महावृक्ष के नीचे - 'अज्ञेय' | Mahavriksha Ke Neeche 'Agyeya'

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Sachchidananda-Hirananda-Vatsyayan-Agyeya

महावृक्ष के नीचे - 'अज्ञेय' |  Mahavriksha Ke Neeche 'Agyeya' (toc)

1. बर्फ़ की तहों के नीचे - 'अज्ञेय'

बर्फ़ की तहों के बहुत नीचे से सुना मैं ने
उस ने कहा: यहीं गहरे में
अदृश्य गरमाई है
तभी सभी कुछ पिघलता जाता है
देखो न, यह मैं बहा!
मेरी भी, मेरी भी शिलित अस्ति के भीतर कहीं
तुम ने मुझे लगातार पिघलाया है।
पर यह जो गलना है
तपे धातु का उबलना है
मैं ने इसे झुलसते हुए सहा
पर कब, कहाँ कहा!

हाइडेलबर्ग, 30 जनवरी, 1976

2. मथो - 'अज्ञेय'

यह अन्तर मन
यह बाहर मन
यह बीच कलह की
-नहीं, जड़ नहीं!-मथानी।
मथो, मथो, ओ मनो मथो
इस होने के सागर को
जो बँट चला आज
देवों-असुरों के बीच!
अब लो निकाल जो निकले
गागर-भर!
आवे जब तर तै कर लेना
क्या निकला यह?
अमृत? हलाहल?

हाइडेलबर्ग, 31 जनवरी, 1976

3. उत्सव पिंगला - 'अज्ञेय'

लहरीला पिघला सोना
झरने पर तिपहर की धूप
मुगा रेशम के लच्छे
डाल बादाम की फूलों-लदी
बसन्ती बयार में।
पारदर्श पलकें।
और आँखें? सब-कुछ
उन में कहा जाता है-
वे कुछ नहीं बतातीं।
‘आत्मा की खिड़कियाँ।’
घर में जब शहर बसा
कौन-सी दीवार के पार
झलकेगा कैसा रहस्य?
झटक कर सिर वह हिलाती है
और उग आता है
पटसन की बदली में
रँगा-पुता पन्नी का चाँद।
उत्सव मनाओ! बह जाओ!
लहरीला पिघला सोना...

हाइडेलबर्ग, 1 फ़रवरी, 1976

यूरोप और अमेरिका के कैथोलिक समाज में
वसन्तकालीन उपवास (लैंट) से पहले एक उत्सव
मनाया जाता है जिस में लोग चेहरे पहन कर या
यों ही सज-धज कर जुलूस निकालते और रंगरलियाँ
मनाते हैं। इसे कार्निवाल या कभी-कभी केवल ‘उत्सव’
(फ़ेस्ट, फ़ाशिंग) भी कहते हैं। उत्सव-दिवस के जुलूस
की एक पिंगलकेशी युवती इस कविता की निमित्त थी।

4. होमोहाइडेल वर्गेसिस - 'अज्ञेय'

यहाँ जो खोपड़ी मिली थी
मेरी तो नहीं ही थी,
निश्चय ही मेरे किसी पूर्वज की भी नहीं थी।
हम क्या थे, कौन हैं
यह हम पाँच महीने
पाँच बरस, पचीस बरस बाद ही
निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते-
पर हम कौन क्या नहीं थे
यह हम पाँच लाख साल बाद भी
ध्रुव जानते हैं।

हाइडेलबर्ग, 3 फ़रवरी, 1976

5. चुप-चाप नदी - 'अज्ञेय'

चुप-चाप सरकती है नदी,
चुप-चाप झरती है बरफ़
नदी के जल में
गल जाती है।
लटकी हैं छायाएँ
निष्कम्प
पानी में।

और एक मेरे भीतर नदी है स्मृतियों की
जो निरन्तर टकराती है मेरी दुरन्त वासनाओं की चट्टानों से
जिस नदी की जिन चट्टानों से जिस टकराहट से
कोई शब्द नहीं होता
और जिस के प्रवाह में
बरफ़ की लड़ी की छाया-सा लटका हूँ मैं।

