सागर-मुद्रा 'अज्ञेय' | Sagar-Mudra 'Agyeya'

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Sachchidananda-Hirananda-Vatsyayan-Agyeya
 
सागर-मुद्रा 'अज्ञेय' |  Sagar-Mudra 'Agyeya' (toc)

1. नशे में सपना - 'अज्ञेय'

नशे में सपना देखता मैं
सपने में देखता हूँ
नशे में सपना देखनेवाले को
सपने में देखता हुआ
नशे में डगमग सागर की उमड़न।

इतने गहरे नशों में
इतने गहरे सपनों में
इतने गहरे नशे में।
सागर इतना गहरा, विराट्।
देखने वाला मैं इतना छिछला, अकिंचन।

इतना बहुत नशा इतने बहुत सपने
इतना बहुत सागर इतना कम मैं।

नयी दिल्ली, मार्च, 1967

2. जो औचक कहा गया - 'अज्ञेय'

मैं ने जो नहीं कहा
वह मेरा अपना रहा
रहस्य रहा:
अपनी इस निधि, अपने संयम पर
मैं ने बार-बार अभिमान किया।

पर आज हार की तीक्ष्ण धार
है साल रही: मेरा रहस्य
उतना ही रक्षित है
उतना-भर मेरा रहा
कि जितना किसी अरक्षित क्षण में
तुम ने मुझ से कहला लिया!

जो औचक कहा गया, वह बचा रहा,
जो जतन सँजोया, चला गया।

यह क्या मैं तुम से, या जीवन से
या अपने से छला गया?

नयी दिल्ली, 28 जून, 1968

3. देना पाना - 'अज्ञेय'

दो? हाँ, दो,
बड़ा सुख है देना!

देने में अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-
पर गिरेगा नहीं,
और फिर बोध यह लाएगा
कि देना नहीं है निःस्व होना
और वह बोध
तुम्हें फिर स्वतन्त्रतर बनाएगा।३

लो? हाँ, लो।
सौभाग्य है पाना!
उस की आँधी से रोम-रोम
एक नयी सिहरन से भर जाएगा।

पाने में जीना भी कुछ खोना
या निःस्व होना तो नहीं
पर है कहीं ऊना हो जाना:
पाना: अस्मिता का टूट जाना।

वह उन्मोचन-यह सोच लो-
वह क्या झिल पाएगा?

नयी दिल्ली, 29 जून, 1968

4. कन्हाई ने प्यार किया - 'अज्ञेय'

कन्हाई ने प्यार किया कितनी गोपियों को कितनी बार।
पर उड़ेलते रहे अपना सारा दुलार
उस के रूप पर जिसे कभी पाया नहीं-
जो कभी हाथ आया नहीं।

कभी किसी प्रेयसी में उसी को पा लिया होता-
तो दुबारा किसी को प्यार क्यों किया होता?
कवि ने गीत लिखे नये-नये बार-बार,
पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार

जिसे कभी पूरा पकड़ पाया नहीं-
जो कभी किसी गीत में समाया नहीं।
किसी एक गीत में वह अँट गया दिखता
तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता?

नयी दिल्ली, अक्टूबर, 1968

5. फूल की स्मरण प्रतिभा - 'अज्ञेय'

यह देने का अहंकार छोड़ो।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो:
‘मधुर, यह देखो

फूल। इसे तोड़ो;
घुमा-कर फिर देखो,
फिर हाथ से गिर जाने दो:
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल।’

फूल की स्मरण-प्रतिभा ही बचती है।
तुम नहीं। न तुम्हारा दान।

नयी दिल्ली, नवम्बर, 1968

6. छिलके - 'अज्ञेय'

छिलके के भीतर छिलके के
भीतर छिलका।
क्रम अविच्छिन्न।
तो क्या?
यह कैसे है सिद्ध

कि भीतरतम है, होगा ही,
बाहर से भिन्न?
मैं अनन्य एकाएक
जैसे प्यार।

नयी दिल्ली, नवम्बर, 1968

7. काल की गदा - 'अज्ञेय'

काल की गदा एक दिन
मुझ पर गिरेगी।
गदा मुझे नहीं नाएगी:
पर उस के गिरने की नीरव छोटी-सी ध्वनि
क्या काल को सुहाएगी?

नयी दिल्ली, नवम्बर, 1968

8. देखा है कभी - 'अज्ञेय'

मैं ने देखी हैं झील में डोलती हुई
कमल-कलियाँ जब कि जल-तल पर थिरक उठती हैं
छोटी-छोटी लहरियाँ।
ऐसे ही जाती है वह, हर डग से

थरथराती हुई मेरे जग को:
घासों की तरल ओस-बूँदें तक को कर बेसुध
चूम लेती हैं उस के चपल पैरों की तलियाँ।
पर तुम ने-नहीं, तुम ने नहीं, उस ने!-देखा है कभी

कि कैसे पर्वती बरसात में
बिजली से बार-बार चौंकायी हुई रात में
तीखी बौछार की हर गिरती बूँद से भेंटने को
सारे पावस को ही अपने में समेटने को

ललकता है उसी झील का वही जल-
हर बूँद की प्रति-बूँद, आकुल, पागल,
जैसे मेरा दिल? जैसे मेरा दिल...

प्राहा (चैकोस्लोवाकिया), 31 दिसम्बर, 1968

9. मरण के द्वार पर - 'अज्ञेय'

(1)
ज्योति के
भीतर ज्योति के
भीतर ज्योति।
प्यार है वह-वह सत्
और तत् तदसि एवं-एतत्।

(2)
कहीं एक है वह जिस का है
यह। पर इस से
मेरा क्या नाता
जब कि इस से भी
कुछ नहीं आता-जाता
कि मैं भी हूँ या नहीं?

(3)
कृतं स्मर मृतान्
स्मर क्रतो स्मर।
-हाँ, वह मरण के द्वार पर।
मगर वहाँ जाना कहाँ
इस मारग पर चरण धर?

नयी दिल्ली, दिसम्बर, 1969

10. सपने में - 'अज्ञेय'

सपने में अनजानी की
पलकें मुझ पर झुकीं
गाल मेरे पुलकाती सरक गयीं

गीली अलकें
मेरे चेहरे को
लौट-लौट सहला
मुझ को सिहरा कर निकल गयीं।
मैं जाग गया

जागा हूँ
उस अनपहचानी के
अनुराग पगा:
वह कौन? कहाँ?
अनजानी:

अन्धकार को ताक रहा मैं
आँखें फाड़े
ठगा-ठगा!
महावृक्ष के नीचे

जनवरी, 1969

11. सपने में-जागते में - 'अज्ञेय'

सपने के भीतर
सपने में अपने
सीढ़ियों पर
बैठा हुआ होता हूँ

धूप में।
-देखने को सपने
जागते मे
जागता भागता हूँ
अँधेरी गुफा में

खोजता हुआ दरार
चौड़ाने को।
झाँकने को पार।
-जागने को?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 25 जनवरी, 1969

12. दोनों सच हैं - 'अज्ञेय'

वे सब बातें
झूठ भी हो सकती थीं।
लेकिन यों तो
सच भी हो सकती थीं।

बात यह है कि अनुभूतियाँ
बातें नहीं हैं
और असल में विचार भी
शब्दों के फन्दे में आते नहीं हैं।
अपनी-अपनी जगह

दोनों सच हैं
या होंगे;
पर सच क्या है, यह सवाल
हम भरसक उठाते नहीं हैं

और टकरा जायँ तो
पतियाते नहीं हैं।

जनवरी, 1969

13. भले आए - 'अज्ञेय'

राम जी भले आये-ऐसे ही
आँधी की ओट में
चले आये बिन बुलाये।
आये, पधारो।

सिर-आँखों पर।
वन्दना सकारो।
ऐसे ही एक दिन
डोलता हुआ आ धमकूँगा मैं
तुम्हारे दरबार में:

औचक क्या ले सकोगे
अपनी करुणा के पसार में?

