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हिंदी कविता
चिन्ता - 'अज्ञेय' | Chinta - 'Agyeya'
चिन्ता - विश्वप्रिया - 'Agyeya' (toc)
1. छाया, छाया तुम कौन हो - 'अज्ञेय'
छाया, छाया, तुम कौन हो?
ओ श्वेत, शान्त घन-अवगुंठन! तुम कौन-सी आग की तड़प छिपाये हुए हो? ओ शुभ्र, शान्त परिवेष्टन! तुम्हारे रह:शील अन्तर में कौन-सी बिजलियाँ सोती हैं?
वह मेरे साथ चलती है।
मैं नहीं जानता कि वह कौन है; कहाँ से आयी है; कहाँ जाएगी! किन्तु अपने अचल घूँघट में अपना मुँह छिपाये, अपने अचल वसनों में सोयी हुई, वह मेरे साथ ऐसे चल रही है जैसे अनुभूति के साथ कसक...
वह मेरी वधू है।
मैं ने उसे कभी नहीं देखा। जिस संसार में मैं रहता हूँ, उस में उस का अस्तित्व ही कभी नहीं रहा। पर मेरा मन और अंग-प्रत्यंग उसे पहचानता है; मेरे शरीर का प्रत्येक अणु उस की समीपता को प्रतिध्वनित करता है।
मैं अपनी वधू को नहीं पहचानता।
मैं उसे अनन्त काल से साथ लिवाये आ रहा हूँ, पर उस अनन्त काल के सहवास के बाद भी हम अपरिचित हैं। मैं उस काल का स्मरण तो क्या, कल्पना भी नहीं कर सकता जब वह मेरी आँखों के आगे नहीं थी; पर वह अभी अस्फुट, अपने में ही निहित है...
वह है मेरे अन्तरतम की भूख!
वह एक स्वप्न है, इस लिए सच है; वह कभी हुई नहीं, इस लिए सदा से है; मैं उस से अत्यन्त अपरिचित हूँ, इस लिए वह सदा मेरे साथ चलती है; मैं उसे पहचानता नहीं, इस लिए वह मेरी अत्यन्त अपनी है; मैं ने उसे प्रेम नहीं किया, इस लिए मेरा सारा विश्व उस के अदृश्य पैरों में लोट कर एक भव्य विस्मय से उस का आह्वान करता है, 'प्रिये!'
छाया, छाया, तुम कौन हो?
दिल्ली जेल, 3 दिसम्बर, 1933
2. छाया! मैं तुममें किस वस्तु का अभिलाषी हूँ - 'अज्ञेय'
छाया! मैं तुम में किस वस्तु का अभिलाषी हूँ?
मुक्त कुन्तलों की एक लट, ग्रीवा की एक बंकिम मुद्रा और एक बेधक मुस्कान, और बस?
छाया! तुम्हारी नित्यता, तुम्हारी चिरन्तन सत्यता क्या है?
आँखों की एक दमक - आँखें अर्थपूर्ण और रह:शील, अतल और छलकती हुईं; किन्तु फिर भी केवल आँखें- और बस?
छाया! मैं क्या पा चुका और क्या खोज रहा हूँ?
मैं नहीं जानता, मैं केवल यह जानता हूँ, कि मेरे पास सब कुछ है और कुछ नहीं; कि तुम मेरे अस्तित्व की सार हो किन्तु स्वयं नहीं हो!
मुलतान जेल, 10 दिसम्बर, 1933
3. विश्व-नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार - 'अज्ञेय'
विश्व-नगर नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-
रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-
'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?'
नहीं जानता हूँ मैं तुम को, नहीं माँगता कुछ प्रतिदान;
मुझे लुटा भर देना है, अपना अनिवार्य, असंयत गान।
ओ अबाध के सखा! नहीं मैं अपनाने का इच्छुक हूँ;
अभिलाषा कुछ नहीं मुझे, मैं देने वाला भिक्षुक हूँ!
परिचय, परिणय के बन्धन से भी घेरूँ मैं तुम को क्यों?
सृष्टि-मात्र के वाञ्छनीय सुख! मेरे भर हो जाओ क्यों?
प्रेमी-प्रिय का तो सम्बन्ध स्वयं है अपना विच्छेदी-
भरी हुई अंजलि मैं हूँ, तुम विश्व-देवता की वेदी!
अनिर्णीत! अज्ञात! तुम्हें मैं टेर रहा हूँ बारम्बार-
मेरे बद्ध हृदय में भरा हुआ है युगों-युगों का भार।
सीमा में मत बँधो, न तुम खोलो अनन्त का माया-द्वार-
मैं जिज्ञासु इसी का हूँ कि अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?
विश्व नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार-
रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार-
'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?'
दिल्ली जेल, जून, 1932
4. सब ओर बिछे थे नीरव छाया के जाल घनेरे - 'अज्ञेय'
सब ओर बिछे थे नीरव छाया के जाल घनेरे
जब किसी स्वप्न-जागृति में मैं रुका पास आ तेरे।
मैं ने सहसा यह जाना तू है अबला असहाया:
तेरी सहायता के हित अपने को तत्पर पाया।
सामथ्र्य-दर्प से उन्मद मैं ने जब तुझे पुकारा-
किस ओर से बही उच्छल, यह दीप्त, विमूर्छन-धारा?
हतसंज्ञ, विमूढ हुआ मैं नतशिर हूँ तेरे आगे।
तेरी श्यामल अलकों में- ये कंचन-कण क्यों जागे?
क्यों हाय! रुक गया सहसा मेरे प्राणों का स्पन्दन?
मुझ को बाँधे ये कैसे अस्पृश्य किन्तु दृढ़ बन्धन!
डलहौजी, 18 मई, 1934
5. हा कि मैं खो जा सकूँ - 'अज्ञेय'
हा, कि मैं खो जा सकूँ!
हा, कि उस के भाल पर अवतंस-पद मैं पा सकूँ-
हा, किस उस के हृदय पर एकाधिकार जमा सकूँ!
टूट कर उस के करों, चिर-ज्योति में सो जा सकूँ-
हा, कि उस के चरण छू कर आत्मभाव भुला सकूँ!
यदि न इतना भी लिखा हो भाग्य में, हे बंचने-
हाय! देना विपिन-प्रान्तर में कहीं बिखरा मुझे!
पूर्णता हूँ चाहता मैं, ठोकरों से भी मिले-
धूल बन कर ही किसी के व्योम भर में छा सकूँ!
मुलतान जेल, 11 दिसम्बर, 1933
6. तेरी आँखों में क्या मद है जिसको पीने आता हूँ - 'अज्ञेय'
तेरी आँखों में क्या मद है जिस को पीने आता हूँ-
जिस को पी कर प्रणय-पाश में तेरे मैं बँध जाता हूँ?
तेरे उर में क्या सुवर्ण है जिस को लेने आता हूँ-
जिस को लेते हृदय-द्वार की राह भूल मैं जाता हूँ?
तेरी काया में क्या गुण है जिस को लखने आता हूँ-
जिस को लख कर तेरे आगे हाथ जोड़ कर जाता हूँ?
मुलतान जेल, 11 दिसम्बर, 1933
7. आ जाना प्रिय आ जाना - 'अज्ञेय'
आ जाना प्रिय आ जाना!
अपनी एक हँसी में मेरे आँसू लाख डुबा जाना!
हा हृत्तन्त्री का तार-तार, पीड़ा से झंकृत बार-बार-
कोमल निज नीहार-स्पर्श से उस की तड़प सुला जाना।
फैला वन में घन-अन्धकार, भूला मैं जाता पथ-प्रकार-
जीवन के उलझे बीहड़ में दीपक एक जला जाना।
सुख-दिन में होगी लोक-लाज, निशि में अवगुंठन कौन काज?
मेरी पीड़ा के घूँघट में अपना रूप दिखा जाना।
दिनकर-ज्वाला को दूँ प्रतीति? जग-जग, जल-जल काटी निशीथ!
ऊषा से पहले ही आ कर जीवन-दीप बुझा जाना।
प्रिय आ जाना!
मुलतान जेल, 7 दिसम्बर, 1933
8. आज तुम से मिल सकूँगा था मुझे विश्वास - 'अज्ञेय'
आज तुम से मिल सकूँगा, था मुझे विश्वास!
आज जब कि बबूल पर भी सिरिस-कोमल बौर पलता-
मंजरी की प्यालियों में ओस का मधु-दौर चलता;
खेलती थी विजन में सुरभि मलय की साँस।
उर भरे उल्लास।
प्यार के उन्माद से भर, पंडुकी भी स्वर बदल कर,
सघन पीपल-डाल पर से थी बुलाती प्रणय-सहचर-
छा रहा सब ओर था अनुराग का कलहास।
वह मिलन की प्यास!
कल- झुलसते सुमन-जग में वेदना की हूक होगी,
निरस, श्री-हत तरु-शिखर पर मूक कोकिल-कूक होगी!
खर-निदाघ-ज्वाल में जल जाएगा मधुमास।
झूठ कल ही आस!
कल- जवानी की उमंगें बिखर होंगी धूल जग में-
आज की यह कामना ही चुभेगी बन शूल मग में!
भुवन-भर को माप लेगा काल-डग का व्यास।
प्रलय का आभास!
दूर तुम- हा, दूर तुम- अवसान आया पास,
आज प्रत्यय भी पराजित- मैं नियति का दास!
आज तुम से मिल सकूँगा था मुझे विश्वास।
लाहौर, 1 अगस्त, 1936
9. ओ उपास्य! तू जान कि कैसे अब होगा निर्वाह - 'अज्ञेय'
ओ उपास्य! तू जान कि कैसे अब होगा निर्वाह-
इस प्रेमी उर में जागी है प्रिय होने की चाह!
अन्धकार में क्षीण ज्योति से पग-पग रहा टटोल-
आज चला खद्योत माँगने वाडव-उर का दाह!
लाहौर, 15 अप्रैल, 1936
10. व्यथा मौन - 'अज्ञेय'
व्यथा मौन, वाञ्छा भी मौन, प्रणय भी, घोर घृणा भी मौन-
हाय, तुम्हारे नीरव इंगित में अभिप्रेत भाव है कौन?
कोई मुझे सुझा दे-मर भी जाऊँ तो जाऊँ, संशय की आग बुझा दे!
मुलतान जेल, 30 जनवरी, 1934
11. मैं अपने को एकदम - 'अज्ञेय'
मैं अपने को एकदम उत्सर्ग कर देना चाहता हूँ, किन्तु कर नहीं पाता। मेरी इस उत्सर्ग-चेष्टा को तुम समझतीं ही नहीं।
अगर मैं सौ वर्ष भी जी सकूँ, और तुम मुझे देखती रहो, तो मुझे नहीं समझ पाओगी।
इस लिए नहीं कि मैं अभिव्यक्ति की चेष्टा नहीं करता, इस लिए नहीं कि मैं अपने भावों को छिपाता या दबाता हूँ।
मैं हज़ार बार अभिव्यक्ति का प्रयत्न करता हूँ, किन्तु उस का फल मेरे भाव नहीं होते; उन में 'मैं' नहीं होता। वे होते हैं केवल एक छाया मात्र, मेरे मन के भावों की प्रतिक्रिया मात्र...मेरे भावों की तत्समता उन में नहीं होती, यद्यपि उन का एक-एक अणु मेरे किसी न किसी भाव से उद्भूत होता है।
मैं कवि हूँ, किन्तु मेरी प्रतिभा अभिशप्त है। संसार का चित्रण करने का सामथ्र्य रखते हुए भी मैं अपने को नहीं व्यक्त कर सकता।
दिल्ली जेल, 23 जून, 1932
12. मेरे उर ने शिशिर-हृदय से सीखा करना प्यार - 'अज्ञेय'
मेरे उर ने शिशिर-हृदय से सीखा करना प्यार-
इसी व्यथा से रोता रहता अन्तर बारम्बार!
कठिन-कुहर-प्रच्छन्न प्राण में पावक-दाह प्रसुप्त-
पतझर की नीरसता में चिर-नव-यौवन-भंडार।
धवल मौन में अस्फुट-मधु-वैभव के रंग असंख्य-
तदपि अकेला शिशिर, काल का पीड़ा-कोषागार।
मेरे प्रेम-दिवस भी मेरे जीवन के कटु भार-
मेरे उर ने शिशिर-हृदय से करना सीखा प्यार!
मुलतान जेल, 5 जनवरी, 1934
13. गए दिनों में औरों से भी मैं ने प्रणय किया है - 'अज्ञेय'
गये दिनों में औरों से भी मैं ने प्रणय किया है-
मीठा, कोमल, स्निग्ध और चिर-अस्थिर प्रेम दिया है।
आज किन्तु, प्रियतम! जागी प्राणों में अभिनव पीड़ा-
यह रस किसने इस जीवन में दो-दो बार पिया है?
वृक्ष खड़ा रहता जैसे पत्ता-पत्ता बिखरा कर-
वैसे झरे सभी वे मेरा अनुभव-भार बढ़ा कर।
किन्तु आज साधना हृदय की फल-सी टपक पड़ी है-
प्रियतम! इस को ले लो तुम अपना आँचल फैला कर!
लाहौर, 1935
14. फूला कहीं एक फूल - 'अज्ञेय'
फूला कहीं एक फूल!