हाइडेलबर्ग, फरवरी, 1976

6. वसन्त आया तो है - 'अज्ञेय'

वसन्त आया तो है
पर बहुत दबे-पाँव
यहाँ शहर में
हम ने उस की पहचान खो दी है
उसने हमें चौंकाया नहीं।
पर घाटी की दुःखी कठैठी ढाल पर
कई सूखी नामहीन बूटियाँ रहीं
जिन्हें उसने भुलाया नहीं।
सब एकाएक एक ही लहर में
लहलहा उठीं
स्वयंवरा वधुओं-सी!
वर तो नीरव रहा
वधुओं की सखियाँ गा उठीं।

हाइडेलबर्ग, फरवरी, 1976

7. झाँकी - 'अज्ञेय'

ओझल होती-सी मुड़-भर कर
सब कह गयी तुम्हारी छाया।
मुझ को ही सोच-भरे यों खड़े-खड़े
जो मुझ में उमड़ा वह
कहना नहीं आया।

8. संभावनाएँ - 'अज्ञेय'

अब आप ही सोचिए
कितनी सम्भावनाएँ हैं
-कि मैं आप पर हँसूँ
और आप मुझे पागल करार दे दें;
-या कि आप मुझ पर हँसें
और आप ही मुझे पागल करार दे दें;
-या आप को कोई बताये कि मुझे पागल करार दिया गया
और आप केवल हँस दें...
-याकि
हँसी की बात जाने दीजिए
मैं गाली दूँ और आप-
लेकिन बात दोहराने से लाभ?
आप समझ तो गये न कि मैं कहना क्या चाहता हूँ?
क्यों कि पागल
न तो आप हैं
न मैं;
बात केवल करार दिये जाने की है-
या, हाँ, कभी गिरफ़्तार किये जाने की है।
तो क्या किया जाए?
हाँ, हँसा तो जाए-
हँसना कब-कब नसीब होता है?
पर कौन पहले हँसे?
किबला, आप!
किबला, आप!

मार्च, 1976

9. नाच - 'अज्ञेय'

एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।
रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ
वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।
दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
उस पर तीखी रोशनी पड़ती है
जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।
न मुझे देखते हैं जो नाचता है
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
न रोशनी को ही जिस में नाच दीखता है:
लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।
पर मैं जो नाचता
जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ
जो जिन खम्भों के बीच है
जिस पर जो रोशनी पड़ती है
उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर
असल में मैं नाचता नहीं हूँ।
मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ
कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये -
पर तनाव ढीलता नहीं
और मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ
पर तनाव वैसा ही बना रहता है
सब कुछ वैसा ही बना रहता है।
और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं
मुझे नहीं
रस्सी को नहीं
खम्भे नहीं
रोशनी नहीं
तनाव भी नहीं
देखते हैं - नाच!

मार्च, 1976

10. अब भी यही सच है - 'अज्ञेय'

अब भी यही सच है
कि अभी एक गीत मुझे और लिखना है।
अभी उस के बोल नहीं हैं मेरे पास
पर एकाएक कभी लगता है
कि मेरे भीतर कुछ जगता है
और जैसे किवाड़ खटखटाता है
और उस के साथ यह विश्वास
पक्का हो आता है
कि वह ज़रूर-ज़रूर लिख जाएगा...
क्यों कि वह जो है न, वह धुनी है और समर्थ है
और वह बन्दी नहीं रहेगा। किवाड़
चाहे खोलेगा, खुलवाएगा, तोड़ेगा,
पर तभी चैन लेगा जब पार
खुला दृश्य दिख जाएगा।
वह धुनी है, समर्थ है
केवल डेढ़ बित्ते का नहीं है
समूचे मेरे साथ तदाकार है
दुर्निवार है और वह बोलेगा-
वह बुक्का फाड़ कर बुलवाएगा...
एक गीत और जो छाती फाड़ कर उमड़े
तब तक चाहे जितना घुमड़े
अब भी यही सच है...

