Hindi Kavita
हिंदी कविता
1. आज़ादी के बीस बरस - 'अज्ञेय'
चलो, ठीक है कि आज़ादी के बीस बरस से
तुम्हें कुछ नहीं मिला,
पर तुम्हारे बीस बरस से आज़ादी को
(या तुम से बीस बरस की आज़ादी को)
क्या मिला?
उन्नीस नंगे शब्द?
अठारह लचर आन्दोलन?
सत्रह फटीचर कवि?
सोलह लुंजी-हाँ, कह लो, कलाएँ-
(पर चोरी, चापलूसी, सेंध मारना, जुआखोरी,
लल्लोपत्तो और लबारियत ये सब पारम्परिक कलाएँ थीं
आज़ादी के बीस बरस क्यों, बीस पीढ़ी पहले की!)
पन्द्रह...बारह...दस...यों पाँच, चार और तीन
और दो और एक और फिर इनक़लाबी सुन्न
जिस की गिड्डुली में बँधे तुम
अपने को सिद्ध, पीर, औलिया जान बैठे हो!
क्या हर तिकठी ढोने वाला हर डोम
हर जल्लाद का हर पिट्ठू
सिर्फ ढुलाई के मिस मसीहा हो जाता है?
ओ मेरे मसीहा, हाय मेरे मसीहा!
आज़ादी के बीस बरस निकल गये
और तुम्हें कुछ नहीं मिला-
एक कमबख़्त कम से कम पहचाना जा सकने वाला
जटियल सलीब भी नहीं:
जब कि इतने-इतने मन्दिरों और रथों से इतनी-इतनी काठ-मूर्तियाँ
तोड़ी-उखाड़ी जा कर रोज़ बिक रही हैं इतने अच्छे दामों!
हाय मेरे मसीहा!
बिना सलीब के तुम्हें कोई पहचाने भी तो कैसे
और जो तुम्हें नहीं पहचाने
उस की आज़ादी क्या?
पहचान तो तुम्हें, फ़क़त तुम्हें, हुई-
आज़ादी की भी और अपनी भी!
आज़ादी के बीस बरस से
बीस बरस की आज़ादी से
तुम्हें कुछ नहीं मिला:
मिली सिर्फ आज़ादी!
नयी दिल्ली, 23 अप्रैल, 1968
2. देहरी पर - 'अज्ञेय'
मन्दिर तुम्हारा है
देवता हैं किस के?
प्रणति तुम्हारी है
फूल झरे किस के?
नहीं, नहीं, मैं झरा, मैं झुका,
मैं ही तो मन्दिर हूँ,
ओ देवता! तुम्हारा।
वहाँ, भीतर, पीठिका पर टिके
प्रसाद से भरे तुम्हारे हाथ
और मैं यहाँ देहरी के बाहर ही
सारा रीत गया।
नयी दिल्ली, 1 मई, 1968
3. कहीं राह चलते चलते - 'अज्ञेय'
कहीं रहा चलते-चलते
चुक जाएगा
दिन।
सहसा झुक आएगी साँझ घनेरी।
घुल जाएँगे रूप धुँधलके में
मृदु: पीड़ाएँ-क्षण-भर-रुक जाएँगी, करती
अपने होने पर सन्देह।
एक स्तब्धता से मैं जाऊँगा घिर।
और साँझ फिर
मेरी पहले की पहचानी होगी:
पल-भर उस के भुज-बन्ध में सिहर
चूम लूँगा मैं उसे उनाबी ओठों पर भरपूर।
कहीं राह चलते-चलते
-है मुझे ज्ञात-
दिन चुक जाएगा।
नयी दिल्ली, 7 मई, 1968
4. कच्चा अनार, बच्चा बुलबुल - 'अज्ञेय'
अनार कच्चा था
पर बुलबुल भी शायद बच्चा था
रोज़ फिर-फिर आता
टुक्! टुक्! दो-चार चोंच मार जाता।
और एक दिन मेरे तकते-तकते
चोट खा कर अनार डाल से टूट गया।
अपनी ही सोच पर सकते में आ कर
मैं पूछ बैठा: क्या वह जानता है कि वह गिर गया?
कच्चा अनार: गिर कर फूट गया?
दाने बिखर गये।
छाल पर डाल से दो-एक और मुरझे पँखुड़े भी झर गये।
लारेंस कहता है कि हाँ, मुझे दिल का टूटना ही पसन्द है
कि उस की फाँक में भोर के विविध रंग झाँक सकें
मैं नहीं जानता।
रंग झाँकेंगे तो क्या?
किस के लिए?
इतना पहचानता हूँ
कि जब तक गिर कर फूट कर
बिखरेगा नहीं तब तक भोर-रंगों का खरा सौन्दर्य
निखरेगा नहीं।
किस के लिए?
किसी के लिए नहीं।
ज्यों-ज्यों समझता हूँ,
तेरे साथ, ओ बच्चा बुलबुल,
एक नये सम्बन्ध में बझता हूँ।
नयी दिल्ली, 13 मई, 1968
5. ध्रुपद - 'अज्ञेय'
शं...
शायद कोई आएगा
मैं तो स्तब्ध सपने में
तानपूरा साधता हुआ बैठा हूँ:
गायक आएगा तब आएगा।
आने से पहले साज़ साधना
क्या बहाना नहीं है?
जब वह अभी आया नहीं है,
आएगा तो क्या गाएगा
यह मेरा जाना नहीं है?
पर वह आएगा
यह सोच भी तो मेरे रोम उमगाती है:
यही आस्था मेरी कल्पना जगाती है
मेरी उँगलियों को कँपाती है:
मैं नहीं गाता, गीत मुझ में गाया जाता है,
जिस के साथ मैं नहीं साधता तानपूरा, मेरे हाथों
वह सधाया जाता है।
शं...
एक सन्नाटा। एक गूँज...
ज्वार नहीं आया। अभी नहीं आया; आएगा।
पर तट की हर सीपी ने उस का स्वर गुना है,
हर शंख में उस का स्वर भरा है:
उसी का तार मेरी हर शिरा है,
नहीं मेरे रोम-रोम ने सुना है,
सुना है, सुना है, सुना है..
नयी दिल्ली (मोईनुद्दीन डागर स्मृति समारोह), 13 मई, 1968
6. कहाँ से उठे प्यार की बात - 'अज्ञेय'
कहाँ से उठे प्यार की बात
जब कदम-कदम पर कोई
असमंजस में डाल दे?
जैसे शहर की त्रस्त क्षिति-रेखा पर रात
धुँधलके के सागर से
एक तारा उछाल दे?
आता है यही: उसी तारे-सा कंटकित
तर्कातीत, निःसंशय
अकारण, निराधार पर निर्भय
एक शब्द-रहित चकित आशीर्वाद।
नयी दिल्ली, 16 मई, 1968
7. बही जाती है - 'अज्ञेय'
ठठाती हँसियों के दौर मैंने जाने हैं
कहकहे मैंने सहे हैं।
पर सार्वजनिक हँसियों के बीच
अकेली अलक्षित चुप्पियाँ
और सब की चुप के बीच
औचक अकेली सुनहली मुस्कानें
ये कुछ और हैं:
न जानी जाती हैं, न सही जाती हैं:
न मिल जाएँ तो कही जाती हैं:
जैसे असाढ़ की पहली बरसात,
शरद के नील पर बादल की रुई का पहला उजला गाला,
या उस गाले में लिपटा चमक का नगीना,
उस में बसी मालती की गन्ध।
कौन, कब, कैसे भला बताता है इन की बात?