विटप के भाल पर,
दूर किसी एक स्निग्ध डाल पर,
एक फूल - खिला अनजाने में।
मलय-समीर उसे पा न सकी,
ग्रीष्म की भी गरिमा झुका न सकी
सुरभि को उस की छिपा न सकी
शिशिर की मृत्यु-धूल!
फूल था या आग थी जली जो अनजाने में!
जिस की लुनाई देख विटप झुलस गया-
सौरभ से जिस के समीरण उलझ गया-
भव निज गौरव को भूल गया,
सुमन के तन्तु की ही फाँसी से झूल गया!
ऐसे फिर जग की विभूतियों को छान कर,
एक तीखे घूँट ही मे पान कर
लाख-लाख प्राणियों के जीवन की गरिमा
हाय, उस सुमन की छोटी-सी परिमा!-
मूर्छित हो कुसुम स्वयं ही वह चू पड़ा
जानने को जाने किस जीवन की महिमा!
वह तब था जब तुझे किया था मैं ने प्यार-
ओ सुकुमार- सौरभ-स्निग्ध - ओ सुकुमार!
तुझ को ही तो था वह उपहार!
तेरे प्रति निज प्रेम-भाव को, धारण कर मस्तक पर मैं,
जाने कब से खड़ा हुआ था आँखें आँसू से भर मैं!
प्रेम-फूल की रक्षा के हित भव-वैभव भी दे डाला-
आहुति निज जीवन की दे कर उस के सौरभ को पाला!
झुलसा खड़ा रहा मैं ले कर एक फूल की ही माला-
तेरे आँचल में टपका दी मैं ने निज जीवन-ज्वाला!
वह तब था जब तुझे किया था मैं ने प्यार-
ओ सुकुमार - सौरभ-स्निग्ध - ओ सुकुमार!
मुलतान जेल, 7 नवम्बर, 1933
15. जाने किस दूर वन-प्रांतर से उड़ कर - 'अज्ञेय'
जाने किस दूर वन-प्रान्तर से उड़ कर
आया एक धूलि-कण।
ग्रीष्म ने तपाया उसे, शीत ने सताया उसे,
भव ने उपेक्षा के समुद्र में डुबाया उसे,
पर उस में थी कुछ ऐसी एक धीरता-
जीवन-समर में थी ऐसी कुछ वीरता,
जग सारा हार गया, डाल हथियार गया,
अपने कलंक की ही कालिमा के बिन्दु में
डूबा वह, या कि आत्म-ताडऩा के सिन्धु में?
और वह धूलि-कण
द्रौपदी के पट जैसा, वारिधि के तट जैसा
वामन की माँग-सा अनन्त,
भूख की पुकार-सा दुरन्त
बढ़ता चला गया-
व्योम-भर छा गया-
शून्यता भी पूर्ति से छलक गयी-
तिमिर में दामिनी दमक गयी-
धूलि-कण में विभूति-किरण चमक गयी!
रेणु थी जो धूलि थी-
आज वह हो गयी
शिरसावतंस इस धूल-भरे जग की
वही जो कभी थी- जो है- रेणु तेरे पग की!
यह अब है- जब मैं ने पाया तेरा प्यार!
ओ सुकुमार- सौरभ-स्निग्ध- ओ सुकुमार!
यह गौरव है तेरा ही उपहार!
बिन पाये क्या था मैं, पर अब क्या न हुआ पा तेरा प्यार!
धूलि स्वयं, पर आज मुझे है तुच्छ धूलि से भी संसार!
ओ सकुमार- सौरभ स्निग्ध- ओ सुकुमार!
ऐसा अब जब मैं ने पाया तेरा प्यार!
मुलतान जेल, 11 दिसम्बर, 1933
16. इस कोलाहल भरे जगत में - 'अज्ञेय'
इस कोलाहल-भरे जगत् में भी एक कोना है जहाँ प्रशान्त नीरवता है।
इस कलुष-भरे जगत् में भी एक जगह एक धूल की मुट्ठी है जो मन्दिर है।
मेरे इस आस्थाहीन नास्तिक हृदय में भी एक स्रोत है जिस से भक्ति ही उमड़ा करती है।
जब मैं तुम्हें 'प्रियतम' कह कर सम्बोधन करता हूँ तब मैं जानता हूँ कि मेरे भी धर्म है।
गुरदासपुर, 14 मई, 1937
17. प्राण तुम आज चिंतित क्यों हो - 'अज्ञेय'
प्राण, तुम आज चिन्तित क्यों हो?
चिन्ता हम पुरुषों का अधिकार है। तुम केवल आनन्द से दीप्त रहने को, सब ओर अपनी कान्ति की आभा फैलाने को हो।
फूल डाल पर फूलता मात्र है, उस का जीवन-रस किस प्रकार भूमि से खींचा जाएगा, किस-किस की मध्यस्थता से उस तक पहुँचेगा, इस की वह चिन्ता नहीं करता है।
वह केवल फूलता है, अपने सौन्दर्य और सुवास से जगत् को मोहित करता है, उस का जीवन सफल करता है, और झर जाता है।
प्राण, तुम आज चिन्तित क्यों हो?
दिल्ली जेल, 25 फरवरी, 1933
18. तुम्हारा जो प्रेम अनंत है - 'अज्ञेय'
तुम्हारा जो प्रेम अनन्त है, जिसे प्रस्फुटन के लिए असीम अवकाश चाहिए, उसे मैं इस छोटी-सी मेखला में बाँध देना चाहता हूँ!
तुम मेरे जीवन-वृक्ष की फूल मात्र नहीं हो, मेरी सम-सुख-दु:खिनी, मेरी संगिनी, मेरे अनन्त जन्मों की प्राणभार्या हो!
तुम्हें मेरे सुख में सुखी होने-भर का अधिकार नहीं, तुम मेरे गान की लय हो, मेरे दु:ख का क्रन्दन, मेरी वेदना की तड़प, मेरे उत्थान की दीप्ति, मेरी अवनति की कालिमा, मेरे उद्भव का आलोक और मेरी मृत्यु की अखंड नीरव शान्ति भी तुम्हीं हो!
प्राण, यदि मैं तुम्हें बाँधना चाहूँ तो तुम वे बन्धन काट डालो!
दिल्ली जेल, 25 फरवरी, 1933
19. संसार का एकत्व - 'अज्ञेय'
संसार का एकत्व एक सामान्य निर्बलता का बन्धन है, उस का प्रत्येक अंग अपनी निर्बलता को छिपाने के लिए मिथ्या सामथ्र्य का अभिनय करता है। इसी लिए संसार के सामान्य प्राणी अपनी शक्तियों को ही दूसरों से बँटाते हैं; शक्तियों के ही साझीदार होते हैं।
किन्तु मेरा और तुम्हारा एकत्व हमारी निर्बलताओं से नहीं, हमारे समान सामथ्र्य और शक्ति से गूँथा गया है। इस लिए आओ, हम-तुम अपनी-अपनी निर्बलताओं के साझीदार होवें, अपने अन्तर के घोरतम रहस्यमय सम्भ्रम और परिकम्पन को एक-दूसरे से कह डालें!
मुलतान जेल, 11 दिसम्बर, 1933
20. कैसे कहूँ कि तेरे पास आते समय - 'अज्ञेय'
कैसे कहूँ कि तेरे पास आते समय मेरी काया अमलिन, सम्पूर्ण और पवित्र है या कि मेरी आत्मा अनाहत, अविच्छिन्न है?
क्योंकि तुझ तक पहुँचने में, तेरी खोज में बिताये हुए अपने भूखे जीवन में क्या मुझे भयंकर अन्धकार, कीच-कर्दम और कँटीली झाडिय़ों में से उलझते हुए नहीं आना पड़ा?
अमालिन्य, सम्पूर्णता और पवित्रता का आदर मैं ने किया है- उन की अप्राप्ति में। उन्हें प्राप्त करना और सुरक्षित रखना मुझे तुझ से ही सीखना है।
किन्तु तेरे समीप आते हुए, मेरे पास एक वस्तु अवश्य है- मेरी काया अब भी अनुभूति-सामथ्र्य रखती है और मेरी आत्मा अब भी स्वच्छन्द और अबद्ध है!
मुलतान जेल, 13 दिसम्बर, 1933
21. हमारा तुम्हारा प्रणय - 'अज्ञेय'
मेरा-तुम्हारा प्रणय इस जीवन की सीमाओं से बँधा नहीं है।
इस जीवन को मैं पहले धारण कर चुका हूँ।
पढ़ते-पढ़ते, बैठे-बैठे, सोते हुए एकाएक जाग कर,
जब भी तुम्हारी कल्पना करता हूँ,
मेरे अन्दर कहीं बहुत-से बन्ध टूट जाते हैं,
एक निर्बाध प्रवाह मुझे कहीं बहा ले जाता है,
मेरे आस-पास का प्रदेश, व्यक्ति, सब कुछ बदल जाता है;
मैं स्वयं भिन्न रूप धारण कर लेता हूँ।
पर ऐसा होते हुए भी जान पड़ता है,
मैं अपना ही कोई पूर्वरूप,
कोई घनीभूत रूप हूँ।
और तुम, उस पूर्व जन्म में भी
मेरे जीवन-वृत्त का केन्द्र होती हो।
चिरप्रेयसि! पुनर्जन्म असम्भव है।
और सम्भव भी हो, तो यह स्मृति कैसी?
किन्तु इस तर्क से मेरी अन्तर्दृष्टि पर
मोह का आवरण नहीं पड़ता।
मैं फिर भी अपने पूर्व जन्म का दृश्य
स्पष्ट देख पाता हूँ।
मैं देखता हूँ,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी हो।
इतना ही नहीं,
मैं इस से भी आगे देख सकता हूँ।
प्रत्येक जीवन में तुम आती हो,
एक अप्राप्य निधि की तरह
मेरी आँखों के आगे नाच जाती हो,
और फिर लुप्त हो जाती हो-
मैं कभी तुम्हें पहुँच नहीं पाता।
मैं जन्म-जन्मान्तर की अपूर्ण तृष्णा हूँ,
तुम उस की असम्भव पूर्ति।
इस तृष्णा और तृप्ति का कहाँ मिलन होगा,
कहाँ एक-दूसरे में समाहित हो जाएँगी,
यह मैं नहीं जानता,
न जानने की इच्छा ही करता हूँ।
इस तृष्णा में ही इतना घना जीवन भरा पड़ा है
कि और किसी चाह के लिए स्थान ही नहीं रहता!
केवल यह बात मन में कौंध जाती है
कि शायद यह एकीकरण कभी नहीं होगा।
दिल्ली जेल, 29 जून 1932
22. तुम गूजरी हो - 'अज्ञेय'
तुम गूजरी हो, मैं तुम्हारे हाथ की वंशी।
तुम्हारे श्वास की एक कम्पन से मैं अनिर्वचनीय माधुर्य-भरे संगीत में ध्वनित हो उठता हूँ।
ये गायें हमारे असंख्य जीवनों के असंख्य प्रणयों की स्मृतियाँ हैं।
वंशी की ध्वनि सुनते ही ये मानो किसी भूले हुए संगीत की झंकार सुन कर चौंक उठती हैं।
तुम और मैं मिल कर इस छोटे-से मण्डल को पूरा करते हैं। तुम्हारी प्रेरणा से मैं ध्वनित हो उठता हूँ, और उस ध्वनि की प्रेरणा से हमारी चिरन्तन प्रणय-कामनाएँ पूरीकरण में लीन हो जाती हैं।
यही हमारे प्रेम का छोटा-सा किन्तु सर्वत: सम्पूर्ण संसार है।
दिल्ली जेल, 27 नवम्बर, 1932
23. इतने काल से मैं - 'अज्ञेय'
इतने काल से मैं जीवन की उस मधुर पूर्ति की खोज करता रहा हूँ- जीवन का सौन्दर्य, कविता, प्रेम...और अब मैंने उसे पा लिया है।
यह एक मृदुल, मधुर, स्निग्ध शीतलता की तरह मुझ में व्याप्त हो गयी है।
किन्तु इस व्यापक शान्तिपूर्ण एकरूपता में मुझे उस वस्तु की कमी का अनुभव हो रहा है जिसने मेरी खोज को दिव्य बना दिया था- एक ही वस्तु-अप्राप्ति की पीड़ा!
दिल्ली जेल, 7 जनवरी, 1933
24. प्रिये तनिक बाहर तो आओ - 'अज्ञेय'
प्रिये, तनिक बाहर तो आओ, तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
रुष्ट प्रतीची के दीवट पर करुण प्रणय का दीप जला है-
लिये अलक्षित अनुनय-अंजलि किसे मनाने आज चला है?
प्रिये, इधर तो देखो, तुम से इस का उत्तर पाऊँ!
तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
अरुण सकल आकाश किन्तु उस में है तारा दीप्त अकेला।
अनझिप मेरी भी मनुहार, यद्यपि तुम मूर्तिमती अवहेला!
अपलक-नयन इसी विस्मय में कैसे तुम्हें मनाऊँ!
तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
नभ का रोष बुझा कर तत्क्षण डूब जाएगा सन्ध्या-तारा।
जाते पर अपने प्रतिबिम्बों से भर जाएगा नभ सारा!|
ऐसी क्रिया प्रणय अपने में भी क्या तुम्हें बताऊँ?
तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
तुम अनुकूलो तो मैं तत्क्षण चरणों में से शीश हटाऊँ-
सम्मुख हो कर अगणित गीतों की मालाएँ तुम्हें पिन्हाऊँ
तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
मुलतान जेल, 29 जनवरी, 1934
25. प्राण-वधूटी - 'अज्ञेय'
प्राण-वधूटी!
अन्तर की दुर्जयता तुमने लूटी!
गौरव-दृप्त दुराशाएँ, अभिमानिनी हुताशाएँ,
स्वीकृति-भर से ही कर डालीं झूटी!
प्राण-वधूटी!
दानशीलता खो डाली - दम्भ मलिनता धो डाली!
अहंमन्यता की छाया भी छूटी!
प्राण-वधूटी!
दीन-नयन की याञ्चा से- उर की अपलक वाञ्छा से
मंडित मेरी कुटिया टूटी-फूटी!
प्राण-वधूटी!
कम्पन ही से रुका हुआ, जीवन पैरों झुका हुआ-
हाय तुम्हारी मुद्रा अब क्यों रूठी!
प्राण-वधूटी!
अवगुंठन को डालो चीर-प्रकटित कर दो उर की पीर,
लज्जा के बिखरे फूलों पर, आज बहा दो आँसू नीर-
बस भिक्षा दे डालो आज अनूठी!
प्राण-वधूटी!
मुलतान जेल, 2 दिसम्बर, 1933
26. विद्युद्गति में - 'अज्ञेय'
विद्युद्गति में सुप्त विकलता खोयी-सी बहती है,
घन की तड़पन में पुकार-सी कुछ उलझी रहती है;
उस प्रवाह से एक कली ही चुन तो लो!
देवी, सुन तो लो यह प्रवास-रजनी क्या कहती है-
क्षण-भर रुक कर सुन तो लो!
'आँखों में- धूमिल व्यथा-ज्वाल, प्राणों में सोते अतल ताल!
सूना पर जीवन-मरु विशाल...
देवी बरसा दो दृष्टि-धार!
'चकवी की सहचर की पुकार, बहती नौका को कर्णधार।
प्रणयी-जीवन की पूर्ति कौन?
- कुवलय-नयनों का अश्रु-भार!
'शैशव को ऊषा का दुलार, बालक को दिनमणि-किरण हार
इस यौवन का क्या पुरस्कार?
- पावस-निशि का अभिसार-प्यार!'
उस की एक कली ही चुन तो लो!
घन-पट पर तड़पन की रेखा चित्र बना जाती है-
देवी! चपला फिर-फिर तुम को कुछ कहने आती है!
क्षण-भर रुक कर सुन तो लो!
मुलमान जेल, 2 दिसम्बर, 1933
27. आओ एक खेल खेलें - 'अज्ञेय'
आओ, एक खेल खेलें!
मैं आदिम पुरुष बनूँगा, तुम पहली मानव-वधुका।
पहला पातक अपना ही हो परिणय, यौवन-मधु का!
पथ-विमुख करे वह, जग की कुत्सा का पात्र बनावे;
दृढ़ नाग-पाश में बाँधे पाताल-लोक ले जावे!
निज जीवन का सुख ले लें!
आओ, एक खेल खेलें!
मत मिथ्या व्रीडा से तुम नत करो दीप्त मुख अपना-
मिथ्या भय की कम्पन में मत उलझाओ सुख-सपना!
इस सुमन-कुंज से अपना प्रभु बहिष्कार कर देंगे?
उन के आज्ञापन की हम मुँहजोही ही न करेंगे!
हम उत्पीडऩ क्यों झेलें?
आओ, एक खेल खेलें!
हम उन के सही खिलौने- क्यों अपना खेल भुलावें?
कन्दरा किसी में अपनी हम क्रीडास्थली बनावें!
लज्जा, कुत्सा, पातक की पनपे वह अभिनव खेला,
परिणय की छाया में हूँ मैं तेरे साथ अकेला!
आदिम प्रेमांजलि दे लें!
आओ, एक खेल खेलें!
लाहौर किला, 26 मार्च, 1934
28. वधुके उठो - 'अज्ञेय'
वधुके, उठो!
रात्रि के अवसान की घनघोर तमिस्रता में, अनागता उषा की प्रतीक्षा की अवसादपूर्ण थकान में हम जाग रहे हैं, मैं और तुम!
हमारे प्रणय की रात- हमारे प्रणय की उत्तप्त वासना-ज्वाला में डूबी हुई रात- समाप्त हो चुकी है, और दिन नहीं हुआ।
हमें अभी दिन-लाभ नहीं हुआ। फिर भी उठो, उठ कर सामने देखो, और यात्रा के लिए प्रस्तुत हो जाओ!
क्योंकि हमारे उस आग्नेय रात्रि के स्मारक इन चिह्नों को, अपने मंगल वस्त्रों पर पड़े हुए धब्बों को, देख कर खिन्न होने का समय कहाँ है? - और प्रयोजन क्या?
वधुके, वह काम पीछे आने वालों पर छोड़ो, हमें तो आगामी रात तक की लम्बी यात्रा करनी है!
वधुके, उठो!
हमारी जलायी आग जल-जल कर रात ही में कहीं बुझ गयी है, और हम घोर अन्धकार के आवरण में उलझे हुए पड़े हैं- तुम और मैं!
किन्तु यह मत भूलो कि उषा अभी नहीं आयी है; कि आरक्त प्रभातकालीन अंशुमाली ने अभी तक वेदना के विस्तार को भस्म नहीं कर डाला!
वधुके, उठो और सामने के विस्तीर्ण नीलिम आकाश में आँखें खोलो! हम- तुम क्यों प्रत्यूष के तारे के साथ रोवें?
मुलतान जेल, 8 दिसम्बर, 1933
29. सुमुखि मुझको शक्ति दे - 'अज्ञेय'
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!
घोर जन की गूँज-सा आयास जग पर छा रहा है,
दामिनी की तड़प-सा उल्लास लुटता जा रहा है-
ऊपरी इन हलचलों की आड़ में आकाश अविचल।
दे मुझे सामथ्र्य ध्रुव-सा चिर-अचंचल रह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!
शोर से पागल जगत् में घुमड़ती हैं वेदनाएँ-
घोंटती है नियति मुट्ठी वे न बाहर फूट आएँ-
बन्धनों के विश्व में, हे बन्ध-मुक्ते! हे विशाले!
दे मुझे उन्माद इतना मुग्ध सरि-सा बह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!
रो रहे हैं लोग, 'जग की चोट को हम सह न पाते-
मौत चारों ओर है,' सब ओर स्वर हैं बिलबिलाते।
तू, जिसे भव की कठिनतम चोट ने कोमल बनाया-
शक्ति दे, उद्भ धार तुझ को घात सारे सह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!
रात सारी रात रो कर ओस-कण दो छोड़ जाती,
साँझ तम में जीर्ण अपना प्राण-धागा तोड़ जाती,
मौन, असफल मौन ही फल-सा हुआ है प्राप्त जग को-
मुखर-रूपिणि! दान दे यह प्यार अपना कह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!
गहन जग-जंजाल में भी राह अपने हित निकालूँ,
उलझ काँटों में पुरानी जीर्ण केंचुल फाड़ डालूँ-
कूल-हीन असीम के उस पार तक फैला भुजाएँ-
अडिग प्रत्यय से उमड़ कर हाथ तेरा गह सकूँ मैं!
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!
दिल्ली, 23 अगस्त, 1936
30. जिह्वा ही पर नाम रहे - 'अज्ञेय'
जिह्वा ही पर नाम रहे तो कोई उस की टेर लगा ले,
शब्दों ही में बँधे प्यार तो उसे लेखनी भी कह डाले;
आँखों में यदि हृदय बसा हो करे तूलिका उस का चित्रण-
वह क्या करे जिस की रग-रग में हो आत्मदान का स्पन्दन?
मेरे कण-कण पर अंकित है प्रेयसि! तेरी अनमिट छाप-
तेरा तो वरदान बन गया मुझे मूकता का अभिशाप!
डलहौजी, 1934
31. ये सब कितने नीरस जीवन के लक्षण हैं - 'अज्ञेय'
ये सब कितने नीरस जीवन के लक्षण हैं? मेरे लिए जीवन के प्रति ऐसा सामान्य उपेक्षा-भाव असम्भव है।
सहस्रों वर्ष की ऐतिहासिक परम्परा, लाखों वर्ष की जातीय वसीयत इस के विरुद्ध है। मेरी नस-नस में उस सनातन जीवन की तीव्रता नाच रही है, उसे ले कर मैं अपने को एक सामान्य आनन्द में क्यों कर भुला दूँ?
मेरी तनी हुई शिराएँ इस से कहीं अधिक मादक अनुभूति की इच्छुक हैं, मेरी चेतना को इस से कहीं अधिक अशान्तिमय उपद्रव की आवश्यकता है। बुद्धि कहती है कि जीवन से उतना ही माँगना चाहिए जितना देने का उस में सामथ्र्य हो। बुद्धि को कहने दो। मेरा विद्रोही मन इस क्षुद्र विचार को ठुकरा देता है-'नहीं, यह पर्याप्त नहीं है...इस से अधिक- कहीं अधिक...सब...!'
इस अविवेकी, तेजोमय, भावात्मक भूख की प्रेरणा के आगे मेरी शक्ति क्या है! मैं उस की प्रलयंकारी आँधी में तृणवत् उड़ जाता हूँ।
दिल्ली जेल, 2 जुलाई, 1932
32. मेरे मित्र, मेरे सखा - 'अज्ञेय'
मेरे मित्र, मेरे सखा, मेरे एक मात्र विपद्बन्धु- आत्माभिमान! देखो, मैं ने अपने अन्तर की नारकीय वेदना छिपा दी है, मेरे मुख पर हँसी की अम्लान रेखा स्थिर भाव से खिंची है। जब तक रात्रि के एकान्त में मैं अपनी शय्या पर पड़ कर अपना मुँह नहीं छिपा लूँगा, तक तक मेरे वदन पर शान्तिमय आनन्द के अतिरिक्त कोई भाव नहीं आ पाएगा। तुम्हारा धीमा किन्तु दृढ़ स्वर मेरे साहस को बढ़ाता हुआ कहता रहेगा- 'अभी नहीं, अभी नहीं...'
उसके बाद?
मरुभूमि में जब आँधी आती है, तब पशु अपना सिर रेत में छिपा लेते हैं। उत्तप्त रेत उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचा पाती। मेरी शय्या के उस निविड एकान्त में कितनी आँधियाँ आ कर चली जायें, मेरी यह आत्मा उसी प्रकार अनाहत, अक्षत रह जाएगी।
भीगे हुए वस्त्र, या भर्रायी हुई आवाजक्या हैं? ये भी सामान्य जीवन की घटनाएँ हैं। इन में मेरा आहत अभिमान नहीं दीख पड़ेगा।
दिल्ली जेल, 2 जुलाई, 1932
33. इस विचित्र खेल का अंत - 'अज्ञेय'
इस विचित्र खेल का अन्त क्या, कहाँ, कब होगा?
विवेक कहता है, प्रत्येक घटना, जिस का कहीं आरम्भ होता है, कहीं न कहीं समाप्त होती है। तो फिर यह प्रणय, जिस का उद्भव एक मधुर स्वप्न में हुआ था, कहाँ तक चला जाएगा?
इस के दो ही अन्त हो सकते हैं: मिलन- या विच्छेद।
यहाँ कौन-सा?
मिलन? तो फिर क्यों यह घोर यातना, यह अविश्वास, यह अनिश्चय, यह ईष्र्या, यह वंचना की अनुभूति?
विच्छेद? तो फिर क्यों यह बढ़ती जाने वाली अशान्ति, यह विक्षोभ, यह उत्कट कामना, यह पागलपन?
दिल्ली जेल, 27 जून, 1932
34. आकाश में एक क्षुद्र पक्षी - 'अज्ञेय'
आकाश में एक क्षुद्र पक्षी अपनी अपेक्षा अधिक वेगवान् पक्षी का पीछा करता जा रहा है।
क्षुद्र पक्षी! तू अपने नीड़ से दूर और दूरतर होता जा रहा है, अपने विभव को खो कर उस का पीछा कर रहा है।
किन्तु वह तेजोराशि, वह ज्योतिर्माला, तुझ से आगे, तुझ से अधिक गति से उड़ी जा रही है। अनवरत चेष्टा से उस की ओर बढ़ते रहने पर भी उस में और तुझ में अन्तर बढ़ता जा रहा है...
दिल्ली जेल, 27 जून, 1932
35. अंत कब कहाँ - 'अज्ञेय'
अन्त? कब, कहाँ, किस का अन्त?
दोनों ही असम्भव...
इस बढ़ते हुए अन्तरावकाश के कारण किसी दिन वह तेजोराशि अदृश्य हो जाएगी- और तू, क्षुद्र पक्षी, तू शून्य में भटकता रह जाएगा-
शायद खो जाएगा...
पागल, तेरा खेल समाप्त नहीं होगा!
दिल्ली जेल, 27 जून, 1932
36. तुम्हीं हो क्या वह - 'अज्ञेय'
तुम्हीं हो क्या वह-
प्रोज्ज्वल रेखाओं में चित्रित ज्वाला एक अँधेरी-
पीड़ा की छाया हो मानो आशाओं ने घेरी?