हाइडेलबर्ग, मार्च, 1976

11. सीमांत पर - 'अज्ञेय'

चेहर हो गये हैं यन्त्र सभ्य।
मँजे चमकते हैं
बोल कर छिपाते हैं।
पर हाथ अभी वनैले हैं
उन के गट्टे
चुप भी सच सब बताते हैं।
बस कभी-परम दुर्लभ!-
आँसू: वे ही बचे हैं जो कभी गाते हैं।

बर्लिन, मार्च, 1976

जर्मन प्रवास में लिखी गयी यह कविता पूर्वी और
पश्चिमी बर्लिन को अलग करने वाले अस्त्र-सज्जित
‘आधुनिक’ सीमान्त के एक ठिये पर लिखी गयी थी
जहाँ सीमान्त पार करने वालों की पड़ताल और
तलाशी आदि की व्यवस्था है।

12. क्लाइस्ट की समाधि पर - 'अज्ञेय'

एक ढंग है जीने का
एक मरने का
और एक
ये दोनों किनारे पार करने का।
समस्या बीच में है।
जिजीविषा। एक धन।
एक नदी।
एक असाध्य रोग। एक खेल।
एक लम्बा नशा जिसमें
एक किनारा दो में बँटता है,
दो किनारे एक में मिलते हैं।
समस्या बीच में है। अलग फूटती है-
मिल जाती है।
फूटती है, मिल जाती है
बहलाती है।
यों, यों, यों ही
तू सम्पूर्ण मेरा है, मेरे जीवन,
तू सम्पूर्ण मेरा है, मेरे मरण!

हाइडेलबर्ग, अप्रैल, 1976

बर्लिन के एक उद्यान के छोर पर क्लाइस्ट की
कब्र उसी स्थान के निकट बनी है जहाँ उसने
आत्महत्या की थी। समाधि-लेख क्लाइस्ट की ही
दो पंक्तियों का है जिन का आशय है, ‘अब ओ
अमरत्व, तू सम्पूर्ण मेरा है।’ प्रस्तुत कविता की
अन्तिम दो पंक्तियों का सन्दर्भ यही है, उस के
अलावा भी क्लाइस्ट के दुःखमय जीवन और उस
की आत्महत्या के प्रसंगों के संकेत हैं।

13. ना जाने कोई भेष - 'अज्ञेय'

खेतों में मद और मूसलों की
दोहरी मार से त्रस्त-ध्वस्त
बिछे थे यादव-वीर।
सूर्य अस्त, चन्द्र अस्त,
वनों के महावृक्षों के बीच बढ़ा
-गुफा में फैलते सीरे-सा!-
पसरा था अन्धकार!
और मैं था कि सजग, सावधान,
सधे पाँव, तान धनुष, बाण चढ़ा
खोजता था मृग कृष्णसार!
सुना तभी स्वर शर सन्धान कर
छोड़ दिया बाण!
लक्ष्य-सिद्ध!
यों मुझे मिले वह
खुला गिरा मोर-पंख का किरीट,
वैजयन्ती-माल स्रस्त,
छुटी पड़ी बाँसुरी,
मलिनाते पैरों के सूक्ष्म घाव से निकल रेंग रहा
सृपी शुभ्र, आयु-शेष:
आह, मुझे इस भेस मिले
नारायण: मेरे ही बाण से विद्ध!

अप्रैल, 1976

14. सड़क के किनारे गुलाब - 'अज्ञेय'

बेमंज़िल सड़क के किनारे
एकाएक गुलाब की झाड़ी।
व्याख्या नहीं, सफाई नहीं-निपट गुलाब।
बेमंजिल शनिवारी सैरगाड़ी में मैं।
कोई अर्थ नहीं, सम्बन्ध नहीं-निपट मैं।
कितनी निर्व्याज, अजटिल
होती हैं स्थितियाँ जिन में
प्यार जन्म लेता है!