जनवरी, 1969

14. छातियों के बीच - 'अज्ञेय'

उस ने वहाँ अपनी नाक गड़ाते हुए
हुमक कर कहा
और दुहराता रहा-
(दुलार पढ़ा हुआ नहीं भी था-पर क्या बात भी पढ़ी हुई नहीं थी?)-

‘हाँ, यहाँ, तुम्हारी छातियों के बीच
मेरा घर है! यहाँ! यहाँ!’
और चेहरे से उन्हें धीरे-धीरे सहलाता रहा।
और उस ने कहा, ‘हाँ, हाँ,

ऐसे ही फिर; हाँ, फिर कहो!
हाँ, आओ, मैं यहाँ तुम्हें छिपा लूँगी-
तुम सदा यों ही रहो!’
छातियाँ तब नहीं जानती थीं-

जो कि नाक भी तब नहीं मानती थी-
कि तभी से वह वहाँ घर बनाने लगी
जिस में फिर वह बन्दी हो कर छटपटाने लगा।
छातियों के बीच और कुछ नहीं, इस रहस्य का घर है।

माथा क्यों वहाँ टिका है?
क्यों कि नहीं तो नाक जाने का डर है।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 1 फरवरी, 1969

15. अभागे, गा! - 'अज्ञेय'

मरता है?
जिस का पता नहीं
उस से डरता है?
-गा! जीता है?

आस-पास सब कुछ इतना भरा-पुरा है
और बीच में तू रीता है?
-गा!
दुःख से स्वर टूटता है?

छन्द सधता नहीं,
धीरज छूटता है?
-गा!
याकि सुख से ही बोलती बन्द है?
रोम सिहरे हैं, मन निःस्पन्द है?
-फिर भी गा!
अभागे, गा!

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 10 फरवरी, 1969

16. क्यों - 'अज्ञेय'

क्यों यह मेरी ज़िन्दगी
फूटे हुए पीपे के तेल-सी
बूँद-बूँद अनदेखी चुई
काल की मिट्टी में रच गयी?

क्यों वह तुम्हारी हँसी
घास की पत्ती पर टँकी ओस-सी
चमकने-चमकने को हुई
कि अनुभव के ताप में उड़ गयी?

क्यों, जब प्यार नहीं रहा
तो याद मन में फँसी रह गयी?
ज्योनार हो चुकी, मेहमान चले गये,
बस पकवानों की गन्ध सारे घर में बसी रह गयी...

क्यों यह मेरा सवाल अपनी कोंच से
मुझे तड़पाता है रात-भर, रात भर
जैसे टाँड़ में अखबारें की गड्डी में छिपा चूहा
करता रहे कुतर-कुतर, खुसर-फुसर?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 16 फरवरी, 1969

17. पाठभेद - 'अज्ञेय'

एक जगत् रूपायित प्रत्यक्ष
एक कल्पना सम्भाव्य।
एक दुनिया सतत मुखर
एक एकान्त निःस्वर

एक अविराम गति, उमंग
एक अचल, निस्तरंग।
दो पाठ एक ही काव्य।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), फ़रवरी, 1969

18. देर तक हवा में - 'अज्ञेय'

देर तक हवा में
अलूचों की पंखुरियों को
तिरछी झरते
देखा किया हूँ।

नहीं जानता कि तब
अतीत में कि भविष्य में
कि निरे वर्तमान के
क्षण में जिया हूँ।
भले ही उस बीच बहुत-सी

यादों को उमड़ते
आशाओं को मरते
और हाँ, गहरे में कहीं एक
नयी टीस से अपने को सिहरते

अनजाने पर लगातार
पहचाना किया हूँ।
यों न जानते हुए जीना
क्या सही है?

पर क्या पूछने की एकमात्र
बात यही है?
और मैं ने यह जो होने, जीने,
झरने, सिहरने की

बात कही है,
उस सब में क्या सच वही नहीं है
जो नहीं है?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 9 मार्च, 1969

19. धार पर संतार दो - 'अज्ञेय'

चलो खोल दो नाव
चुपचाप
जिधर बहती है
बहने दो।

नहीं, मुझे सागर से
कभी डर नहीं लगा।
नहीं, मुझ में आँधियों का
आतंक नहीं जगा।

नाव तो तिर सकती है
मेरे बिना भी;
मैं बिना नाव भी
डूब सकूँगा।
मुझे रहने दो

अगर मैं छोड़ पतवार
निस्सीम पारावार
तकता हूँ;
खोल दो नाव
जिधर बहती है

बहने दो।
यहाँ भी मुझे
अन्धकार के पार
लहर ले आयी थी;

चूम ली मैं ने मिट्टी किनारे की
सुनहली रज
पलकों को छुआयी थी;
अब-ओठों पर जीभ से सहलाता हूँ

खार उस पानी का
मन को बहलाता हूँ
मधुर होगा मेरा अनजाना भी
अन्त इस कहानी का।

रोको मत
तुम्हीं बयार बन पाल भरो,
तुम्हीं पहुँचे फड़फड़ाओ,
लटों में छन अंग-अंग सिहरो;
और तुम्हीं धार पर सँतार दो चलो,

मुझे सारा सागर
सहने दो।
खोल दो नाव,
जिधर बहती है
बहने दो।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 13 मार्च, 1969

20. घर छोड़े - 'अज्ञेय'

हाँ, बहुत दिन हो गये
घर छोड़े।
अच्छा था
मन का अवसन्न रहना

भीतर-भीतर जलना
किसी से न कहना
पर अब बहुत ठुकरा लिये
परायी गलियों के

अनजान रोड़े।
यह नहीं कि अब याद आने लगे
चेहरे किन्हीं ऐसे अपनों के,
या कि बुलाने लगे

मेहमान ऐसे कोई सपनों के।
कभी उभर भी आती हैं
कसकें पुरानी,
यह थोड़े ही कि नैन कभी

पसीजे नहीं?
सुख जो छूट गये पर छीजे नहीं
सिहरा भी जाते हैं तन को
जब-तब थोड़े-थोड़े।

सोचता हूँ, कैसा हो
अगर इस सहलाती अजनबी
बसन्त बयार के बदले
वही अपना झुलसाता अन्धड़ फिर

अंग-अंग को मरोड़े;
यह दुलराती फुहार नहीं
वह मौसमी थपेड़ा दुर्निवार
देह को झँझोड़े;

ये नपी-तुली रोज़मर्रा
सहूलतें न भी मिलें,
आये दिन संकट मँडराये,
फिर झिले कि न झिले;

पर भोर हो, सूरज निकले, तो ऐसे
जैसे बंजर-बियाबान की
पपड़ायी मिट्टी को
नया अंकुर फोड़े!

नहीं जानता कब कौन संजोग
ये डगमग पग
फिर इधर मोड़े-या न मोड़े?-
पर हाँ, मानता हूँ कि

जब-तब पहचानता हूँ कि
बहुत दिन हो गये
घर छोड़े।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 17 मार्च, 1969

21. मैं ने ही पुकारा था - 'अज्ञेय'

ठीक है
मैं ने ही तेरा नाम ले कर पुकारा था
पर मैं ने यह कब कहा था
कि यों आ कर

मेरे दिल में जल?
मेरे हर उद्यम में उघाड़ दे
मेरा छल,

मेरे हर समाधान में
उछाला कर सौ-सौ सवाल
अनुपल?
नाम: नाम का एक तरह का सहारा था।

मैं थका-हारा था
पर नहीं था किसी का गुलाम।
पर तूने तो आते ही फूँक दिया घर-बार
हिये के भीतर भी जगा दिया नया हाहाकार ओ मेरे राम!