सारस-गति से चली जा रहीं
मौन रात्रि में, नीरव गति से, दीपों की माला के आगे!
क्षण-भर बुझे दीप, फिर मानो पागल से हो जागे!
मानो पल-भर सुध बिसरा कर
पुलक-विकल हो तिमिर-शिखा पर अपना सब आलोक लुटा कर
हो कर निर्वृत,
चेत उठे हों,
नव जीवन में- पर जीवन भी कैसा? व्यथा एक हो विस्तृत-
विकल वेदना एक प्रकम्पित!
मुलतान जेल, 18 अक्टूबर, 1933
37. मन मुझ को कहता है - 'अज्ञेय'
मन मुझ को कहता है- मैं हूँ दीपक यह तेरे हाथों का
मुझे आड़ तेरे हाथों की, छू पावे क्यों झोंका!
राजा हूँ, ऊँचा हूँ- मुझ-सा नहीं दूसरा कोई;
फिर भी कभी न हो पाता हूँ साथ तुम्हारे मैं एकाकी-
सब विभूति जाती है खोई!
करों तुम्हारे हूँ फिर हूँ भी एक भीड़ में!
मेरा फीका-सा आलोक
डरते-डरते व्यक्त कर रहा तेरी मुख-छवि;
पर हा कितना छोटा है मेरा आलोक!
दूसरों का है भाग्य- सभी मिल दीपमालिका में साकार,
नील-अम्बरा तिमिर-शिखा को देते ज्वाला से आकार!
मुलतान जेल, 18 अक्टूबर, 1933
38. मैं हूँ खड़ा देखता - 'अज्ञेय'
मैं हूँ खड़ा देखता वह जो सारस-गति में चली जा रही,
मौन रात्रि में, नीरव गति से दीपों की माला के आगे।
क्षण-भर बुझे दीप, फिर मानो पागल से हो जागे!
मुलतान जेल, 18 अक्टूबर, 1933
39. तोड़ दूँगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान - 'अज्ञेय'
तोड़ दूँगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान!
तुम हँसो, कह दो कि अब उत्संग वर्जित है-
छोड़ दूँ कैसे भला मैं जो अभीप्सित है?
कोषवत्ï, सिमटी रहे यह चाहती नारी-
खोल देने, लूटने का पुरुष अधिकारी!
ओस चाहे, वह रहे, रवि-ताप ही चुक जाय,
फूल चाहे, लख उसे झंझा स्तिमित रुक जाय!
कूल की सिकता कहे बढ़ती लहर थम जाय,
पुरुष स्त्री की तर्जनी से पिघल कर नम जाय!
शक्ति का सहवास खो कर पुरुष मिट्टी है-
पूछता है पुरुष पर, वह शक्ति किस की है?
शक्ति के बिन व्यर्थ मेरा दृप्त जीवन-यान
क्यों न उस को बाँधने में तब लगूँ तन-प्राण?
बद्ध है मम कामना में क्षणिक तेरा हास,
मेघ-उर में ही बुझेगा दामिनी का लास!
दूर रहने की हृदय में ठानती क्या हो!
तुम पुरुष की वासना को जानती क्या हो!
मत हँसो, नारी, मुझे अपना वशीकृत जान-
तोड़ दूँगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान!
लाहौर, 17 सितम्बर, 1936
40. तितली, तितली - 'अज्ञेय'
तितली, तितली! इस फूल से उस पर, उस से फिर तीसरे पर, फिर और आगे, रंगों की शोभा लूटती, मधुपान करती, उन्मत्त, उद्भ्रान्त तितली!
मेरे इस सम्बोधन में उपालम्भ की जलन नहीं है। तितली! तुम्हारा जीवन चंचल, अस्थिर, परिवर्तन से भरा है, तुम दो पल भी एक पुष्प पर नहीं टिक सकतीं, तुम्हारी रसना एक ही रस के पान से तृप्त नहीं होती, एकव्रत तुम्हारे लिए असम्भव है किन्तु यह कह कर मैं प्रवंचना का उलाहना नहीं देना चाहता...
तुम ने यदि अपना जीवन संसार के असंख्य फूलों को समर्पित कर दिया है, तो मैं क्यों ईष्र्या करूँ? मैं ने तुम्हें गन्ध नहीं दी, तुम्हारे लिए मधु नहीं संचित किया। किन्तु तुम में गन्ध का सौरभ लेने की, मधु का स्वादन करने की, फूल-फूल कर उडऩे की, जो शक्ति है, वह तो मैं ने ही दी है! तुम्हारा यह अनिर्वचनीय सौन्दर्य, तुम्हारे पंखों पर के ये अकथ्य सौन्दर्यमय रंग- ये मेरे ही उपहार हैं। फिर मैं तुम्हारी प्रवृत्ति से ईष्र्या क्यों करूँ?
मैं मानो तुम्हारे जीवन का सूर्य हूँ। तुम सर्वत्र उड़ती हो, किन्तु तुम्हारी शक्ति का उत्स, तुम्हारे प्राणों का आधार, मैं ही हूँ- मेरी ही धूप में तुम इठलाती फिरती हो- मैं इसी को प्रतिदान समझता हूँ कि मेरे कारण तुम में इतना सौन्दर्य और इतना मधुर आनन्द प्रकट हो सकता है।
तितली, तितली!
दिल्ली जेल, 6 नवम्बर, 1932
41. जब तुम हँसती हो - 'अज्ञेय'
जब तुम हँसती हो, तब तुम मेरे लिए अत्यन्त जघन्य हो जाती हो। तब तुम मेरी समवर्तिनी नहीं, किन्तु एक तुच्छ वस्तु रह जाती हो- एक ओछा, खोखला खिलौना, एक सुन्दर, सुरूप, पर नि:सत्त्व क्षार-पुंज मात्र!
जब तुम उद्विग्न, दु:खी, तिरस्कृत और दयनीय होती हो, तभी मैं तुम्हें अत्यन्त प्रियतमा देख पाता हूँ। तभी तुम पर मेरा अत्यन्त ममत्व होता है।
सम्भवत: यह प्रेम नहीं है- सम्भवत: यह केवल एक सामथ्र्यपूर्ण दया-भाव मात्र है। पर यह भाव है जो कि तुम्हें मुझ से सम्मिलित किये हुए है...
दिल्ली, 2 मार्च, 1933
42. जान लिया तब प्रेम रहा क्या - 'अज्ञेय'
जान लिया तब प्रेम रहा क्या? नीरस प्राणहीन आलिंगन
अर्थहीन ममता की बातें अनमिट एक जुगुप्सा का क्षण।
किन्तु प्रेम के आवाहन की जब तक ओठों में सत्ता है
मिलन हमारा नरक-द्वार पर होवे तो भी चिन्ता क्या है?
लाहौर, 25 दिसम्बर, 1934
43. जब मैं तुमसे विलग होता हूँ - 'अज्ञेय'
जब मैं तुम से विलग होता हूँ, तभी मुझे अपने अस्तित्व का ज्ञान होता है।
जब तुम मेरे सामने उपस्थित नहीं होतीं, तभी मैं तुम्हारे प्रति अपने प्रेम का परिणाम जान पाता हूँ।
जब तुम दु:खित होती हो, तभी मुझे यह अनुभव होता है कि तुम्हें प्रसन्न रखना मेरे जीवन का कितना गौरवपूर्ण उद्देश्य है।
जब मैं तुम्हारे प्यार से वंचित होता हूँ, तभी यह संज्ञा जाग्रत होती है कि मेरे हृदय पर तुम्हारा आधिपत्य कितना आत्यन्तिक है।
क्योंकि तुम्हें पा लेने पर तो मैं रहता ही नहीं।
मैं उसी पक्षी की तरह हूँ जो यह जानने के लिए, कि उस का नीड़ कितना सुरक्षित है, बार-बार उस से उड़ जाता है और दूर से उस का ध्यान किया करता है।
दिल्ली जेल, 22 नवम्बर, 1932
44. मैंने अपने आप को - 'अज्ञेय'
मैं ने अपने-आप को सम्पूर्णत: तुम्हें दे दिया है। पर तुम और मैं अत्यन्त एकत्व नहीं प्राप्त कर सके।
हम मानो एक अगाध समुद्र में उतरे हुए दो गोताखोर हैं। संसार की दृष्टि में हमारा स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है- क्योंकि संसार हमें नहीं देखता, वह देखता है केवल उस प्रशान्त समुद्र की असीम बिछलन को, जिस की सीमाहीनता ही उस की एकता है।
पर हम-तुम- हम-तुम एक-दूसरे को देख सकते हैं और देखते हुए अपना अलगाव जानते हैं। संसार की दृष्टि से बहुत परे आ कर हम एक-दूसरे से अलग हो गये हैं।- और जो जल हमें संसार की दृष्टि में एक करता है वही हमारे मध्य में है और हमारे विभेद का आधार हो रहा है।
मैं ने अपने-आप को सम्पूर्णत: तुम को दे दिया है, पर तुम और मैं अत्यन्त एकत्व नहीं प्राप्त कर सके।
दिल्ली जेल, 28 दिसम्बर, 1932
45. हा वह शून्य - 'अज्ञेय'
हा वह शून्य! हाय वह चुम्बन!
किस से किस का था वह प्रणय-मिलन-
किया था किस का मैं ने चुम्बन!
तेरा या तेरे कपोल का या उस पर आँसू अमोल का
या जो उस आँसू के पीछे छिपी हुई थी विरह-जलन?
किया था किस का मैं ने चुम्बन?
या कि- आज सच ही सच कह दूँ, अपना संशय सम्मुख रख दूँ!-
तेरे मृदु कपोल पर ढलके विरह-जलन के आँसू छलके-
तेरी विरह-जलन के पीछे सोयी थी जो मेरी छाया,
आड़ उसी को ले कर मैं ने अपना आप भुलाया?
अपने से अपना था प्रणय-मिलन-
किया था किस का मैं ने चुम्बन?
हा वह शून्य! हाय वह चुम्बन!
मुलतान जेल, 30 नवम्बर, 1933
46. तुम जो सूर्य को जीवन देती हो - 'अज्ञेय'
तुम जो सूर्य को जीवन देती हो, किन्तु उस की किरणों की आभा हर लेती हो, तुम कौन हो?
तुम्हारे बिना जीवन निरर्थक है; तुम्हारे बिना आनन्द का अस्तित्व नहीं है। किन्तु तुम्हीं हो जो प्रत्येक घटना में, प्रत्येक दिवस और क्षण में पीड़ा का सूत्र बुन देती हो; तुम्हीं हो जो कि कृतित्व का गौरव नष्ट कर देती हो! तुम्हीं हो जो कि भव की पहेली का अर्थ समझ कर हमें उस से वंचित कर रखती हो!
दिल्ली जेल, 13 जनवरी, 1933
47. तुम देवी हो नहीं - 'अज्ञेय'
तुम देवी हो नहीं, न मैं ही देवी का आराधक हूँ,
तुम हो केवल तुम, मैं भी बस एक अकिंचन साधक हूँ।
धरती पर निरीह गति से हम पथ अपना हैं नाप रहे-
आगे खड़ा काल कहता है, मैं विधि, मैं ही बाधक हूँ।
विश्व हमारा दिन-दिन घिर कर सँकरा होता आता है,
प्राणों का आहत पक्षी दो पेंग नहीं उड़ पाता है।
किन्तु कभी बन्धन की कुंठा घेर सकी नभ का विस्तार?
उस का विशद मुक्ति-आवाहन तीखा होता जाता है!
लडऩा ही मेरा गौरव, मैं रण में विजयासक्त नहीं,
अपने को देने आया मैं वर का भूखा भक्त नहीं।
नहीं पसीजो, अवहेला में भी पनपेगा मेरा प्यार-
क्या घुट-घुट मरने वालों के उर होते आरक्त नहीं?
क्षण आते हैं, जाते हैं, जीवन-गति चलती जाती है-
ओठ अनमने रहें, काल की मदिरा ढलती जाती है।
घूम घुमड़ता है, फिर भी तम-पट फटता ही जाता है-
स्नेह बिना भी इस प्रदीप की बाती जलती जाती है!
मेरठ, 5 जनवरी, 1940
48. तुम में यह क्या है - 'अज्ञेय'
तुम में यह क्या है जिस से मैं डरता हूँ और घृणा करता हूँ? यह संहत छाया क्या है जिस को भेद कर मेरी दृष्टि पार तक नहीं देख सकती?
क्या यह केवल तुम्हारे गत जीवन की ही छाया है, केवल तुम्हारे जीवन का एक अंग जिस पर मेरे जीवन की छाप नहीं पड़ी- एक अंग जिस पर दूसरों का अधिकार रहा है और जिस में तुम ने दूसरों का प्यार पाया है? क्या यह तुम्हारे स्वतन्त्र और विशिष्ट आत्मा के प्रति ईष्र्या है, केवल ईष्र्या?
किन्तु मैं तुम्हारे उस गत जीवन और नष्ट प्रेम से क्यों ईष्र्या करूँ जिसे तुम ने मेरे जीवन और मेरे प्रणय के आगे ठुकरा दिया है?
