नदी की बाँक पर छाया 'अज्ञेय' | Nadi Ki Baank Par Chhaya 'Agyeya'

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Sachchidananda-Hirananda-Vatsyayan-Agyeya

नदी की बाँक पर छाया 'अज्ञेय' |  Nadi Ki Baank Par Chhaya 'Agyeya' (toc)

1. पेड़ों की कतार के पार - 'अज्ञेय'

पेड़ों के तनों की क़तार के पार
जहाँ धूप के चकत्ते हैं
वहाँ
तुम भी हो सकती थीं
या कि मैं सोच सकता था
कि तुम हो सकती हो
(वहाँ चमक जो है पीली-सुनहली
थरथराती!)
पर अब नहीं सोच सकता:
जानता हूँ:
वहाँ बस, शरद के
पियराते
पत्ते हैं।

बिनसर, 1978

2. पत्ता एक झरा - 'अज्ञेय'

सारे इस सुनहले चँदोवे से
पत्ता कुल एक झरा
पर उसी की अकिंचन
झरन के
हर कँपने में
मैं कितनी बार मरा!

बिनसर, 1978

3. कहने की बातें - 'अज्ञेय'

सुनो!
कुछ बातें ऐसी हैं
जो कहने की नहीं हैं
क्यों कि वास्तव में
कहने की तो वही हैं
पर कहना उन्हें इतिहास में बाँधना है
जो अतीत में है
जब कि बातें वे
बीतती नहीं हैं: जब कि कहना ही
बीत जाता है
सहना भर रह जाता है
और समय का सोता
रीत जाता है।

4. भैंस की पीठ पर - 'अज्ञेय'

भैंस की पीठ पर
चार-पाँच बच्चे
भोले गोपाल से
भगवान् जैसे सच्चे
भैंस पर सवार
चार पाँच बच्चे
उतरे ज़मीन पर
एक हुआ कोइरी
एक भुइँहार
एक ठाकुर, एक कायथ, पाँचवाँ चमार
एक को पड़ा जूता
दूसरे को झाँपड़
उभरे ददोरे
दो को प्यादे ले गये
करते निहोरे
कीचड़ में भैंस
खड़ी पगुराय
किस की तो भैंस
किस की तलैया?
बच्चे तो बापों के
मालिक कौन पापों के?
कीचड़ हमार है
हम हैं बिहार के
नाचो ता-थैया!

पटना, मई, 1979

5. उस के चेहरे पर इतिहास - 'अज्ञेय'

उस के चेहरे पर
कई इतिहास लिखे थे
जिन की भाषा
मेरी जानी नहीं थी।

इतनी बात मैं ने पहचानी थी
मगर फिर भी
मैं उन्हें अपने इतिहास की नाप से
नाप रहा था।

आह! पन्नों की नाप से
कहीं पढ़ लिये जा सकते
तो
नये या मनमाने भी गढ़ लिये जा सकते
इतिहास...
देखा उसे जिस ही क्षण मैं ने
पास-
उसी क्षण जाना
कि कितना व्यर्थ है मेरा प्रयास...

नयी दिल्ली, 1979

6. उस के पैरों में बिवाइयाँ - 'अज्ञेय'

उस के पैरों में बिवाइयाँ थीं
उस के खेत में
सूखे की फटन
और उस की आँखें
दोनों को जोड़ती थीं।

उस के पैरों की फटन में
मैं ने मोम गला कर भरी
उस की ज़मीन में
मैं अपना हृदय गला कर भरता हूँ,
भरता आया हूँ
पर जानता हूँ कि उसे पानी चाहिए
जो मैं ला नहीं सकता।

मेरे हृदय का गलना
उस के किस काम का?
तब क्या वह मेरा पाखंड है?
यह मेरा प्रश्न
मेरे पैरों की फटन है
और मेरी ज़मीन भी...

नयी दिल्ली, 1979

7. मुलाक़ात - 'अज्ञेय'

तुम्हारी पलकों के पीछे
रह-रह सुलगते अंगार हैं...
माना
आग के परदों के पीछे
वहाँ प्रकाश के और संसार हैं
मगर
परदा उठाओ मत-
उस प्रकाश के पीछे फिर
राख के अम्बार हैं!

आग को न छेड़ो-
सुलगना भी सुन्दर है
दबी भी
आग देर तक तपाती रहेगी...
(आग को
छुआ नहीं था न, इस की हसरत
दिनों तक सहलाती रहेगी)

लो-हो गयी मुलाकात:
अब तुम्हारी राह उधर
मेरी इधर 
न हुई सही बात-
पर यह तो जान लिया
कि जलते तो जा रहे हैं अविराम-
और यों चलते ही जा रहे हैं
नातमाम...