मुँद जाती हैं आँखें, रुँधता है गला,
सिहरता है गात
अनुभूति ही मानो भीतर से भीतर को
बही जाती है, बही जाती है, बही जाती है...
नयी दिल्ली, 17 मई, 1968
8. रात : चौंध - 'अज्ञेय'
रात एकाएक टूटी मेरी नींद
और सामने आयी एक बात
कि तुम्हारे जिस प्यार में मैं खोया रहा हूँ,
जिस लम्बी, मीठी नशीली धुन्ध में
मैं सब भूल कर सोया रहा हूँ,
उस की भीत जो है
वह नहीं है रति:
वह मूलतः है पुरुष के प्रति
नारी की करुणा।
अगाध, अबाध करुणा,
फिर भी-राग नहीं, करुणा।
नहीं, नहीं, नहीं!
ओ रात!
प्रात का और कुछ भी सच हो
पर इस से तो अच्छा है
जागते ही जागते
आग की एक ही धधक में
जल कर मरना!
नयी दिल्ली, 18 मई, 1968
9. मोड़ पर का गीत - 'अज्ञेय'
यह गीत है जो मरेगा नहीं।
इस में कहीं कोई दावा नहीं,
न मेरे बारे में, न तुम्हारे बारे में;
दावा है तो एक सम्बन्ध के बारे में
जो दोनों के बीच है, पर जिस के बीच होने
या होने का भी कोई दिखावा नहीं।
यह क्षण: न जाने कब चला जाएगा
या क्या जाने: न भी जाए।
पर हम: यह हम मान लें
कि यह जाना हुआ है कि चले जाएँगे:
क्या जाने, जाने से पहले
यह भी जान लें
कि कब जाएँगे।
जाना और जीना
जीना और जाना:
न यह गहरी बात है कि इन में होड़ है
न यही कि इन में तोड़ है:
गहरी बात यह कि दोनों के बीच
एक क्षण है कहीं, एक मोड़ है
जिस पर एक स्वयंसिद्ध जोड़ है, और वहीं,
उस पर ही गाना है
यह गीत जो मरेगा नहीं।
नयी दिल्ली, 22 मई, 1968
10. जिस मन्दिर में मैं गया नहीं - 'अज्ञेय'
जिस मन्दिर में मैं गया नहीं
उस की देहरी से
भीतर चिकनी गच पर
देख और पैरों की छाप
चला जाता है मन
उस ओर
जिधर जाना होता है।
ओ तुम सब! जिन की है पहुँच दूर तक
(जिस की जितनी)
मुझे किसी से हिर्स नहीं।
पैरों की छाप तुम्हारे
हर पग की मुझ पर पड़ती है:
मैं पहुँचूँ या नहीं, तुम्हारे पैरों से ही नपता-नपता
कभी जान लूँगा मैं अपनी नाप
और उस ओर नहीं, उस तक जा लूँगा:
जहाँ भी हूँ, उस का प्रसाद पा लूँगा।
नयी दिल्ली, 23 मई, 1968
11. होते हैं क्षण - 'अज्ञेय'
होते हैं क्षण: जो देश-काल-मुक्त हो जाते हैं।
होते हैं: पर ऐसे क्षण हम कब दुहराते हैं?
या क्या हम लाते हैं?
उन का होना, जीना, भोगा जाना
है स्वैर-सिद्ध, सब स्वतःपूर्त।
-हम इसी लिए तो गाते हैं।
नयी दिल्ली, 25 मई, 1968
12. दिया हुआ, न पाया हुआ - 'अज्ञेय'
एक का अनकहा संकल्प था
कि मुझे मार-मार कर दुम्बा बना देगा
दूसरे की ऐलानिया डींग थी कि मुझे बना लेगा
मार-मार कर हकीम:
पर मैं हूँ कि कुछ न बना-
न हकीम, न दुम्बा,
मार खाते-खाते-करूँ तसलीम-
बन गया एक अजूबा
जिसे और नामों की कमी में
कहते हैं इनसान।
इनसान नाक, मुँह, आँख, कान,
कलेजा, और सब से अजब बात
यह कि खोपड़ी के भीतर
भेजा। अब मैं चाहूँ
(हाँ, एक तो यह कि अब मैं सिर्फ़ कराह नहीं, चाह भी सकता हूँ)
तो बैठ कर अपनी देह के ददोरे सहला सकता हूँ
या कुढ़, या किसी को कोस, या धर कर
झँझोड़ भी सकता हूँ:
या नारे लगा सकता हूँ
या सिनेमाई प्रणय-गीत गा सकता हूँ:
या सोच सकता हूँ
कि जो हुआ वह क्यों हुआ या जो होना चाहिए वह कैसे हो;
मैं चाहूँ तो कुछ कर सकता हूँ:
चाहूँ तो इसी आनन्द में मगन हो जा सकता हूँ
कि मेरे आगे एकाएक कितने रास्ते खुल गये हैं-
(मार से क्या मेरे बखिये-टाँके खुल गये हैं या कि मेरे पुराने पाप धुल गये हैं?)
चाहूँ तो बिना कुछ किये
खुशी से मर सकता हूँ।
सब से पहले तो यह बात
कि मैं अवध्य नहीं हूँ।
कोई भी हवा मुझे उखाड़ सकती है
कोई भी दाँव मुझे पछाड़ सकता है,
किसी भी खाई में मैं गिर सकता हूँ
किसी भी जाल में फँस, दलदल में धँस,
कुंज मे रम या गली-कूचे में बिलम सकता हूँ,
किसी भी ठोकर से औंधे मुँह गिर सकता हूँ।
अवध्य नहीं हूँ: एक दिन गच्चा खाऊँगा
और मारा जाऊँगा:
(नहीं, होगा वह फिर भी बेमौत: शहादत का रुतबा नहीं पाऊँगा)
न मेला जुड़वाऊँगा, न ही बनूँगा किसी स्मारक-समिति के
लिए चन्दा-उगाही का वसीला,
या नगरपालिका के लिए नयी चुंगी का हीला।
तो क्यों न यहीं से हो शुरुआत?
दूसरे यह कि मुझ में
जीतने की कामना और संकल्प तो है
पर जीतने का गुर मुझे अभी नहीं मिला।
जीतना कैसे होता है यह मैं नहीं जानता।
और हारना मैं कभी नहीं चाहता, बिलकुल नहीं चाहता,
पर हारना चाहिए कैसे यह मैं जानता हूँ,
हारने का शील तो मुझे बपौती-ददौती में मिला है।
तो हार मानी नहीं जाती
और जीत पानी नहीं आती:
क्यों न थोड़ी देर जम कर
हो जाय इसी की बात?
लेकिन क्या बात?
यही कि रोज़ मार खाता हूँ, पर मार से कुछ बनता नहीं,
क्यों कि मुझे मार खानी नहीं आती?
आता क्या है?
और मुझे कुछ आता नहीं तो किसी का जाता क्या है?
मैं जहाँ जो हूँ, उस स्थिति के लिए यह सब ‘दिया हुआ’ है।
जो करना होगा, उस की यह प्रतिज्ञा है।
और जो दिया हुआ है, उस पर जमना क्या,
थमना क्या?
जिस चट्टान से कूद पड़े वह चट्टान भी हुई तो अब
उस का सहारा क्या?