हाइडेलबर्ग, मई, 1976

15. महावृक्ष के नीचे (पहला वाचन) - 'अज्ञेय'

जंगल में खड़े हो?
महारूख के बराबर
थोड़ी देर खड़े रहो
महारूख ले लेगा तुम्हारी नाप।
लेने दो।
उसे वह देगा तुम्हारे मन पर छाप।
देने दो।
जंगल में चले हो?
चलो चलते रहो।
महारूख के साथ अपना नाता बदलते रहो।
उस का आयाम उस का है, बहुत बड़ा है।
पर वह वहाँ खड़ा है।
और तुम चलते हो चलते हुए भी भले हो।
वह महारूख है
अकेला है, वन में है।
तुम महारूख के नीचे-अकेले हो, वन तुम में है।

ग्रोस पेर्टहोल्ज़ (आस्ट्रिया), 15 मई, 1976

16. महावृक्ष के नीचे (दूसरा वाचन) - 'अज्ञेय'

वन में महावृक्ष के नीचे खड़े
मैं ने सुनी अपने दिल की धड़कन।
फिर मैं चल पड़ा।
पेड़ वहीं धारा की कोहनी से घिरा
रह गया खड़ा।
जीवन: वह धनी है, धुनी है
अपने अनुपात गढ़ता है।
हम: हमारे बीच जो गुनी है
उन्हें अर्थवती शोभा से मढ़ता है।

ग्रोस पेर्टहोल्ज (आस्ट्रिया), 15 मई, 1976

17. वन-मिथक - 'अज्ञेय'

महावन में बिखरे हैं जाति-धन पुराण।
सीमा-शिखरों के गढ़ उन्हें मढ़ते रहे हैं
ऐश्वर्य से और अभी पेड़ हैं
स्वयं ध्वस्त गौरव-अस्त।
फिर भी, फिर भी
नगर-घिरी वन-सीमा के ऊपर
मँडराते रहते हैं
आदिम प्राण...

मई, 1976

18. शरद विलायती - 'अज्ञेय'

आया है शरद विलायती क्या बना है!
रंगीन फतुही काली जुर्राबें,
हवा में खुनकी मिज़ाज में तुनकी
दिल में चाहे जाती धूप की कसक
पर चाल में विजेता की ठसक
हम जान गये
यह सब सुनहली शराबें
पीने का बहाना है!
फिर भी मियाँ शरद,
हम तुम्हें मान गये!

मई, 1976

19. तीसरा चरण - 'अज्ञेय'

(ह्योएल्डर्लिन के प्रति)

फूली डालों के चामर से सहलाये हुए
नदी के अदृश्य गति
गहराते पवित्र पानी को
फिर भँवराते जा रहे हैं
नये जवानों के शोर-भरे जल-खेल।
कोई दूसरा ही किनारा
उजलाते होंगे
अवहेलित लीला-हंस!
फलेंगे तो अलूचे, फूलेंगे तो सूरजमुखी,
पर वह सब अनत, कवि!
यहाँ इस फेंटे हुए मेले में
यहाँ क्या सुनोगे अब? ‘खनकती ऋतु-पंखियाँ’
या कि काल का अपने को गुँजाता सन्नाटा?

ट्यूबिंगेन, मई, 1976

जर्मन कवि ह्योएल्डर्लिन की एक अत्यन्त प्रसिद्ध और
लोकप्रिय कविता है हाल्फ़्टेस डेस ले बैंस (जीवन का
उत्तरार्द्ध)। इस में कवि शरदकालीन झील में किलोल
करते हंस को सम्बोधन कर के अपने अतीत जीवन
का उदास स्मरण करता है। (जर्मन कविता का ‘अज्ञेय’
कृत अनुवाद ‘नया प्रतीक’ के जर्मन साहित्य अंक में
छपा है, एक अनुवाद संग्रह में भी छप रहा है।)
ऋतु-सूचक चरखी की पंखियों की खनक कवि को
काल की गति का स्मरण दिलाती है। प्रस्तुत कविता
में ह्योएल्डर्लिन की ही शब्दावली का प्रयोग हुआ है;
यों पूरी कविता जर्मन कवि की उक्ति पर एक टिप्पणी
ही है। वह कविता ट्यूबिंगेन में नेकार नदी पर उसी
स्थल के निकट लिखी गयी थी जहाँ ह्योएल्डर्लिन ने
अपने पिछले दिन बिताये थे।