नयी दिल्ली, 1979

8. परती का गीत - 'अज्ञेय'

सब खेतों में
लीकें पड़ी हुई हैं
(डाल गये हैं लोग)
जिन्हें गोड़ता है समाज।
उन लीकों की पूजा होती है।

मैं अनदेखा
सहज
अनपुजी परती तोड़ रहा हूँ
ऐसे कामों का अपना ही सुख है:
वह सुख अपनी रचना है
और वही है उस का पुरस्कार।

उस का भी साझा करने को
मैं तो प्रस्तुत-
उसे बँटाने वाला ही दुर्लभ है! उस को भी तो
लीक छोड़ कर आना होगा
(यदि वह सुख
उस का पहचाना होगा)
पर तब उस के आगे भी
बिछी हुई होगी वैसी ही परती।
बहुत कड़ी यह बहुत बड़ी है धरती।

मैं गाता भी हूँ। उस के हित
मेरे गाने से वह एकाकी भी बल पाता है।
किन्तु अकेला नहीं। दूसरे सब भी।
उन के भीतर भी परती है
उस पर भी एक प्रतीक्षा-शिलित अहल्या
सोती है
जिस को मेरे भीतर का राम
जगाता है।
मैं गाता हूँ! मैं गाता हूँ!

नयी दिल्ली, 9 अगस्त, 1979

9. सागर के किनारे - 'अज्ञेय'

भीतर ही भीतर
तुम्हें पुकारता हूँ
बाहर पुकार नहीं सकता:
बन जाता है वही मेरा व्रत
जिस का मन्त्रित पाश
मैं उतार नहीं सकता!

सागर के किनारे खड़ा मैं
अपनी छोटी-सी नाव सँतारता हूँ!

पर लहर के साथ वह
लौट आती है। मैं जानता हूँ
कि सागर में नीचे कहीं
एक खींच होती है
जिस में पड़ कर फिर
नहीं होता लौट कर आना।

पर वह नाव को नहीं, नहीं, नहीं
मिलती-मैं मानता हूँ
कि डूब कर ही
होता है उसे पाना!

अभी मैं किनारे खड़ा
नाव सँतारता हूँ
साहस बटोरता हूँ
और दम साध
उस खींच को अगोरता हूँ-
आये, आये वह तन्मय क्षण
जब ओ छिपे स्रोत! तू मुझे धर ले-
मैं पाऊँ कि मैं अपने को वारता हूँ:
तारता हूँ...

नयी दिल्ली, 10 अगस्त, 1979

10. खुल तो गया द्वार - 'अज्ञेय'

खुल तो गया
द्वार
खुल तो गया!

फट गया शिलित अन्धकार
हुआ ज्योति-सायक पार!
नमस्कार, देवता! नमस्कार!
परस तेरा उदास
मिल तो गया
तार
मिल तो गया।

खुल तो गया
द्वार
खुल तो गया!

नयी दिल्ली, 22 अगस्त, 1979

11. कहो राम, कबीर - 'अज्ञेय'

न कहीं से
न कहीं को
पुल

न किसी का
न किसी पे
दिल

न कहीं गेह
न कहीं द्वार
सके जो खुल

न कहीं नेह
न नया नीर
पड़े जो ढुल...

यहाँ गर्द-गुबार
न कहीं गाँव
न रूख
न तनिक छाँव
न ठौर

यहाँ धुन्ध
यहाँ ग़ैर सभी
गुमनाम
यहाँ गुमराह
सभी पैर

यहाँ अन्ध
यहाँ-न-कहीं-यहाँ दूर...
कहो राम,
कबीर!

अक्टूबर, 1979

12. नदी की बाँक पर छाया - 'अज्ञेय'

नदी की बाँक पर
छाया
सरकती है
कहीं भीतर
पुरानी भीत
धीरज की
दरकती है

कहीं फिर वध्य होता हूँ...

दर्द से कोई
नहीं है ओट
जीवन को
व्यर्थ है यों
बाँधना मन को

पुरानी लेखनी
जो आँकती है
आँक जाने दो
किन्हीं सूने पपोटों को
अँधेरे विवर में
चुप झाँक जाने दो

पढ़ी जाती नहीं लिपि
दर्द ही
फिर-फिर उमड़ता है

अँधेरे में बाढ़
लेती
मुझे घेरे में

दिया तुम को गया
मेरी ही इयत्ता से
बनी ओ घनी छाया
दर्द फिर मुझ को
अकेला
यहाँ लाया-
नदी की बाँक पर
छाया...

नयी दिल्ली, 8 नवम्बर, 1979

13. डरौना - 'अज्ञेय'

चिथड़े-चिथड़े
टँगा डरौना
खेत में

ढलते दिन की
लम्बी छाया
छुई-
कि बदला
जीते प्रेत में।

घिरी साँझ
मैं गिरा
अँधेरी खोह-
यादें-
लपका
बटमारों का एक गिरोह!