(हालाँकि वह चट्टान थी नहीं, धारा में डोलता हुआ
एक थम्भ-भर था)
‘दिया हुआ है’ इसी से तो छूट गया-
चट्टान से नाता टूट गया।
सौ बात की बात यह कि किसी अनजाने सागर के ऊपर
अधर में हूँ:
और यह बात भी रूपक है:
और मुझे झक है कि
कहूँगा खरी, रूखी, सब की पहचान में
आने वाली बेलाग बात;
सौटंच खरी, भले ही कच्ची धात।
यानी तीसरी यह बात
कि न मेरे पैरों के नीचे कोई पक्की भीत है
न मेरे साथ खड़ा कोई पक्का मीत है;
कि मैं एक दिन मरूँगा या मारा जाऊँगा-
कि नन्ही-सी जान हूँ;
कि मैं बहुत कम जानता हूँ और बहुत कुछ
बेवजह मानता हूँ,
सिवा इसके कि यही नहीं मान पाता
कि मुझे कुछ नहीं आता,
कि ईश्वर-पुत्र हूँ, पर बड़े बाप का बेटा होने का
न लोभ करता हूँ, न लाभ उठा सकता हूँ:
कि मानव-पुत्र हूँ, पर प्रजातन्त्र में इस दावे पर
हर दूसरा मानव-पुत्र हँसेगा कि क्या बकता हूँ!-
उफ़्! कितने हैं कि सब समझते हैं
इस लिए किसी को कुछ समझते नहीं।-
मैं वध्य हूँ, अकेला हूँ, बेसहारा हूँ:
इनसान हूँ।
यानी जहाँ से चलोगे वहीं आ अटकोगे।
जो चक्कर खींचोगे उसी के भीतर खुद भटकोगे।
बचाव के लिए जो-जो दीवार उठाओगे उसी पर
सिर पटकोगे।
मैं, तुम, यह, वह, हम सब, सारा जहान:
थेली का हर चट्टा, हर बट्टा-हर इनसान।
लेकिन यह सभी कुछ तो ‘दिया हुआ’ है
पहले से तय किया हुआ है:
इसे दुहराना क्या, और इसी का रोना है
तो गाना क्या?
भाई मेरे, हमदम, मेरे हकीम, या निहायत हलीम मेरे गधे-
ईश्वर-पुत्र, मानव-पुत्र,
आओ, अगर यह तुम से सधे
तो इस ‘दिये हुए’ के सिर पर चढ़ कर ही
अपना नारा वरेंगे
जो अभी ‘पाया हुआ’ नहीं है:
कि हम करेंगे या नहीं
करेंगे और मरेंगे:
जाते-जाते भी मार खाते-खाते भी
कर गुज़रेंगे:
करेंगे क्यों कि मरेंगे।
नयी दिल्ली, 24 अप्रैल, 1968: ग्वालियार, 29 मई, 1968
13. आश्वस्ति - 'अज्ञेय'
थोड़ी और दूर:
आकृतियाँ धुँधली हो कर सब समान ही जावेंगी
थोड़ा और
सभी रेखाएँ धुल कर परिदृश्य एक हो जावेंगी।
कुछ दिन जाने दो बीत:
दुःख सब धारों में बँट-बँट कर
धरती में रम जाएगा।
फिर थोड़े दिन और:
दुःख हो अनपहचानी औषधि बन अँखुआएगा।
और फिर
यह सब का सब शृंखलित
एक लम्बा सपना बन जाएगा
वह सपना मीठा होगा।
उस में इन दर्दों की यादें भी
एक अनोखा सुख देंगी।
दुःख-सुख सब मिल कर रस बन जावेगा।
तब-हाँ, तब, उस रस में-
या कह लो सुख में, दुःख में, सपने में,
उस मिट्टी में-उस धारा में-
हम फिर अपने होंगे।
ओ प्यार! कहो, है इतना धीरज,
चलो साथ
यों: बिना आशा-आकांक्षा
गहे हाथ?
(पर क्यों? इतना भी क्यों?)
यह कहा-सुना, कहना-सुनना ही सब झूठा हो जाने दो बस, रहो, रहो, रहो...)
नयी दिल्ली, 30 मई, 1986
14. प्रार्थना का एक प्रकार - 'अज्ञेय'
कितने पक्षियों की मिली-जुली चहचहाट में से
अलग गूँज जाती हुई एक पुकार:
मुखड़ों-मुखौटों की कितनी घनी भीड़ों में
सहसा उभर आता एक अलग चेहरा:
रूपों, वासनाओं, उमंगों, भावों, बेबसियों का
उमड़ता एक ज्वार
जिस में निथरती है एक माँग, एक नाम-
क्या यह भी है
प्रार्थना का एक प्रकार?
नयी दिल्ली, 5 जून, 1968
15. फिर भोर एकाएक - 'अज्ञेय'
‘भई, आज हम बहुत उदास हैं।’
‘क्यों? भूल गये या क्या सूख गये
आनन्द के वे सारे सोते
जो तुम्हारे इतनी पास हैं?’
‘हैं, तो, पर दीखें कैसे, जब तक
आँखों में तारा-रज का अंजन न हो?’
‘आँखें तुम्हारी तो स्वयं धारक हैं-
उन के बारे में ऐसा मत कहो!’
‘सोते हैं तो सोते क्यों हैं? उमड़ते क्यों नहीं
कि हम अंजुरी भर सकें?
चलो, न भी बुझे प्यास, न सही:
ओठ तो तर कर सकें?
‘भई, एक बार धीरज से देखो तो:
उस से दीठ धुल जाएगी।
सोता है सोया नहीं, झरना है, झरता है:
देखो भर: अभी एक फुहार आएगी-
बुझ ही नहीं, भूल भी जाएगी प्यास-’
‘हम नहीं, हम नहीं; हम हैं, हम रहेंगे उदास!’
यों बात (कुछ कही, कुछ अनकही)
रात बड़ी देर तक चलती रही,
चाँदनी अलक्षित उपेक्षित ढलती रही।
उदासी भी, मानो पाँसे की तरह खेली जाती रही-
कभी इधर, कभी उधर: हम तुम दोनों को
एक महीन जाल में उलझाती रही
जिस से हम परस्पर एक-दूसरे को छुड़ाते रहे:
हारते रहे: पर जीत का आभास हर बार पाते रहे।
फिर भोर एकाएक ठगे-से हम आगे-
तुम अपने हम अपने घर भागे।
नयी दिल्ली, 10 जून, 1968
16. अस्ति की नियति - 'अज्ञेय'
फूल से
पंखुड़ी तो झरेगी ही
पर यह क्यों कहो
कि याद तो मरेगी ही?
फूल का बने रहना भी याद है
जिस में एक नयी दुनिया आबाद है:
पंखुड़ियों की, फूलों की, बीजों की।
यह एक दूसरी पहचान है चीज़ों की।
न सही फूल, या पंखुड़ी,
या यादें, या हम:
व्यक्ति की अस्ति की नियति तो
अपने को पूरा करेगी ही!
नयी दिल्ली, 29 जून, 1968
17. चितवन - 'अज्ञेय'
क्या दिया था तुम्हारी एक चितवन ने उस एक रात
जो फिर इतनी रातों ने मुझे सही-सही समझाया नहीं?
क्या कह गयी थी बहकी अलक की ओट तुम्हारी मुस्कान एक बात
जिस का अर्थ फिर किसी प्रात की किसी भी खुली हँसी ने
बताया नहीं?