20. सभी से मैं ने विदा ले ली - 'अज्ञेय'

सभी से मैं ने विदा ले ली:
घर से, नदी के हरे कूल से,
इठलाती पगडंडी से
पीले वसन्त के फूलों से
पुल के नीचे खेलती
डाल की छायाओं के जाल से।
ब से मैं ने विदा ले ली:
एक उसी के सामने
मुँह खोला भी, पर
बोल नहीं निकले।
हम न घरों में मरते हैं न घाटों-अखियारों में
न नदी-नालों में
न झरते फूलों में
न लहराती छायाओं में
न डाल से छनती प्रकाश की सिहरनों में
इन सब से बिछुड़ते हुए हम
उनमें बस जाते हैं।
और उन में जीते रहते हैं
जैसे कि वे हम में रस जाते हैं
औ हमें सहते हैं।
एक मानव ही-हर उसमें जिस पर हमें ममता होती है
हम लगातार मरते हैं,
हर वह लगातार
हम में मरता है,
उस दोहरे मरण की पहचान को ही
कभी विदा, कभी जीवन-व्यापार
और कभी प्यार हम कहते हैं।

हाइडेलबर्ग, मई, 1976

21. जाड़ों में - 'अज्ञेय'

लोग बहुत पास आ गए हैं।
पेड़ दूर हटते हुए
कुहासे में खो गए हैं
और पंछी (जो ऋत्विक हैं)
चुप लगा गए हैं।

बर्लिन, जून, 1976

22. साल-दर-साल - 'अज्ञेय'

पार साल बरसात में 
ऊपर से नीचे तक चीरती
उस पर बिजली गिरी थी
पार साल बाँजों से फाँद कर
वनाग्नि नीचे से ऊपर तक
उस की डालें झुलसा गयी थीं।
इस साल वर्षा में
उसकी डालों से
काही झूल आयी है।
वनखंडी मानो पिछली घटनाएँ
सब भूल गयी।
आज उस की फुनगी पर
बैठा है पहाड़ी काक:
रुक-रुक करता गुहार।
कल उसे काट ले जाएँगे
लकड़हारों के कुल्हाड़े, बसूले, आरे।
अगले बरस फिर
कहीं किसी गाँठ में
दरार से एक नयी कोंपल
फूट आएगी जिस पर मँडराएगी
उतरेगी पिद्दी-सी फूलचुही:
प्यार से ज़िद्द करती गाएगी!

बिनसर, सितम्बर, 1976

23. शरद तो आया - 'अज्ञेय'

हाँ, शरद आया
ऊपर खुली नीली झील-
तिरते बादलों के पाल।
हरे हरसिंगार।
तिनकों से ढले दो-चार
ओस-आँसू-कन।
खिली उजली धूप
नीचे सिहर आया ताल।
शरद तो आया:
मदिर आलोक फल लाया:
नहीं पर इस बार
दीखे हृदय-रंजन
युगल खंजन!

24. नन्दा - 'अज्ञेय'

शरद की धुन्ध बढ़ आयी है
गलियारों में
उजले पाँवड़े पसारती।
चीड़ की पत्तियाँ।
तमिया गयी हैं
छोरों पर-
(बस, आग की फुनगी-सी पीतिमा कोरों पर)-
डालें मुड़-मुड़ कर
ऊपर को जाती-सी
हवा के झोंके साथ
मंडल बनाती-सी
चीड़: दीप-लक्ष्मी
निर्जन में नन्दा की
आरती उतारती!

