गुरबत - माँ भाग 31 - मुनव्वर राना | Gurbat - Maa Part 31 - Munawwar Rana

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गुरबत - माँ भाग 31 - मुनव्वर राना | Gurbat - Maa Part 31 - Munawwar Rana

घर की दीवार पे कौवे नहीं अच्छे लगते

मुफ़लिसी में ये तमाशे नहीं अच्छे लगते


मुफ़लिसी ने सारे आँगन में अँधेरा कर दिया

भाई ख़ाली हाथ लौटे और बहनें बुझ गईं


अमीरी रेशम—ओ—कमख़्वाब में नंगी नज़र आई

ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है


इसी गली में वो भूका किसान रहता है

ये वो ज़मीं है जहाँ आसमान रहता है


दहलीज़ पे सर खोले खड़ी होग ज़रूरत

अब ऐसे घर में जाना मुनासिब नहीं होगा


ईद के ख़ौफ़ ने रोज़ों का मज़ा छीन लिया

मुफ़लिसी में ये महीना भी बुरा लगता है


अपने घर में सर झुकाये इस लिए आया हूँ मैं

इतनी मज़दूरी तो बच्चे की दुआ खा जायेगी


अल्लाह ग़रीबों का मददगार है ‘राना’!

हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते


बोझ उठाना शौक़ कहाँ है मजबूरी का सौदा है

रहते—रहते स्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

Jane Mane Kavi (medium-bt) Hindi Kavita (medium-bt) Munawwar Rana(link)

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