इधर मैं निःस्व हुआ, पर अभी चुभन यह सालती है
कि मैं ने तुम्हें कुछ दिया नहीं,
बार-बार हम मिले, हँसे, हम ने बातें कीं,
फिर भी यह सच है कि हम ने कुछ किया नहीं।
उधर तुम से अजस्र जो मिला, सब बटोरता रहा,
पर इसी लुब्ध भाव से कि मैं ने कुछ पाया नहीं!
दुहरा दो, दुहरा दो, तुम्हीं बता दो
उस चितवन ने क्या कहा था
जिस में तुम ही तुम थे, संसार भी डूब गया था
और मैं भी नहीं रहा था...
नयी दिल्ली, 30 जून, 1968
18. साँझ सवेरे - 'अज्ञेय'
रोज़ सवेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ-
क्यों कि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।
नयी दिल्ली, जून, 1968
19. अहं राष्ट्रीय संगमनी जनानाम् - 'अज्ञेय'
सवेरे आये बाम्हन
जो जैसे ही जागे कि नहाये
नहाते ही भूख से कुनमुनाये
भूख लगते ही सब को देने लगे
दान और श्रद्धा का उपदेश।
जो अघा कर खा कर घर आ कर (या लाये जा कर)
चैन से लेंगे डकार।
नहीं, जो डकार भी नहीं लेंगे।
(वामन ने तीन डग में त्रिलोक नाप लिया था,
ऊँचे-पूरे बाम्हन की एक ही डकार से,
मच गया कहीं ब्रह्मांड में हाहाकार?)
दोपहरे आये जाट:
जिन के मचलते ही ख़ुदा को ले जावें चोर।
(क्या इसी तरह राज्य में निभती है धर्म-निरपेक्षता?)
बाकी रहे हम-सीनाज़ोर।
सेपहर पधारे कायस्थ:
राज्य की काया में बरसों से बसे हुए
हर मामला फँसाने के काम में बेतरह फँसे हुए।
कायथ: जो भला तो किसी का करेंगे कैसे,
पर बुरा नहीं करेंगे, इस के मिलेंगे कितने पैसे?
साँझ में आये बनिये और अहीर:
कोई अंटी में खोंसते नावाँ, काढ़ते हुए खीसें,
कोई लाठी में चुपड़ते तेल,
कोई हाँकते भैंस, कोई आँकते भैंस वाले का मोल,
कोई जो खुल कर दूध में पानी मिलाता
क्यों कि डीपोवाले को मस्का लगाता है,
कोई जिसे छाती पर मूँग दलना भाता है,
कोई जिसे सिर्फ़ ख़ून पीना आता है,
अपने-अपने काम का अपना-अपना तरीक़ा होता है।
राज में रहने, समाज में जीने, राजनीति में जमने का
एक सलीका होता है।
मौलाना रोज़े से थे: आये नहीं।
सरदारजी तैश में थे: किसी ने मनाये नहीं।
मसीही आयें तो, पर करेंगे क्या,
जब हिन्दी ही कोई पढ़ाये नहीं?
रात में भी कोई आये, घुप अँधेरे में:
कौन, यह बता नहीं गये।
पूछने पर कुछ लजा या सकपका गये
मानो जान लूँगा तो-
तो न जाने क्या ठान लूँगा-
उन्हें कुछ भी मान लूँगा-चोर, दुश्मन, आवारे,
बनजारे, घसियारे-
संक्षेप में-खुले में मुँह न दिखा सकने वाले बेचारे।
सहमे हुए सब, कि उन की जान लूँ न लूँ
इनसानियत ज़रूर नकार दूँगा।
यों सब आ गये। मेला जुट गया।
यही मैं नहीं जान पाया कि इस पचमेल भीड़ में
वह एक समाज कहाँ छूट गया?
और जिस में पहचाना था देश का चेहरा
वह आईना कहाँ लुट गया?
जाट रे जाट तेरे सिर पर खाट
परजातन्तर की!
खैर, यह बोझ तो जैसे-तैसे ढो लिया जाएगा-
कभी खाट ऊपर तो कभी जाट ऊपर,
यों बोझा न मान, उसे बेचने से पहले
उस पर थोड़ा सो लिया जाएगा।
(बाद में तो घोड़ा बेच कर सोते हैं।
पर वह नसीब इस जन नाम गधे को मिला कब!)
देस रे देस तेरे सिर पर कोल्हू।
इस का भार तू कैसे ढोएगा
जिसे पेरेंगे जाट, बाम्हन, बनिया, तेली, खत्री,
मौलवी, कायथ, मसीही, जाटव, सरदार, भूमिहार, अहीर
और वे सारे घेरे के बाहर के बेचारे
जो नहीं पहचानते अपनी तक़दीर:
तू किस-किस को रोएगा?
कब बनेगा तो राष्ट्र
कब तू अपनी नियति को पकड़ पा कर
तकिया लगा कर सोएगा?
नयी दिल्ली, जून, 1968
20. आवश्यक - 'अज्ञेय'
जितना कह देना आवश्यक था
कह दिया गया: कुछ और बताना
और बोलना-अब आवश्यक नहीं रहा।
आवश्यक अब केवल होगा चुप रह जाना
अपने को लेना सँभाल
सम्प्रेषण के अर्पित, निभृत क्षणों में।
अब जो कुछ उच्चारित होगा, कहा जाएगा,
सब होगा पल्लवन, प्रस्फुटन
इसी द्विदल अंकुर का।
बीनते हुए बिखरा-निखरा सोना
फल-भरे शरद का
हम क्या कभी सोचते हैं: ‘वसन्त आवश्यक था?’
नयी दिल्ली, 1 जुलाई, 1968
21. एक दिन - 'अज्ञेय'
ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा
पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता।
अभी नभ के समुद्र में
शरद के मेघों की मछलियाँ किलोलती हैं
मधुमाली के झूमरों में
कलियाँ पलकें अधखोलती हैं
अभी मेहँदी की गन्ध-लहरें
पथरीले मन-कगारों की दरारें टटोलती हैं
अभी, एकाएक, मैं तुम्हें छूना, पाना,
तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाना नहीं चाहता
पर अभी तुम्हारी स्निग्ध छाँह से
अपने को हटाना नहीं चाहता!
ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा
पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता।
शब्द सूझते हैं जो गहराइयाँ टोहते हैं
पर छन्दों में बँधते नहीं,
बिम्ब उभरते हैं जो मुझे ही मोहते हैं,
मुझ से सधते नहीं,
एक दिन-होगा!-तुम्हारे लिए लिख दूँगा
प्यार का अनूठा गीत,
पर अभी मैं मौन में निहाल हूँ-
गाना-गुनगुनाना नहीं चाहता!
क्या करूँ: इतना कुछ है जो छिपाना नहीं चाहता
पर अभी बताना नहीं चाहता।
ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा
पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता, नहीं चाहता!
गुरदासपुर, 12 जुलाई, 1968
22. जाना अजाना - 'अज्ञेय'
मैं मरा नहीं हूँ,
मैं नहीं मरूँगा,
इतना मैं जानता हूँ,
पर इस अकेला कर देने वाले विश्वास को ले कर
मैं क्या करूँगा,
यह मैं नहीं जानता।
क्यों तुम ने यह विश्वास दिया?
क्यों उस का साझा किया?
तुम भी
जो मरे नहीं,
मरोगे नहीं;
तुम अब करोगे क्या-
क्या तुम जानते हो?