शरण वह
प्रेत डरौना
चिथड़े-चिथड़े।

नयी दिल्ली, 8 नवम्बर, 1979

14. नृतत्व संग्रहालय में - 'अज्ञेय'

तब-
इतिहास नहीं था जब-
जिन की ये हड्डियाँ हैं
वे जीवित थे।

जो आज हैं
सिकुड़े जर्जर कंकाल,
रीढ़, भुजा, कूल्हे, कपाल-
मगर आह, यह एक पंजे में अटका
उजले धातु का छल्ला!

पुरातत्त्व? तत्त्व यह
कि धूल है सब-
क्या वह, क्या हम
सभी कुछ है सम-
अब भी नहीं है इतिहास,
केवल क्रम, विक्रमन-
मगर वह-वह पुराने खरे धातु की चमक
और यह-यह भीतर की खरी सनातन
सुलगन!

15. परती तोड़ने वालों की गीत - 'अज्ञेय'

हम ने देवताओं की
धरती को
सींचा लहू से
कुक्कुटों, बकरों, भैंसों के;
हम ने प्रभुओं की
परती को
सींचा अपने लहू से
और अपने बच्चों के।

उस धरती पर
उस परती पर
अब पलते हैं उन प्रभुओं के
कुक्कुट, बकरे, भैंसे
जिन की खुशी में चढ़ाते हैं वे
उन देवताओं के चरणों पर
फूल, हमारे लाये
हमारे उगाये।

न हमें पशुओं-सा मरना मिला,
न हमें प्रभुओं-सा जीना,
न मिला देवताओं-सा अमरता में
सोम-रस पीना!

हम उन तीनों को
जिलाते रहे, मिलाते रहे,
वह बड़ा वृत्त बनाते रहे
जिस की धुरी से हम
लौट-लौट आते रहे...

भुवनेश्वर-पुरी, 1 जनवरी, 1980

16. मेरे देश की आँखें - 'अज्ञेय'

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें -
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...

तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ -
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...

वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें...

उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं -
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें...

(पुरी-कोणार्क, 2 जनवरी 1980)

17. बाँहों में लो - 'अज्ञेय'

आँखें मिली रहें
मुझे बाँहों में लो
यह जो घिर आया है

घना मौन
छूटे नहीं
काँप कर जुड़ गया है

तना तार
टूटे नहीं
यह जो लहक उठा

घाम, पिया
इस से मुझे छाँहों में लो!

आँखें यों अपलक मिली रहें
पर मुझे बाँहों में लो!

नयी दिल्ली, जनवरी, 1980

18. वसंत : राजस्थानी शैली - 'अज्ञेय'

सरसों फूली पीली लीकें
हरियाली में।
अरे! मोड़ पर
यह मानो वसन्त की लाली
उमँग चली जाती है।

फ़रवरी, 1980

19. रात-भर - 'अज्ञेय'

तू तो सपने में
झलक दिखा कर
चला गया:
मैं
रात-रात भर
यादों को सहलाता
बल खाता पड़ा रहा!

भीमताल, 16 फरवरी, 1980

20. मैने जाना यही हवा - 'अज्ञेय'

चला जा रहा था मैं
मन ने तभी सुझाया:
जिस बालू पर पग धरते
तुम चले जा रहे-यही रेत है काल।
(कहना था क्या उसे यही! मैं छोड़ रहा हूँ छाप काल पर?)
तभी हवा का झोंका आया
सारे पग-चिह्नों को मिटा गया।
मैं ने जाना यही हवा है काल:
समय की लिखत अहं की छाप
मिटाती जाती है...
कितनों-कितनों के
कितने पग-चिह्न
रेत में मिले हुए हैं
कितने अहं: और आने वालो के पग-तल
क्या उन को छूते हैं?
उठते हैं तिलमिला लड़खड़ाते हैं?
एक-एक क्षण में शत-शत युग:
और सहस्रों युग का सूखा जंगल
यह मरु: और उसे
सहलाती-सी ही
हवा काल की
कितने इतिहास मिटा जाती है!
मन, मरु हो गया पार!
हवा री, पाटी की यह लिखत मिटा दे।

भीमताल-काठगोदाम (गौला नदी पर), 18 फ़रवरी, 1980

21. पीली पत्ती : चौथी स्थिति - 'अज्ञेय'

सरसराती पत्ती ने डाल से
मुक्ति तो माँगी थी
पर यह नहीं सोचा था
कि उस की माँग मान ली जाएगी।
यह मुक्ति क्या जाने मृत्यु हो
भरे वसन्त में-यह सोच
वह पीली पड़ गयी
और अन्त में थरथराती
झड़ गयी...