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 17 मार्च, 1969

22. याद - 'अज्ञेय'

याद: सिहरन: उड़ती सारसों की जोड़ी
याद: उमस: एकाएक घिरे बादल में
कौंध जगमगा गई।
सारसों की ओट बादल
बादलों में सारसों की जोड़ी ओझल,
याद की ओट याद की ओट याद।
केवल नभ की गहराई बढ़ गई थोड़ी।
कैसे कहूँ की किसकी याद आई?
चाहे तड़पा गई।

काबूकी प्रेक्षागृह में (सैन फ्रांसिस्को), 21 मार्च, 1969

23. गाड़ी चल पड़ी - 'अज्ञेय'

पैर उठा और दबा
धीमी हुई गाड़ी और रुक गयी।
इंजन घरघराता रहा।
मैं मुड़ा, एक लम्बी दीठ-भर

मेरी आँखों ने उस की
आँखों को थाहा।
कुछ कहा नहीं, न कुछ चाहा।
फिर पैर, हाथ, तन

पहले-से सध आये,
दीठ की खोज चुक गयी।
और गाड़ी चल पड़ी
मील पर मील पर मील।

मन थरथराता रहा।
काल के सवालों का
नहीं है मेरे पास कोई जवाब,
जो उसे- या किसी को-दे सकूँ।

इतना ही कि ऐसी अतर्कित चुप्पियों में
मिल जाती हैं जब-तब छोटी-छोटी अमरताएँ
जिस में साँस ले सकूँ।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 22 मार्च, 1969

24. बालू घड़ी - 'अज्ञेय'

तुम मेरी एक निजी घड़ी
जिस में मैं ओक भर-भर
समय पूरता हूँ
और वह बालू हो कर रीत जाता है।

जिस बालू को मैं फिर बटोरता हूँ।
किस के पैरों की छाप है
इस बालू पर जिसे ताकते-ताकते
मेरा सारा चेतन जीवन बीत जाता है?
और मैं फिर अपने को पाने के लिए तुम्हें अगोरता हूँ।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 28 मार्च, 1969

25. अलस - 'अज्ञेय'

भोर
अगर थोड़ा और अलसाया रहे,
मन पर
छाया रहे

थोड़ी देर और
यह तन्द्रालस चिकना कोहरा;
कली
थोड़ी देर और

डाल पर अटकी रहे,
ओस की बूँद
दूब पर टटकी रहे;
और मेरी चेतना अकेन्द्रित भटकी रहे,

इस सपने में जो मैं ने गढ़ा है
और फिर अधखुली आँखों से
तुम्हारी मुँदी पलकों पर पढ़ा है
तो-तो किसी का क्या जाए?

कुछ नहीं।
चलो, इस बात पर
अब उठा जाए।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 29 मार्च, 1969

26. मों मार्त्र - 'अज्ञेय'

उधार के समय में
खरीदे हुए प्यार पर
चुरायी हुई मुस्कानें।
चलती-फिरती पपड़ायी सूरतें,

इश्तहारी नंगी सूरतें:
एक में दूसरी
और क्या पहचानें?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 29 मार्च, 1969

27. मन दुम्मट-सा - 'अज्ञेय'

मन
दुम्मट-सा गिरता है
सूने में अँधेरे में;
न जाने कितनी गहरी है

भीत
मेरी उदासी की
ओ मीत!
गिरता है गिरता है

कहीं नहीं थिरता है धीरज;
नीचे ही सही
राह भी होती
उतरने की, तो

गिरता, डूब जाता
फिर शायद उतराता...
पर नहीं; मन
गिरता है और गिरता ही जाता है,

न थाह पाता है न फिरता है,
बस, सहमता ताकता है
कि मनोगर्त का अँधेरा ही बढ़ कर लोक लेता है।

देखो! कहीं वही तो नहीं,
अब स्वयं मेरे भीतर से झाँकता है?
उफ़, गिरता है, गिरता है
मन...

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), अप्रैल, 1961

28. कैसा है यह जमाना - 'अज्ञेय'

कैसा है यह ज़माना
कि लोग
इसे भी प्यार की कविता
मानेंगे!
पर कैसा है यह ज़माना

कि हमीं
ऐसी ही कविता में
अपना प्यार
पहचानेंगे।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), अप्रैल, 1969

29. कौन-सी लाचारी - 'अज्ञेय'

कौन-सी लाचारी से नाल पर,
खिली यह कली
फूलदान में-
मूल से कटी हुई?

वही क्या हम में नहीं हैं
जो काल के डंठल पर,
खिल रहे हैं
अनादि कूल से कटे?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

30. सागर मुद्रा-1 - 'अज्ञेय'

आकाश
बदलाया
धूमायित
भवें कसता हुआ

झुक आया।
सागर सिहरा
सिमटा
अपनी ही सत्ता के भार से
सत्त्वमान
प्रतिच्छायित

भीतर को खिच आया।
फिर सूरज निकला
रुपहली मेघ-जाली से छनती हुई
धूप-किरनें

लहरियों पर मचलती हुई बिछलती हुई
इठलायीं।
तब फिर
वह मानो सिमट गयी

अपने भीतर को: दीठ खोयी-सी
सत्ता निजता भूली, सोयी-सी
लून लदी भीजी बयार से
मेरी आँखें कसमसायीं,
मैं ने हाथ उठाया-कि मेरे अनजाने

उस के केशों के धूप-मँजे सोने का
गीला जाल
मेरे चारों ओर
सहसा कस आया।

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

31. सागर मुद्रा-2 - 'अज्ञेय'

सागर की लहरों के बीच से वह
बाँहें बढ़ाये हुए
मेरी ओर दौड़ती हुई आती हुई
पुकारती हुई बोली:

‘तुम-तुम सागर क्यों नहीं हो?’
मेरी आँखों में जो प्रश्न उभर आया,
अपनी फहरती लटों के बीच से वह
पलकें उठाये हुए

उसे न नकारती हुई पर अपने उत्तर से
मानो मुझे फिर से ललकारती हुई
अपने में सिमटती हुई बोली:
‘देखो न, सागर बड़ा है, चौड़ा है,

जहाँ तक दीठ जाती है फैला है,
मुझे घेरता है, धरता है, सहता है, धारता है, भरता है,
लहरों से सहलाता है, दुलराता है, झुमाता है, झुलाता है
और फिर भी निर्बन्ध मुक्त रखता है, मुक्त करता है-

मुक्त, मुक्त, मुक्त करता है!’
मैं जवाब के लिए कुछ शब्द जुटा सकूँ-
सँवार सकूँ,
या वह न बने तो

राग-बन्धों का ही न्यौछावर लुटा सकूँ-
इस से पहले ही वह फिर
हँसती हुई मुड़ती हुई दोलती हुई उड़ती हुई
सागर की लहरों के बीच पहुँच गयी।

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

32. सागर मुद्रा-3 - 'अज्ञेय'

रेती में
चार टूटी पर सँवारी हुई सीपियाँ,
एक ढहा हुआ
बालू का घरहरा

खारे पानी से मँजी हुई चैली का दंड
जिस पर
नारंगी के छिलके की
कतरन का फरहरा।

जहाँ-तहाँ बच्चों की पैरछाप की कैरियाँ।
खाली बोतलें दो अदद,
दफ्ती की तश्तरियाँ-फकत तीन;
कुछ टुकड़े रोटी के,

पनीर के, कुछ टमाटर के छिलके,
गुड़-मुड़ी काग़ज़
बालू में अध-दबी पन्नी
कुछ रुपहली, कुछ रंगीन,

जहाँ-तहाँ आस-पास
काग़ज़ के कुचले हुए गिलास।
बार-बार हम आते हैं
और रेती में लिख जाते हैं

अपने सुख-चैन की कहानी:
प्यार में दिये हुए वचन,
या निहोरे पर किये हुए सैर के इरादे।

बार-बार रेती पर
हँसियाँ, किलकारियाँ,
कुनबे, फुरसत,
उत्सव-जयन्तियाँ, सगाइयाँ।

दोस्तियाँ-यारियाँ, दुनियादारियाँ।
बार-बार रेती को
साँचे में भरते हैं;
रेती में अपना निजी

कचरा मिलाते हैं,
छाप छोड़ चले जाते हैं।
जिसे बार-बार
सागर धोता है,

आँधी माजती है,
लहरें लीपती हैं, सूरज सुखाता है,
समीरण सँवार कर
कहीं बह जाता है।

और फिर सागर रह जाता है।
तरंग-अंगुलियों पर गिनता
मानव के अद्भुत उद्यम, सनकी सपने,
स्वैरचारिणी चिन्ता।

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

33. सागर मुद्रा-4 - 'अज्ञेय'

सागर पर
उदास एक छाया घिरती रही
मेरे मन में वही एक प्यास तिरती रही
लहर पर लहर पर लहर:

कहीं राह कोई दीखी नहीं,
बीत गया पहर,
फिर दीठ नहीं ठहर गयी
जहाँ गाँठ थी। जो खोलनी ही तो

हम ने चाही नहीं, सीखी नहीं।
छा गया अँधेरा फिर: जल थिर, समीर थिर;
ललक, जो धुँधला गयी थी, चिनगियाँ विकिरती रहीं...