मैं विजयी हूँ, मैं ने तुम्हारे भूत, वर्तमान, भविष्य को जीत लिया है, तुम्हारी इस शरीर-रूपी दिव्य विभूति पर अधिकार कर लिया है, पर अभी तक इस तत्त्व को नहीं पा सका, नहीं समझ सका।
दिल्ली जेल, 25 फरवरी, 1933
49. वह इतना नहीं - 'अज्ञेय'
वह इतना नहीं, इस से कहीं अधिक है। तुम में कोई क्रूर और कठोर तत्त्व है- तुम निर्दय लालसाओं की एक संहत राशि हो!
यही है जो कि एकाएक मानो मेरा गला पकड़ लेता है, मेरे मुख में प्यार के शब्दों को मूक कर देता है- यहाँ तक कि मैं तुम से भी अपना मुख छिपा कर अपने ओठों को तुम्हारे सुगन्धित केशों में दबा कर, अस्पष्ट स्वर में अपनी वासना की बात कहता हूँ- कह भी नहीं पाता, केवल अपने उत्तप्त श्वास की आग से अपना आशय तुम्हारे मस्तिष्क पर दाग देता हूँ।
यही जुगुप्सापूर्ण और रहस्यमयी बात है जिस के कारण मैं तुम्हारे प्रेम के निष्कलंक आलोक में भी डरता रहता हूँ...
दिल्ली जेल, 25 फरवरी, 1933
50. मैं अब सत्य को छिपा नहीं सकता - 'अज्ञेय'
मैं अब सत्य को छिपा नहीं सकता।
मैं चाहता हूँ, यह विश्वास कर सकूँ कि तुम में व्यथा का अनुभव करने का सामथ्र्य ही नहीं है; क्योंकि मेरा अपना हृदय टूट गया है, और मैं अधिक नहीं सह सकता।
मेरी इच्छा है कि तुम्हें क्रूर और अत्याचारी समझ सकूँ, क्योंकि मेरा उद्धार इसी विश्वास में है कि मैं तुम्हारी बलि हूँ।
हमने- मैं ने और तुम ने- जो भयंकर भूल की है, उस से बचने का इस के अतिरिक्त दूसरा उपाय नहीं है।
19 जुलाई, 1933
51. यह छिपाए छिपता नहीं - 'अज्ञेय'
यह छिपाये छिपता नहीं। मुझे सत्य कहना ही पड़ेगा, क्योंकि वह मेरे अन्तस्तल को भस्म कर के भी अदम्य अग्निशिखा की भाँति प्रकट होगा।
तुम्हारी दु:खित, अभिमान-भरी आँखों में मेरी आँखें वह तमिस्र संसार देख सकती हैं जो कि फूट निकलना चाहता है किन्तु निकल सकता नहीं।
तुम्हारे फिरे हुए मुख पर भी मैं पीड़ा की रेखाएँ अनुभव कर सकता हूँ-वे रेखाएँ जो कि मेरे अपने दु:खों की चेतना पर अपना चिह्न बिठा जाती हैं।
मैं भी क्रूर और अत्याचारी हूँ, मेरा हृदय भी वज्र की भाँति अनुभूतिहीन है। यही सत्य की नग्न वास्तविकता है।
19 जुलाई, 1933
52. जीवन का मालिन्य - 'अज्ञेय'
जीवन का मालिन्य आज मैं क्यों धो डालूँ?
उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ?
कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह-
जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह?
विश्व-नगर की गलियों में खोये कुत्ते-सा
झंझा की प्रमत्त गति में उलझे पत्ते-सा
हटो, आज इस घृणा-पात्र को जाने भी दो टूट-
भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!
दिल्ली जेल, 23 अक्टूबर, 1932
53. हम एक हैं - 'अज्ञेय'
हम एक हैं। हमारा प्रथम मिलन बहुत पहले हो चुका- इतना पहले कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। हम जन्म-जन्मान्तर के प्रणयी हैं।
फिर इतना वैषम्य क्यों? क्या इतने कल्पों में भी हम एक-दूसरे को नहीं समझ पाये?
प्रेम में तो अनन्त सहानुभूति और प्रज्ञा होती है, वह तो क्षण-भर में परस्पर भावों को समझ लेता है, फिर इतने दीर्घ मिलन के बाद भी यह अलगाव का भाव क्यों?
दिल्ली जेल, 17 जुलाई, 1932
54. यह एक कल्पना है - 'अज्ञेय'
यह एक कल्पना है किन्तु इस काल्पनिक सिद्धान्त की पुष्टि जीवन की अनेक घटनाएँ करती हैं।
विधाता ने प्रेम-रज्जु में एक विचित्र गाँठ लगा रखी है- जो सदा अटकी रहती है। चिरकाल के प्रेमियों में भी एक स्वभाव-वैषम्य रहता है- जिसे दोनों समझ कर भी दूर नहीं कर सकते। यही उन के प्रणय की दृढ़ता और उस की कम जोरी है।
यह उन्हें जन्म-जन्मान्तर से एक-दूसरे की ओर आकर्षित करता है पर कैवल्य नहीं प्राप्त करने देता। जब वे एक-दूसरे के अत्यन्त समीप आ जाते हैं तब वह प्रकट हो कर उन्हें फिर विलग कर देता है, और आकर्षण की क्रिया पुन: आरम्भ हो जाती है। इस प्रकार सान्निध्य और दूरत्व में, मिलन और विच्छेद में, जन्म के बाद जन्म, युग के बाद युग, कल्प के बाद कल्प बीत जाते हैं। और एक चिरन्तन, नित्य तृष्णा की तरह दोनों आत्माएँ एक-दूसरे की चाह में छटपटाती रहती हैं, और प्रेम के ज्वालामय अमृत का, विषाक्त शान्ति का, पान करती रहती हैं...
परमाणु के केन्द्रक के आस-पास इलेक्ट्रान की परिक्रमा से ले कर विश्वकर्मा की सर्वोत्कृष्ट कृति मानव हृदय की क्रियाओं तक में यही तथ्य निहित है...
दिल्ली जेल, 17 जुलाई, 1932
55. अपने प्रेम के उद्वेग में - 'अज्ञेय'
अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुम से कहता हूँ, वह सब पहले कहा जा चुका है।
तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ, वह सब भी पहले हो चुका है।
तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है उस से तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति मात्र होती है- कि यह सब पुराना है, बीत चुका है, कि यह अभिनय तुम्हारे ही जीवन में मुझ से अन्य किसी पात्र के साथ हो चुका है!
यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!
दिल्ली जेल, 16 मार्च, 1933
56. छलने! तुम्हारी मुद्रा खोटी है - 'अज्ञेय'
छलने! तुम्हारी मुद्रा खोटी है।तुम मुझे यह झूठे सुवर्ण की मुद्रा देते अपने मुख पर ऐसा दिव्य भाव स्थापित किये खड़ी हो! और मैं तुम्हारे हृदय में भरे असत्य को समझते हुए भी चुपचाप तुम्हारी दी हुई मुद्रा को स्वीकार कर लेता हूँ।
इसलिए नहीं कि तुम्हारी आकृति मुझे मोह में डाल देती है- केवल इस लिए कि तुम्हारे असत्य कहने की प्रकांड निर्लज्जता को देख कर मैं अवाक् और स्तिमित हो गया हूँ।
दिल्ली जेल, 16 अगस्त, 1932
57. चुक गया दिन - 'अज्ञेय'
'चुक गया दिन'—एक लम्बी साँस
उठी, बनने मूक आशीर्वाद—
सामने था आर्द्र तारा नील,
उमड़ आई असह तेरी याद!
हाय, यह प्रति दिन पराजय दिन छिपे के बाद!
चम्पानेर (रेल में), 23 सितम्बर, 1939
58. इंदु तुल्य शोभने - 'अज्ञेय'
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
हीरक-सी थी तू अतिशय ज्योतिर्मय, तेरी उस आभा ने मुझे भुलाया।
हीरक है पाषाण- अधिक काठिन्यमय! आज जान मैं पाया!
आज- दर्प जब चूर्ण हो चुका तेरे चरण तले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीलते!
बार-बार अब आ कर कहता संशय-
तू नत था इस वज्रखंड के सम्मुख
मैं था? या प्राणों में कोई दानव दुर्जय, दुर्निवार, प्रलयोन्मुख!
अब, जब मेरे जीवन-दीपक बुझ-बुझ सभी चले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
लाहौर किला, 15 मार्च, 1934
59. किंतु छलूँ क्यों अपने को फि - 'अज्ञेय'
किन्तु छलूँ क्यों अपने को फिर?
दानव की छाया में अपनी हार छिपाऊँ?
मैं ही था वह, तेरी पूजा को चिर-तत्पर,
क्यों इस स्वीकृति से घबराऊँ?
मैं हूँ दलित, किन्तु जीवन आरम्भ तभी तब जाएँ छले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
मेरे लिए आज तू पुंजीभूता तड़पन;
फिर भी मेरा मस्तक गौरव-उन्नत!
अथक प्रयोगों में ही बसता जीवन...
साहस को करती है हार प्रमाणित!
मम विजयी पीड़ा की व्यंजक, अरी पराजय-प्रोज्ज्वले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
लाहौर किला, 15 मार्च, 1934
60. मैं था कलाकार - 'अज्ञेय'
मैं था कलाकार, सर्वतोन्मुखी निज क्षमता का अभिमानी।
मेरे उर में धधक रही थी अविरल एक अप्रतिम ज्वाला।
तुझे देख कर मुझे कला ने ही ललकारा-
तू विजयी यदि इस प्रस्तर-प्रतिमा में तूने जीवन डाला।
दीपन की ज्योतिर्मालाएँ, प्रोज्ज्वल तेज:पुंज उठाये:
मैं ने देखा, तेरा कण-कण किसी दीप्ति से दमक रहा था।
तुष्ट हुआ मैं- हाय दर्प! अब जाना मैं ने-
वह तो प्रतिज्योति से तेरा स्निग्ध बाह्य-पट चमक रहा था!
सुन्दरता है बड़ी कला से! हार हुई, मैं भुगत रहा हूँ;
किन्तु विधाता का उपहास-भरा अन्याय हुआ यह कैसा?
प्रस्तर! नहीं एक चिनगारी तक भी तुझ में जागी-
पर मेरे उर में चुभता है स्पन्दित शिलाखंड यह कैसा!
पुष्प-वृन्त-तुल्य रम्य लौह-शृंखले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
लाहौर किला, 15 मार्च, 1934
61. मैं तुम्हें किसी भी वस्तु की - 'अज्ञेय'
मैं तुम्हें किसी भी वस्तु की असूया नहीं करता- किन्तु तुम सब कुछ ले कर चली-भर जाओ, मेरे जीवन में से सदा के लिए लुप्त हो जाओ!
तुम ने मुझे वेदना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिया; मुझ में वही वेदना जम कर और वद्र्धमान हो कर पुष्पित हो गयी है।
तुम चाहो, तो उन पुप्पों को तोड़ ले जाओ, जो वस्तु मैं ने अपने जीवन की अग्नि में तपा कर और भस्म करके सिद्ध की है उसे अभिमानपूर्वक, सदर्प ले जाओ, जैसे कोई सम्राज्ञी किसी दास का तुच्छ उपहास ग्रहण करती है- किन्तु ले कर फिर बस चली-भर जाओ, मेरे जीवन के क्षितिज से परे, जहाँ तुम्हारे उत्ताप का आलोक भी मेरे दृष्टिगोचर न हो!
दिल्ली जेल, 26 फरवरी, 1933
62. इस प्रलयंकर कोलाहल में - 'अज्ञेय'
इस प्रलयंकर कोलाहल में मूक हो गया क्यों तेरा स्वर?
एक चोट में जान गया मैं- यह जीवन-अणु कितना किंकर!
झुकने दो जीवन के प्यासे इस मेरे अभिमानी मन को-
आओ तो, ओ मेरे अपने, चाहे आज मृत्यु ही बन कर!
1938
63. बाहर थी तब राका छिटकी - 'अज्ञेय'
बाहर थी तब राका छिटकी!
यदि तेरा इंगित भर पाता, क्यों विभ्रम में बाहर आता?
प्रेयसि! तुम ही कुछ कह देतीं, तब जब थी मेरी मति भटकी!
पुरुष? तर्क का कठपुतला-भर, स्त्री- असीम का अन्त:निर्झर!
पर मैं तब भी रोया था यद्यपि, मेरी जिह्वा थी अटकी!
बाहर रूठ चला मैं आया- अब जाना, धोखा था खाया-
अब, जब एक असीम रिक्तता प्राणों के मन्दिर में खटकी!
बाहर थी तब राका छिटकी!
लाहौर, 20 दिसम्बर, 1934
64. वह प्रेत है - 'अज्ञेय'
वह प्रेत है, उस में तर्क करने की शक्ति नहीं है। जिस भावना को ले कर वह इस रूप में आया है, उसे अब दूर करने में वह असमर्थ है।
किन्तु जितनी अच्छी तरह वह इस पूर्व-भावना की सहायता से अपने को समझ सकता है, उस से कहीं अधिक अच्छी तरह उस की एक अप्रकट संज्ञा समझती है...
तुम उसे कितनी प्रिय थीं- फिर क्यों उस के इच्छा काल में नहीं आयीं?