25. झर गयी दुनिया - 'अज्ञेय'

झर गयी है दुनिया मैं हूँ
झर गया मैं तुम हो
झर गये तुम प्रश्न है
झर गया है प्रश्न युद्ध है
झर गया युद्ध जीवन है
वही दुनिया है, मैं हूँ, तुम हो, प्रश्न है, युद्ध है
कविता है।

26. उस से
अच्छा लगता है
यों तुम्हें पीछे छोड़ जाना
बँधी हुई भावना निबाहते
संकल्प की स्वतन्त्रता का बहाना।
अकेले श्रम साहस कर
रचना में खोना विनय से लोकालय में रम जाना।
अच्छा लगता है
फिर बाहर छोड़ दुनिया को
थके-माँदे घर आना।
प्रतीक्षा में, पहचान में, आस्था में
अपने को पाना।

27. धावे - 'अज्ञेय'

पहाड़ी की ढाल पर लाल फूला है
बुरूँस, ललकारता;
हर पगडंडी के किनारे कली खिली है
अनार की; और यहाँ
अपने ही आँगन में
अनजान मुस्करा रही है यह कांचनार।
दिल तो दिया-दिलाया एक ही विधाता ने:
धावे मगर उस पर बोले हज़ार!

28. धूप-सनी छाया - 'अज्ञेय'

खिड़की के आगे वह झुकी
डाल-सी: पत्तों के बीच
ढले ताँबे के सेब
धूप में लिखे गये-से
डोले; फिर वह धूप-सनी छाया
चौखट के आगे से
सरक गयी।
चौंध लगी सीधी आँखों में।

29. देहरी - 'अज्ञेय'

मेरी आँखों ने मुझे सहलाया है
जैसे शिशु अँगुलियाँ
हिलगे शशे को कौतुक से
मेरे हाथ तेरे हाथ खेले हैं
जैसे पर्वती सोतों के
आलोक के बुलबुलों-बसे पानी से
रोमांचित होते मेरे ओठों ने
तुझे चूमा है सिहरी श्रद्धा से
तेरी देह देहरी है जिस के पार
एक समाधिस्थ सन्नाटा है
ओ मेरे देवदारु अशोक
मेरे ओठ मेरे हाथ
मेरी आँखें
और तू...

30. तुम तक - 'अज्ञेय'

तुम तक कहीं मेरा स्वर
पहुँच जाय अचानक
तुम एक
कहीं तुम
पकड़ जाओ औचक-
कहीं बात झर जाय
मगर कहाँ! क्यों व्यर्थ
हृदय यों मर जाय!

31. पिछले वसंत के फूल - 'अज्ञेय'

झरते-झरते
पिछले वसन्त के फूल
डालियों पर उमगाते गये
फलों के नाना-विध आश्वासन:
कहाँ, कहाँ, पर चली गयीं
पिछले जाड़ों की हिम-पंखड़ियाँ?

32. हट जाओ - 'अज्ञेय'

तुम
चलने से पहले
जान लेना चाहते हो कि हम
जाना कहाँ चाहते हैं।
और तुम
चलने देने से पहले
पूछ रहे हो क्या हमें
तुम्हारा
और तुम्हारा मात्र
नेतृत्व स्वीकार है?
और तुम हमारे चलने का मार्ग बताने का
आश्वासन देते हुए
हम से प्रतिज्ञा चाहते हो
कि हम रास्ते भर
तुम्हारे दुश्मनों को मारते चलेंगे।
तुम में से किसी को हमारे कहीं पहुँचने में
या हमारे चलने में या हमारी टाँगें होने
या हमारे जीने में भी
कोई दिलचस्पी नहीं है:
उस में तुम्हारा कोई न्यास नहीं है।
तुम्हारी गरज़ महज़
इतनी है कि जब हम चलें तो
तुम्हारे झंडे ले कर
और कहीं पहुँचें तो वहाँपहले से
(और हमारे अनुमोदन के दावे के साथ)
तुम्हारा आसन जमा हुआ हो।
तुम्हारी गरज़ हमारी गरज़ नहीं है
तुम्हारे झंडे हमारे झंडे नहीं हैं।
तुम्हारी ताक़त हमारी ताक़त नहीं है बल्कि
हमें निर्वीर्य करने में लगी है।
हमें अपनी राह चलना है।
अपनी मंज़िल पहुँचना है
हमें चलते-चलते वह मंज़िल बनानी है
और तुम सब से उसकी रक्षा की
व्यवस्था भी हमें चलते-चलते करनी है।
हम न पिट्ठू हैं न पक्षधर हैं
हम हम हैं और हमें
सफ़ाई चाहिए, साफ़ हवा चाहिए
और आत्म-सम्मान चाहिए जिस की लीक
हम डाल रहे हैं:
हमारी ज़मीन से हट जाओ।

