धारे है, फिर भी तेरे लिए खुला जाता है-

उतना आतुर प्यार न हो पर उतनी ही कोमल ममता है!

शायद यह भी धोखा ही हो, तब तुम सच मानोगी इतना:


एक तुम्हीं को दे देता हूँ उस से बच जाता है जितना।

और छोड़ कर मुझ को वह निर्मम इतनी अब है संन्यासिनि-

उस को भोग लगा कर भी तो बच जाता है जाने कितना!

प्यार अनादि स्वयं है, यद्यपि हम में अभी-अभी आया है,


बीच हमारे जाने कितने मिलन-विग्रहों की छाया है-

मति जो उस के साथ गयी, पर यह विचार कर रह जाता हूँ-

वह भी थी विडम्बना विधि की यह भी विधना की माया है!

उस अत्यन्तगता की स्मृति को फिर दो सूखे फूल चढ़ा कर


उस दीपक की अनझिप ज्वाला आदर से थोड़ा उकसा कर

मैं मानो उस की अनुमति से फिर उस की याद हरी करता हूँ-

उस से कही हुई बातें फिर-फिर तेरे आगे दुहरा कर!


दिल्ली, 13 जनवरी, 1937


43. रहस्यवाद

(1)


मैं भी एक प्रवाह में हूँ-

लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है,

मैं उस असीम शक्ति से सम्बन्ध जोडऩा चाहता हूँ-

अभिभूत होना चाहता हूँ-


जो मेरे भीतर है।

शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक अणु हूँ,

मैं भी असीम हूँ।

एक असीम बूँद असीम समुद्र को अपने भीतर प्रतिबिम्बित करती है,


एक असीम अणु इस असीम शक्ति को जो उसे प्रेरित करती है

अपने भीतर समा लेना चाहता है,

उस की रहस्यामयता का परदा खोल कर उस में मिल जाना चाहता है-

यही मेरा रहस्यवाद है।


(2)


लेकिन जान लेना तो अलग हो जाना है, बिना विभेद के ज्ञान कहाँ है?

और मिलना है भूल जाना,

जिज्ञासा की झिल्ली को फाड़ कर स्वीकृति के रस में डूब जाना,

जान लेने की इच्छा को भी मिटा देना,

मेरी माँग स्वयं अपना खंडन है क्योंकि वह माँग है,

दान नहीं है।


(3)


असीम का नंगापन ही सीमा है:

रहस्यमयता वह आवरण है जिस से ढँक कर हम उसे

असीम बना देते हैं।

ज्ञान कहता है कि जो आवृत है, उस से मिलन नहीं हो सकता,

यद्यपि मिलन अनुभूति का क्षेत्र है,


अनुभूति कहती है कि जो नंगा है वह सुन्दर नहीं है,

यद्यपि सौन्दर्य-बोध ज्ञान का क्षेत्र है।

मैं इस पहेली को हल नहीं कर पाया हूँ, यद्यपि मैं रहस्यवादी हूँ,

क्या इसीलिए मैं केवल एक अणु हूँ

और जो मेरे आगे है वह एक असीम?


आगरा, 17 जनवरी, 1937


44. ओ मेरे दिल!

(1)

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!

तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल!

जब ईसा को दे कर सूली जनता न समाती थी फूली,

हँसती थी अपने भाई की तिकटी पर देख देह झूली,


ताने दे-दे कर कहते थे सैनिक उस को बेबस पा कर:

ले अब पुकार उस ईश्वर को-बेटे को मुक्त करे आ कर!

जब तख्ते पर कर-बद्ध टँगे, नरवर के कपड़े खून-रँगे,

पाँसे के दाँव लगा कर वे सब आपस में थे बाँट रहे,


तब जिस ने करुणा से भर कर उस जगत्पिता से आग्रह कर

माँगा था, मुझे यही वर दे: इन के अपराध क्षमा कर दे!

वह अन्त समय विश्वास-भरी जग से घिर कर संन्यास-भरी

अपनी पीड़ा की तड़पन में भी पर-पीड़ा से त्रास-भरी


ईसा की सब सहने वाली चिर-जागरुक रहने वाली

यातना तुझे आदर्श बने कटु सुन मीठा कहने वाली!

तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल-

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!


(2)

धक्-धक् धक्-धक् ओ मेरे दिल!

तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल!

बोधी तरु की छाया नीचे जिज्ञासु बने-आँखें मीचे-

थे नेत्र खुल गये गौतम के जब प्रज्ञा के तारे चमके;


सिद्धार्थ हुआ, जब बुद्ध बना, जगती ने यह सन्देश सुना-

तू संघबद्ध हो जा मानव! अब शरण धर्म की आ, मानव!

जिस आत्मदान से तड़प रही गोपा ने थी वह बात कही-

जिस साहस से निज द्वार खड़े उस ने प्रियतम की भीख सही-


तू अन्धकार में मेरा था, आलोक देख कर चला गया;

वह साधन तेरे गौरव का गौरव द्वारा ही छला गया-

पर मैं अबला हूँ, इसीलिए कहती हूँ, प्रणत प्रणाम किये,

मैं तो उस मोह-निशा में भी ओ मेरे राजा! तेरी थी;


अब तुझ से पा कर ज्ञान नया यह एकनिष्ठ मन जान गया

मैं महाश्रमण की चेरी हूँ-ओ मेरे भिक्षुक! तेरी हूँ!

वह मर्माहत, वह चिर-कातर, पर आत्मदान को चिर-तत्पर,

युग-युग से सदा पुकार रहा औदार्य-भरा नारी का उर!


तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल-

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!


(3)

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!

तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल!

बीते युग में जब किसी दिवस प्रेयसि के आग्रह से बेबस,

उस आदिम आदम ने पागल, चख लिया ज्ञान का वर्जित फल,


अपमानित विधि हुंकार उठी, हो वज्रहस्त फुफकार उठी,

अनिवार्य शाप के अंकुश से धरती में एक पुकार उठी:

तू मुक्त न होगा जीने से, भव का कड़वा रस पीने से-

तू अपना नरक बनावेगा अपने ही खून-पसीने से!


तब तुझ में जो दु:सह स्पन्दन कर उठा एक व्याकुल क्रन्दन:

हम नन्दन से निर्वासित हैं, ईश्वर-आश्रय से वंचित हैं;

पर मैं तो हूँ पर तुम तो हो-हम साथी हैं, फिर हो सो हो!

गौरव विधि का होगा क्योंकर मेरी-तेरी पूजा खो कर?


उस स्पन्दन ही से मान-भरे, ओ उर मेरे अरमान-भरे,

ओ मानस मेरे मतवाले-ओ पौरुष के अभिमान-भरे!

तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल,

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!


मेरठ, 29 मार्च, 1937


45. निवेदन

मैं जो अपने जीवन के क्षण-क्षण के लिए लड़ा हूँ,

अपने हक के लिए विधाता से भी उलझ पड़ा हूँ,

सहसा शिथिल पड़ गया है आक्रोश हृदय का मेरे-

आज शान्त हो तेरे आगे छाती खोल खड़ा हूँ।


मुझे घेरता ही आया है यह माया का जाला,

मुझे बाँधती ही आयी है इच्छाओं की ज्वाला;

मेरे कर का खड्ग मुझी से स्पर्धा करता आया-

साधन आज मुक्ति का हो तेरे कर की वनमाला!