गुरदासपुर, 13 जुलाई, 1968
23. घेरे - 'अज्ञेय'
परिचितियाँ
घेरे-घेरे-घेरे
अँधेरे गहनतम निविडतम एकान्त
-आलोक निर्भ्रान्त!
नयी दिल्ली, 15 जुलाई, 1968
24. दास व्यापारी - 'अज्ञेय'
हम आये हैं
दूर के व्यापारी
माल बेचने के लिए आये हैं:
माल: जीवित, गन्धित, स्पन्दित
छटपटाती शिखाएँ रूप की
तृषा की ईर्षा की, वासना की, हँसी की, हिंसा की
और एक शब्दातीत दर्द की, घृणा की:
मानवता के चरम अपमान की!
चरम जिजीविषा की!
माल: किन्हीं की माताएँ, बहुएँ, बेटिएँ, बहनें:
किन्हीं पीछे छूट गयों की, लुट गयों की,
जो बिकेंगी, क्यों कि बेची जाने को तो लायी गयी हैं
यहाँ की हो कर रहने,
यही सहने अपना हो जाना किन्हीं और की माताएँ, बहुएँ,
बेटिएँ, बहनें!
जो रौंदी गयीं, रौंदी जाएँगी
और यों मरेंगी नहीं, टिकेंगी।
हमारा तो व्यापार है:
घर हमारा सागर पार है।
आप का माल: हमारा मोल:
फिर आप का संसार है
हमारा तो बेड़ा तैयार है।
हम फिर आएँगे
पर इन्हें नहीं पहचानेंगे
नया माल लाएँगे, नया सोना उगाहेंगे!
और आप भी ऐसा ही चाहेंगे
आप भी तो पिछला इतिहास नहीं मानेंगे!
दो ही तो सच्चाइयाँ हैं
एक ठोस पार्थिव, शरीर-मांसल रूप की;
एक द्रव, वायवी, आत्मिक वासना की धधक की।
बाकी आगे मृषा की, आत्म-सम्मोहन की
असंख्य खाइयाँ हैं!
इतिहास! इधर इति, उधर हास!
फिर क्यों उसे ले कर इतना त्रास?
क्या दास ही बिकते हैं,
इतिहास नहीं बिकता?
बोली लगाइए-माल ले जाइए
दाम चुकाइए
हमें चलता कीजिए
फिर रंगरलियाँ मनाइए
पीढ़ियाँ पैदा कीजिए
और पीढ़ियों का इतिहास रचवाइए!
हम फिर आएँगे:
हमारा व्यापार है।
आप तो मालिक हैं:
आप पर हमारा दारोमदार है।
नयी दिल्ली, जुलाई, 1968
25. दिति कन्या को - 'अज्ञेय'
थोड़ी देर खुली-खुली
आँखें मिलीं
बिजलियों से दौड़े संकेत
सदियों की, संस्कारों की
नींवे हिलीं
अभिप्रेत हुए प्रेत
न देहें हिलीं-डुलीं
न कोई बोला,
गुँथ गयीं दो दुरन्त
जिजीविषाएँ
फिर पलटीं तुरन्त:
सहजता पर
हम लौटे आये।
कौंध में
मैं ने पहचाना
मेरे भीतर जो असुर है
रुँधा, छटपटाता
प्रबल, पर भोला।
क्या ठीक उसी क्षण
तुम ने भी
ओ दिति-कन्या
अपने मन की
धधकती गुहा का
द्वार खोला?
अपने को माना?
नयी दिल्ली, 20 जुलाई, 1968
26. तुम्हें क्या - 'अज्ञेय'
तुम्हें क्या
अगर मैं देता हूँ अपना यह गीत
उस बाघिन को
जो हर रात दबे पाँव आती है
आस-पास फेरा लगाती है
और मुझे सोते सूँघ जाती है
वह नींद, जिस में मैं देखता हूँ सपने
जिन में ही उभरते हैं सब अपने
छन्द तुक ताल बिम्ब
मौतों की भट्ठियों में तपाये हुए,
त्रास की नदियों के बहाव में बुझाये हुए;
मिलते हैं मुझे शब्द आग में नहाये हुए।
और तो और यही मैं कैसे मानूँ
कि तुम्हीं को वधू, राजकुमारी,
अगर पहले यह न पहचानूँ
कि वही बाघिन है मेरी असली माँ?
कि मैं उसी का बच्चा हूँ?
अनाथ वनैला...
देता हूँ उसे
वासना में डूबे, अपने लहू में सने,
सारे बचकाने मोह और भ्रम अपने-
गीत, मनसूबे, सपने
इसी में सच्चा हूँ:
अकेला...
तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...
नयी दिल्ली, 21 जुलाई, 1968
27. वेध्य - 'अज्ञेय'
पहले
मैं तुम्हें बताऊँगा अपनी देह का प्रत्येक मर्मस्थल
फिर मैं अपने दहन की आग पर तपा कर
तैयार करूँगा एक धारदार चमकीली कटार
जो मैं तुम्हें दूँगा:
फिर मैं
अपने दक्ष हाथों से तुम्हें दिखाऊँगा
करना वह कुशल, निष्कम्प, अचूक वार
जो मर्म को बेध जाय:
मुझे आह भरने तो क्या
गिरने का भी अवसर न दे:
मैं वह भी न कह पाऊँ
जो कहने की यह भूमिका है-
अवाक् खड़ा रह जाऊँ
जब तक कोई मुझे
भूमिसात् न कर दे।
नहीं तो और क्या है प्यार
सिवा यों अपनी ही हार का अमोघ दाँव किसी को सिखाने के-
किसी के आगे
चरम रूप से वेध्य हो जाने के?
नयी दिल्ली, 29 जुलाई, 1968
28. प्यार - 'अज्ञेय'
प्यार एक यज्ञ का चरण
जिस में मैं वेध्य हूँ।
प्यार एक अचूक वरण
कि किस के द्वारा
मैं मर्म में वेध्य हूँ।
नयी दिल्ली, 29 जुलाई, 1968
29. जनपथ-राजपथ - 'अज्ञेय'
राष्ट्रीय राजमार्ग के बीचो-बीच बैठ
पछाहीं भैंस
जुगाली कर रही है:
तेज़ दौड़ती मोटरें, लारियाँ,
पास आते सकपका जाती हैं,
भैंस की आँखों की स्थिर चितवन के आगे
मानो इंजनों की बोलती बन्द हो जाती है।
भैंस राष्ट्रीय पशु नहीं है।
राष्ट्रीय राजमार्ग, प्रादेशिक पशु:
योजना आयोग वाले करें तो क्या करें?