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

34. सागर मुद्रा-5 - 'अज्ञेय'

कुहरा उमड़ आया
हम उस में खो गये
सागर अनदेखा

गरजता रहा।
फिर हम उमड़े
सागर अनसुना
बरजता रहा,

कुहरा हम में खो गया।
सब कुछ हम में खो गया,
हम भी
हम में खो गये।

सागर कुहरा हम
कुहरा सागर
शं...

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

35. सागर मुद्रा-6 - 'अज्ञेय'

सागर के किनारे
हम सीपियाँ-पत्थर बटोरते रहे,
सागर उन्हें बार-बार
लहर से डुलाता रहा, धोता रहा।

फिर एक बड़ी तरंग आयी
सीपियाँ कुछ तोड़ गयी,
कुछ रेत में दबा गयी,
पत्थर पछाड़ के साथ बह गये।

हम अपने गीले पहुँचे निचोड़ते रह गये,
मन रोता रहा।

फिर, देर के बाद हम ने कहा: पर रोना क्यों?
हम ने क्या सागर को इतना कुछ नहीं दिया?
भोर, साँझ, सूरज-चाँद के उदय-अस्त,
शुक्र तारे की थिर और स्वाती की कँपती जगमगाहट,

दूर की बिजली की चदरीली चाँदनी,
उमस, उदासियाँ, धुन्ध,
लहरों में से सनसनाती जाती आँधी...
काजल-पुती रात में नाव के साथ-साथ

सारे संसार की डगमगाहट:
यह सब क्या हम ने नहीं दिया?
लम्बी यात्रा में
गाँव-घर की यादें,

सरसों का फूलना,
हिरनों की कूद, छिन चपल छिन अधर में टँकी-सी,
चीलों की उड़ान, चिरौटों, कौओं की ढिठाइयाँ,
सारसों की ध्यान-मुद्रा, बदलाये ताल के सीसे पर अँकी-सी,

वन-तुलसी की तीखी गन्ध,
ताजे लीपे आँगनों में गोयठों पर
देर तक गरमाये गये दूध की धुईंली बास,
जेठ की गोधूली की घुटन में कोयल की कूक,

मेड़ों पर चली जाती छायाएँ
खेतों से लौटती भटकती हुई तानें
गोचर में खंजनों की दौड़,
पीपल-तले छोटे दिवले की

मनौती-सी ही डरी-सहमी लौ-
ये सब भी क्या हम ने नहीं दीं?
जो भी पाया, दिया:
देखा, दिया:

आशाएँ, अहंकार, विनतियाँ, बड़बोलियाँ,
ईर्ष्याएँ, प्यार दर्द, भूलें, अकुलाहटें,
सभी तो दिये:
जो भोगा, दिया; जो नहीं भोगा, वह भी दिया;
जो सँजोया, दिया,

जो खोया, दिया।
इतना ही तो बाक़ी था कि वह सकें:
जो बताया वह भी दिया?
कि अपने को देख सकें

अपने से अलग हो कर
अपनी इयत्ता माप सकें
...और सह सकें?

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

36. सागर मुद्रा-7 - 'अज्ञेय'

वहाँ एक चट्टान है
सागर उमड़ कर उस से टकराता है
पछाड़ खाता है
लौट जाता है

फिर नया ज्वार भरता है
सागर फिर आता है।
नहीं कहीं अन्त है

न कोई समाधान है
न जीत है न हार है
केवल परस्पर के तनावों का
एक अविराम व्यापार है

और इस में
हमें एक भव्यता का बोध है
एक तृप्ति है, अहं की तुष्टि है, विस्तार है:
विराट् सौन्दर्य की पहचान है।

और यहाँ
यह तुम हो
यह मेरी वासना है
आवेग निर्व्यतिरेक

निरन्तराल...
खोज का एक अन्तहीन संग्राम:
यही क्या प्यार है?

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

37. सागर मुद्रा-8 - 'अज्ञेय'

यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,
कहीं मुझे तोड़ दो, सागर,
कहीं मुझे तोड़ दो!
मेरी दीठ को और मेरे हिये को,

मेरी वासना को और मेरे मन को,
मेरे कर्म को और मेरे मर्म को,
मेरे चाहे को और मेरे जिये को
मुझ को और मुझ को और मुझ को

कहीं मुझ से जोड़ दो!
यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,
यों मत छोड़ दो।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 10 मई, 1969

38. सागर मुद्रा-9 - 'अज्ञेय'

क्षितिज जहाँ उद्भिज है
एक छाया-नाव
सरकती चली जाती है परिभाषा की रेखा-सी।
और फिर क्षिति और सागर मिल जाते हैं

शब्दों से परे एक नाद में:
संवेदन से परे एक संवाद में।
कहाँ, कौन किस से अलग है, जब कि मैं
पूछता हुआ भी, प्रश्न में खो जाता हूँ,
गगन की उदधि की चेतना की इकाई में?

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

39. सागर मुद्रा-10 - 'अज्ञेय'

हाँ,
लेकिन तुम्हारा अविराम आन्दोलन
शान्ति है, ध्रुव आस्था है,
सनातन की ललकार है;

जब कि धरती की एकरूप निश्चलता
जड़ता में
उस सब का निरन्तर हाहाकार है।
जो मर जाएगा,

जो बिना कुछ पाये, बिना जाने
अपने को बिना पहचाने
बिखर जाएगा!

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969

40. सागर मुद्रा-11 - 'अज्ञेय'

सोच की नावों पर
चले गये हम दूर कहीं;
किनारे के दिये
झलमलाने लगे।

फिर, वहाँ कहीं, खुले समुद्र में
हम जागे। तो दूर नहीं
थी दूर उतनी: चले ही अलग-अलग
हम आये थे। लाये थे

अलग-अलग माँगें।
तब, वहाँ, सुनहली तरंगों पर
हकोले हम खाने लगे।
ओह, एक ही समुद्र पर
एक ही समीर से सिहरते

कौन एक राग ही
हमारे हिये गाने लगे!

सं. 8 बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), अक्टूबर, 1969

41. सागर मुद्रा-12 - 'अज्ञेय'

लहर पर लहर पर लहर पर लहर:
सागर, क्या तुम जानते हो कि तुम
क्या कहना चहाते हो?
टकराहट, टकराहट, टकराहट:

पर तुम
तुम से नहीं टकराते;
कुछ ही तुम से टकराता है
और टूट जाता है जिसे तुम ने नहीं
तोड़ा।

सागर
पर पक्षी ऊपर ही ऊपर उड़ जाते हैं,
सागर

पर मछलियाँ नीचे ही नीचे तैरती हैं,
नावें, जहाज़
पर वे सतह को ही चीरते हुए चले जाते हैं-
वह भी घाट से घाट तक।

सागर
देश और देश और देश, लहराता देश;
काल और काल और काल, उमड़ता काल
कहाँ है तुम्हारी पहचान, सागर, कहाँ?