मर्म दुख रहा है, पर पीड़ा तो है सखी पुरानी,

व्यथा-भार से नहीं झुका है यह अन्तर अभिमानी;

आज चाहता हूँ कि मौन ही रहे निवेदन मेरा-

स्वस्ति-वचन में ही हो जावे मेरी पूर्ण कहानी!


1937


46. मैंने आहुति बन कर देखा

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,

मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?

काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,

मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?


मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?

मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?

मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने?

या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?


पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?

नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?

मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-

फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!


अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-

क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?

वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-

वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है


मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-

मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!

मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ

कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ


मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने

इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!

भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-

तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने


बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937


47. रक्तस्नात वह मेरा साकी

मैं ने कहा, कंठ सूखा है दे दे मुझे सुरा का प्याला।

मैं भी पी कर आज देख लूँ यह मेरी अंगूरी हाला।

-एक हाथ में सुरापात्र ले एक हाथ से घूँघट थामे

नीरव पग धरती, कम्पित-सी बढ़ी चली आयी मधुबाला।


मैंने कहा, कंठ सूखा है किन्तु नयन भी तो हैं प्यासे।

एक माँग मधुशाला से है किन्तु दूसरी मधुबाला से!

ग्रीवा तनिक झुका कर, भर-भर आँखों से दो जाम उँड़ेलो-

प्यास अगर मिट सकती है तो उस चितवन की तीव्र सुरा से!


बाला बोली नहीं, न उस ने अवगुंठन से हाथ हटाया-

एक मूक इंगित से केवल प्याला मेरी ओर बढ़ाया;

मानो कहा, 'यही है मेरी मीठी कल्प-सुरा की गगरी-

इस में झाँको, देख सकोगे, मेरी रूप-शिखा की छाया!'


मैं बोला, अच्छा, ऐसे ही सही, अनोखे मेरे सा की,

मेरी साध यही है, रह जावे अरमान न मेरा बा की-

प्याले में तेरी आँखों की मस्त खुमारी भरी हुई है-

एक जाम में मिट जावेगी प्यास कंठ की, प्यास हिया की!


मैं ने थाम लिया तब प्याला आतुरता से हाथ बढ़ा कर

लगा देखने अपनी प्यासी आँखें उस के बीच गड़ा कर:

पुलक उठा मेरा तन दर्शन के पहले ही उत्कंठा से-

और अधर मधुबाला के भी खुले तनिक शायद मुसका कर!


मैं ने देखा, एक लजीले बादल का-सा मृदु अवगुंठन-

उस के पीछे-उ फ, कितनी अनगिन मधुबालाओं का नर्तन!

मैं ने देखा-मैं ने देखा-इन्हीं दग्ध आँखों से देखा!-

इस तीखी उन्माद ज्वाल के कण-कण में जीवन का स्पन्दन!


मैं ने देखा, केवल अपने रूखे केशों से अवगुंठित

वहाँ करोड़ों मधुबालाएँ खड़ीं विवसना और अकुंठित

द्राक्षा के कुचले गुच्छे-सी मर्माहत वे झुकी हुई थीं-

और रक्त उन के हृदयों का होता एक कुंड में संचित!


मैं ने देखा, वहाँ करोड़ों भभकों में फिर उफन-उफन कर

भस्मीभूत अस्थियों के अनगिन स्तर की छननी में छन कर

एक मनमोहक उन्मादक झिलमिल निर्झर रूप ग्रहण कर

वही रक्त बढ़ता आता था मेरी मोहन मदिरा बन कर!

मैं ने देखा, हुआ नयनमय उस लालिम मदिरा का कण-कण


मेरे कानों में सहसा भर गया एक प्रलंयकर गर्जन-

प्यास कंठ की? प्यास हिया की? ले लो झाँकी आज प्रिया की-

कल्प-सुरा छलकी आती है इन अनगिन नयनों में इस क्षण!

मैं ने देखा, वहाँ करोड़ों आँखों में उत्तप्त व्यथा है,


मैं ने सुना, कहो, कैसी मधुबाला की मधुमयी कथा है?

अट्टहास में उस, विद्रूप भरा था कितना उग्र, भयानक-

क्यों? कड़वी है? क्या इलाज इस का जब सा की ही विधवा है!

तड़प उठा मैं, चीख उठा अब मेरा, हा! निस्तार कहाँ है?


मेरे हित कलंक की कालिख का बस अब गुरु भार यहाँ है!

फट जा आज, धरित्री! मेरी दु:सह लज्जा आज मिटा दे-

रक्तस्नात वह मेरा सा की मेरी दुखिया भारत माँ है!


कलकत्ता, 2 नवम्बर, 1937


48. पार्क की बेंच

उजड़ा सुनसान पार्क, उदास गीली बेंचें-

दूर-दूर के घरों के झरोखों से

निश्चल, उदास परदों की ओट से झरे हुए आलोक को

-वत्सल गोदियों से मोद-भरे बालक मचल मानो गये हों-

बेंच पर टेहुनी-सा टिका मैं आँख भर देखता हूँ सब


तो अचकच देखता ही रह जाता हूँ,

तो भूल जाता हूँ कि मेरे आस-पास

न केवल नहीं है अन्धकार, बल्कि

गैस के प्रकाश की तीखी गर्म लपलपाती जीभ

पत्ती-पत्ती घास-तले लुके-दुबके उदास


सहमे धुएँ को लील लिये जा रही है,

और बल्कि

देख इस निर्मम व्यापार को असंख्य असहाय पतिंगे

तिलमिला उठे हैं, सिर पटक के चीत्कार कर उठे हैं कि

निरदई हंडे ने उन्ही का अन्तिम आसरा भी लूट लिया


कलकत्ता, 1938


49. आह्वान

ठहर, ठहर, आततायी! जरा सुन ले!

मेरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज सुन जा!

रागातीत, दर्पस्फीत, अतल, अतुलनीय, मेरी अवहेलना की टक्कर सहार ले

क्षण-भर स्थिर खड़ा रह ले-मेरे दृढ़ पौरुष की एक चोट सह ले!


नूतन प्रचंडतर स्वर से, आततायी! आज तुझ को पुकार रहा मैं-

रणोद्यत, दुर्निवार ललकार रहा मैं!

कौन हूँ मैं?-तेरा दीन-दु:खी, पद-दलित पराजित

आज जो कि क्रुद्ध सर्प-से अतीत को जगा


'मैं' से 'हम' हो गया

'मैं' के झूठे अहंकार ने हराया मुझे, तेरे आगे विवश झुकाया मुझे,

किन्तु आज मेरे इन बाहुओं में शक्ति है,

मेरे इस पागल हृदय में भरी भक्ति है-

आज क्यों कि मेरे पीछे जागृत अतीत है,


और मेरे आगे है अनन्त आदिहीन शेषहीन पथ वह

जिस पर एक दृढ़ पैर का ही स्थान है-

और वह दृढ़ पैर मेरा है-गुरु, स्थिर, स्थाणु-सा गड़ा हुआ-

तेरी प्राण-पीठिका पै लिंग-सा खड़ा हुआ!