बिचारे उगाते हैं
आयातित रासायिनक खाद से
अन्तर्राष्ट्रीय करमकल्ले।
नयी दिल्ली, 11 अगस्त, 1968
30. लौटते हैं जो वे प्रजापति हैं - 'अज्ञेय'
झुलसते आकाश के
बादलों को जला कर
शून्य में भी रिक्तता का
एक जमुहाता विवर बना कर
जब वे चले जाएँगे,
तब अन्त में एक दिन
रासायनिक साँपिनें पछाड़ खा कर
धरती पर गिरेंगी,
विषैले धुएँ की गुंजलकें खुल जाएँगी,
धैर्यवान् लहरों में
उन के अहंकारों के
विषव्रण धुल जाएँगे,
तब वे आएँगे
वे दूसरे: दुर्दम
चूहों की तरह नहीं
तिलचट्टों की तरह नहीं
घर लौटते विजेता मनुष्यों की तरह दुरन्त:
वे जिन्होंने
धरती में विश्वास नहीं खोया,
जिन्होंने जीवन में आस्था नहीं खोयी,
जिन के घर
उन पहलों ने नष्ट किये,
महासागर में डुबोये,
पर जिन्होंने अपनी जिजीविषा
घृणा के परनाले में नहीं डुबोयी
उन की डोंगियाँ
फिर इन तरंगों पर तिरेंगी।
अगाध असीम महासागर में
झुके हुए तालों की ओट में
प्रवाल-कीटों का गढ़ा हुआ
एक छेदों-भर छल्ला:
वसुन्धरा की नाभि,
आद्य मातृका की योनि।
ऐसी ही उपेक्षा में तो
बार-बार, बार-बार, बार-बार
अजर अजस्र शृंखला में
जनमेगा पनपेगा
ऐल मनु अजति, अधर्ष,
अविधीत, आत्मतन्त्र।
लौटते हैं दीन निःस्व नंगे जो
वे मानव पितर प्रजापति हैं।
उन्हें कभी कोई विष
डँस नहीं सकता।
नयी दिल्ली, 14 अगस्त, 1968
31. भूत - 'अज्ञेय'
तुम्हें अपनी धनी हवेली में
भूतों का डर सता रहा है।
मुझे अपने झोंपड़े में
यह डर खा रहा है
कि मैं कब भूत हो जाऊँगा।
सिकन्दरा-आगरा, 14 अगस्त, 1968
32. पत्थर का घोड़ा - 'अज्ञेय'
आन-बान मोर-पेंच,
धनुष-बाण,
यानी वीर-सूरमा भी कभी
रहा होगा।
अब तो टूटी समाधि के सामने
साबुत खड़ा है
सिर्फ़ पत्थर का घोड़ा।
और भीतर के छटपटाते प्राण!
पहचान
सच-सच बता,
जो कुछ हमें याद है
उसमें कितनी है परम्परा
और कितना बस अर्से से पड़ा
रास्ते का रोड़ा?
सिकन्दरा-आगरा, 15 अगस्त, 1968
33. क्यों कि मैं - 'अज्ञेय'
क्यों कि मैं
यह नहीं कह सकता
कि मुझे उस आदमी से कुछ नहीं है
जिस की आँखों के आगे
उस की लम्बी भूख से बढ़ी हुई तिल्ली
एक गहरी मटमैली पीली झिल्ली-सी छा गयी है,
और जिसे इस लिए चाँदनी से कुछ नहीं है,
इस लिए
मैं नहीं कह सकता
कि मुझे चाँदनी से कुछ नहीं है।
क्यों कि मैं, उसे जानता हूँ
जिस ने पेड़ के पत्ते खाये हैं,
और जो उस की जड़ की
लकड़ी भी खा सकता है
क्यों कि उसे जीवन की प्यास है;
क्यों कि वह मुझे प्यारा है
इस लिए मैं पेड़ की जड़ को या लकड़ी को
अनदेखा नहीं करता
बल्कि पत्ती को
प्यार भर करता हूँ और करूँगा।
क्यों कि जिस ने कोड़ा खाया है
वह मेरा भाई है
क्यों कि यों उस की मार से मैं भी तिलमिला उठा हूँ,
इस लिए मैं उस के साथ नहीं चीखा-चिल्लाया हूँ:
मैं उस कोड़े को छीन कर तोड़ दूँगा।
मैं इनसान हूँ और इनसान वह अपमान नहीं सहता।
क्यों कि जो कोड़ा मारने उठाएगा।
वह रोगी है,
आत्मघाती है,
इस लिए उसे सँभालने, सुधारने,
राह पर लाने,
ख़ुद अपने से बचाने की
जवाबदेही मुझ पर आती है।
मैं उस का पड़ोसी हूँ:
उस के साथ नहीं रहता।
ग्वालियर, 15 अगस्त, 1968
34. तू-फू को : बारह सौ वर्ष बाद - 'अज्ञेय'
पुराने कवि को
मुहरें मिलती थीं
या जायदाद मनचाही
या झोंपड़ी के आगे राजा का हाथी बँधवाने का
सन्दिग्ध गौरव,
या यश,
प्रशंसा,
दो बीड़े पान,
कंकण, मुरैठा,
वाहवाही।
या जिसे कुछ नहीं मिलता था
उस की सान्त्वना थी
बहुत-सी सन्तान
भरा-पुरा खानदान
हम तुम, दोस्त, नये कवि बेचारे:
प्रजातन्त्र में पाते हैं
प्रजापत्य विरोधी नारे:
दो या तीन बच्चे बस!
यह कि हम ने ईजाद किया
यही एक नया रस?
ग्वालियर, 15 अगस्त, 1968
तू-फू, चीनी कवि, सन् 713-790
35. सपना - 'अज्ञेय'
जागता हूँ
तो जानता हूँ
कि मेरे पास एक सपना है:
सोता हूँ
तो नींद में
वही एक सपना
कभी नहीं आता।
तुम्हें
मैं किसी तरह छोड़ नहीं सकता:
यों अपने से
मुक्ति नहीं पाता।
ग्वालियर, 16 अगस्त, 1968
36. मैत्री - 'अज्ञेय'
मैं ने तब पूछा था:
और रसों में, क्या,
मैत्री-भाव का भी कोई रस है?
और आज तुम ने कहा:
कितना उदास है
यह बरसों बाद मिलना!
प्यार तो हमारा ज्यों का त्यों है,
पर क्या इस नये दर्द का भी कोई नाम है?
ग्वालियर, 16 अगस्त, 1968
37. उन्होंने घर बनाये - 'अज्ञेय'
उन्होंने घर बनाये
और आगे बढ़ गये
जहाँ वे और घर बनाएँगे।
हम ने वे घर बसाये
और उन्हीं में जम गये:
वहीं नस्ल बढ़ाएँगे
और मर जाएँगे।
इस से आगे
कहानी किधर चलेगी?
खँडहरों पर क्या वे झंडे फहराएँगे
या कुदाल चलाएँगे,
या मिट्टी पर हमीं प्रेत बन मँडराएँगे
जब कि वे उस का गारा सान
साँचों में नयी ईंटें जमाएँगे?
एक बिन्दु तक
कहानी हम बनाते हैं।
जिस से आगे
कहानी हमें बनाती है:
उस बिन्दु की सही पहचान
क्या हमें आती है?
ग्वालियर, 16 अगस्त, 1968
38. ड्योढ़ी पर तेल - 'अज्ञेय'
ड्योढ़ी पर तेल चुआने के लिए
लुटिया तो मँगनी भी मिल जाएगी;
उत्सव के लिए जो मंगली-घड़ी चाहिए
वह क्या इसी लिलार-रेखा पर आएगी?
ग्वालियार, 18 अगस्त, 1968
39. पहली बार जब शराब - 'अज्ञेय'
पहली बार
जब दिन-दोपहर में शराब पी थी
तब हमजोलियों से ठिठोलियाँ करते
सोचा था:
कितने ख़तरनाक होते होंगे वे लोग
जो रात में अकेले बैठ कर पीते होंगे?
आज चाँदनी रात में
पहाड़ी काठघर में अकेला बैठा
ठिठुरी उँगलियों में ओस-नम प्याला घुमाते हुए
सोचता हूँ:
इस प्याले में चाँद की छाया है
चीड़ों की सिहरन
झर चुके फूलों की अनभूली महक
बीते बसन्तों की चिड़ियों की चहक है;
इस को-और इस के साथ अपनी (अब जैसी भी है)
किस्मत को सराहिए:
और कोई हमप्याला भला
अपने को क्यों चाहिए?
