Hindi Kavita
हिंदी कविता
पीपल छाँव - मुनव्वर राना | Peepal Chhanv - Munnawar Rana
जो तीर भी आता है वो ख़ाली नहीं जाता - मुनव्वर राना
जो तीर भी आता है वो ख़ाली नहीं जाता
मायूस मेरे दर से सवाली नहीं जाता
वो मैला-सा, बोसीदा-सा आंचल नहीं देखा - मुनव्वर राना
वो मैला-सा, बोसीदा-सा आंचल नहीं देखा
मुद्दत हुई हमने कोई पीपल नहीं देखा
वो ग़ज़ल पढने में लगता भी ग़ज़ल जैसा था - मुनव्वर राना
वो ग़ज़ल पढने में लगता भी ग़ज़ल जैसा था
सिर्फ़ गज़लें नहीं, लहजा भी गज़ल जैसा था
वक़्त ने चेहरे को बख्शी हैं ख़राशें वरना
कुछ दिनों पहले ये चेहरा भी ग़ज़ल जैसा था
तुमसे बिछड़ा तो पसन्द आ गयी बेतरतीबी
इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था
कोई मौसम भी बिछड़ कर हमें अच्छा न लगा
वैसे पानी का बरसना भी ग़ज़ल जैसा था
नीम का पेड़ था, बरसात भी और झूला था
गांव में गुज़रा ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था
वो भी क्या दिन थे तेरे पांव की आहट सुन कर
दिल का सीने में धड़कना भी ग़ज़ल जैसा था
इक ग़ज़ल देखती रहती थी दरीचे से मुझे
सोचता हूं, वो ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था
कुछ तबीयत भी ग़ज़ल कहने पे आमादा थी
कुछ तेरा फूट के रोना भी ग़ज़ल जैसा था
मेरा बचपन था, मेरा घर था, खिलौने थे मेरे
सर पे मां-बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था
नर्म-ओ-नाज़ुक-सा, बहुत शोख़-सा, शर्मीला-सा
फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर ख़ुशबू लगाते हैं - मुनव्वर राना
फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर ख़ुशबू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं
अन्धेरी रात मे अक़्सर सुनहरी मशअलें लेकर
परिन्दों की मुसीबत का पता जुगनू लगाते हैं
दिलों का हाल आसानी से कब मालूम होता है
कि पेशानी पे चन्दन तो सभी साधू लगाते हैं
ये माना आप को शोले बुझाने में महारत है
मगर वो आग जो मज़लूम के आंसू लगाते हैं
किसी के पांव की आहट से दिल ऐसे उछलता है
छलांगे जंगलों में जिस तरह आहू लगाते हैं
बहुत मुमकिन है अब मेरा चमन वीरान हो जाये
सियासत के शजर पर घोंसले उल्लू लगाते हैं
धंसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था - मुनव्वर राना
धंसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था
मां-बाप के चेहरों की तरफ़ देख लिया था
दौलत से मोहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था
उस दिन से बहुत तेज़ हवा चलने लगी है
बस, मैंने चरागों की तरफ़ देख लिया था
अब तुमको बुलन्दी कभी अच्छी न लगेगी
क्यों ख़ाकनशीनों की तरफ़ देख लिया था
तलवार तो क्या, मेरी नज़र तक नहीं उट्ठी
उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था
तू हर परिन्दे को छत पर उतार लेता है - मुनव्वर राना
तू हर परिन्दे को छत पर उतार लेता है
ये शौक़ वो है जो ज़ेवर उतार लेता है
मैं आसमां की बुलन्दी पे बारहा पहुंचा
मगर नसीब ज़मीं पर उतार लेता है
अमीरे-शहर की हमदर्दीयों से क्च के रहो
ये सर से बोझ नहीं, सर उतार लेता है
उसी को मिलता है एजाज़ भी ज़माने में