और, हाँ, भविष्य के अजनमे प्रवाह से

भावी नवयुग के ज्वलन्त प्राण-दाह से

प्रबल प्रतापवान्, निविड प्रदाहमान्ï, छोड़ता स्फुलिंग पै स्फुलिंग-

आस-पास बाधामुक्त हो बिखरता-क्षार-क्षार-धूल-धूल-


और वह धूल-तेरे गौरव की धूल है,

मेरा पथ तेरे ध्वस्त गौरव का पथ है

और तेरे भूत काले पापों में प्रवहमान लाल आग

मेरे भावी गौरव का रथ है!


कलकत्ता, 18 जुलाई, 1938


50. दूरवासी मीत मेरे

दूरवासी मीत मेरे!

पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे काँपते ये गीत मेरे?

आज कारावास में उर तड़प उठा है पिघल कर

बद्ध सब अरमान मेरे फूट निकले हैं उबल कर

याद तेरी को कुचलने के लिए जो थी बनायी-


वह सुदृढ़ प्राचीर मेरी हो गयी है छार जल कर!

प्यार के प्रिय भार से हैं सजल नैन विनीत मेरे!

दूरवासी मीत मेरे!

आज मैं कितना विवश हूँ बद्ध हैं मेरी भुजाएँ-


प्राण पर आराधना की साध को कैसे भुलाएँ?

कोठरी में तन झुके, मन विनत हो तेरे पदों में-

गीत मेरे घेर तुझ को मूक हों, सुध भूल जाएँ!

हाय अब अभिमान के वे दिन गये हैं बीत मेरे!|

दूरवासी मीत मेरे!


लाहौर, अक्टूबर, 1938


51. उड़ चल हारिल

उड़ चल हारिल लिये हाथ में

यही अकेला ओछा तिनका

उषा जाग उठी प्राची में

कैसी बाट, भरोसा किन का!


शक्ति रहे तेरे हाथों में

छूट न जाय यह चाह सृजन की

शक्ति रहे तेरे हाथों में

रुक न जाय यह गति जीवन की!


ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर

बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल

अनथक पंखों की चोटों से

नभ में एक मचा दे हलचल!


तिनका तेरे हाथों में है

अमर एक रचना का साधन

तिनका तेरे पंजे में है

विधना के प्राणों का स्पंदन!


काँप न यद्यपि दसों दिशा में

तुझे शून्य नभ घेर रहा है

रुक न यद्यपि उपहास जगत का

तुझको पथ से हेर रहा है!


तू मिट्टी था, किन्तु आज

मिट्टी को तूने बाँध लिया है

तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का

गुर तूने पहचान लिया है!


मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर

क्या जीवन केवल मिट्टी है?

तू मिट्टी, पर मिट्टी से

उठने की इच्छा किसने दी है?


आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का

तू है दुर्निवार हरकारा

दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका

सूने पथ का एक सहारा!


मिट्टी से जो छीन लिया है

वह तज देना धर्म नहीं है

जीवन साधन की अवहेला

कर्मवीर का कर्म नहीं है!


तिनका पथ की धूल स्वयं तू

है अनंत की पावन धूली

किन्तु आज तूने नभ पथ में

क्षण में बद्ध अमरता छू ली!


ऊषा जाग उठी प्राची में

आवाहन यह नूतन दिन का

उड़ चल हारिल लिये हाथ में

एक अकेला पावन तिनका!


गुरदासपुर, 2 अक्टूबर, 1938


52. रजनीगंधा मेरा मानस

रजनीगन्धा मेरा मानस!

पा इन्दु-किरण का नेह-परस, छलकाता अन्तस् में स्मृति-रस|

उत्फुल्ल, खिले इह से बरबस, जागा पराग, तन्द्रिल, सालस,

मधु से बस गयीं दिशाएँ दस, हर्षित मेरा जीवन-सुमनस्-


लो, पुलक उठी मेरी नस-नस जब स्निग्ध किरण-कण पड़े बरस!

तुम से सार्थक मेरी रजनी, पावस-रजनी से पुण्य-दिवस;

तू सुधा-सरस, तू दिव्य-दरस, तू पुण्य-परस मेरा सुधांशु-

इस अलस दिशा में चला विकस-रजनीगन्धा मेरा मानस!


1939


53. सावन-मेघ

(1)


घिर गया नभ, उमड़ आये मेघ काले,

भूमि के कम्पित उरोजों पर झुका-सा, विशद, श्वासाहत, चिरातुर

छा गया इन्द्र का नील वक्ष-वज्र-सा, यदपि तडि़त् से झुलसा हुआ-सा।

आह, मेरा श्वास है उत्तप्त-

धमनियों में उमड़ आयी है लहू की धार-

प्यार है अभिशप्त: तुम कहाँ हो, नारि?


(2)


मेघ-आकुल गगन को मैं देखता था, बन विरह के लक्षणों की मूर्ति-

सूक्ति की फिर नायिकाएँ, शास्त्र-संगत प्रेम-क्रीड़ाएँ,

घुमड़ती थीं बादलों में आद्र्र, कच्ची वासना के धूम-सी।

जब कि सहसा तडि़त् के आघात से घिर कर


फूट निकला स्वर्ग का आलोक। बाध्य देखा:

स्नेह से आलिप्त, बीज के भवितव्य से उत्फुल्ल,

बद्ध-वासना के पंक-सी फैली हुई थी

धारयित्री-सत्य-सी निर्लज्ज, नंगी, औ' समर्पित!


बड़ोदरा, 6 जुलाई, 1939


54. उषा काल की भव्य शांति

उष:काल की भव्य शान्ति

निविडाऽन्धकार को मूर्त रूप दे देने वाली

एक अकिंचन, निष्प्रभ, अनाहूत, अज्ञात द्युति-किरण:

आसन्न-पतन, बिन जमी ओस की अन्तिम

ईषत्करण, स्निग्ध, कातर शीतलता


अस्पृष्ट किन्तु अनुभूत:

दूर किसी मीनार-क्रोड़ से मुल्ला का

एक रूप पर अनेक भावोद्दीपक गम्भीरऽर आऽह्वाऽन:

'अस्सला तु ख़ैरम्मिनिन्ना:'

निकट गली में

किसी निष्करुण जन से बिन कारण पदाक्रान्त पिल्ले की


करुण रिरियाहट

और गली के छप्पर-तल में

शिशु का तुमक-तुनक कर रोना, मातृ-वक्ष को आतुर।

ऊपर व्याप्त ओर-छोर मुक्त नीऽलाकाऽश:


दो अनथक अपलक-द्युति ग्रह,

रात-रात में नभ का आधा व्यास पार कर

फिर भी नियति-बद्ध, अग्रसर।

उष:काल: अनायास उठ गया चेतना से निद्रा का आँचल


मिला न पर पार्थक्य: पड़ा मैं स्तब्ध, अचंचल,

मैं ही हूँ वह पदाक्रान्त रिरियाता कुत्ता-

मैं ही वह मीनार-शिखर का प्रार्थी मुल्ला

मैं वह छप्पर-तल का अहंलीन शिशु-भिक्षुक-


और, हाँ, निश्चय, मैं वह तारक-युग्म

अपलक-द्युति अनथक-गति, बद्ध-नियति

जो पार किये जा रहा नील मरु प्रांगण नभ का!