जहाँ धरा और आकाश मिलते हैं
जहाँ देश और काल
जहाँ सागर तल की मछली छटपटा कर उछल कर
वायु माँगती है

जहाँ आकाश का पक्षी सनसनाता गिर कर
नीर को चीरता है
जहाँ नौका पतवार खो कर पलट कर तल की ओर
डूबने लगती है,

वहाँ तब, देश और काल और अस्ति के उस
त्रितय सन्निपात की धार पर
तुम्हारी पहचान कौंधती है
और लय हो जाती है

कि तुम प्राण हो
कि तुम अन्न हो
कि तुम मृत्यु हो
कि तुम होते हो तो खो जाते हो, क्यों कि हम खोते हैं तो होते हैं।
लहर पर लहर पर लहर पर लहर:

सागर, तुम कुछ कहना नहीं चाहते
तुम होना चाहते हो...
हर लहर
टकरायी और टूट गयी
लहर पर लहर पर लहर-

अन्त नहीं, अन्त नहीं, अन्त नहीं...
चट्टान
सहती रही, रहती रही
फिर ढही तो

निःशेष-निःशेष-निःशेष...
लहर पर लहर पर लहर...
लहर पर लहर पर लहर,
कहाँ है वह संगीत

जिस के लिए प्रजापति की वीणा काँपी
वह अमृत
जिस के लिए सुरों-असुरों ने तुझे मथा?
चुक गयी क्या

पुराण की रूप-कथा:
तू क्या सदा से केवल भाप से जमता हुआ जल का कोष रहा,
तू क्या अग्नि की, रत्नों की, सुखों की,
प्रकाश के रहस्यों की खनि, देवत्व की योनि,

कभी न था, न था?
लहर पर लहर पर लहर पर लहर...
रात होगी
जब तूफ़ान तुझे मथेगा

जब ऊपर और नीचे
ठोस और तरल और वायव
आग और पानी
बनने और मिटने के भेद लय हो जाएँगे:

तो क्या हुआ? वही तो अस्ति है!
तूफ़ान ने मुझे भी मथा है और वह लय
मैं ने भी पहचानी है।
छोटी ही है, पर, सागर,

मेरी भी एक कहानी है...
सागर को प्रेम करना
मरण की प्रच्छन्न कामना है!
तो क्या?

मरण अनिवार्य है:
प्रेम
स्वच्छन्द वरण है:
प्रच्छन्न ही सही, सागर, मुझे कोई लज्जा नहीं-

न अपने रहस्य की न अपनी स्वच्छन्दता की:
आ तू, दोनों का साझा कर:
लहर पर लहर पर लहर पर लहर...

फरवरी, 1957

42. सागर मुद्रा-13 - 'अज्ञेय'

ओ सागर
ओ मेरी धमनियों की आग,
मेरे लहू के स्पन्दित राज-रोग,
सागर

ओ महाकाल
ओ जीवन
दिग्विहीन आगम,

प्रत्यागम निरायाम,
द्वारहीन
निर्गमन,
सागर, ओ जीवन-लय, ओ स्पन्द!

ओ सदा सुने जाते मौन,
ओ कभी न सुने गये विराट् विस्फोट
निःशेष:
ओ मेघ, ओ ज्वार, ओ बीज,

ओ विदाध, ओ रावण, ओ कीट-दंश!
ओ रविचुम्बी गरुड़, ओ हारिल,
ओ आँगन के नृत्य-रत मयूर!
ओ अहल्या के राम,

ओ सागर!
लहर पर लहर पर लहर पर लहर...

फरवरी, 1971

43. सागर मुद्रा-14 - 'अज्ञेय'

सागर, ओ आदिम रस जिस में समस्त रूपाकार
अपने को रचते हैं,
जिस में जीवन आकार लेता है, बढ़ता है, बदलता है,
ओ सागर, काल-धाराओं के संगम,

काल-वाष्प के उत्स, काल-मेघ के लीलाकाश,
काल-विस्फोट की प्रयोग-भूमि,
सागर, ओ जीव-द्रव, वज्रवक्ष,
ओ शिलित स्राव, ओ मार्दव
आदिम जीवन कर्दम,

ओ आलोक-कमल!
ओ सागर, ओ अंकुर के स्फुरण, विकसने के उन्मेष,
फूलने के प्रतिफल
ओ मरने के कारण, मृत्यु के काल,
बीज के बीज,

चयित विकिरण, आन्दोलन अचंचल,
सागर, ओ!
ओ सागर, आदिम रस...

फरवरी, 1971

44. एक दिन यह राह - 'अज्ञेय'

एक दिन यह राह पकड़ूँगा
सदा यह जानता था। पर
अभी कल भी मुझे सूझा नहीं था
कि वह दिन
आज होगा!

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), जून, 1969

45. मुझे आज हँसना चाहिए - 'अज्ञेय'

एक दिन मैं
राह के किनारे मरा पड़ा पाया जाऊँगा
तब मुड़-मुड़ कर साधिकार लोग पूछेंगे:
हमें पहले क्यों नहीं बताया गया

कि इस में जान है?
पर तब देर हो चुकी होगी।
तब मैं हँस न सकूँगा।
इस बात को ले कर

मुझे आज हँसना चाहिए।
इतिहास का काम
इतने से सध जाएगा कि
एक था जो-था

अब नहीं है-पाया गया।
पर जो मैं जिया, जो मैं जिया,
जो रोया-हँसा
जो मैं ने पाया, जो किया,

उस का क्या होगा?
उस के लिए भी है एक नाम:
‘आया-गया’
इस नाम को ले कर

मुझे आज हँसना चाहिए
मेरे जैसे करोड़ों हैं
जिन से इतिहास का काम
इसी तरह सधता है:

कि थे-नहीं हैं।
उन का सुख-दुःख, पाना-खोना
अर्थ नहीं रखता, केवल होना
-या अन्ततः न होना।

वे नहीं जानते इतिहास, या अर्थ;
वे हँसते हैं। और लेते हैं
भगवान् का नाम।
इस बात को ले कर

मुझे आज हँसना चाहिए।
इसी लिए तो
जिस का इतिहास होता है
उन के देवता हँसते हुए नहीं होते:

कैसे हँस सकते?
और जिनके देवता हँसते हुए होते हैं
उन का इतिहास नहीं होता:

कैसे हो सकता
इसी बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए...

नयी दिल्ली, अगस्त, 1969

46. रह गए - 'अज्ञेय'

सब अपनी-अपनी
कह गये:
हम
रह गये।

ज़बान है
पर कहाँ है बोल
जो तह को पा सके?
आवाज़ है

पर कहाँ है बल
जो सही जगह पहुँचा सके?
दिल है
पर कहाँ है जिगरा
जो सच की मार खा सके?

यों सब जो आये
कुछ न कुछ
कह गये:
हम अचकचाये रह गये।

नयी दिल्ली, अगस्त, 1969

47. जन्म-शती - 'अज्ञेय'

उसे मरे
बरस हो गये हैं।
दस-या बारह, अठारह, उन्नीस-
या हो सकता है बीस?-
मेरे जीवन-काल की बात है-

अभी तो तुझे कल जैसी याद है।
कैसे मरे?
कुछ का ख़याल है कि मरे नहीं, किसी ने मारा।
कुछ कहते हैं, लम्बी बीमारी थी।
कुछ कि मामला डॉक्टरों ने बिगाड़ा।

कुछ कि अजी, डॉक्टरों की शह थी।
राजनीति में क्या नहीं चलता?
कुछ सयाने-कि भावी कभी नहीं टलता।
मौत आती है तो मरते हैं; रहता नहीं चारा।

कुछ और फ़रमाते हैं: अब छोड़ो जो मर गया।
जो ज़िन्दा हैं उनकी सोचो; वह तो तर गया।
मर जाने के बाद
किस ने क्या किया था कौन जानता है?