33. आतंक - 'अज्ञेय'

ऊपर साँय-साँय
बाहर कुछ सरक रहा
दबे पाँव: अन्धकार में
आँखों के अँगारे वह हिले-
वहाँ-क्या उतरा वह?
रोंए सिहर रहे,
ठिठुरा तन: भीतर कहीं
धुकधुकी-वह-वह-क्सा पसरा वह?
बढ़ता धीरे-धीरे पथराया मन
साँस रुकी-हौसला
दरक रहा: वे आते होंगे-
ले जाएँगे...
कुछ-क्या-कोई-किसे-कौन?...

34. क्या करोगे - 'अज्ञेय'

खोली को तो, चलो
सोने से मढ़ लो,
पर सुअर तो सुअर रहेगा-
उस का क्या करोगे?
या फिर उसे भी मार के
उस की (सोने की) प्रतिमा गढ़ लो:
सजा-सँवार के
बिठा दो अन्दर।
खोली? अरे, कन्दरा, गुफा-मन्दर!
पाँव पूजो औतार के!

35. बौद्धिक बुलाए गए - 'अज्ञेय'

हमें
कोई नहीं पहचानता था।
हमारे चेहरों पर श्रद्धा थी।
हम सब को भीतर बुला लिया गया।
हमारे चेहरों पर श्रद्धा थी
हम सब को भीतर बुला लिया गया।
उस के चेहरे पर कुछ नहीं था।
उस ने हम सब पर एक नज़र डाली।
हमारे चेहरों पर कुछ नहीं था।
उस ने इशारे से कहा इन सब के चेहरे
उतार लो।
हमारे चेहरे उतार लिये गये।
उस ने इशारे से कहा
इन सब को सम्मान बाँटो:
हम सब को सिरोपे दिये गये
जिन के नीचे नये
चेहरे भी टँके थे
उस ने नमस्कार का इशारा किया
हम विदा कर के
बाहर निकाल दिये गये
बाहर हमें सब पहचानते हैं:
जानते हैं हमारे चेहरों पर नये चेहरे हैं।
जिन पर श्रद्धा थी
वे चेहरे भीतर
उतार लिये गये थे: सुना है
उन का निर्यात होगा।
विदेशों में श्रद्धावान् चेहरों की
बड़ी माँग है।
वहाँ पिछले तीन सौ बरस से
उन की पैदावार बन्द है।
और निर्यात बढ़ता है
तो हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है।

36. प्रतीक्षा गीत - 'अज्ञेय'

हर किसी के भीतर
एक गीत सोता है
जो इसी का प्रतीक्षमान होता है
कि कोई उसे छू कर जगा दे
जमी परतें पिघला दे
और एक धार बहा दे।
पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत
प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत
जिसे मैं ने बार-बार जाग कर गाया है
जब-जब तुम ने मुझे जगाया है।
उसी को तो मैं आज भी गाता हूँ
क्यों कि चौंक-चौंक कर रोज़
तुम्हें नया पहचानता हूँ-
यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ।

हाइडेलबर्ग, 1976

37. जरा व्याध - 'अज्ञेय'

मैं पाप नहीं लाया ढो कर
वन से बाहर
भी पग-पग पर
खाता ठोकर
मैं प्रश्न-भरा अकुलाया
बस-आप आया।
साथ में-अर्थ लाया
अव्यर्थ अर्थ की परतें।
मैं-जरा व्याध-
मार नारायण को ले आया
वैश्वानर नर!
निर्जर...
मैं पुण्य-भ्रष्ट हो कर
भी पाप नहीं लाया ढो कर...

हाइडेलबर्ग, 1976

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