मैं हूँ ये सब, ये सब मुझ में जीवित-

मेरे कारण अवगत, मेरे चेतन में अस्तित्व-प्राप्त!


उष:काल:

उष:काल की रहस्यमय भव्य शान्ति...


दिल्ली, 25 अक्टूबर, 1940


55. निरालोक

निरालोक यह मेरा घर रहने दो!

सीमित स्नेह, विकम्पित बाती-

इन दीपों में नहीं समाएगी मेरी यह जीवन-थाती;

पंच-प्राण की अनझिप लौ से ही वे चरण मुझे गहने दो-


निरालोक यह मेरा घर रहने दो!

घर है उस की आँचल-छाया,

किस माया में मैं ने अपना यह अर्पित मानस भरमाया?

अहंकार की इस विभीषिका को तमसा ही मैं ढहने दो!

निरालोक यह मेरा घर रहने दो!


शब्द उन्ही के जिन को सुख है,

अर्थ-लाभ का मोह उन्हें जिन को कुछ दुख है;

शब्द-अर्थ से परे, मूक, मेरी जीवन-वाणी बहने दो-

निरालोक यह मेरा घर रहने दो!


स्वर अवरुद्ध, कंठ है कुंठित,

पैरों की गति रुद्ध, हाथ भी बद्ध, शीश-भू-लुण्ठित,

उस की ओर चेतना-सरिणी को ही बहने दो, बहने दो!

निरालोक यह मेरा घर रहने दो!


दिल्ली, 31 अक्टूबर, 1940


56. क्षण भर सम्मोहन छा जावे!

क्षण-भर सम्मोहन छा जावे!

क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल-

ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल,

मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे!


मेरा ध्यान अकम्पित है, मैं क्षण में छवि कर लूँगा अंकित,

स्तब्ध हृदय फिर नाम-प्रणय से होगा दु:सह गति से स्पन्दित!

एक निमिष-भर, बस! फिर विधि का घन प्रलयंकर बरसा आवे

क्रूर काल-कर का कराल शर मुझ को तेरे वर-सा आवे!

क्षण-भर सम्मोहन छा जावे!


अजमेर, 4 नवम्बर, 1940


57. शिशिर की राका-निशा

वंचना है चाँदनी सित,

झूठ वह आकाश का निरवधि, गहन विस्तार-

शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार!

दूर वह सब शान्ति, वह सित भव्यता,


वह शून्यता के अवलेप का प्रस्तार-

इधर-केवल झलमलाते चेतहर,

दुर्धर कुहासे का हलाहल-स्निग्ध मुट्ठी में

सिहरते-से, पंगु, टुंडे, नग्न, बुच्चे, दईमारे पेड़!


पास फिर, दो भग्न गुम्बद, निविडता को भेदती चीत्कार-सी मीनार,

बाँस की टूटी हुई टट्टी, लटकती

एक खम्भे से फटी-सी ओढऩी की चिन्दियाँ दो-चार!

निकटतर-धँसती हुई छत, आड़ में निर्वेद,


मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में

तीन टाँगों पर खड़ा, नतग्रीव, धैर्य-धन गदहा।

निकटतम-रीढ़ बंकिम किये, निश्चल किन्तु लोलुप खड़ा

वन्य बिलार- पीछे, गोयठों के गन्धमय अम्बार!


गा गया सब राजकवि, फिर राजपथ पर खो गया।

गा गया चारण, शरण फिर शूर की आ कर, निरापद सो गया।

गा गया फिर भक्त ढुलमुल चाटुता से वासना को झलमला कर,

गा गया अन्तिम प्रहर में वेदना-प्रिय, अलस, तन्द्रिल,


कल्पना का लाड़ला कवि, निपट भावावेश से निर्वेद!

किन्तु अब-नि:स्तब्ध-संस्कृत लोचनों का

भाव-संकुल, व्यंजना का भीरु, फटा-सा, अश्लील-सा विस्फार।

झूठ वह आकाश का निरवधि गहन विस्तार-


वंचना है चाँदनी सित,

शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार!


दिल्ली, 15 जनवरी, 1941


58. वर्ग-भावना-सटीक

अवतंसों का वर्ग हमारा: खड्ïगधार भी, न्यायकार भी।

हम ने क्षुद्र, तुच्छतम जन से

अनायास ही बाँट लिया श्रम-भार भी, सुख-भार भी।

बल्कि गये हम आगे भी-हम निश्चल ही हैं उदार भी।


टीका-(यद्यपि भाष्यकार है दुर्मुख

हम लोगों का एकमात्र श्रम है-सुरति-श्रम

उस अन्त्यज का एकमात्र सुख है-मैथुन-सुख।


दिल्ली, 11 फरवरी, 1941


59. ऋतुराज

शिशिर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल,

गन्धवह उड़ रहा पराग-धूल झूल,

काँटों का किरीट धारे बने देवदूत

पीत-वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल।


अरे, ऋतुराज आ गया।

पूछते हैं मेघ, 'क्या वसन्त आ गया?'

हँस रहा समीर, 'वह छली भुला गया।'

किन्तु मस्त कोंपलें सलज्ज सोचतीं-


'हमें कौन स्नेह-स्पर्श कर जगा गया?'

वही ऋतुराज आ गया।

प्रस्फुटन अभी नहीं लगी हुई है आस

मुक्त हो चले अशक्त शीत-बद्ध दास।


मुक्त-प्राण, सर्वत्राण चैत्र आ रहा-

अंक भेंटने को तिलमिला उठे पलास।

क्योंकि ऋतुराज आ गया।

सिद्धि नहीं, दौड़ते हैं किन्तु सिद्धिदूत-


वायु चल रही है आज स्निग्ध मन्त्रपूत।

स्तब्ध हैं प्रतीक्षमान दिग्वधूटियाँ-

जीवन-प्रवाह बह रहा है अनाहूत।

क्योंकि ऋतुराज आ गया।


अभी सुन पड़ी नहीं है परभृता की कूक,

अभी कहीं कँपी नहीं है चातकी की हूक,

किन्तु क्यों सिहर उठी है रोम-रोम में-

प्यार की, अथक नये दुलार की भी भूख?


क्योंकि ऋतुराज आ गया-

अरे, ऋतुराज आ गया।


मेरठ, 1941


60. रात होते, प्रात होते

प्रात होते

सबल पंखों की अकेली एक मीठी चोट से

अनुगता मुझ को बना कर बावली-

जान कर मैं अनुगता हूँ-


उस बिदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी युता हूँ-

उड़ गया वह बावला पंछी सुनहला

कर प्रहर्षित देह की रोमावली को।

प्रात होते


वही जो थके पंखों को समेटे-

आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे-

चंचु की उन्मुख विकलता के सहारे

नम रही ग्रीवा उठाये-


सिहरता-सा, काँपता-सा,

नीड़ की-नीड़स्थ सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,

निकट अपनों के-निकटतर भवितव्य की अपनी

प्रतिज्ञा के-

निकटतम इस विबुध सपनों की सखी के आ गया था-

आ गया था रात होते!