लखनऊ, 7 मार्च, 1981

22. मैं ने पूछा क्या कर रही हो - 'अज्ञेय'

मैं ने पूछा,
यह क्या बना रही हो?
उसने आँखों से कहा
धुआँ पोंछते हुए कहा:
मुझे क्या बनाना है! सब-कुछ
अपने आप बनता है
मैं ने तो यही जाना है।
कह लो मुझे भगवान ने यही दिया है।
मेरी सहानुभूति में हठ था:
मैं ने कहा: कुछ तो बना रही हो
या जाने दो, न सही-बना नहीं रही-
क्या कर रही हो?
वह बोली: देख तो रहे हो छीलती हूँ
नमक छिड़कती हूँ मसलती हूँ
निचोड़ती हूँ
कोड़ती हूँ
कसती हूँ
फोड़ती हूँ
फेंटती हूँ महीन बिनारती हूँ
मसालों से सँवारती हूँ
देगची में पटती हूँ
बना कुछ नहीं रही
बनता जो है-यही सही है-
अपने आप बनता है
पर जो कर रही हूँ-
एक भारी पेंदे
मगर छोटे मुँह की
देगची में सब कुछ झोंक रही हूँ
दबा कर अँटा रही हूँ
सीझने दे रही हूँ।
मैं कुछ करती भी नहीं-
मैं काम सलटती हूँ।
मैं जो परोसूँगी
जिन के आगे परोसूँगी
उन्हें क्या पता है
कि मैं ने अपने साथ क्या किया है!

नयी दिल्ली, मार्च, 1980

23. धूसर वसंत - 'अज्ञेय'

वसन्त आया है
पतियाया-सा सभी पर छाया है
हर जगह रंग लाया है
पर यह देख कर कि कीकर भी पियराया है
मेरा मन एकाएक डबडबा आया है।
नहीं, इस बार, मेरे मीत!
नहीं उमड़ेगी धार
मैं नहीं गा सकूँगा गीत
इस बार, बस, घुमड़ेगा प्यार
और चुप में रिस जाएगा
बहेगी नहीं बयार न सिहराएगी
इस बार चिनचिनाती आँधी आएगी
घुटूँगा मैं और फूले भी बबूल को
धूसर कर जाएगी
धूल, धूल, धूल...

नयी दिल्ली, मार्च 1980

24. हम जिये - 'अज्ञेय'

लौटे तो लौट चले
पाँव-पाँव, मन को यहीं
इसी देहरी पर छोड़ चले
जीवन भर उड़ा किये
ले सपना-‘वह अपना है’,
उसी की छाँव तले
उस को ही सौंप दिये
पांख आज।
तड़पे।
फिर कौंध-सी में
जाना, यह लाज
भी उसी से है-
यह भी उसी को दी।
रह गयी चौंध एक
जिस में सब सिमट गया!
वही बस साथ लिये,
हार दाँव,
हम जैसा भी
जिये जिये!

नयी दिल्ली, 6 अप्रैल, 1980

25. पंडिज्जी - 'अज्ञेय'

अरे भैया, पंडिज्जी ने पोथी बन्द कर दी है।
पंडिज्जी ने चश्मा उतार लिया है
पंडिज्जी ने आँखें मूँद ली हैं
पंडिज्जी चुप-से हो गये हैं।
भैया, इस समय
पंडिज्जी
फ़कत आदमी हैं।

नयी दिल्ली, अप्रैल, 1980

26. कल दिखी आग - 'अज्ञेय'

दीखने को तो
कल दिखी थी आग
पर क्या जाने उस के करने थे फेरे
या उस में झोंकना था सुहाग!
चिह्न तो सब दिखाता है
पर दुजिब्भा है विधाता-
उस का लिखा पढ़ा तो सब जाता है
पर समझ में कुछ नहीं आता।
-और सपना सुन
बताता है सयाना
जजमान हैं बड़भाग
जिसे कल दिखी थी आग...

नयी दिल्ली, अप्रैल, 1980

27. भाषा-माध्यम - 'अज्ञेय'

एक अहंकार है जिस में मैं रहता हूँ
जिस में (और जिसे!) मैं कहता हूँ
कि यह मेरा अनुभव है
जो मेरा है, मेरा भोगा है, मेरा जिया है:
और एक इस सच का स्वीकार है
कि यह जो ज्ञान भी है
इस की पहचान अभी
माध्यम एक मुहावरा है जो तुम्हारा दिया है!