कोई श्रद्धा से कहता है, बड़े काम किये;
कोई अवज्ञा से-कौन मानता है!
कोई सुझाता है: मौका ऐसा था कि बन गये नेता
आज होते तो कोई ध्यान नहीं देता।
कोई इतिहास-पुरुष कहता है, कोई पाखंडी, कोई अवतार।

कोई अन्धों के देश का काना सरदार।
लगा ही रहता है वाद-विवाद।
पर एक बात तो मानी हुई है-
ऐतिहासिक तथ्य है, सब को ज्ञात है-
कि उन्हें जनमे ठीक सौ बरस होने आते हैं।

और इस लिए हम उन की जन्म-शती मनाते हैं।
इस में हम सब साथ हैं।

नयी दिल्ली, 29 सितम्बर 1969

48. कविता की बात - 'अज्ञेय'

नहीं, मैं अपनी बात नहीं कहता।
यह नहीं कि वह मुझे कहनी नहीं है
पर वह जिसे भी कही जाएगी
अनकहे कही जाएगी

और जब तक उसे और उसे मात्र कह न पाएगी
अनकही रह जाएगी।
तुम से मैं कहता हूँ
तुम्हारी ही बात

जैसा कि तुम सुन कर ही जानोगे:
सुनते ही बार-बार पहलू-दर-पहलू, कटाव-दर-कटाव
तुम्हारे ही लाख-लाख प्रतिबिम्बों में कही जाती
लाख-लाख स्वर-धाराओं में अविराम बही आती
तुम्हारी ही बात पहचानोगे।

या फिर पाओगे
कि वह तुम्हारी से भी आगे
सब की बात है-ऐसी सब की
कि किसी की नहीं है,
कहीं की नहीं है, कभी की नहीं है

पर अपने और अपने-आप में स्वायत्त, स्वतःप्रमाण होने के नाते
ठीक यहीं की है और ठीक अब की है।
कविता तो
ऐसी ही बात होती है।
नहीं तो लयबद्ध बहुत-सी ख़ुराफ़ात होती है।

ऐसी ही बात
दिल फोड़ कर रहस्य से आती है
भीतर का जलता प्रकाश बाहर लाती है:
स्वयं फिर नहीं दीखती, और सब-कुछ दिखाती है,

उसी सब में कहीं
कवि को भी साथ ले कर
लय हो जाती है।

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1969

49. नदी का बहना - 'अज्ञेय'

देर तक देखा हम ने
नदी का बहना।
पर नहीं आया हमें
कुछ भी कहना।

फिर उठे हम, मुड़े चलने को;
तब नैन मिले,
हुए मानो जलने को;
एक को जो कहना था
दूसरे ने सुन लिया:

‘किसी भविष्य में नहीं, पिया!
न ही अतीत में कहीं,
तुम अनन्त काल तक इसी
वर्तमान में रहना!’

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1969

50. देलोस से एक नाव - 'अज्ञेय'

दाड़िम की ओट हो जा, लड़की!
भोर-किरणों की ओट
देलोस की ओर से
एक नाव आ रही है!

क्या जाने, भोर-पंछियों के शोर के साथ
खित्तारे के स्वर भी उमड़ते हुए आने लगें!
मैं ने तो इसी लिए अंजीर की ओट ली है
और वंशी बजा रहा हूँ:
दाड़िम की ओट हो जा, लड़की!
और सुन, तुझे बुला रहा हूँ!

अक्टूबर, 1969

देलोस: एजियन सागर (पूर्वी भूमध्य सागर) के किवलदीस
(साइक्लैंडीज़ द्वीप-समूह का सब से छोटा द्वीप)। अपोलो का जन्म
यहीं हुआ था, यहीं उस की पूजा का प्रधान केन्द्र था।

51. कहाँ - 'अज्ञेय'

मन्दिर में मैं ने एक बिलौटा देखा:
चपल थीं उस की आँखें
और विस्मय-भरी
उस की चितवन;

और उस का रोमिल स्पर्श
न्यौतता था
सिहरते अनजान खेलों के लिए
जिस का आश्वासन था उस के

लोचीले बिजली-भरे तन में!
बाहर यह एक अजनबी नारी है:
आँखों में स्तम्भित, निषेधता अँधेरा,
बदन पर एक दूरी का ठंडा ओष!

भद्रे, तुम ने मेरा बिलौटा
कहाँ छिपा दिया?

अक्टूबर, 1969

52. देखता-अगर देखता - 'अज्ञेय'

प्रेक्षागृह की मुँडेर पर बैठ मैं ने
उसे बाहर रंगपीठ की ओर जाते हुए देखा था,
यद्यपि वह नटी नहीं थी,
और नाटक-मंडली अपना खेल दिखा कर

कब की चली जा चुकी थी:
मंडली के आर्फ़िउस की वंशी
वहाँ फिर सुनाई नहीं देगी।
और अगर मैं घाटी के छोर पर बैठ कर देखता

तो मैं उसे बार-बार तलेटी की ओर जाते हुए देखा करता,
यद्यपि वह न सूरमा थी
न सेना ही पिछलगू,
और वीरों की टोलियाँ कब की घाटी से
उतर करखाड़ी के पार चली जा चुकी हैं:

जहाँ से लौटती हुई कारिंथोस के विजेता की हुं
कार ही गूँज अब घाटी को नहीं थरथराएगी।
पर अगर मैं जालिपा के इस उजाड़ वन के किनारे बैठ
उसे ताका करता

जिस में अब न पुजारियों की सीठी पदचाप है
न तीर्थयात्रियों की बेकल चहल-पहल
तो इस की बल खाती पगडंडियों पर
वह न दीखती:

और मैं जानता रहता कि वहाँ
और उस से आगे, अधिक घने कुंजों में
और उस से आगे, जहाँ छिपे सोते का पानी वापी में सँचता है-
सर्वत्र एक अँधियारा सन्नाटा है,

जालिपा की सैकड़ों वर्षों से मरोड़ी हुई डालें हैं
और मेरी एकटक आँखें जिन में
उस की अनुपस्थिति सनसनाती है!

अक्टूबर, 1969

53. जो तू सागर से बनी थी - 'अज्ञेय'

जो तू सागर से बनी थी
(जलजा की प्रिया की परछाईं)!
एक दिन शान्त, सोहनी, सुहासिनी,
धूप-सुनहली, चाँदनी-रुपहली,
नाविक की मनमोहिनी-
एक दिन वरुण की बाज-लदी कोहनी,
आधी विनाशिनी!

अक्टूबर, 1969

रूप और प्रेम की देवी अफ्रोदाइती सागर-फेन से सहज उद्भूत हुई थी।
कीप्रस (साइप्रस) में उसका मुख्य मन्दिर था, इस लिए वह कीप्रिस भी
कहलाती थी। ग्रीक सागर-देवता पोसेइदोन् (वरुण) वज्र-त्रिशूल धारण
करता है; आँधियाँ-बिजलियाँ उसी के अधीन हैं।

54. मिरिना की ताँतिन - 'अज्ञेय'

यह मेरा ताना
यह मेरा बाना
गहरे में छिला कर
मैं ने फूल का नाम चुन लिया

उसी पर...बदल-बदल रंगों को...बूटी बुनी।...
पर यह जो उभरता आता है
मुझे चौंकाता है:
यह तो किसी दूसरे ताँती ने आ कर

किसी दूसरे करघे पर बुन दिया!
कौन है वह निर्मोही गुनी!

अक्टूबर, 1969

मिरिना: भूमध्य सागर के पूर्वी तट की एक प्राचीन नगरी थी।

55. समाधि-लेख - 'अज्ञेय'

मैं बहुत ऊपर उठा था, पर गिरा।
नीचे अन्धकार है-बहुत गहरा
पर बन्धु! बढ़ चुके तो बढ़ जाओ, रुको मत:
मेरे पास-या लोक में ही-कोई अधिक नहीं ठहरा!

अक्टूबर, 1969

56. नरक की समस्या - 'अज्ञेय'

नरक? खैर, और तो जो है सो है,
जैसे जिये, उस से वहाँ कोई खास कष्ट नहीं होगा।
पर एक बात है: जिस से-जिस से यहाँ बचना चाहा
वह-वह भी वहीं होगा!

अक्टूबर, 1969

57. जीवन-यात्रा - 'अज्ञेय'

अधोलोक में? चलो, वहीं जाना होगा तो वहीं सही।
जितनी तेज़ चलेंगे, यह राह बचेगी उतनी थोड़ी।
जो विलमते, पड़ाव करते पैदल जाएँगे जाएँ-
हम-तुम क्यों न कर लें सवारी के लिए घोड़ी?