मेरठ, 21 फरवरी, 1941


61. मिट्टी ही ईहा है!

मैं ने सुना: और मैं ने बार-बार स्वीकृति से, अनुमोदन से

और गहरे आग्रह से आवृत्ति की: 'मिट्टी से निरीह'-

और फिर अवज्ञा से उन्हें रौंदता चला-

जिन्हें कि मैं मिट्टी-सा निरीह मानता था।

किन्तु वसन्त के उस अल्हड़ दिन में


एक भिदे हुए, फटे हुए लोंदे के बीच से बढ़ कर अंकुर ने

तुनुक कर कहा-'मिट्टी ही ईहा है!'

कितना तुच्छ है तुम्हारा अभिमान जो कि मिट्टी नहीं हो-

जो कि मिट्टी को रौंदते हो-


जो कि ईहा को रौंदते हो-

'क्योंकि मिट्टी ही ईहा है!'


दिल्ली-खुर्जा (रेल में), 7 मार्च, 1941


62. जब-जब पीड़ा मन में उमँगी

जब-जब पीड़ा मन में उमँगी तुमने मेरा स्वर छीन लिया

मेरी नि:शब्द विवशता में झरता आँसू-कन बीन लिया।

प्रतिभा दी थी जीवन-प्रसून से सौरभ-संचय करने की-

क्यों सार निवेदन का मेरे कहने से पहले छीन लिया?


मेरठ, 31 मार्च, 1941


63. जैसे तुझे स्वीकार हो

जैसे तुझे स्वीकार हो!

डोलती डाली, प्रकम्पित पात, पाटल-स्तम्भ विलुलित,

खिल गया है सुमन मृदु-दल, बिखरते किंजल्क प्रमुदित,

स्नात मधु से अंग, रंजित-राग केशर-अंजली से स्तब्ध-सौरभ है निवेदित:


मलय मारुत, और अब जैसे तुझे स्वीकार हो!

पंख कम्पन-शिथिल, ग्रीवा उठी, डगमग पैर, तन्मय दीठ अपलक,

कौन ऋतु है, राशि क्या है, कौन-सा नक्षत्र, गत-शंका, द्विधा-हत,

बिन्दु अथवा वज्र हो-


चंचु खोले, आत्म-विस्मृत हो गया है यती चातक:

स्वाति, नीरद, नील-द्युति, जैसे तुझे स्वीकार हो।

अभ्र लख भ्रू-चाप सा, नीचे प्रतीक्षा में स्तिमित नि:शब्द

धरा पाँवर-सी बिछी है, वक्ष उद्वेलित हुआ है स्तब्ध,


चरण की हो चाप किंवा छाप तेरे तरल चुम्बन की:

महाबल, हे इन्द्र, अब जैसे तुझे स्वीकार हो।

मैं खड़ा खोले हृदय के सभी ममता-द्वार,

नमित मेरा भाल; आत्मा नमित-तर है, नमित-तम मम भावना-संसार,


फूट निकला है न-जाने कौन हृत्तल वेधता-सा निवेदन का अतुल पारावार,

अभय वर हो, वरद कर हो, तिरस्कारी वर्जना, हो प्यार:

तुझे प्राणाधार, जैसे हो तुझे स्वीकार-

सखे, चिन्मय देवता, जैसे तुझे स्वीकार हो!


दिल्ली, 27 मार्च, 1941


64. चार का गजर

चार का गजर कहीं खड़का-

रात में उचट गयी नींद मेरी सहसा:

छोटे-छोटे, बिखरे से, शुभ्र अभ्र-खंडों बीच-

द्रुत-पद भागा जा रहा है चाँद:


जगा हूँ मैं एक स्वप्न देखता:

जाने कौन स्थान है, मैं खड़ा एक मंच पर एक हाथ ऊँचा किये।

भाषण के बीच में

रुक कर नीचे देखता हूँ, जुटी भीड़ को


और फिर निज उठे कर को

जिस में मैं एक चित्र थामे हूँ,


और फिर मुग्ध-नेत्र चित्र को ही देखता-

निर्निमेष लोचन-युगल जिस में कि युवा कवि के

देखे जा रहे हैं, एक छायामय किन्तु दीप्तिमान नारी-मुख को:

आकृति नहीं है स्पष्ट, किन्तु मानो फलक को भेदती-सी

दृष्टि उस अप्सरा की आँखों की

पैठी जा रही है कवि-युवक के उर में।


मेरी भाव-धारा फिर वेष्टित हो शब्द से

बह चलती है जन-संकुल की ओर (मानो निम्नगा

हो के नभगंगा बनी धौत-पाप भागीरथ-तारिणी)

कहता हूँ, देखो यहाँ चित्रण किया है चित्रकार ने


एकनिष्ठ; ध्येय-रत, तम-शील साधना का:

दुर्निवार चला जा रहा है कवि-युवा निज पथ पर

उर धारे पुंजीकृत कल्पना की स्वप्न-मूर्त प्रतिमा।

एक सीमा होती है, उलाँघ कर जिस को


बनता विसर्जन है बिम्ब उपलब्धि का:

देखो, कैसे तन्मय हुआ है वह, आत्मसात्!

नीचे कहीं, संकुल के बीच से

आया एक स्वर, तीखा, व्यंग्य-युक्त, मुझे ललकारता:

तेरे पास भी तो प्रतिकृति है-छाया-रूप तेरे निज मोह की यवनिका!


मानो मेरा रोम-रोक पुलका प्रहर्ष से,

मैं ने एकाएक चीन्ह लिया उस फलक को बेधती-सी

छायाकृति-बीच जड़ी अपलक आँखों को-

तेरी थीं वे आँखें, आद्र्र, दीप्ति-युक्त,


मानो किसी दूरतम तारे की चमक हो।

और फिर गूँज गये मेरे प्राण-गह्वर के सूने में

वह प्रश्न-तेरे पास भी तो बस चित्र है-


प्रतिकृति, छायामय-

खुल गया चेतना का द्वार तभी,

उठ गयी मेरे मोहन-स्वप्न की यवनिका,

भिंची मेरी मुट्ठियाँ थीं, उन की पकड़ किन्तु बाँधे एक शून्यता के श्वास को-

छोटे-छोटे, बिखरे-से, शुभ्र बादलों को पार करता-


मानो कोई तप-क्षीण कापालिक साध्य-साधना की बल-बुझी झरी,

बची-खुची राख पर धीमे पैर रखता-

नीरव, चपलतर गति से

चाँद भागा जा रहा है द्रुतपद-


जागा हूँ मैं स्वप्न से कि

चार का गजर कहीं खड़का!


दिल्ली, 11 जुलाई, 1941


65. भादों की उमस

सहम कर थम से गए हैं बोल बुलबुल के,

मुग्ध, अनझिप रह गए हैं नेत्र पाटल के,

उमस में बेकल, अचल हैं पात चलदल के,

नियति मानों बँध गई है व्यास में पल के ।


लास्य कर कौंधी तड़ित् उर पार बादल के,

वेदना के दो उपेक्षित वीर-कण ढलके

प्रश्न जागा निम्नतर स्तर बेध हृत्तल के—

छा गए कैसे अजाने, सहपथिक कल के?