बहन के सर से जो चादर उतार लेता है
उठा है हाथ तो फ़िर वार भी ज़रूरी है
कि सांप आंखों में मंज़र उतार लेता है
ख़ूबसूरत झील मे हंसता कंवल भी चाहिए - मुनव्वर राना
ख़ूबसूरत झील मे हंसता कंवल भी चाहिए
है गला अच्छा तो फ़िर अच्छी ग़ज़ल भी चाहिए
उठ के इस हंसती हुई दुनिया से जा सकता हूं मैं
अहले-महफ़िल को मगर मेरा बदल भी चाहिए
सिर्फ़ फूलों से सजावट पेड़ की मुमकिन नहीं
मेरी शाख़ों को नये मौसम में फल भी चाहिए
ऐ मेरी ख़ाके-वतन, तेरा सगा बेटा हूं मैं
क्यों रहूं फ़ुटपाथ पर मुझको महल भी चाहिए
धूप वादों की बुरी लगी है अब हमें
अब हमारे मसअलों का कोई हल भी चाहिए
तूने सारी बाज़ियां जीती हैं मुझ पर बैठ कर
अब मैं बूढ़ा हो गया हूं अस्तबल भी चाहिए
ख़ुद सूख गया ज़ख़्म ने मरहम नहीं देखा - मुनव्वर राना
ख़ुद सूख गया ज़ख़्म ने मरहम नहीं देखा
इस खेत ने बरसात का मौसम नहीं देखा
इस कौम को तलवार से डर ही नहीं लगता
तुमने कभी ज़ंजीर का मातम नहीं देखा
शाख़े-दिले-सरसब्ज़ में फ़ल ही नहीं आये
आंखों ने कभी नींद का मौसम नहीं देखा
मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे
इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा
हम ख़ानाबदोशों की तरह घर में रहे हैं
कमरे ने हमारे कभी शीशम नहीं देखा
इस्कूल के दिन याद न आने लगें राना
इस ख़ौफ़ से हमने कभी अलबम नहीं देखा
हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आये - मुनव्वर राना
हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आये
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आये
तलवार की मियान कभी फ़ेंकना नहीं
मुमकिन है, दुश्मनों को डराने के काम आये
कच्चा समझ के बेच न देना मकां को
शायद ये कभी सर को छुपाने के काम आये
इतना रोये थे लिपट कर दरो-दिवार से हम - मुनव्वर राना
इतना रोये थे लिपट कर दरो-दिवार से हम
शहर में आ के बहुत दिन रहे बीमार-से हम
अपने बिकने का बहुत दुख है हमें भी लेकिन
मुस्कुराते हुए मिलते हैं खरीदार से हम
संग आते थे बहुत चारों तरफ़ से घर में
इसलिए डरते हैं अब शाख़े-समरदार से हम
सायबां हो, तेरा आंचल हो कि छत हो लेकिन
बच नहीं सकते रुसवाई की बौछार से हम
रास्ता तकने में आंखें भी गवां दीं राना
फ़िर भी महरूम रहे आपके दीदार से हम
मुफ़लिसी पासे-शराफ़त नहीं रहने देगी - मुनव्वर राना
मुफ़लिसी पासे-शराफ़त नहीं रहने देगी
ये हवा पेड़ सलामत नहीं रहने देगी
शहर के शोर से घबरा के अगर भागोगे
फ़िर तो जंगल में भी वहशत नहीं रहने देगी
कुछ नहीं होगा तो आंचल में छुपा लेगी मुझे
मां कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी
आप के पास ज़माना नहीं रहने देगा
आप से दूर मोहब्बत नहीं रहने देगी
शहर के लोग बहुत अच्छे हैं लेकिन मुझको
'मीर' जैसी ये तबीयत नहीं रहने देगी
रास्ता अब भी बदल दीजिए राना साहब
शायरी आप की इज़्ज़त नहीं रहने देगी
दश्तो-सहरा में कभी उजड़े खंडर में रहना - मुनव्वर राना
दश्तो-सहरा में कभी उजड़े खंडर में रहना
उम्र भर कोई न चाहेगा सफ़र में रहना
ऐ ख़ुदा, फ़ूल-से बच्चों की हिफ़ाज़त करना
मुफ़लिसी चाह रही है मेरे घर में रहना