नयी दिल्ली, 8 मई, 1980

28. भाषा पहचान - 'अज्ञेय'

एक भिखारी ने
दूसरे भिखारी को सूचना दी:
उस द्वार जाओ, वहाँ भिक्षा ज़रूर मिलेगी।
बड़े काम की चीज़ है भाषा: उस के सहारे
एक से दूसरे तक जानकारी पहुँचाई जा सकती है।
वह सामाजिक उपकरण है।
पर नहीं। उस से भी बड़ी बात है यह
कि भाषा है तो एक भिखारी जानता है कि वह दूसरे से जुड़ा है
क्यों कि वह उस जानकारी को
साझा करने की स्थिति में है।
वह मानवीय उपलब्धि है।
हम सभी भिखारी हैं।
भाषा की शक्ति यह नहीं कि उस के सहारे
सम्प्रेषण होता है:
शक्ति इसमें है कि उस के सहारे
पहचान का यह सम्बन्ध बनता है जिस में
सम्प्रेषण सार्थक होता है।

29. आज ऐसा हुआ है - 'अज्ञेय'

बहुत दिनों के बाद
आज ऐसा हुआ है
कि उस एक मेरे जाने हुए
आलोक ने मुझे छुआ है।
यह तो जानता रहा हूँ
कि जीवन एक आवारा गर्म झोंके पर
उड़ता हआ भुआ है
पर यह कि इस उड़ने का भी सहारा
किसी की दुआ है-
मानूँ, तुम्हारे सामने भी, बेचारा
अभिमान छोड़ कर मान लूँ
कि सच बहुत दिनों के बाद
आज ऐसा हुआ है...

नयी दिल्ली, 8 मई, 1980

30. आये नचनिये - 'अज्ञेय'

कैसे बनठनिये आये नचनिये!
‘पाय लागी, पाधा,
राम-राम, बनिये!
हम आये नचनिये!’
‘नाचोगे?’ ‘काहे नहीं नाचेंगे?
जब तक नचायेंगे!’
‘जब तक?-अच्छा तो,
जब तक तुम गिनोगे,
जब तक ये बाँचेंगे!’
‘ऐसा, तो देखें कहाँ तक!’
‘देखो, जब तक, जहाँ तक!
हमारा क्या, हम तो नचनिया हैं
नाचेंगे भोर से रात तक
और सोम से जुम्मे रात तक
फागुन से असाढ़ तक
और सूखे से बाढ़ तक
चँदोवे से कनात तक
घर से हवालात तक
कानपुर से दानपुर
रामपुर से धामपुर
सोलन से सुल्तानपुर
दीरबा कलाँ से देवबन्द
चाहचन्द से रायसमन्द।
एटा से कोटा, बड़ौत से बरपेटा
गया से गुवाहाटी
बरौनी से राँगामाटी।
लहरतारा से लोहानीपुर
बऊबाजार से मऊरानीपुर,
पिपरिया से सिमरिया
झाँसी से झूँसी और झाझर से झरिया।
छिली ईं से नरही
और बारह टोंटी से तत्ता पानी
तीन मूरती से पँच बँगलिया
कसेरठ से खड़ा घोड़ा
खेखड़े से खखौदा,
पीलीभीत से लालबाग
और मेरठ से अलमोड़ा।
चौड़े रास्त से नाटी इमली
तंजाऊर से तिरुट्टानी
भोगाँव से बलिया।
तुम गिने जाव, वह बाँचे जाएँ
तो ठीक है, हम हू नाचे जाएँ!
बड़ी दूर से आये हैं
हम न ठाकुर न बनिये
हम हैं नचनिये!!’

नयी दिल्ली, 11 मई, 1980

31. न सही, याद - 'अज्ञेय'

न सही, याद न करो मुझे
जिओ मेरी ही याद में-
तुम्हारा याद का समय तो
यों भी होगा-बाद में...
इतना ही है कि जो दिन, सोचा था,
बीतेंगे गीत के मधुर नाद में
वे झरते जाते हैं
एक विरस अवसाद में:
पर यही सही: मेरा दिन तो चुकने को है
मेरे क्षितिजों पर गुज़रता काफ़िला रुकने को है।
पर भोर-वह कल भी होगा: तभी कर लेना याद-
अंगार-स्याहपोश न हो, सुलगे तब भी-मेरे बाद!

नयी दिल्ली, मई, 1980

32. खून - 'अज्ञेय'

किसी को भुला ले
तुम्हारी भंगिमा
किसी की ममता जगा ले
तुम्हारे यह आयोजन
(उसी को मोहने का तो)
फिर भी तुम्हारे चेहरे पर
वह लुनाई नहीं आएगी
जो उस के चेहरे पर है जो
तुम्हारे लिए ये खीरे के टुकड़े
तश्तरी में लायी है
जो तुम्हारी आँखों की मद-भी हिर्स को
अपनी कुतूहल-भरी आँखों से देखती है।
उस के बाद का ख़ून तुम्हारे बाप ने चूसा है
उस के बाप के बाप का
तुम्हारे बाप के बाप ने,
और यों सदियों से होता चला आया है।
हो सकता है तुम्हारे बाप ने
अभी तुम्हें यह नहीं बताया है
और निश्चय ही रूप-रक्षा के नुस्ख़ों वाली तुम्हारी
रंगीली पत्रिका ने यह तुम्हें नहीं पढ़ाया है
बात यह है कि वह खून देती हुई भी
अपने ख़ून पर पली है
और तुम अनजानते भी
उस के ख़ून पर...