ग्वालियर, 18 अगस्त, 1968
40. तं तु देशं न पश्यामि - 'अज्ञेय'
देश-देश में बन्धु होंगे
पर बहुएँ नहीं होंगी
(राम की साखी के बावजूद);
किसी देश में बहू मिल जाएगी
जहाँ बन्धु कोई नहीं होगा।
किसी की जगह
कोई नहीं लेता:
यह तर्क भी
दर्शन की जगह नहीं लेगा,
क्यों नहीं मैं ही
अपनी जगह दूसरा
व्यक्तित्व खोज लेता?
नयी दिल्ली, अगस्त, 1968
41. तो क्या - 'अज्ञेय'
रात में
शहर की सूनी सड़कों पर
अनमने भटको-
तो क्या?
किसी भी आते-जाते
भाव की या किसी याद की ओट सिमटे
चेहरे पर अटको-
तो क्या?
किसी को सिटकारी दो,
किसी को दिखा कर
आह भरी, मटको;
यानी समाज की, समाज की
दिनौंधी आँख सिपाही की
आँख में कंकड-काँटे-सा खटको-
तो क्या?
यों बार-बार बेनतीजा
कभी गर्म, कभी सर्द,
हर सूरत बेपानी,
शीशे-से चटको-
तो क्या?
तो क्या?
इस सब से क्या?
लौट कर उसी द्वार
जहाँ से आत्म-निर्वासित
निकले थे, कब से
करते ख़ुद अपना ही तिरस्कार,
उसी घिसी देहरी पर
फिर सिर पटको-
तो क्या?
ग्वालियर, 3 सितम्बर, 1968
42. केले का पेड़ - 'अज्ञेय'
उधर से आये सेठ जी
इधर से संन्यासी
एक ने कही, एक ने मानी-
(दोनों ठहरे ज्ञानी)
दोनों ने पहचानी
सच्ची सीख, पुरानी:
दोनों के काम की,
दोनों की मनचीती-
जै सियाराम की!
सीख सच्ची, सनातन
सौटंच, सत्यानासी।
कि मानुस हो तो ऐसा...
जैसा केले का पेड़
जिस का सब कुछ काम आ जाए।
(मुख्यतया खाने के!)
फल खाओ, फूल खाओ,
धौद खाओ, मोचा खाओ;
डंठल खाओ, जड़ खाओ,
पत्ते-पत्ते का पत्तल परोसो
जिस पर पकवान सजाओ:
(यों पत्ते भी डाँगर तो खाएँगे-गो माता की जै हो, जै हो!)
यों, मानो बात तै हो:
इधर गये सेठ, उधर गये संन्यासी।
रह गया बिचारा भारतवासी।
ओ केले के पेड़, क्यों नहीं भगवान् ने तुझे रीढ़ दी
कि कभी तो तू अपने भी काम आता-
चाहे तुझे कोई न भी खाता-
न सेठ, न संन्यासी, न डाँगर-पशु-
चाहे तुझे बाँध कर तुझ पर न भी भँसाता
हर असमय मृत आशा-शिशु?
तू एक बार तन कर खड़ा तो होता
मेरे लुजलुज भारतवासी!
ग्वालियर, 6 सितम्बर, 1968
43. एक दिन - 2 - 'अज्ञेय'
एक दिन
अजनबियों के बीच
एक अजनबी आ कर
मुझे साथ ले जाएगा।
-जिन अजनबियों के बीच
मैं ने जीवन-भर बिताया है,
जिस अजनबी से
मेरी बड़ी पुरानी पहचान है।
कौन है, क्या है वह, कहाँ से आया है
जो ऐसे में मुझे रखता है
परिचिति के घेरे में आलोक से विभोर?
जिस के ही साथ मैं चलता हूँ
जिस की ही ओर?
जिस का ही आश्रित, मानो जिस की सन्तान?
उसी परिचित के घेरे में
तुम्हें आमन्त्रित करता हूँ,
वरता हूँ:
आओगे?
मेरे मेहमान-एक दिन?
ग्वालियर, 6-7 सितम्बर, 1968
44. देश की कहानी : दादी की ज़बानी - 'अज्ञेय'
पहले यह देश बड़ा सुन्दर था।
हर जगह मनोरम थी।
एक-एक सुन्दर स्थल चुन कर
हिन्दुओं ने तीर्थ बनाये
जहाँ घनी बसाई हुई
गली-गली, नाके-नुक्कड़
गन्दगी फैला दी।
फिर और एक-एक सुन्दर जगह खोज
मुसलमानों ने मज़ार बनाये:
बसे शहर उजाड़
जिधर देखो खँडहरों की क़तार लगा दी।
फिर और एक-एक सुन्दर जगह छीन
अँगरेज़ों ने छावनियाँ डाल लीं
हिमालय की, बस, पूजा होती रही,
पर्वती सब देसवालिये हो गये।
जब धर्म-निरपेक्ष, जाति-निरपेक्ष
भारतीय लोकतन्त्र हुआ है:
अब बची सुन्दर जगहों को
स्मारक संग्रहालय बनाया जा रहा है।
पहले विदेशी के लिए हर सुन्दर जगह
‘आदिम संस्कृति की क्रीड़ाभूमि’ थी,
अब स्वदेशी के लिए हर सुन्दर जगह
‘नयी संस्कृति का यादी अजायबघर’ है।
पहले हर जगह मनोरम थी
यह देश बड़ा सुन्दर था:
अब हर जगह किसी की यादी है:
अब भी यह देश बड़ा सुन्दर है।
नयी दिल्ली, 9 सितम्बर, 1968
45. उँगलियाँ बुनती हैं - 'अज्ञेय'
उँगलियाँ बुनती हैं लगातार
रंग-बिरंगे ऊनों से हाथ, पैर,
छातियाँ, पेट दौड़ते हुए घुटने,
मटकते हुए कूल्हे:
उँगलियाँ बुनती हैं
काले डोरे से चकत्ता दिल का-
सफ़ेद, सफ़ेद धागे से
आँखों के सूने पपोटे।
उँगलियाँ बुनती हैं
लगातार बेलाग भूखें, प्यासें,
हरकतें, कार्रवाइयाँ,
हंगामे, नामकरण, शादियाँ-सगाइयाँ
आयोजन, उत्सव-समारोह, खटराग कारनामे।
उँगलियाँ बुनती हैं
सिर्फ घुटे हुए दिल,
सिर्फ़ मरी हुई आँखें।
उँगलियाँ बुनती हैं...
नयी दिल्ली, 27-28 सितम्बर, 1968
46. गूँजेगी आवाज़ - 'अज्ञेय'
गूँजेगी आवाज़
पर सुनाई नहीं देगी।
हाथ उठेंगे, टटोलेंगे,
पर पकड़ाई नहीं पावेंगे।
लहकेगी आग, आग, आग
पर दिखाई नहीं देगी।
जल जाएँगे नगर, समाज, सरकारें,
अरमान, कृतित्व, आकांक्षाएँ:
नहीं मरेगा, विश्वास:
छूट जाएँगी रासें, पतवारें, कुंजियाँ, हत्थे,
नहीं निकलेगी गले की फाँस।
टूट जाएगी मानवता
नहीं चुकेगी कमबख्त मानव की साँस-
धौंकनी जो सुलगाती रहेगी
दबी हुई चिनगारियाँ।
घुटन और धुएँ को
कँपाएगी लहर:
गूँजेगी आवाज़
पर सुनाई नहीं देगी...