इसलिए बठी है दहलीज़ पे मेरी बहनें
फ़ल नहीं चाहते ता-उम्र शजर में रहना
मुद्दतों बाद कोई शख़्स है आने वाला
ऐ मेरे आंसुओं, तुम दीद-ए-तर में रहना
किस को ये फ़िक्र कि हालात कहां आ पहुंचे
लोग तो चाहते हैं सिर्फ़ ख़बर में रहना
मौत लगती है मुझे अपने मकां की मानिंद
ज़िन्दगी जैसे किसी और के घर में रहना
हिज्र में पहले-पहल रोना बहुत अच्छा लगा - मुनव्वर राना
हिज्र में पहले-पहल रोना बहुत अच्छा लगा
उम्र कच्ची थी तो फ़ल कच्चा बहुत अच्छा लगा
मैंने एक मुद्दत से मस्जिद भी नहीं देखी मगर
एक बच्चे का अज़ां देना बहुत अच्छा लगा
जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाक़ कपड़े थे मगर
धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा
शहर की सड़कें हों चाहे गांव की पगडण्डियां
मां की उंगली थाम कर चलना बहुत अच्छा लगा
तार पर बैठी हुई चिडियों को सोता देख कर
फ़र्श पर सोता हुआ बच्चा बहुत अच्छा लगा
हम तो उसको देखने आये थे इतनी दूर से
वो समझता था हमें मेला बहुत अच्छा लगा
हंसते हुए मां-बाप की गाली नहीं खाते - मुनव्वर राना
हंसते हुए मां-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते
तुम से नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन
तुम से न मिलेंगे, ये कसम भी नहीं खाते
सो जाते है फुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
जब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते
दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे क़लन्दर
हर एक के पैसों की दवा भी नहीं खाते
अल्लाह ग़रीबों का मददगार है राना
हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते
ऐ हुकूमत, तेरा मेआर न गिरने पाये - मुनव्वर राना
ऐ हुकूमत, तेरा मेआर न गिरने पाये
मेरी मस्जिद है ये मीनार न गिरने पाये
आंधियों! दश्त में तहज़ीब से दाखिल होना
पेड़ कोई भी समरदार न गिरने पाये
मैं निहत्थों पर कभी वार नहीं करता हूं
मेरे दुश्मन, तेरी तलवार न गिरने पाये
इसमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं
देखना, हाथ से अख़बार न गिरने पाये
मिलता-जुलता है सभी मांओं से मां का चेहरा
गुरुद्वारे की भी दीवार न गिरने पाये
नये कमरों में अब चीज़ें पुरानी कौन रखता है - मुनव्वर राना
नये कमरों में अब चीज़ें पुरानी कौन रखता है
परिन्दों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है
कहीं भी इन दिनों मेरी तबीयत ही नहीं लगती
तेरी जानिब से दिल में बदगुमानी कौन रखता है
हमीं गिरती हुई दीवार को थामे रहे वरना
सलीक़े से बुज़ुगों की निशानी कौन रखता है
ये रेगिस्तान है चश्मा कहीं से फूट सकता है
शराफ़त इस सदी में ख़ानदानी कौन रखता है
हमीं भूले नहीं अच्छे-बुरे दिन आज तक वरना
मुनव्वर, याद माज़ी की कहानी कौन रखता है
जिस्म का बरसों पुराना ये खंडर गिर जाएगा - मुनव्वर राना
जिस्म का बरसों पुराना ये खंडर गिर जाएगा
आंधियों का ज़ोर कहता है शजर गिर जाएगा
हम तवक़्क़ो से ज़्यादा सख़्तजां साबित हुए
वो समझता था की पत्थर से समर गिर जाएगा
अब मुनासिब है कि तुम कांटों को दामन सौंप दो