33. टप्पे - 'अज्ञेय'

अमराई महक उठी
हिय की गहराई में
पहचानें लहक उठीं!
तितली के पंख खुले
यादों के देवल के
उढ़के दो द्वार खुले

नयी दिल्ली, जून, 1980

34. प्यार के तरीके - 'अज्ञेय'

प्यार के तरीके तो और भी होते हैं
पर मेरे सपने में मेरा हाथ
चुपचाप
तुम्हारे हाथ को सहलाता रहा
सपने की रात भर...

नयी दिल्ली, जून, 1980

35. रात सावन की - 'अज्ञेय'

रात सावन की
कोयल भी बोली
पपीहा भी बोला
मैं ने नहीं सुनी
तुम्हारी कोयल की पुकार
तुम ने पहचानी क्या
मेरे पपीहे की गुहार?
रात सावन की
मन भावन की
पिय आवन की
कुहू-कुहू
मैं कहाँ-तुम कहाँ-पी कहाँ!

नयी दिल्ली, जून, 1980

36. सहारे - 'अज्ञेय'

उमसती साँझ
हिना की गन्ध
किसी की याद
कैसे-कैसे प्राणलेवा
सहारे हैं
जीने के!

नयी दिल्ली, जून, 1980

37. स्वर-शर - 'अज्ञेय'

तुम्हारे स्वर की गूँज
भरे रहे आकाश
स्वचेतन:
पर मेरा मन-
वह पहले ही है फ़कीर
अनिकेतन।
खग हो कर भी
वह नीरव तिरता है नभ से
गूँज भरे, वर दो-ऐसा कुछ तुम कर दो-
वह यों-स्वर-शर से बिंधा सदा विचरे!

भुवनेश्वर-दिल्ली, 16 जून, 1980

38. उमस - 'अज्ञेय'

रात उजलायी,
अँधेरे से कँटीले हो
सभी आकार उग आये।
सिहर कर पंछी पुकारे।
इधर लेकिन अबोली चुप
तुम्हारी व्यथा में मेरी व्यथा डूबी।

नयी दिल्ली, 19 जून, 1980

39. आज मैं ने - 'अज्ञेय'

आज मैं ने पर्वत को नयी आँखों से देखा।
आज मैं ने नदी को नयी आँखों से देखा।
आज मैं ने पेड़ को नयी आँखों से देखा।
आज मैं ने पर्वत पेड़ नदी निर्झर चिड़िया को
नयी आँखों से देखते हुए
देखा कि मैं ने उन्हें तुम्हारी आँखों से देखा है।
यों मैं ने देखा कि मैं कुछ नहीं हूँ।
(हाँ, मैं ने यह भी देखा कि तुम भी कुछ नहीं हो।)
मैं ने देखा कि हर होने के साथ
एक न-होना बँधा है
और उस का स्वीकार ही बार-बार,
हमें हमारे होने की ओर लौटा लाता है
उस होने को एक प्रभा-मंडल से मँढ़ता हुआ।
आज मैं ने अपने प्यार को
जो कुछ है और जो नहीं है उस सब के बीच
प्यार के एक विशिष्ट आसन पर प्रतिष्ठित देखा।
(तुम्हारी आँखों से देखा।)
आज मैं ने तुम्हारा
एक आमूल नये प्यार से अभिषेक किया
जिस में मेरा, तुम्हारा और स्वयं प्यार का
न होना भी है वैसा ही अशेष प्रभा-मंडित
आज मैं ने तुम्हें
प्यार किया, प्यार किया, प्यार किया...

40. धुँधली चाँदनी - 'अज्ञेय'

दिन छिपे
मलिना गये थे रूप
उन को चाँदनी नहला गयी।
थक गयी थी याद संकुल लोक में
उमड़ती धुन्ध फिर सहला गयी।
बोझ से दब घुट रही थी भावना, पर
प्रकृति यों बहला गयी।
फिर, सलोने, माँग तेरी
कसमसाती चेतना पर
छा गयी।

41. कदंब कालिंदी (पहला वाचन) - 'अज्ञेय'

टेर वंशी की
यमुना के पार
अपने-आप झुक आयी
कदम की डार।
द्वार पर भर, गहर,
ठिठकी राधिका के नैन
झरे कँप कर
दो चमकते फूल।
फिर-वही सूना अँधेरा
कदम सहमा
घुप कालिन्दी कूल!

42. कदंब कालिंदी (दूसरा वाचन) - 'अज्ञेय'

अलस कालिन्दी-कि काँपी
टेरी वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार अपने-आप
झुक आयी कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।
द्वार थोड़ा हिले-
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूँद
फिर-उसी बहती नदी का
वही सूना कूल!-
पार-धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर!