अक्टूबर, 1969

ग्रीक विश्वास के अनुसार पाताल-लोक या अधोलोक प्रेत-लोक था;
मृत्यु के बाद ‘छायाएँ’ यहीं वास करती थीं।

58. कस्तालिया का झरना - 'अज्ञेय'

चिनारों की ओट से
सुरसुराता सरकता
झरने का पानी।
अरे जा! चुप नहीं रहा जाता तो

चाहे जिस से कह दे, जा,
सारी कहानी।
पतझर ने कब की ढँक दी है
धरा की गोद-सी वह ढाल जहाँ
हम ने की थी मनमानी

अक्टूबर, 1969

कस्तालिया: पार्नासस पर्वत की दक्षिणी उपत्यका में देल्फी
के निकट एक झरना, जो अपोलो और कला-देवताओं का तीर्थ
माना जाता था

59. अरियोन - 'अज्ञेय'

कितनी धुनें मैं ने सुनी हैं
कितने बजैयों से
और गीत मैं ने सुने हैं
कितने गवैयों से

जिन से कुंजबेलों की पत्तियाँ कँपने लगीं,
या कि बन-झरने की लहरें ठिठक गयीं?
यही एक तान कभी नहीं सुनी
ऐसा गान कभी

सुनने में नहीं आया-
ऐसा तुम ने क्या गाया
कवि, यह गीत पहले क्यों नहीं सुनाया
जिस से कि मेरी आँखें झँपने लगीं,
मेरी क्वारी जाँघें फड़क गयीं?

अक्टूबर, 1969

ई.पू. सातवीं शती के खित्तारा-वादक महाकवि आरियोन
के वादन से पशु-पक्षी, जल-जन्तु तक मुग्ध हो जाते थे।

60. प्रतिद्वन्दी कवि से - 'अज्ञेय'

बन्धु! तेजपात की दो डालें पाने के लिए
तुम इतने उतावले होगे?
दाफ़ूनी को बावले प्रार्थी से बचाने के लिए
देवता ने उस की छरहरी देहलता को
तेजपात की झाड़ी में बदल दिया था:

अब तेजपात की डाली को
तुम्हारी आतुरता के संकट से छुड़ाने के लिए
उस ने कहीं दाफ़ूनी में बदल दिया...तो?
हम...हमारा तो क्या, हमारा गाँव
एक रूपसी युवती से सम्पन्नतर हो जाएगा...

पर तुम क्या करोगे?
बाला-तुम्हें भला उस की दरकार क्या?
या उसे तुम से सरोकार क्या?
और डाल तेजपात की-
तेज ही न रहा तो क्या बात पात की!

अक्टूबर, 1969

दाफ़ूनी: तेजपात; अपोलो का प्रिय वृक्ष होने के
नाते चक्रवर्ती कवि को इस के पत्तों का किरीट
पहनाया जाता था।

61. विषय : प्यार - 'अज्ञेय'

यहाँ हेलास के द्वीपों में
हम अपनी बहुओं को प्यार करते हैं
और चाहते हैं कि वे
जैसी हैं उस से कुछ दूसरी होतीं।
वहाँ गिब्त में

वे वेश्याओं को प्यार नहीं करते
पर चाहते हैं कि वे
जैसी हैं वैसी ही रहें,
वैसी ही रहें!

अक्टूबर, 1969

हेलास: ग्रीक द्वीप-समूह
गिब्त: ईजिप्ट, मिस्र

62. अलस्योनी - 'अज्ञेय'

अपने सेईख के लिए पुकार मत कर, अलस्योनी!
तेरी पुकार से सागर की लहरें थम जाएँगी
और तब? सूरज उगेगा, तारे चमकेंगे,
कर्णधार अपने पथ पहचानते रहेंगे-

पर कितने द्वीपों में कितनी विरहिनियाँ सहम जाएँगी!
सागर कुछ रखता नहीं:
कुछ बदल देता है,
कुछ बाँट-बिखेर देता है,

और कुछ (सदा उपेक्षा से नहीं,
कभी करुणा से भी)
किनारे की सिकता को फेर देता है।
कहाँ है सेईख? उसी का स्वर तो

हवाओं में गाता था!
कितनी चट्टानों की कितनी खोहों-कन्दराओं से
कितनी स्वर-लहरियाँ उपजाता था!
तुम उसे न पुकारो, अलस्योनी,

हवाएँ ही उसे टेरेंगी, खोज लाएँगी
हर कन्दरा में गुहारेंगी
सागर की हर कोख को बुहारेंगी
और जब पाएँगी घेरेंगी

और भोर की लजीली ललाई में
तुम एक पहुँचा जाएँगी!
पुकार मत करो, अलस्योनी!
सागर की लहरें ठिठक जाएँगी

और तुम्हारी-सी अनगिन विरहिनियाँ
राह देखती थक जाएँगी
कि यह कैसी हुई अनहोनी
भोर में पुकार मत करो, अलस्योनी!

अक्टूबर, 1969

इयोलस की कन्या अलस्योनी के पति के सेईख
के तूफान में डूब जाने पर अलस्योनी ने समुद्र में
कूद कर प्राण दे दिये। देवताओं ने करुणावश दोनों
को जलपक्षी बना दिया। इन पक्षियों की मिलन-ऋतु
में सागर पर निर्वात सन्नाटा छा जाता है।

63. शहतूत - 'अज्ञेय'

वापी में तूने
कुचले हुए शहतूत क्यों फेंके, लड़की?
क्या तूने चुराये-
पराये शहतूत यहाँ खाये हैं?
क्यों नहीं बताती?
अच्छा, अगर नहीं भी खाये
तो आँख क्यों नहीं मिलाती?
और तूने यह गाल पर क्या लगाया?
ओह, तो क्या शहतूत इसी लिए चुराये-
सच नहीं खाये?
शहतूत तो ज़रूर चुराये, अब आँख न चुरा!
नहीं तो देख, शहतूत के रस की रंगत से
मेरे ओठ सँवला जाएँगे
तो लोग चोरी मुझे लगाएँगे
और कहेंगे कि तुझे भी चोरी के गुर मैं ने सिखाये हैं!
तब, लड़की, हम किसे बताएँगे!
कैसे समझाएँगे?
अच्छा, आ, वापी की जगत पर बैठ कर यही सोचें।
लड़की, तू क्यों नहीं आती?

अक्टूबर, 1969

64. दो जोड़ी आँखें - 'अज्ञेय'

म्निमोसिनी, मुझे नींद दे!
क्यों रात-भर
दो जोड़ी आँखें मुझे सताती हैं!
एक जोड़ी
पूरे चेहरे में जड़ी हैं
पर कितनी बर्फीली ठंडी
है उसकी चितवन!
और दूसरी
सुलगती है, दिपती है
पर कोई चेहरा
उस के पीछे रूप नहीं लेता
रात-भर। रात-भर
दो जोड़ी आँखें मुझे सताती हैं।

अक्टूबर, 1969

म्निमोसिनी: स्मृति की देवी

65. डगर पर - 'अज्ञेय'

नागरों की नगरी में
देवताओं में होड़ होती होगी।
मेरे ग्राम का कोई नाम नहीं,
तेरे का होगा, मुझे उस से काम नहीं।
यह मेरा घोड़ा है, लदा है माल-

जालिपा की डाल, फल:
चखोगी-लोगी?
या कि घोड़े की दुलकी देखोगी-
ओलिम्पिया1 चलोगी?

अक्टूबर, 1969

एथिनाइ (एथेंस) के विषय में कथा है कि पौसेइदोन और
एथीना में होड़ लगी कि नयी नगरी का नाम किस पर हो।
देवताओं ने सुझाया जो नगरी को श्रेष्ठतर उपहार दे उसी
के नाम पर नगरी का नाम रखा जाए। पौसेइदोन ने त्रिशूल
फेंका, जिससे घोड़ा प्रकट हुआ: एथीना ने अपना भाला
पटका, जिस से जालिपा (जैतून) का वृक्ष उत्पन्न हुआ। देवताओं
ने निर्णय सुनाया: घोड़ा तो युद्ध का प्रतीक है; जालिपा शान्ति
और समृद्धि का, इसलिए देवी जीती; नगरी का नाम एथिनाइ पड़ा।

ओलिम्पिया: यहाँ के प्रसिद्ध खेलों के विजेता मल्ल को जालिपा
की डाल का किरीट दिया जाता था।

66. सोया नींद में, जागा सपने में - 'अज्ञेय'

सोया था मैं नींद में को
एकाएक सपने में
गया जाग:
सपना आग का
लपलपाती ग्रसती
हँसती
समाधि की विभोर आग।

फिसलता हुआ
धीरे-धीरे गिरा फिर
सुते हुए, ठंडे
जागने में।

आग शान्त, रक्षित,
सँजोयी हुई-
और भी कई आगों के साथ
सोयी हुई।
पहले भी तो
जागा हूँ

ऐसे, सपने में:
जलते हुए समाधिस्थ
अपने में;
फिसल कर गिरने को
जागने की नींद में;
आगें सब सुँती हुई, ठंडी,
सोई हुई,
और भी पुरानी कई आगों के
साथ ही सँजोयी हुई-
खोयी हुई!