फ़ूल तो ख़ुद ही किसी दिन सूखकर गिर जाएगा
मेरी गुड़िया-सी बहन को ख़ुदकुशी करना पड़
क्या ख़बर थी, दोस्त मेरा इस क़दर गिर जाएगा
इसीलिए मैंने बुजुर्गों की ज़मीनें छोड़ दीं
मेरा घर जिस दिन बसेगा, तेरा घर गिर जाएगा
ख़ुदा-न-ख़्वास्ता जन्नत हराम कर लेंगे - मुनव्वर राना
ख़ुदा-न-ख़्वास्ता जन्नत हराम कर लेंगे
मुनफ़िक़ों को अगर हम सलाम कर लेंगे
अभी तो मेरी ज़रूरत है मेरे बच्चों को
बड़े हुए तो ये ख़ुद इन्तज़ाम कर लेंगे
इसी ख़याल से हमने ये पेड़ बोया है
हमारे साथ परिन्दे क़याम कर लेंगे
बिछड़ने वालों का अब इन्तज़ार क्या करना - मुनव्वर राना
बिछड़ने वालों का अब इन्तज़ार क्या करना
उड़ा दिये तो कबूतर शुमार क्या करना
हमारे हाथ में तलवार भी है, मौक़ा भी
मगर गिरे हुए दुश्मन पे वार क्या करना
वो आदमी है तो एहसासे-जुर्म काफ़ी है
वो संग है तो उसे संगसार क्या करना
बदन में ख़ून नहीं हो तो ख़ूंबहा कैसा
मगर अब इसका बयां बार-बार क्या करना
चरागे-आख़िरे-शब जगमगा रहा है मगर
चरागे-आख़िरे-शब का शुमार क्या करना
जल रहे है धूप में लेकिन इसी सहरा में हैं - मुनव्वर राना
जल रहे है धूप में लेकिन इसी सहरा में हैं
क्या ख़बर वहशत को हम भी शहरे-कलकत्ता में हैं
हम हैं गुज़रे वक़्त की तहज़ीब के रौशन चराग़
फ़ख़्र कर अर्ज़े-वतन हम आज तक दुनिया में हैं
मछलियां तक ख़ौफ़ से दरिया किनारे आ गयीं
ये हमारा हौसला है हम अगर दरिया में हैं
हम को बाज़ारों की ज़ीनत के लिये तोड़ा गया
फ़ूल होकर भी कहां हम गेसू-ए-लैला में हैं
मेरे पीछे आने वालों को कहां मालूम है
ख़ून के धब्बे भी शामिल मेरे नक़्शे-पा में हैं
ऐब-जूई से अगर फुर्सत मिले तो देखना
दोस्तो! कुछ ख़ूबियां भी हज़रते-राना में हैं
फ़िर आंसुओं की ज़रूरत न चश्मे-तर को हुई - मुनव्वर राना
फ़िर आंसुओं की ज़रूरत न चश्मे-तर को हुई
हुई जब उससे जुदाई तो उम्र भर को हुई
तकल्लुफ़ात में ज़ख्मों को कर दिया नासूर
कभी मुझे कभी ताख़ीर चारागर को हुई
अब अपनी जान भी जाने का ग़म नहीं हमको
चलो, ख़बर तो किसी तरह बेख़बर को हुई
बस एक रात दरीचे में चांद उतरा था
कि फ़िर चराग़ की ख़्वाहिश न बामो-दर को हुई
किसी भी हाथ का पत्थर इधर नहीं आया
नदामत अब के बहुत शाख़े-बेसमर को हुई
हमारे पांव में कांटे चुभे हुए थे मगर
कभी सफ़र में शिकायत न हमसफ़र को हुई
मैं बे-पता लिखे ख़त की तरह था ऐ राना
मेरी तलाश बहुत मेरे नामाबर को हुई
मेरे कमरे में अंधेरा नही रहने देता - मुनव्वर राना
मेरे कमरे में अंधेरा नही रहने देता
आपका ग़म मुझे तनहा नहीं रहने देता
वो तो ये कहिए कि शमशीर-ज़नी आती थी
वरना दुश्मन हमें ज़िन्दा नही रहने देता
मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देती हमको
और परदेस में बेटा नहीं रहने देता
तिश्नगी मेरा मुक़द्दर है इसी से शायद
मैं परिन्दों को भी प्यासा नहीं रहने देता
रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम
कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता
ग़म से लछमन की तरह भाई का रिश्ता है मेरा
मुझको जंगल में अकेला नहीं रहने देता
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