दिल्ली, 3 अगस्त, 1941


66. चेहरा उदास

रात के रहस्यमय, स्पन्दित तिमिर को भेदती कटार-सी,

कौंध गयी बौखलाये मोर की पुकार-

वायु को कँपाती हुई,

छोटे-छोटे बिन जमे ओस-बिन्दुओं को झकझोरती,


दु:सह व्यथा-सी नभ पार!

मेरे स्मृति-गगन में सहसा अन्धकार चीर कर आया एक चेहरा उदास।

आँखों की पुतलियों में सोयी थीं बिजुलियाँ-

किन्तु वेदना का आद्र्र घन छाया आस-पास!


एक क्षण। केकी की पुकार से फटा हुआ

रात का रहस्यगर्भ स्पन्दित तिमिर फिर व्रण निज

ढँक कर फैल कर मिल गया-

जैसे कोई निराकार चेतना


जीवन की अल्पतम अनुभव-लहर की चोट सोख लेती है

और मानो चोट खाये स्थल को

देने की विशेष कोई स्निग्ध-स्पर्श सान्त्वना-

रात के कुहासे में से एक छोटा तारा फूट निकला।


किन्तु मेरी स्मृति के ओर-छोर-मुक्त, गतियुक्त-से गगन में

थम गया, जम गया, वह स्थिर-नेत्र-युक्त चेहरा उदास:

आँखों में सुलाये हुए तड़पती बिजुली-

और आद्र्र वेदना के घन छाये आस-पास!


मेरी चेतना उसी के चिन्तन से प्लावित है युग-युग-

चोट नहीं, वही मेरी जीवनानुभूति है।

खुला ही रहे ये मेरा वातायन वेदना का,

देखता रहूँ मैं सदा अपलक वह छवि, दीप्तियुक्त-छायामय-

मिटो मत मेरे स्मृति-पटल के तल से,


हटो मत मेरी प्यासी दृष्टि के क्षितिज से,

मेरे एकमात्र संगी चेहरे उदास:

मुझे चाह नहीं अन्य स्निग्ध-स्पर्श सान्त्वना की

तुम्हीं मेरा जीवन-कुहासा भेद उगा हुआ तारा हो!


दिल्ली, 8 अगस्त, 1941


67. चरण पर धर चरण

चरण पर धर चरण

चरण पर धर सिहरते-से चरण,

आज भी मैं इस सुनहले मार्ग पर-

पकड़ लेने को पदों से मृदुल तेरे पद-युगल के अरुण-तल की

छाप वह मृदुतर जिसे क्षण-भर पूर्व ही निज


लोचनों की उछटती-सी बेकली से मैं चुका हूँ चूम बारम्बार-

कर रहा हूँ, प्रिये, तेरा मैं अनुकरण

मुग्ध, तन्मय-

चरण पर धर सिहरते-से चरण।

पाश्र्व मेरा-

किन्तु इस से क्या कि मेरे साथ चलता कौन है,

जब कि वह है साथ मेरी यन्त्र-चालित देह के,


और मैं-मेरा परम तम तत्त्व वलयित साथ तेरे प्राण के:

जब कि आत्मा यह अनाहत और अक्षत,

चरण-तल की छाप के उस कनक-शतदल कमल से

बिछुड़ी अकेली दोल पंखुड़ी में चमकती


लोल जल की बूँद-सा पर-ज्योति-गुम्फित,

तद्गत और अतिश: मौन है!


बरेली-काठगोदाम (रेल में), अक्टूबर, 1941


68. मुक्त है आकाश

निमिष-भर को सो गया था प्यार का प्रहरी-

उस निमिष में कट गयी है कठिन तप की शिंजिनी दुहरी

सत्य का वह सनसनाता तीर जा पहुँचा हृदय के पार-


खोल दो सब वंचना के दुर्ग के ये रुद्ध सिंहद्वार!

एक अन्तिम निमिष-भर के ही लिए कट जाय मायापाश,

एक क्षण-भर वक्ष के सूने कुहर को झनझना कर

चला जाए झलस कर भी तप्त अन्तिम मुक्ति का प्रश्वास-

कब तलक यह आत्म-संचय की कृपणता! यह घुमड़ता त्रास!


दान कर दो खुले कर से, खुले उर से होम कर दो

स्वयं को समिधा बना कर!

शून्य होगा, तिमिरमय भी,

तुम यही जानो कि अनुक्षण मुक्त है आकाश!


दिल्ली, 24 अक्टूबर, 1941


69. किस ने देखा चाँद

किस ने देखा चाँद?-किस ने, जिसे न दीखा उस में क्रमश: विकसित

एकमात्र वह स्मित-मुख जो है अलग-अलग प्रत्येक के लिए

किन्तु अन्तत: है अभिन्न:

है अभिन्न, निष्कम्प, अनिर्वच, अनभिवद्य,

है युगातीत, एकाकी, एकमात्र?


दिल्ली, 1942


70. मेरी थकी हुई आँखों को

मेरी थकी हुई आँखों को किसी ओर तो ज्योति दिखा दो-

कुज्झटिका के किसी रन्ध्र से ही लघु रूप-किरण चमका दो।

अनचीती ही रहे बाँसुरी, साँस फूँक दो चाहे उन्मन-

मेरे सूखे प्राण-दीप में एक बूँद तो रस बरसा दो!


दिल्ली, 5 मार्च, 1943


71. आज मैं पहचानता हूँ

आज मैं पहचानता हूँ राशियाँ, नक्षत्र,

ग्रहों की गति, कुग्रहों के कुछ उपद्रव भी,

मेखला आकाश की;


जानता हूँ मापना दिन-मान;

समझता हूँ अयन-विषुवत्ï, सूर्य के धब्बे, कलाएँ चन्द्रमा की

गति अखिल इस सौर-मण्डल के विवर्तन की-


और इन सब से परे, मैं सोचता हूँ, जरा कुछ-कुछ

भाँपने-सा भी लगा हूँ

इस गहन ब्रह्मांड के अन्त:स्थ विधि का अर्थ-

अथ!-रे कितनी निरर्थक वंचना की मोह-स्वर्णिम यह यवनिका-


यह चटक, तारों-सजा फूहड़ निलज आकाश-

अर्थ कितना उभर आता था अचानक

अल्पतम भी तारिका की चमक को जब

देखते ही मैं तुरत, नि:शब्द तुलना में तुम्हारे

कुछ उनींदे लोचनों की युगल जोड़ी कर लिया करता कभी था याद!