नयी दिल्ली, अक्टूबर, 1969

67. जीवन-मर्म - 'अज्ञेय'

झरना: झरता पत्ता
हरी डाल से अट गया।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 27 अक्टूबर, 1969

68. फूल हर बार आते हैं - 'अज्ञेय'

फूल हर बार आते हैं,
ठीक है, हम अन्ततः नहीं आते;
पर हर बार
वसन्त के साथ
वहाँ पहाड़ पर हिम गलता है
और यहाँ नदी भरती है
अमराई बौराती है
और कोयलें कूकती हैं
बयार गरमाती है
और वनगन्ध सब के लिए बिखराती है।
हम नहीं आएँगे,
तो भी, जब हैं,
तब क्यों नहीं गाएँगे

या गाते हुए ही गीत की
कड़ी नहीं दोहराएँगे?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 27 अक्टूबर, 1969

69. बड़े शहर का एक साक्षात्कार - 'अज्ञेय'

अधर में लटका हुआ
भारी ठोस कन्था।
कसैले भूरे कोहरे में
झिपती-दिपती
प्रकाश की अनगिन थिगलियाँ।
कि कोहरे को थर्राती हुई
एक भर्राती हुई आवाज़ बोली:
उस कन्थे की एक थिगली
मेरा घर है। जानते हो न?
उस में मेरी घरवाली है।
अगर मैं इतनी पिए हुए न होता
तो पहचान देता।
मानते हो न?
मैं ने कहना चाहा: किसे?
घर को, या घरवाली को?
पर कह न सका: चुपचाप ही
उस के भाग्य को सराहा
जो भुला देता है
और याद रखता है भूल गये होने को:
जो, यों, सस्ते में दोहरा सुख लेता है!
लेकिन यह अपने-आप ही
रह न सका; बोला:
पर पिये न होता
तो घर को पहचान देता
मगर अपने-आप को ही नहीं पहचान पाता।
मैं हूँ, मैं कौन हूँ, मैं मैं हूँ,
यही कैसे जान पाता?
फिर क्या होता?
तुम्हीं कहो, फिर क्या होता?
उसे रट लग जाएगी-
वह तो झोंक में है, मेरी शामत आएगी!-
यह सोच कर मैं ने कहा:
नहीं दोस्त! तुम सब पहचानते हो,
तब भी पहचानते;
भला अपना घर न जानते?
नशे की खुशी में उस ने दोहराया,
हाँ, सब पहचानता हूँ!
घर को, घरवाली को,
हर थिगली को-खूब जानता हूँ!
फिर एकाएक उसे क्रोध हो आया:
नहीं, तुम कुछ नहीं जानते!
उस कन्थे में सत्ताईस सौ थिगलियाँ हैं-
सत्ताईस सौ दरबे हैं-
हर थिगली में एक घर है, एक घरवाली है-
सत्ताईस सौ कुनबे हैं!-
कोई कैसे पहचान देगा?
तुम झूठे हो, तुम कभी नहीं पहचानते!
उन सत्ताईस सौ थिगलियों में कौन-सी
मेरा घर है,
कोई कैसे जान सकता?
मैं भी कैसे पहचान सकता?
होश में भी पहचान सकता तो पहले पीता क्यों?
बताओ, मैं पीता क्यों?
कोहरे को थर्राती हुई
भर्राती हुई आवाज़:
अधर में लटका हुआ
एक सवाल
और एक कन्था
दोनों झिरझिरे, दिपते-झिपते।
क्या सवालों की थिगलियों के पीछे भी
जलती हुई बत्तियाँ हैं
या सिर्फ़ अधर से लटकन?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 29 अक्टूबर, 1969

70. नदी का पुल - 1 - 'अज्ञेय'

ऐसा क्यों हो
कि मेरे नीचे सदा खाई हो
जिस में मैं जहाँ भी पैर टेकना चाहूँ
भँवर उठें, क्रुद्ध;
कि मैं किनारों को मिलाऊँ
पर जिन के आवागमन के लिए राह बनाऊँ
उन के द्वारा निरन्तर
दोनों ओर से रौंदा जाऊँ?
जब कि दोनों को अलगाने वाली
नदी
निरन्तर बहती जाए, अनवरुद्ध?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 29 अक्टूबर, 1969

71. नदी का पुल - 2 - 'अज्ञेय'

इस लिए
कि मैं कोई नहीं हूँ
मैं उपकरण हूँ
जिन के काम आया हूँ
उन्हीं का बनाया हूँ
नदी से ही उन का
सीधा नाता है।
वही उन की सच्चाई है
जो मेरे लिए खाई है।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 30 अक्टूबर, 1969

72. काल स्थिति - 1 - 'अज्ञेय'

जिस अतीत को मैं भूल गया हूँ वह
अतीत नहीं है क्यों कि वह
वर्तमान अतीत नहीं है।
जिस भविष्य से मुझे कोई अपेक्षा नहीं वह
भविष्य नहीं है क्यों कि वह
वर्तमान भविष्य नहीं है।
स्मृतिहीन, अपेक्षाहीन वर्तमान-
ऐसा वर्तमान क्या वर्तमान है?
वही क्या है?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 31 अक्टूबर, 1969

73. काल स्थिति - 2 - 'अज्ञेय'

लेकिन हम जिन की अपेक्षाएँ
अतीत पर केन्द्रित हो गयी हैं
और भविष्य ही जिन की मुख्य स्मृति हो गयी है
क्यों कि हम न जाने कब से भविष्य में जी रहे हैं-
हमारा क्या
क्या इसलिए हमरा वर्तमान
वही नहीं है जो नहीं है?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 31 अक्टूबर, 1969

74. गजर - 'अज्ञेय'

गजर
बजता है
और स्वर की समकेन्द्र लहरियाँ
फैल जाती हैं
काल के अछोर क्षितिजों तक।
तुम:
जिस पर मेरी टकराहट:
इस वर्तमान की अनुभूति से
फैलाता हुआ हमारे भाग का वृत्त
अतीत और भविष्यत्
काल के अछोर क्षितिजों तक।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 31 अक्टूबर, 1969

75. कातिक की रात - 'अज्ञेय'

घनी रात के सपने
अपने से दुहराने को
मुझे अकेले
न जगा!
कृत्तिकाओं के
ओस-नमे चमकने को
तकने
मुझे अकेले
न जगा!
तकिये का दूर छोर
टोहने
इतनी भोर में
मुझे अकेले
न जगा!
सोया हूँ? मूर्छित हूँ!
पर अन्धे कोहरे में
बिछोहने
न जगा, न जगा, न जगा!

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), नवम्बर, 1969

76. काँपती है - 'अज्ञेय'

पहाड़ नहीं काँपता,
न पेड़, न तराई;
काँपती है ढाल पर के घर से
नीचे झील पर झरी
दिये की लौ की
नन्ही परछाईं।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), नवम्बर, 1969

77. लक्षण - 'अज्ञेय'

नदी में
मछलियाँ उछलती हैं:
क्षितिज पर उमड़ रहे होंगे
बादलों के साये।
क्या तुम्हारे चौके में
आटा नहीं उछलता
कि यह प्रवासी
लौट आये?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), नवम्बर, 1969

78. ग्रीष्म की रात - 'अज्ञेय'

कोयल ने टेरा: कुहू!
कि पपीहे ने पलटा: कहाँ?
कसैली आँखें: मटमैला सवेरा।

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), नवम्बर, 1969

79. कोहरे में भूज - 'अज्ञेय'

कोहरे में नम, सिहरा
खड़ा इकहरा
उजला तन
भूज का।

बहुत सालती रहती है क्या
परदेशी की याद, यक्षिणी?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), दिसम्बर, 1969

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