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1980

43. कुछ तो टूटे - 'अज्ञेय'

मिलना हो तो कुछ तो टूटे
कुछ टूटे तो मिलना हो
कहने का था, कहा नहीं
चुप ही कहने में क्षम हो
इस उलझन को कैसे समझें
जब समझें तब उलझन हो
बिना दिये जो दिया उसे तुम
बिना छुए बिखरा दो-लो!

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1980

44. वासंती - 'अज्ञेय'

मेरी पोर-पोर
गहरी निद्रा में थी
जब तुमने मुझे जगाया।
हिमनिद्रा में जड़ित रीछ
हो एकाएक नया चौंकाया-यों मैं था।
पर अब! चेत गयी हैं सभी इन्द्रियाँ
एक अवश आज्ञप्ति उन्हें कर गयी सजग,
सम्पुजित; पूरा जाग गया हूँ
एक बसन्ती धूप-सने खग-रव में;
जान गया हूँ
उस पगले शिल्पी ईश्वर का क्रिया-कल्प!
फिर छुओ!
प्राण पा गयी है वह प्रस्तर प्रतिमा!

नयी दिल्ली, 6 अक्टूबर, 1980

45. हाथ गहा - 'अज्ञेय'

हाँ, तुम्हारा हाथ मैं ने गहा
तुम्हारे हाथ को मेरा हाथ
देर तक लिये रहा:
पर एकाएक मैं ने देखा कि उस मेरे हाथ के साथ
मैं ही तो नहीं रहा...

लखनऊ, 14 नवम्बर, 1980

46. इतिहास-बोध - 'अज्ञेय'

इन्हें अतीत भी दीखता है
और भवितव्य भी
इस में ये इतने खुश रहते हैं
कि इन्हें यह भी नहीं दीखता!
कि उन्हें सब कुछ दीखता है पर
वर्तमान नहीं दीखता!
दान्ते के लिए यह स्थिति
एक विशेष नरक था
पर ये इसे अपना इतिहास-बोध कहते हैं!

लखनऊ, 14 नवम्बर, 1980

47. प्यार अकेले हो जाने - 'अज्ञेय'

प्यार अकेले हो जाने का एक नाम है
यह तो बहुत लोग जानते हैं
पर प्यार अकेले छोड़ना भी होता है इसे
जो
वह कभी नहीं भूली
उसे जिसे मैं कभी नहीं भूला...

नयी दिल्ली, नवम्बर, 1980

48. अलाव - 'अज्ञेय'

माघ: कोहरे में अंगार की सुलगन
अलाव के ताव के घेरे के पार
सियार की आँखों में जलन
सन्नाटे में जब-तब चिनगी की चटकन
सब मुझे याद है: मैं थकता हूँ
पर चुकती नहीं मेरे भीतर की भटकन!

नयी दिल्ली, दिसम्बर, 1980

49. भोर : लाली - 'अज्ञेय'

भोर। एक चुम्बन। लाल।
मूँद लीं आँखें। भर कर।
प्रिय-मुद्रित दृग
फिर-फिर मुद्रांकित हों-
क्यों खोलें?
आँखें खुलती हैं। दिन। धन्धे।
खटराग।
ऊसर जो हो जाएगा पार
वही लाली क्या फिर आएगी?

नयी दिल्ली, दिसम्बर, 1980

50. वासुदेव प्याला - 'अज्ञेय'

यह वासुदेव प्याला
भरते ही कृष्ण का चरण-स्पर्श पा
रीत जाता है
और फिर भरता है
अनवरत: इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।
आश्चर्य यह है कि यह बाढ़
जिस के चरण छूती है
वह नहीं है डलिया में सोया
बाल-कृष्ण: वह छलिया
वह साँवलिया है जो
कालिय नाग के मणिपूर मस्तक पर
नाच रहा है।
उस नर्तमान चरण को छूता है जल
और उतर जाता है:
पानी उतर जाता है...
ओ रह: कृष्ण! तुम क्या
नाग के नथैया
और कालिन्दी के कन्हैया हो
या कि नाग के ही बचैया-
कि यह बाढ़ भी क्या इसी में धन्य है
कि नाग ही तुम्हारा शरण्य है?