दिल्ली, 1943


72. कृत-बोध

तीन दिन बदली के गये, आज सहसा

खुल-सी गयी हैं दो पहाड़ों की श्रेणियाँ

और बीच के अबाध अन्तराल में, शुभ्र, धौत

मानो स्फुट अधरों के बीच से प्रकृति के


बिखर गया हो कल-हास्य एक क्रीड़ा-लोल अमित लहर-सा-

लाँघ कर मानस का शून्य तम

नि:सृत हुआ है द्युत तेरे प्रति मेरे कृत-बोध का प्रकाश-

चेतना की मेखला-सी जीवनानुभूति की पहाडिय़ों के बीच मेरी,


विनत कृतज्ञता

फैल गयी खुले आकाश-सी।


शिलङ्, 7 अगस्त, 1943


73. बदली की साँझ

धुँधली है साँझ किन्तु अतिशय मोहमयी,

बदली है छायी, कहीं तारा नहीं दीखता।

खिन्न हूँ कि मेरी नैन-सरसी से झाँकता-सा

प्रतिबिम्ब, प्रेयस! तुम्हारा नहीं दीखता।


माँगने को भूल कर बोध ही में डूब जाना

भिक्षुक स्वभाव क्यों हमारा नहीं सीखता?


शिलङ्, 28 फरवरी, 1944


74. आशी:

(वसन्त के एक दिन)

फूल कांचनार के,

प्रतीक मेरे प्यार के!

प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली,


पत्तियों का सम्पुट, निवेदित ज्यों अंजली।

आये फिर दिन मनुहार के, दुलार के

-फूल कांचनार के!

सुमन-वृन्त बावले बबूल के!


झोंके ऋतुराज के वसन्ती दुकूल के,

बूर बिखराता जा पराग अंगराग का,

दे जा स्पर्श ममता की सिहरती आग का,

आवे मत्त गन्धवह ढीठ हूल-हूल के।


-सुमन वृन्त बावले बबूल के!

कली री पलास की!

टिमटिमाती ज्योति मेरी आस की

या कि शिखा ऊध्र्वमुखी मेरी दीप्त प्यास की।


वासना-सी मुखरा, वेदना-सी प्रखरा

दिगन्त में, प्रान्तर में, प्रान्त में

खिल उठ, झूल जा, मस्त हो,

फैल जा वनान्त में-

मार्ग मेरे प्रणय का प्रशस्त हो!


शिलङ्, 14 मार्च, 1934


75. वीर-बहू

एक दिन देवदारु-वन बीच छनी हुई

किरणों के जाल में से साथ तेरे घूमा था।

फेनिल प्रपात पर छाये इन्द्र-धनु की

फुहार तले मोर-सा प्रमत्त-मन झूमा था

बालुका में अँकी-सी रहस्यमयी वीर-बहू

पूछती है रव-हीन मखमली स्वर से:

याद है क्या, ओट में बुरूँस की प्रथम बार

धन मेरे, मैं ने जब ओठ तेरा चूमा था?


शिलङ्, मार्च, 1944


76. कल की निशि

मिथ, कल मिथ्या:

कल की निशि घनसार तमिस्रा और अकेली होगी-

स्मृति की सूखी स्रजा रुआँसी एक सहेली होगी।

चरम द्वन्द्व, आत्मा नि:सम्बल, अरि गोपित, मायावी-

प्यार? प्यार! अस्तित्व मात्र अनबूझ पहेली होगी!


दिल्ली-शिलङ् (रेल में), 8 जनवरी, 1945


77. प्रिया के हित गीत

दृश्य लख कर प्राण बोले: 'गीत लिख दे प्रिया के हित!'

समर्थन में पुलक बोली: 'प्रिया तो सम-भागिनी है

साथ तेरे दुखित-नन्दित!'


लगा गढऩे शब्द।

सहसा वायु का झोंका तुनक कर बोला, 'प्रिया मुझ में नहीं है?'

नदी की द्रुत लहर ने टोका-

'किरण-द्रव मेरे हृदय में स्मित उसी की बस रही है।'

शरद की बदली इकहरी, शिथिल अँगड़ाई


भर, तनिक-सी और झुक आयी:

'नहीं क्या उस की लुनाई इस लचीली मसृण-मृदु

आकार रेखा में बही है?'

सिहर कर तरु-पात भी बोले वनाली के,


आक्षितिज उन्मुक्त लहरे खेत शाली के-

आत्म-लय के, बोध के, इस परम रस से पार

ग्रन्धि मानो रूप की, स्वावलम्ब, बिन आधार,

अलग प्रिय, एकान्त कुछ, कोई कहीं है?


प्रिय तो है भावना, वह है, यहीं है, रे, यहीं है!

रह गया मैं मौन, अवनत-माथ

एकलय उन सबों से, उस दृश्य से अभिभूत,

प्रिये, तुझ को भूल कर एकान्त, अन्त:पूत,

क्यों कि एक प्राण तेरे साथ!


डिब्रूगढ़, 21 जनवरी, 1945


78. देख क्षितिज पर भरा चाँद

देख क्षितिज पर भरा चाँद, मन उमँगा, मैं ने भुजा बढ़ायी।

हम दोनों के अन्तराल में कमी नहीं कुछ दी दिखलायी,

किन्तु उधर, प्रतिकूल दिशा में, उसी भुजा की आलम्बित परछाईं

अनायस बढ़, लील धरा को, क्षिति की सीमा तक जा छायी!


शिलङ्, 1945


79. प्रतीक्षा

नया ऊगा चाँद बारस का,

लजीली चाँदनी लम्बी,

थकी सँकरी सूखती दीर्घा:


चाँदनी में धूल-धवला बिछी लम्बी राह।

तीन लम्बे ताल, जिन के पार के लम्बे कुहासे को

चीरती, ज्यों वेदना का तीर, लम्बी टटीरी की आह।

उमड़ती लम्बी शिखा-सी, यती-सी धूनी रमाये


जागती है युगावधि से सँची लम्बी चाह-

और जाने कौन-सी निव्र्यास दूरी लीलने दौड़ी

स्वयं मेरी निज लम्बी छाँह!


शिलङ्, 1945


80. एक दर्शन

माँगा नहीं, यदपि पहचाना,

पाया कभी न, केवल जाना-परिचिति को अपनापा माना।

दीवाना ही सही, कठिन है अपना तर्क तुम्हें समझाना-

इह मेरा है पूर्ण, तदुत्तर परलोकों का कौन ठिकाना!


शिलङ्, 8 फरवरी, 1945


81. हिमंती बयार

(1)


हवा हिमन्ती सन्नाती है चीड़ में, सहमे पंछी चिहुँक उठे हैं नीड़ में,

दर्द गीत में रुँधा रहा-बह निकला गल कर मींड में-

तुम हो मेरे अन्तर में पर मैं खोया हूँ भीड़ में!


(2)


सिहर-सिहर झरते पत्ते पतझार के,

तिर चले कहाँ पंखों पर चढ़े बयार के!

-ले अन्ध वेग नौका ज्यों बिन पतवार के!

जीवन है कच्चा सूत-रहूँ मैं ऊब-डूब सागर में तेरे प्यार के!