अब चली जाओ। समय पर तुम्हारे न आने से जितना कष्ट हुआ था, उस से कहीं अधिक तुम्हारे अब आने से हो रहा है। यदि इस के आघात की इयत्ता को वह नहीं जानता, तो केवल इसीलिए कि वह प्रेत है।
वह अब आकृष्ट नहीं होता- यद्यपि उस में विरक्ति भी नहीं है, ग्लानि भी नहीं। उस में है केवल अपने पूर्व रूप की एक भावना- कि तुम अप्राप्य हो, इच्छा करने पर भी नहीं मिलोगी, कि उस का सारा आकाश भर कर भी तुम सहसा चली जाओगी। इस से अपनी रक्षा के लिए ही वह कवच धारण किये खड़ा है।
वह जो संसार की विभूति को पाकर भी सिकता-कण से ध्यान नहीं हटा पाता, उस का यही कारण है।
दिल्ली जेल, 9 जुलाई, 1932
65. क्षण भर पहले ही आ जाते - 'अज्ञेय'
क्षण-भर पहले ही आ जाते!
प्राण-सुधा को क्या तुम सब ऐसी बिखरी ही पाते!
भरी-भरी आँखों के प्यासे-प्यासे सूने आँसू...
नहीं तुम्हारे ही चरणों क्या लोट-लोट लुट जाते!
हाय तुम्हारे पथ में आँखें अनझिप बिछ-बिछ जातीं-
आँसू उड़-उड़ कर समीर से परिमल-से छा जाते!
उर में होता क्यों अवसाद? सिसकती अगणित आहें!
तब तो मेरे प्राण प्राण-भर अपने में न समाते!
आज लग रहा क्षण-क्षण युग-सा, पर यदि-यदि कुछ होता,
इस क्षण में ही कितने युग-युग, हाय, क्षणिक हो जाते!
देखे हैं क्या कभी शिशिर के सूखे पत्ते-
मधु में मधु के एक घूँट के लिए तरसते?
विफल प्रतीक्षा में ही उनके सुलग रहे होते हैं प्राण,
क्षण-भर-फिर एकाएकी हो जाता उन का जीवन-त्राण!
फिर यदि झोंका आया- क्या आया!
मलय-समीरण लाया- क्या लाया!
जीवन की असफलता का है वह निर्णायक-
वही एक क्षण उन का भाग्य-विधायक!
क्षण-भर पहले- चरणों में आ कर मरते हैं-
क्षण-भर पीछे- चरणों में मर कर गिरते हैं!
उसे सोच लो, मुझे देख लो, और मौन रह जाओ-
यह मत पूछो क्षण-भर पहले तुम मुझ को क्या पाते!
क्षण-भर पहले ही आ जाते!
मुलतान जेल, 20 नवम्बर, 1933
66. देवता - 'अज्ञेय'
देवता! मैं ने चिरकाल तक तुम्हारी पूजा की है। किन्तु मैं तुम्हारे आगे वरदान का प्रार्थी नहीं हूँ।
मैं ने घोर क्लेश और यातना सह कर पूजा की थी। किन्तु अब मुझे दर्शन करने का भी उत्साह नहीं रहा। पूजा करते-करते मेरा शरीर जर्जर हो गया है, अब मुझ में तुम्हारे वरदान का भार सहने की क्षमता नहीं रही।
मैं ने तुम्हें अपनी आराधना से प्रसन्न-भर कर लिया है। अब अत्यन्त जर्जर हो गया हूँ और कुछ चाहता नहीं; किन्तु पूर्वाभ्यास के कारण अब भी आराधना किये जा रहा हूँ।
दिल्ली जेल, 17 जुलाई, 1932
67. मैं अपने अपनेपन से - 'अज्ञेय'
मैं अपने अपनेपन से मुक्त हो कर, निरपेक्ष भाव से जीवन का पर्यवलोकन कर रहा हूँ।
एक विस्तृत जाल में एक चिड़िया फँसी हुई छटपटा रही है। पास ही व्याध खड़ा उद्दंड भाव से हँस रहा है।
चिड़िया को फँसी और छटपटाती देख कर मुझे पीड़ा और समवेदना नहीं होती, मैं स्वयं वह चिड़िया नहीं हूँ। न ही मुझे सन्तोष और आह्लाद होता है-मैं व्याध नहीं हूँ। मुझे किसी से भी सहानुभूति नहीं है। मैं तुम्हारी माया के जाल को दूर से देखने वाला एक दर्शक हूँ।
मैं अपने अपनेपन से मुक्त हो कर, निरपेक्ष भाव से अपने जीवन का पर्यवलोकन कर रहा हूँ।
दिल्ली जेल, 18 दिसम्बर, 1932
68. कल मुझ में उन्माद जगा था - 'अज्ञेय'
कल मुझ में उन्माद जगा था, आज व्यथा नि:स्पन्द पड़ी-
कल आरक्त लता फूली थी, पत्ती-पत्ती आज झड़ी।
कल दुर्दम्य भूख से तुझ को माँग रहे थे मेरे प्राण-
आज आप्त तू, दात्री, मेरे आगे दत्ता बनी खड़ी।
अपना भूत रौंद पैरों से, बन विकास की असह पुकार-
अपनों को ठुकरा कर मात्र पुरुष आया था तेरे द्वार।
तू भी उतनी ही असहाया, उसी प्रेरणा से आक्रान्त-
तुझ में भी तब जगा हुआ था वह ज्वालामय हाहाकार!
वह कल था, जब आगे था भावी, प्राणों में थी ज्वाला-
आज पड़ा है उस के फूलों पर तम का पट, घन काला!
वह यौवन था, जिस के मद में दोनों ने उन्मद हो कर-
इच्छा के झिलमिल प्याले में अनुभ-हालाहल ढाला!
अमर प्रेम है, कहते हैं, तब यह उत्थान-पतन कैसा?
स्थिर है उस की लौ, तब यह चिर-अस्थिर पागलपन कैसा?
वह है यज्ञ जो कि श्वासों की अविरल आहुतियाँ पा कर-
जला निरन्तर करता है, तब यह बुझने का क्षण कैसा?
सोचा था जग के सम्मुख आदर्श नया हम लाते हैं-
नहीं जानता था कि प्यार में जग ही को दुहारते हैं।
जग है, हम हैं, होंगे भी, पर बना रहा कब किस का प्यार?
केवल इस उलझन के बन्धन में बँध-भर हम जाते हैं
कल ज्वाला थी जहाँ आज यह राख ढँपी चिनगारी है,
कल देने की स्वेच्छा थी अब लेने की लाचारी है।
स्वतन्त्रता में कसक न थी, बन्धन में है उन्माद नहीं-
रो-रो जिये, आज आयी हँस-हँस मरने की बारी है!
कल था, आज हुआ है, कल फिर होगा, हैं शब्दों के जाल-
मिथ्या, जिन की मोहकता में, हम को बाँध रहा है काल।
फिर भी सत्य माँगते हैं हम, सब से बढ़ कर है यह झूठ-
सत्य चिरन्तन है भव के पीछे जा हँसता है कंकाल!
मुलतान जेल, नवम्बर, 1933
69. मैं आम के वृक्ष की छाया में - 'अज्ञेय'
मैं आम के वृक्ष की छाया में लेटा हुआ हूँ। कभी आकाश की ओर देखता हूँ, कभी वृक्ष में फूटती हुई छोटी-छोटी आमियों की ओर। किन्तु मेरा मन शून्य है।
मेरे मन में कोई साकार कल्पना नहीं जाग्रत होती। मैं मानो एकाग्र हो कर किसी वस्तु का ध्यान कर रहा हूँ; किन्तु वह वस्तु क्या है यह मैं स्वयं नहीं जानता। मैं असम्बद्ध रीति पर भी कुछ नहीं सोच पाता; स्थूल वस्तुओं का जो प्रतिबिम्ब मेरी आँखों में बनता है उस की अनुभूति मेरे मस्तिष्क को नहीं होती। मैं मानो निर्लिप्त, निर्विकार पड़ा हुआ हूँ- समाधिस्थ बैठा हूँ।
किन्तु इस समाधि से मेरे मन को शान्ति या विश्राम नहीं प्राप्त होता, मेरी मन:शक्ति में वृद्धि नहीं होती। मैं केवल एक क्षीण उद्वेग से भरा रह जाता हूँ।
यह एक जड़ अवस्था है, इस लिए इसमें स्थायित्व नहीं हो सकता। आज ऐसा हूँ, कल मेरा मन एकाएक जाग उठेगा और अपनी सामान्य दिनचर्या में लग जाएगा। जागने पर भी उसमें वह पूर्ववत् स्फूर्ति नहीं आएगी; वह असाधारण प्रकांड चेष्टा करने की इच्छा नहीं होगी। केवल एक आन्तरिक अशान्ति, एक उग्र दुर्दमनीय कामना फिर जाग उठेगी, और उस की पूर्ति को असम्भव जानते हुए भी मैं विवश हो जाऊँगा...उन्मत्त-सा इधर-उधर भटकने लगूँगा।
किन्तु वह अवस्था चेतन होगी, इसलिए उसमें स्थायित्व भी होगा।
दिल्ली जेल, 10 जुलाई, 1932
70. स्वर्गंगा की महानता में - 'अज्ञेय'
स्वर्गंगा की महानता में
अप्रतिहत गति से प्रतिकूल दिशा में
चले जा रहे थे दो तारे।
दोनों एकाएक परस्पर
आकर्षित हो, वद्र्धमान गति से निज पथ से हट कर
खिंचे चले आये बेचारे।
प्रेरक शक्ति रहस्यमयी-से हो कर
प्रतिकूलता भुला कर, निज स्वाभाविक गति को खो कर,
नियति वज्र के मारे।
अति समीप आ दोनों पहुँचे,
अपनी गति से जनित तेज को नहीं सह सके
पिघले- भस्म हो गये- क्षार हो गये सारे!
क्षार-पुंज भी शीघ्र खो गया शून्य व्योम में
व्यंजक उन के प्रबल प्रणय का
एकमात्र स्मृति-चिह्न रहा क्या?
नीरव, प्रोज्ज्वल एक क्षणिक विस्फोट मात्र!
उस के बाद? वही स्वर्गंगा का प्रवाह
तिरस्कार से भरा- निश्चला अमा रात्रि!
हम-तुम भी- प्रतिकूल प्रकृतियाँ,
विषम स्वभाव, और अति उत्कट रुचियाँ-
किस अज्ञात प्रेरणा से दोनों थे खिंचे चले आये-
कितना निकट चले आये!
किन्तु न अपने प्रणय-तेज को भी सह पाये-
शून्य में गये भुलाये!
दिल्ली जेल, 5 जून, 1932
71. दीप बुझ चुका - 'अज्ञेय'
दीप बुझ चुका, दीपन की स्मृति शून्य जगत् में छुट जाएगी;
टूटे वीणा-तार, पवन में कम्पन-लय भी लुट जाएगी;
मधुर सुमन-सौरभ लहरें भी होंगी मूक भूत के सपने-
कौन जगाएगा तब यह स्मृति- कभी रहे तुम मेरे अपने?
तारा-कम्पन? नित्य-नित्य वह दिन होते ही खो जाता है-
सलिला का कलरव भी सागर-तट पर नीरव हो जाता है;
पुष्प, समीरण, जीवन-निधियाँ- तुम में उलझेंगी क्यों सब ये-
भूले हुए किसी की कसक जगा कर दीप्त करेंगी कब ये!
पर, ऐसे भी दिन होंगे जब स्मृति भी मूक हो चुकी होगी?
जब स्मृति की पीड़ा भी अपना अन्तिम अश्रु रो चुकी होगी?
उर में कर सूने का अनुभव, किसी व्यथा से आहत हो कर-
मैं सोचूँगा, कब, कैसे किसने बोया था इस का अंकुर!
और नहीं पाऊँगा उत्तर-
हाय, नहीं पाऊँगा उत्तर!
डलहौजी, 18 अगस्त, 1934
72. मैं केवल एक सखा चाहता था - 'अज्ञेय'
मैं केवल एक सखा चाहता था।
मेरे हृदय में अनेकों के लिए पर्याप्त स्थान था। संसार मेरे मित्रों से भरा पड़ा था। किन्तु यही तो विडम्बना थी- मैं असंख्य मित्र नहीं चाहता था, मैं चाहता था केवल एक सखा!
नियति ने मुझे वंचित रखा। इसलिए नहीं कि मैं ने कामना नहीं की, या खोज में यत्नशील नहीं हुआ। कितनी उग्र कामना की थी! और प्रयत्न? मैं ने इसी खोज में विश्व छान डाला और आज यहाँ हूँ...
दिल्ली जेल, 1 अगस्त, 1932
73. नहीं, नियति को दोष क्यों दूँ - 'अज्ञेय'
नहीं, नियति को दोष क्यों दूँ? कारण कुछ और था।
मेरे ही हृदय में कुछ ऐसा कठोर, ऐसा अस्पृश्य, ऐसा प्रतारणापूर्ण विकर्षण था। वह कठोर था, किन्तु सूक्ष्म; निराकार था किन्तु अभेद्य...मेरे समीप आकर भी कोई मुझ में अभिन्न नहीं हो सकता था। उस अज्ञेय सत्त्व पर किसी का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था।
वह था क्या? अहंकार?