नयी दिल्ली, 16 दिसम्बर, 1980

51. स्वरस विनाशी - 'अज्ञेय'

घड़े फूट जाते हैं
कीच में खड़े हम पाते हैं
कि अमृत और हलाहल
दोनों ही अमोघ हैं
दोनों को एक साथ भोगते हम
अमर और सतत मरणशील
सागर के साथ फिर-फिर
मथे जाते हैं

52. कालोऽयं समागतः - 'अज्ञेय'

समागत है काल अब बुझ
जाएगा यह दीप।
यही क्या कहना
कि होता इस समय तू एक
समीप!
जो अकेला रहा भरता रहा
तेरी उपस्थिति के बोध से
अपना चरम एकान्त क्यों न वह
निबते समय भी मौन
आवाहे वही आलोक
धीरज का परम निर्भ्रान्त?
वही हो: उसी में यह जन
नसन को बाँहें समेटे
उसी में पाहुन समागत
अंक भेंटे जाएँ मिल
लय-ताल।
-समागत है काल।

नयी दिल्ली, मई, 1981

53. जा! - 'अज्ञेय'

जा!
जाना है तो ऐसे जा:
या तो गाते-गाते
या फिर तम में जागे-जागे
सहसा पाते
वह जो गाना था, प्रकाश,
वह यह पाया-
यह-हाथ की पहुँच से, बस
तिनका-भर आगे!
हाथ बढ़ा और-
जा!

बिनसर, 19 जून, 1981

54. मेघ एक भटका-सा - 'अज्ञेय'

रीता घर सूना गलियारा
वन की तरु-राजि
बिसूर पियूर की
हवा की थकी साँस:
मेघ एक भटका-सा
दो बूँदें टपका जाता है।
ऐसे ही टुकड़ों में सहसा
गँठ जाते हैं महाकाव्य
व्याकुल प्रेत-व्यथा
सब-कुछ से सब-कुछ ही बिछुड़न की
एक आह हीरक में शिलीभूत!

बिनसर, 19 जून, 1981

55. जरा व्याध-1 - 'अज्ञेय'

मर्माहत ही मिले मुझे
फिर जालिक के ही पाश काट
पानी को करते पापमुक्त
वह चले गये।
नर में ही बार-बार नारायण
मरते हैं। भरते हैं उस में
व्यथा बोध, उस का ही काम अधूरा है।
नारायण? उन का तो खाता सदा शुद्ध है, पूरा है।
दे चुके कर्मफल मुक्ति, पाप से भुक्ति,
स्वयं वह मुक्त हुए।
नारायण! नहीं! व्याध को ऐसे
मुक्तिबोध से मुक्त करो!
जिस ने जीवन में एक लक्ष्य ही जाना-
शर-सन्धान अनवरत-
उसे सन्धानी ही रहने दो!
न दो क्षमा! उस के बन्धन मत खोलो!
बँध हुआ ही वह कितना समीप है
कितना डूबा साँई की छाया में
रह-रह उठती है पुकार उस के भीतर से
शब्दहीन:
‘नारायण! नर के नारायण हे!’
मर्माहत ही मिले मुझे वह
मैं भी मर्मविद्ध यों बँधा रहूँ
कल्पान्तरतर-कल्पान्त
पुकारा करूँ नाम: नारायण हे!

बिनसर, 11 जून, 1981

56. जरा व्याध-2 - 'अज्ञेय'

क्या यही है पुरुष की नियति
कि बार-बार लोभ-वश
-किन्तु जो जीवन-कर्म है (जो नियति है!)
उसे कैसे माना जाय लोभ?-
जाना मृग की टोह में
और मर्माहत कर आना
युग-युग के मृगांक को!
कौन शरविद्ध हुआ, कृष्ण?
तुम, मेरे नारायण, कि मैं,
नियति का अभागा आखेट, अहेरी मैं!
नहीं, नहीं, नहीं सहा जाता यह बोझ
क्षमा का! क्यों नहीं यह भी नियति है
कि व्याध का भी
तत्काल वध हो घातीवत्!
जरा तो देवघाती है!
कवि ने तो पक्षीघाती को भी दे दिया था शाप तुरत,
मानव था कवि, करुण था, क्रोधी था;
और तुम, नारायण मेरे,
दाता, जिसे सारा जग वन्दता है,
दे न सके अपनी अजस्र उदारता में मुझे
एक शाप तक!
यही है शाप क्या? कि अपराधी उपेक्षित हो,
दंड भी न पाये, पग-पग पर
रचे जाय अपने ही लिए आग तूस की
जला करे तिल-तिल-किन्तु देवता
तुमने तो क्षमा दी थी मुझे-यही क्या क्षमा है?
दिया है मैं ने अपने को वन को पंछियों को
मृगों को उरगों, पतंगों को!
डँसें मुझे मारें, नोचें,
फाड़ कर भक्ष लें!
देखो, वनचारियो,
बन्धुओ, निस्तारको, मेरे मोक्षदो!
यही देवहन्ता जरा व्याध आज
वध्य है तुम्हारा।
नहीं, नहीं, नहीं!
मेरा एक ही शरण्य है!
वही जिसे मैं ने शरविद्ध किया है!
कृष्ण, मैं ने मारा नहीं तुम्हें, मैं ने
अपने को बाँधा है तुम्हारे साथ-
और तुम मेरे साथ बँधे हो-
मेरे साथ! व्याध के!
यही क्या नियति है?

अगस्त, 1981


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