शिलङ्, 9 फरवरी, 1945


82. नन्ही शिखा

जब झपक जाती हैं थकी पलकें जम्हाई-सी स्फीत लम्बी रात में,

सिमट कर भीतर कहीं पर

संचयित कितने न जाने युग-क्षणों की


राग की अनुभूतियों के सार को आकार दे कर,

मुग्ध मेरी चेतना के द्वार से तब

नि:सृत होती है अयानी एक नन्ही-सी शिखा।

काँपती भी नहीं निद्रा


किन्तु मानो चेतना पर किसी संज्ञा का अनवरत सूक्ष्मतम स्पन्दन

जता देता है मुझे,

नर्तिता अपवर्ग की अप्सरा-सी वह शिखा मेरा भाल छूती है,

नेत्र छूती है, वस्त्र छूती है,


गात्र को परिक्रान्त कर के, ठिठक छिन-भर उमँग कौतुक से

बोध को ही आँज जाती है किसी एकान्त अपने दीप्त रस से।

और तब संकल्प मेरा द्रवित, आहुत,

स्नेह-सा उत्सृष्ट होता है शिखा के प्रति:


धीर, संशय-हीन, चिन्तातीत!

वह चाहे जला डाले।

(यदपि वह तो वासना का धर्म है-

और यह नन्ही शिखा तो अनकहा मेरे हृदय का प्यार है!)


शिलङ्, मार्च, 1945


83. माघ-फागुन-चैत

अभी माघ भी चुका नहीं, पर मधु का गरवीला अगवैया

कर उन्नत शिर, अँगड़ाई ले कर उठा जाग

भर कर उर में ललकार-भाल पर धरे फाग की लाल आग।


धूल बन गयी नदी कनक की-लोट-पोट न्हाती गौरैया।

फूल-फूल कर साथ-साथ जुड़ ढीठ हो गये चिरी-चिरैया

आया हचकोला फाग का:

खग लगे परखने नये-नये सुर अपने-अपने राग का


(बिसरा कर सुध, कल बन जाएगा यही बगूला आग का!)

'बिगड़ी बयार को ले जाने दो सूखे पीले पात पुरानी चैत के!

इठलाती आयी फुनगी, पावस में डोल उठी हरखायी नैया-

दिन बदला उन का, अब है काल खेवैया!'


सहसा झरा फूल सेमर का गरिमा-गरिम, अकेला, पहला,

क्या टूट चला सपना वसन्त का चौबारा, चौमहला, लाल-रुपहला?

झर-झर-झर लग गयी झड़ी-सी

टहनी पर बस टँगी रह गयी अर्थहीन उखड़ी-सी


टुच्ची-बुच्ची ढोंडिय़ाँ लँढूरी पर-खोंसे झुलसे पाखी-सी

खिसियाये मुँह बाये।

पहले ही सकुची-सिमटी

दब गयी पराजय के बोझे से लद किसान की झुकी मड़ैया!


क्रमश: आये

दिन चैती: सौगात नयी क्या लाये?

-बाल बिखेरे, अपना रूखा सिर धुनती (नाचे ता-थैया!)

बेचारी हर-झोंके-मारी, विरस अकिंचन सेमर की बुढिय़ा मैया!


जालन्धर, अप्रैल, 1945


84. जागर

पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती।

चेतना अन्तर्मुखी स्मृति-लीन होती है,

देह भी पर सजग है-खोने नहीं देती।


निशा के उर में बसे आलोक-सी है व्यथा व्यापी-

प्यार में अभिमान की पर कसक ही रोने नहीं देती।

पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती!


जालन्धर, 24 जून, 1945


85. शाली

नभ में सन्ध्या की अरुणाली, भू पर लहराती हरियाली,

है अलस पवन से खेल रही भादों की मान भरी शाली:

री, किस उछाह से झूम उठी तेरी लोलक-लट घुँघराली?


झुक कर नरसल ने सरसी में अपनी लघु वंशी धो ली,

झिल्ली के प्लुत एक स्वर में संसृति की साँय-साँय बोली:

किस दूरी से आहूत, अवश, उड़ चली विहगों की टोली:

किस तरल धूम से भर आयीं तेरी आँखें काली-काली?

-भादों की मान-भरी शाली!


जलन्धर, 1945


86. आषाढ़स्य प्रथम दिवसे

घन अकास में दीखा।

चार दिनों के बाद वह आएगी

मुझ पर छा जाएगी, सूखी रेतीली धमनी में फिर रस-धारा लहराएगी


वह आएगी-मैं सूखी फैलाव रेत (वह आएगी-)

मेरी कन-कनी सिंच जाएगी (वह आएगी-)

ठंड पड़ेगी जी को, आसरा मिलेगा ही को

नये अयाने बादल में मैं इकटक देख रहा हूँ पी को-


वह आएगी!

वह आएगी-

पहले बारे बादल-सी छरहरी, अयानी, लाज-लजी, अनजानी,

फिर मानो पहचान, जान यह सब कुछ उस का ही है


घहराते उद्दाम हठीले यौवन से इठलाती

खुले बन्द, खिले अंग; बेकल, सब-बौरन, मदमाती

वह आएगी-

लालसा का लाल, जय का लिये उजला रंग।

वह आएगी-


मेरी ढाँप लेगी नंग अपनी देह से बहते स्नेह से:

अभी सूखी रेत हूँ पर हो जाऊँगा हरा, गति-जीवित, भरा,

बालू धारा बन जाएगी-धारा आनी-जानी है

पर मेरी तो वह नस-नस की पहचानी है-

वह आएगी:


खिंच जाएगी हिमगिरी से आसमुद्र

बाँकी किन्तु अचूक एक जीवन की रेखा-जीवन बहता पानी है-

इन टूटे हुए कगारों में फिर जीती इन धारों की लम्बी, बे-अन्त कहानी है!

मैं ने घन अकास में देखा-परिचय का पहला निशान:

चेता, हरा हो गया सूखा ज्ञान! मैं ने लिया पहचान


वह आएगी!

घन अकास में दीखा:

वह आएगी!


जालन्धर, जुलाई, 1945


87. पानी बरसा

ओ पिया, पानी बरसा!

घास हरी हुलसानी

मानिक के झूमर-सी झूमी मधुमालती

झर पड़े जीते पीत अमलतास

चातकी की वेदना बिरानी।

बादलों का हाशिया है आस-पास

बीच लिखी पाँत काली बिजली की

कूँजों के डार-- कि असाढ़ की निशानी!

ओ पिया, पानी!

मेरा हिया हरसा।

खड़-खड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात।

देखने को आँखें, घेरने को बाँहें,

पुरानी कहानी!

ओठ को ओठ, वक्ष को वक्ष--

ओ पिया, पानी!

मेरा जिया तरसा।

ओ पिया, पानी बरसा।


जालन्धर, 2 जुलाई, 1945


88. किसने देखा चाँद

किस ने देखा चाँद?-जिस ने उसे न चीन्हा एक अकेली आँख,

अकेला एक अनझरा आँसू जीवन के इकलौते अपने दुख का,

बँधी चिरन्तन आयासों से, खुली अजाने, अनायास


सीपी के भीतर का अनगढ़ मोती?

सीपी-वासी जीव, न जाने जीवित है या स्वयं जीव की सूनी सीपी!

किन्तु नहीं सन्देह कि मोती उसकी मर्म-व्यथा का फल है-

उजली सूनी सीपी

चाँद न जिस ने चीन्हा-किसने देखा चाँद!


जलन्धर, 13 अगस्त, 1945


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