नहीं, वह था अपने बल का अदम्य अभिमान...कि मैं केवल पुरुष नहीं, केवल मानव नहीं, एक स्वतन्त्र और सक्रिय शक्ति हूँ।
दिल्ली जेल, 1 अगस्त, 1932
74. पता नहीं कैसे - 'अज्ञेय'
पता नहीं कैसे, तुम मेरे बहुत समीप आ पायी थीं...और अस्थायी अत्यन्त सान्निध्य में मैं काँप गया था, किन्तु तुम कितनी जल्दी परे चली गयीं?
मेरा जीवन क्या हो सकता है वह देख कर मैं फिर अपने पुराने भव में लौट आया हूँ। मुझे वह प्राण-सखा नहीं मिला।
कितना अच्छा होता, अगर ये मित्र भी न मिलते, अगर इस आंशिक पूर्ति से वह अनन्त आपूर्ति की संज्ञा अधिक जाग्रत न हो पाती!
दिल्ली जेल, 1 अगस्त, 1932
75. हमारी कल्पना के प्रेम में - 'अज्ञेय'
हमारी कल्पना के प्रेम में, और हमारी इच्छा के प्रेम में, कितना विभेद है!
दो पत्थर तीव्र गति से आ कर एक दूसरे से टकराते हैं, तो दोनों का आकार परिवर्तित हो जाता है। किन्तु वे एक नहीं हो जाते। प्रतिक्रिया के कारण एक-दूसरे से परे हट कर फिर स्थिर हो जाते हैं।
तो फिर हमारी प्रेम की कल्पना में क्यों इस अत्यन्त ऐक्य- कैवल्य-की कामना रहती है?
बिना स्वतन्त्र अस्तित्व रखे प्रेम नहीं होता। यदि मैं अपने को तुम में खो दूँ, तो तुम से प्रेम नहीं कर सकँूगा। वह केवल प्रेम की ज्वाला से बच भागने का एक साधन है...
किन्तु ज्ञान की इस प्रखर किरण से भी अप्राप्ति का वह दुभेद्य अन्धकार कैसे मिटाऊँ?
दिल्ली जेल, 1 अगस्त, 1932
76. जीवन बीता जा रहा है - 'अज्ञेय'
जीवन बीता जा रहा है। प्रत्येक वस्तु बीती जा रही है।
हम ने कामना की थी, वह बीत गयी। हम ने प्रेम करना आरम्भ किया, पर वह भी बीत गया। हम विमुख हो गये, एक-दूसरे से घृणा करने लगे, फिर उस की भी निरर्थकता प्रकट हुई, और फिर वह ज्ञान भी बीत गया।
शीघ्र ही हम भी बीत जाएँगे, तुम और मैं। शीघ्र इस जीवन का ही अन्त हो जाएगा।
किन्तु इस अनन्त नश्वरता में एक तथ्य रह जाएगा- नकारात्मक तथ्य, किन्तु तथ्य- कि एक क्षण-भर के लिए हम-तुम इस निरर्थक तुमुल के अंश नहीं रहे थे, कि उस क्षण-भर के लिए हम-तुम दोनों ने अपने को पूर्णतया मटियामेट कर दिया था।
दिल्ली जेल, 7 दिसम्बर, 1932
77. इस परित्यक्त केंचुल की ओर - 'अज्ञेय'
इस परित्यक्त केंचुल की ओर घूम-घूम कर मत देखो। यह अब तुम्हारा शरीर नहीं है।
अपने नये शरीर में चेतनामय स्फूर्ति के स्पन्दन का अनुभव करो, शिराओं में उत्तप्त रक्त की ध्वनि सुनो, अपनी आकृति में अभिमान-पूर्ण पौरुष को देखो! यह सब पा कर भी क्या तुम उस निर्जीव लोथ से, जिस का तुमने परित्याग कर दिया है, अपने मन को नहीं हटा सकते?
अपने विध्वस्त निवास का अब ध्यान मत करो!
नैसर्गिक कृति के विशाल प्रस्तार को देखो, शीतल पवन की तीक्ष्ण मनुहार का अनुभव करो, उन्मत्त गजराज की तरह बढ़ते हुए जल-प्रपातों का रव सुनो, और रस में अपना नया वासस्थान पहचानो!
अपने पुराने विध्वस्त निवास के निरर्थक भग्नखंडों की ओर इस लालसा-पूर्ण दृष्टि से मत देखो!
दिल्ली जेल, 21 नवम्बर, 1932
78. नहीं देखने को उसका मुख - 'अज्ञेय'
नहीं देखने को उस का मुख किंचित् भी हो तुम उत्सुक,
फिर क्यों, प्रणयी, निकट जान कर उस को, हो उठते हो चंचल?
क्या केवल आँखों में संचित दृप्त व्यथा कर, होने प्रस्तुत;
जिस से वह न जानने पाये हृदय तुम्हारे का कोलाहल?
पूर्व-प्रेम अब सुला चुके हो, आकर्षण को भुला चुके हो,
फिर क्यों प्रणयी, विजन स्थलों में उस से मिलने को हो व्याकुल?
केवल उसे समीप देख कर मूक दर्प से आँख फेर कर,
बढ़े चले जाने को, ठुकराते चिर-परिचय को, ओ पागल?
प्रणयी! समझे होंगे जल के नीचे होगा ही सागर-तल-
कब जानोगे सागर-तल में ज्वलित सदा रहता बड़वानल?
दिल्ली जेल, 3 नवम्बर, 1932
79. मेरे गायन की तान - 'अज्ञेय'
मेरे गायन की तान टूट गयी है।
मैं चुप हूँ, पर मेरा गायन समाप्त नहीं हुआ, केवल तान मध्य में टूट गयी है।
मुझे याद नहीं आता कि मैं क्या गा रहा था- कि तान कहाँ टूट गयी। और जितना ही याद करता हूँ, उतना ही अधिक वह झूलती जाती है, और उतना ही मेरी उतावली अधिक उलझती जाती है।
पर मैं अभी क्षण-भर में उसे खोज लूँगा।
वह भूलेगी कैसे? मैं ने ही तो उसे अभी गाया था!
तेरे द्वार पर तो मैं केवल इसलिए खड़ा हूँ कि शायद तू कभी किसी भावातिरेक में एकाएक वही गा उठे जो मैं गा रहा था- और तब मैं भूली हुई तान फिर याद कर के गाने लगूँ- और चिरकाल तक गाता जाऊँ!
मेरे गायन की तान टूट गयी है।
मुलतान जेल, 22 दिसम्बर, 1933
80. ऊषा अनागता - 'अज्ञेय'
ऊषा अनागता, पर प्राची में जगमग तारा एकाकी;
चेत उठा है शिथिल समीरण:
मैं अनिमिष हो देख रहा हूँ यह रचना भैरव छविमान!
दूर कहीं पर, रेल कूकती, पीपल में परभृता हूकती,
स्वर-तरंग का यह सम्मिश्रण
जाने जगा-जगा क्यों जाता उर में विश्व-स्नेह का ज्ञान!
वस्तु मात्र की सुन्दरता से, जीवन की कोमल कविता से,
भरा छलकता मेरा अन्तर-
किन्तु विश्व की, इस विपुला आभा में कहीं न तेरा स्थान!
भुला-भुला देती यह माया कहाँ तुझे मैं हूँ खो आया-
यदपि सोचता बड़े यत्न से;
बिखर-बिखर जाते विचार हैं पा कर यह आकाश महान!
दिल्ली जेल, 4 नवम्बर, 1932
81. आज चल रे तू अकेला - 'अज्ञेय'
आज चल रे तू अकेला!
आज केंचुल-सा स्खलित हो असह माया का झमेला!
जगत् की क्रीड़ा-स्थली में संगियों के साथ खेला-
सघन कुंजों में पड़े तूने स्त्रियों का प्यार झेला-
आज वह आया बुलाने जो सदा निस्संग ही है-
कूच का सामान कर अब आ गयी प्रस्थान बेला!
दु:ख कैसा? मोह क्यों? क्या सोचता अपना-पराया?
बेधड़क हो साथ ले चल जो कभी तू साथ लाया!
जिन्दगी के प्रथम क्षण में चीख कर तू रो उठा था-
आज भी क्या वह कलपना ही तुझे बस याद आया?
हाँ, जगत् तेरे बिना आबाद वैसा ही रहेगा-
दूसरों के कान में वह दास्ताँ अपनी कहेगा।
तू न मुड़-मुड़ देख, धीरज धार अब अपने हृदय में-
कौन आ कर हाथ तेरा इस निविड पथ पर गहेगा?
घूम कर पथ देखने वाले अनेकों और आये-
मूक हो कर बढ़ गये, सब एक आँसू बिन गिराये:
भर नजर लख, जान लेते वे कि यह हो कर रहेगा-
कौन कैसे लौट सकता काल जब आगे बुलाये?
पथ स्वयं ही काल है, गुरु और शासक भी वही है,
उस तरुण के वृद्ध हाथों में खिलौना-सी मही है।
धीर गति से वह बदलता जा रहा नित खेल के पट-
चित्रता पर उस चतुर की आज तक यकसाँ रही है!
जन्म जाने मूढ़! तूने कौन-से तम में लिया था,
किस अँधेरी रात में अभिसार का अभिनय किया था!
आज संचित स्नेह के तू कोष खोल उदार हो जा-
जोड़ मत अब, सोच मत अब क्या किसे तूने दिया था
ज्योति अन्तिम अब जला ले दो घड़ी कर ले उजेला-
आज चल रे तू अकेला!
आगरा, नवम्बर, 1936
82. मेरे आगे तुम ऐसी खड़ी - 'अज्ञेय'
मेरे आगे तुम ऐसी खड़ी हो मानो विद्युत्कणों का एक पुंज साकार हो कर खड़ा हो। तुम वास्तविक होती हुई भी सात्त्विक नहीं जान पड़तीं-क्योंकि तुम में स्थायित्व नहीं है।
फिर भी, मेरे अन्दर कोई शक्ति तुम्हारी ओर आकृष्ट होती है और तुम्हें सामने देख कर, तुम से सान्निध्य का अनुभव न करते हुए, तुम्हें न जानते हुए भी, मेरे अन्त:सागर में उथल-पुथल मचा देती है!
दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932
83. मैं तुम्हें जानता नहीं - 'अज्ञेय'
मैं तुम्हें जानता नहीं।
तुम किसी पूर्व परिचय की याद दिलाती हो, पर मैं बहुत प्रयत्न करने पर भी तुम्हें नहीं पहचान पाता।
मुझे नया जीवन प्राप्त हुआ है। कभी-कभी मन में एक अत्यन्त क्षीण भावना उठती है कि जिस पंक से निकल कर मैं ने यह नवीन जीवन प्राप्त किया है, तुम उसी पंक का कोई जन्तु हो। जो केंचुल मैं ने उतार फेंकी है, तुम उसी का कोई टूटा हुआ अवशेष हो।
इसके अतिरिक्त भी हमारा कोई परिचय या सम्बन्ध है, यह मैं किसी प्रकार का अनुभव नहीं कर पाता।
(केवल ऐसा कहते-कहते मेरी जिह्वा रुक जाती है और कंठ रुद्ध हो जाता है।)
दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932
84. मैं अपने पुराने जीर्ण शरीर से - 'अज्ञेय'
मैं अपने पुराने जीर्ण शरीर से मुक्त हो गया हूँ।
नया जीवन पाने के उन्माद-मिश्रित आह्लïाद में भी मुझे यह बात नहीं भूलती-नवीन जीवन की प्राप्ति भी उतनी सुखद नहीं है जितना यह ज्ञान कि मेरा पुराना जीवन नष्ट हो गया है। नये जीवन के प्रति मुझे अभी तक मोह नहीं हुआ-अभी तो मुझे इसी अनुभूति से अवकाश नहीं मिला कि मैं मुक्त हूँ-कि मेरा जीवन निर्बाध है।
(कभी जब तुम मेरे निकट आयी थीं-तब ऐसा नहीं था। तब मैं इस नूतनता के भाव में यह भी भूल गया था कि मेरा तुम से स्वतन्त्र अस्तित्व है!)
दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932
85. यह नया जीवन कहाँ से आया - 'अज्ञेय'
यह नया जीवन कहाँ से आया?
संसार-भर के संजीवन की एक उन्मत्त लहर बही जा रही है। लहर नहीं, अनबुझ आग की एक लपट धधकती हुई जा रही है! उसी की एक झलक मुझे मिली है-एक किरण मुझे भी छू गयी है।
यह कवि-कल्पना के वसन्त की चमक-दमक नहीं है-न शरद् ऋतु के रवि का क्षीण घाम ही है। इस में उन-सा क्षुद्र सौन्दर्य नहीं है-इस में निर्बाध व्यापकत्व की भैरवता है-और उत्तप्त आलोक!
(इस संजीवन-सागर में भी तुम मृत्यु नहीं, मृत्यु की छाया की तरह मँडरा रही हो!)
दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932
86. व्यष्टि जीवन का अंधकार - 'अज्ञेय'
व्यष्टि-जीवन का अन्धकार!