नयी दिल्ली, 28 सितम्बर, 1968
47. प्रेमोपनिषद् - 'अज्ञेय'
वह जो पंछी
खाता नहीं, ताकता है,
पहरे पर एकटक जागता है-
होगा, होगा जब।
मैं वह पंछी हूँ
जो फल खाता है
क्यों कि फल, डाल, तरु, मूल,
तुम्हीं हो सब।
पर एक जागता है, ताकता है-
कौन?
मैं हूँ, जागरूक, पहरेदार।
पक्षी और डाल, तरु और फूल,
सभी मैं देखता हूँ
तुम्हारा होकर।
मुक्त करे तुम्हें, मौन
वही तो होगा
मेरा प्यार।
नयी दिल्ली, सितम्बर, 1968
48. रात में - 'अज्ञेय'
तुम्हारी आँखों से
सपना देखा। वहाँ।
अपनी आँखों से
जाग गये। यहाँ।
झील। पहाड़ी पर मन्दिर
कुहरे में उभरा हुआ।
धूप के फूल जहाँ-तहाँ
जैसे गेहूँ में पोस्ते।
और वह एक (किरण) कली
कलश को छूती हुई चलती है।
जागरण।
एक चौंकी हुई झपकी।
एक आह
टूटी हुई सर्द।
एक सहमा हुआ सन्नाटा
और दर्द
और दर्द
और दर्द...
धीरे-उफ़ कितनी धीरे
यह रात ढलती है...
नयी दिल्ली, शरत्पूर्णिमा, 6 अक्टूबर, 1968
49. ओ तुम - 'अज्ञेय'
ओ तुम सुन्दरम रूप!-
पर कैसे यह जाना जाय
कि रूप तुम्हारा है
और मेरा ही नहीं है?
ओ तुम मधुरतम भाव!
पर कैसे यह माना जाय
कि वह तुम्हारा है
कुछ मेरा ही नहीं है?
ओ तुम निविडतम मोह।
पर-
...मेरा ही तो मोह!
ओ तुम-पर मैं किसे पुकार रहा हूँ?
नयी दिल्ली, 7 अक्टूबर, 1968
50. कौन-सा सच है - 'अज्ञेय'
दिन के उजाले में
अनेकों नाम सब के समाज में
हँसी-हँसी सहज
पुकारना
रात के सहमे अँधेरे में
अपने ही सामने अकेला एक नाम
बड़े कष्ट से, अनिच्छा से
सकारना।
कौन-सा सच है?
सब की जीत की खोज कर लायी हुई खुशी में
अपनी हार को
नकारना
या कि यह: कि एक ही विकल्प है
हार को लब्धि मान
अपने मिटने पर ही अपने को वारना?
कसौली (हिमाचल), 23 अक्टूबर, 1968
51. औपन्यासिक - 'अज्ञेय'
मैं ने कहा: अपनी मनःस्थिति
मैं बता नहीं सकता। पर अगर
अपने को उपन्यास का चरित्र बताता, तो इस समय अपने को
एक शराबखाने में दिखाता, अकेले बैठ कर
पीते हुए-इस कोशिश में कि सोचने की ताक़त
किसी तरह जड़ हो जाए।
कौन या कब अकेले बैठ कर शराब पीता है?
जो या जब अपने को अच्छा नहीं लगता-अपने को
सह नहीं सकता।
उस ने कहा: हूँ! कोई बात है भला? शराबखाना भी
(यह नहीं कि मुझे इस का कोई तजुरबा है, पर)
कोई बैठने की जगह होगी-वह भी अकेले?
मैं वैसे में अपने पात्र को
नदी किनारे बैठाती-अकेले उदास बैठ कर कुढ़ने के लिए।
मैं ने कहा: शराबखाना
न सही बैठने के लायक जगह! पर अपने शहर में
ऐसा नदी का किनारा कहाँ मिलेगा जो
बैठने लायक हो-उदासी में अकेले
बैठ कर अपने पर कुढ़ने लायक?
उस ने कहा: अब मैं क्या करूँ अगर अपनी नदी का
ऐसा हाल हो गया है? पर कहीं तो ऐसी नदी
ज़रूर होगी?
मैं ने कहा: सो तो है-यानी होगी। तो मैं
अपने उपन्यास का शराबखाना
क्या तुम्हारे उपन्यास की नदी के किनारे
नहीं ले जा सकता?
उस ने कहा: हुँ! यह कैसे हो सकता है?
मैं ने कहा: ऐसा पूछती हो, तो तुम उपन्यासकार भी
कैसे बन सकती हो?
उस ने कहा: न सही-हम नहीं बनते उपन्यासकार।
पर वैसी नदी होगी
तो तुम्हारे शराबखाने की ज़रूरत क्या होगी, और उसे
नदी के किनारे तुम ले जा कर ही क्या करोगे?
मैं ने ज़िद कर के कहा: ज़रूर ले जाऊँगा! अब देखो, मैं
उपन्यास ही लिखता हूँ और उसमें
नदी किनारे शराबखाना बनाता हूँ!
उस ने भी ज़िद कर के कहा: वह
बनेगा ही नहीं! और बन भी गया तो वहाँ तुम अकेले बैठ कर
शराब नहीं पी सकोगे!
मैं ने कहा: क्यों नहीं? शराबखाने में अकेले
शराब पीने पर मनाही होगी?
उस ने कहा: मेरी नदी के किनारे तुम को
अकेले बैठने कौन देगा, यह भी सोचा है?
तब मैं ने कहा: नदी के किनारे तुम मुझे अकेला
नहीं होने दोगी, तो शराब पीना ही कोई
क्यों चाहेगा, यह भी कभी सोचा है?
इस पर हम दोनों हँस पड़े। वह
उपन्यास वाली नदी और कहीं हो न हो,
इसी हँसी में सदा बहती है,
और वहाँ शराबखाने की कोई ज़रूरत नहीं है।
नयी दिल्ली, अक्टूबर, 1968
52. कुछ फूल : कुछ कलियाँ - 'अज्ञेय'
डाल पर कुछ फूल थे
कुछ कलियाँ थीं!
फूल जिसे देने थे दिये:
तुष्ट हुआ कि उसने उन्हें
कबरी में खोंस लिया!
कलियाँ
कुछ देर मेरे हाथ रहीं
फिर अगर गुच्छे को मैं ने पानी में रख दिया
तो वह अतर्कित उपेक्षा ही थी:
कोई मोह नहीं।
शाम को लौट कर आ गया।
कबरी के फूल
जिसे दिये थे
उसी के माथे पर सूख गये
जैसे कि मेरा मन
मुरझा गया।
कलियाँ-उन का ध्यान भी न आया होता
पर वे तो उपेक्षा के पानी में
खिल आयी हैं!
यहीं की यहीं!
फूल: मन: कलियाँ:
सब अपने-अपने ढंग से
उत्तरदायी हैं।
फूल
मुरझाएगा:
वही तो नियति है:
होने का फल है।
पर उसी की अमोघ बाध्यता का तो बल हैजो कली को खिलाएगा, खिलाएगा।
जो मुझे
जहाँ मारेगा वहाँ मरने से बचाएगा
जो फिर तुम्हारे निकट लाएगा।
क्यों? नहीं?
नयी दिल्ली, अक्टूबर 1968
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Sachchidananda Hirananda) #icon=(link) #color=(#2339bd)