इसी नयी भावना के व्यापकत्व में भी मैं अपने को भुला नहीं पाता, मेरी संज्ञा केवल उस संजीवन के एक अंश तक सीमित है जो मुझे प्राप्त हुआ है। अपनी इस क्षुद्र संज्ञा से मैं निर्बाधता नापता हूँ; और समझता हूँ कि उस से एकरूप हूँ। मैं यह नहीं समझ सकता कि मैं उस के एक अंश से ही पागल हूँ-उसके व्यापकत्व को समझ भी नहीं पाया।
पुराने जीवन की रूढि़ ने अभी तक मुझे नहीं छोड़ा- व्यष्टि-भाव अभी भी अज्ञात रूप से मुझे भुला देता है।
दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932
87. विज्ञान का गंभीर स्वर - 'अज्ञेय'
विज्ञान का गम्भीर स्वर कहता है, विश्व का प्रस्तार धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है-विश्व सीमित होते हुए भी धीरे-धीरे फैलता जा रहा है।
दर्शन का चिन्तित स्वर कहता है, मनुष्य का विवेक धीरे-धीरे अधिकाधिक प्रस्फुटित होता जा रहा है।
फिर यह चेतन संज्ञा, यह मनोवेग क्यों संकीर्णतर, उग्रतर, तीक्ष्णतर होता जाता है? यह क्यों नहीं प्रस्फुरित हो कर, अपने संकीर्ण एकव्रत को छोड़ कर, व्यापक रूप धारण करता? क्यों नहीं हमारे क्षुद्र हृदय एक को भुला कर अनेक को-विश्वैक्य को-अपने भीतर स्थान दे पाते...?
दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932
88. शब्द-शब्द-शब्द - 'अज्ञेय'
शब्द-शब्द-शब्द...बाह्य आकारों का आडम्बर!
एक प्राणहीन शव को छोड़ते हुए मुझे मोह होता है-फिर भी मैं समष्टि-जीवन की कल्पना कर रहा हूँ-और इस का अभिमान करता हूँ?
अरी निराकार किन्तु प्रज्वलित आग! इस भाव को निकाल कर भस्म कर दे! पुराने जीवन के जो चिथड़े मेरे नवीन शरीर से चिपके हुए हैं, उन्हें अलग कर दे। मैं पंक से उत्पन्न हुआ हूँ, तू अपने ताप से उसे सुखा दे-ताकि मैं इस विश्व-भाव में अपना व्यक्ति खो सकूँ-मैं भी उसी आग की एक लपट हो जाऊँ-कोई देख कर यह न कह सके, 'यह तू है-इतनी तेरी इयत्ता है!'
दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932
89. नहीं काँपता है अब अंतर - 'अज्ञेय'
नहीं काँपता है अब अन्तर।
नहीं कसकती अब अवहेला, नहीं सालता मौन निरन्तर!
तुझ से आँख मिलाता हूँ अब, तो भी नहीं हुलसता है उर,
किन्तु साथ ही कमी राग की देख नहीं होता हूँ आतुर।
नहीं चाहता अब परिचय तेरे पर कुछ अधिकार दिखाना-
नहीं चाहता तेरा होना, या प्रतिदान दया का पाना।
देख तुझे पर, पूर्व-प्रेम की प्रतिक्रिया से हो कर विचलित-
नहीं फणी-सा रुक जाता हूँ पीड़ा से अब हो कर स्तम्भित।
तुझे 'मित्र' कहते अब वाणी मेरी बिल्कुल नहीं झिझकती-
तुझे, अपरिचित नहीं, किन्तु जो उस से अधिक नहीं कुछ भी!
लुटा चुका तेरा प्रणयी का सिंहासन मेरा अभ्यन्तर-
नहीं कसकता रिक्त हुआ भी, नहीं सालती याद निरन्तर!
दिल्ली जेल, 5 नवम्बर, 1932
90. मैं जीवन-समुद्र पार कर के - 'अज्ञेय'
मैं जीवन-समुद्र पार कर के विश्राम के स्थल पर पहुँच गया हूँ।
जिस तू फान में मैं खो गया था, उस में से निकलने का पथ विद्युत् के प्रकाश की एक रेखा ने इंगित कर दिया है।
प्रेम को प्राप्त करना, जीवन के मिष्टान्नों को चखना और जीवन के मीठे आसव में मत्त रहना मेरे लिए नहीं है। मेरा काम केवल इतना ही है कि जो प्रेम औरों ने प्राप्त किया है, जिस आसव ने दूसरों को उन्मत्त किया है, उस की पवित्र मिठास को अपनी वाणी द्वारा संसार-भर में फैला दूँ-
और जो दु:ख और क्लेश मैं ने देखे हैं, उन्हें अपने पास संचित कर लूँ-उस से एक विराट् समाधि बना लूँ जिस में मृत्यु के बाद मेरा शरीर दब जाए।
मैं विश्राम के स्थल पर पहुँच गया हूँ-अब अपना अन्तिम कार्य पूरा कर के विश्राम करूँगा।
दिल्ली जेल, 25 दिसम्बर, 1932
91. विदा! विदा! - 'अज्ञेय'
विदा! विदा! इस विकल विश्व से विदा ले चुका!
अपने इस अतिव्यस्त जगत से जुदा हो चुका!
देख रहा हूँ मुड़-मुड़ कर-यह मोह नहीं है-
नहीं हृदय की विकल निबलता फूट रही है!
सोच रहा हूँ कल जिस को खोजते स्वयं खो जाना है-
उस निर्वेद, अतीन्द्रिय जग में क्या-क्या मुझे भुलाना है!
दिल्ली जेल, 8 नवम्बर, 1932
92. हमें एक दूसरे को - 'अज्ञेय'
हमें एक-दूसरे को कुछ नहीं कहना है, फिर भी हम क्यों रुके हुए हैं?
हम क्यों अपने को एक-दूसरे से बाँधने का प्रयत्न कर रहे हैं-जब कि हमारे बीच में पीड़ा के अतिरिक्त किसी बात का सान्निध्य नहीं है?
हम दोनों बहुत दूर के यात्री हैं। हम दोनों ही अपने बन्धु-बान्धवों को छोड़ कर उन्हें कष्ट दे कर और दु:खित करते हुए, यहाँ पहुँचे हैं और हमारा मिलन हुआ है।
किन्तु हमारे मिलन में अपरिचय के अतिरिक्त कोई भाव नहीं है।
हम दोनों एक-दूसरे को अजनबी की तरह घूरते हैं-और उस घूरने में सहानुभूतिपूर्ण कौतुक तक नहीं है-केवल एक क्षीण विरोध का भाव है।
मानो हम वर्षों तक सुदूर देशों से पत्र-व्यवहार करते रहे हों, और अपने हृदय में एक-दूसरे की दिव्य मूर्तियाँ स्थापित किये हों। वास्तविकता की चोट से ये मूर्तियाँ, जो पुरानी होने के कारण सच्ची जान पड़ती थीं, टूट गयी हैं-और हम आहत, पीडि़त और दृप्त भाव से खड़े हैं। हमारा अपरिचय पूर्ववत् हो गया है।
हम अपरिचित हैं, प्रेम नहीं करते। इतना भी प्रेम नहीं कि भलीभाँति घृणा ही कर सकें।
फिर हम इस व्यर्थ लीला को छोड़ कर अपने विभिन्न पथों पर यात्रा क्यों नहीं किये जाते-क्यों रुके हुए हैं?
दिल्ली जेल, 30 अक्टूबर, 1932
93. विदा हो चुकी - 'अज्ञेय'
विदा हो चुकी (मिलन हुआ कब?) पर हा, फिर भी 'विदा! विदा!'
नहीं कभी आया था जो उस को कहता हूँ 'अब तू जा!'
फिर भी क्यों अन्तर में जाग रहा कोई सोया परिताप?
कहता, 'इस को भी मेटेगा तू जो कुछ भी कभी न था?'
नहीं मिले थे! कैसे होगी टूट अलग होने में चोट?
पर अन्तस्तल में यह कैसा उबल-उबल पड़ता विस्फोट?
उर में उठती है रह-रह कर कोई छिपी-छिपी-सी हूक-
प्रकटित हो कर भी रह जाती मानस-अन्धकार की ओट!
राह-राह के राही सहसा जब पथ पर मिल जाते हैं-
चौराहे पर आ कर क्या वे अलग नहीं हो जाते हैं?
प्रणय-घात होता है क्या तब जब उस घनिष्ठता के बाद
आशापूर्ण हँसी हँसते वे तमसा में खो जाते हैं?
सत्य नहीं मृगतृषा सही, मैं तुम को दीख सका तो था-
खो वन-पथ में गया, किन्तु मैं बन सहपथिक चला तो था?
नहीं चाहता कोसो, यह भी नहीं कि मुझ पर हो विक्षोभ-
'बिगड़ गया' यह भाव रहे क्यों, सोचो 'कभी बना तो था!'
मैं यह भी क्यों कहूँ कि मुझ को मृतवत् ही लेना तुम जान,
'नहीं हुआ ही था वह'-यों भी या रखना अपना अभिमान?
जीवन के गहरे अनुभव यों नहीं कभी भूले जाते-
सदा रिक्त ही रहता है जो एक बार भर चुकता स्थान!
कैसे कहूँ 'भुला देना', कैसे यह भी 'मत जाना भूल'-
कैसे कहूँ 'फूल, मत होना' कैसे कहूँ कि 'होना शूल'।
शंकित-मन जो मैं कहता हूँ, शंकित-मन ही तुम सुन लो-
नहीं तुम्हारी ही, यह है मेरे भी अरमानों की धूल!
मुलतान जेल, 5 दिसम्बर, 1933
94. तुम्हारी अपरिचित आकृति को देख कर - 'अज्ञेय'
तुम्हारी अपरिचित आकृति को देख कर क्यों मेरे ओठ एकाएक उन्मत्त लालसा से धधक उठे हैं?
तुम्हारी अज्ञात आत्मा तक पहुँचने के लिए क्यों मेरा अन्तर पिंजरबद्ध व्याघ्र की तरह छटपटा रहा है?
मैं बन्दी हूँ, परेदशी हूँ। मेरा शरीर लौह शृंखलाओं में बँधा है। मेरा रोम-रोम इस परायेपन की पीड़ा से व्याकुल हो रहा है, मेरी नाड़ी के प्रत्येक स्पन्दन से पुकार उठती है, 'तुम यहाँ नहीं हो-तुम हो ही नहीं; और वह, वह एक दूसरी सृष्टि में बीते हुए तुम्हारे भूतकाल से अधिक तुम्हारी कुछ नहीं है।'
मै परदेशी हूँ। मेरी जाति तुम्हारी जाति से परिचित नहीं है। मेरी आत्मा का तुम्हारी आत्मा से कोई सान्निध्य नहीं है।
फिर क्यों मेरी आत्मा बद्ध व्याघ्र ही तरह छटपटा रही है, क्यों मेरे ओठ इस प्रकम्पित, उन्मत्त लालसा से धधक उठे हैं?
दिल्ली जेल, 19 जुलाई, 1933
95. तरु पर कुहुक उठी पड़कुलिया - 'अज्ञेय'
तरु पर कुहुक उठी पड़कुलिया-
मुझ में सहसा स्मृति-सा बोला-
गत वसन्त का सौरभ, छलिया।
किसी अचीन्हे कर ने खोला-
द्वार किसी भूले यौवन का-
फूटा स्मृति संचय का फोला।
लगा फेरने मन का मनका
पर हा, यह अनहोनी कैसी-
बिखर गया सब धन जीवन का!
जीवन-माला पहले जैसी-
किन्तु एक ही उस में दाना-
तू निरुपम थी, अपने ऐसी!
तेरा कहा न मैं ने माना-
'भर लो अपनी अनुभव-डलिया।'
निरुपम! अब क्या रोना-गाना!
धूल, धूल मधु की रंगलिया!
परिचित भी तू रही अचीन्ही-
तरु पर कुहुक उठी पड़कुलिया!
डलहौजी, 9 सितम्बर, 1934
96. तुम आए, तुम चले गए - 'अज्ञेय'
तुम आये, तुम चले गये! नाता जोड़ा था, तोड़ गये।
हे अबाध! जाते अबाध सूनापन मुझ को छोड़ गये।
अशुभ विषैली छायाओं से, अब मैं जीवन भरता हूँ-
नीच अजान नहीं हूँ, प्रियतम! सूनेपन से डरता हूँ!
मुलतान जेल, 5 दिसम्बर, 1933
97. यह केवल एक मनोविकार है - 'अज्ञेय'
यह केवल एक मनोविकार है।
हमारी बुद्धि, हमारी विश्लेषण-शक्ति, जो हमारी सभ्यता और संस्कृति का फल है, एक-दूसरे की त्रुटियों को जान गयी है। मनसा हम विमुख हो गये हैं, और विश्रान्ति से भरे एक क्षीण औत्सुक्य से एक-दूसरे को देख रहे हैं।
किन्तु हमारी बाह्य आत्मा ने, हमारे शरीर ने अभी तक वह संगीत नहीं भुलाया। हमारे तन अब भी इसी उन्मत्त वेदना से तने हुए हैं जिसे हमारे मन भूल गये हैं और नियन्त्रित नहीं रख सकते...
मेरे अभ्यन्तर का उन्मत्त गजराज वनस्थली में विहार कर रहा है, और तुम में अपनी खोयी हुई करिणी को पहचानता है।
दिल्ली जेल, 25 नवम्बर, 1932
98. मैं जगत को प्यार कर के - 'अज्ञेय'
मैं जगत को प्यार कर के लौट आया!
सिर झुकाये चल रहा था, जान अपने को अकेला,
थक गये थे प्राण, बोझल हो गया जग का झमेला,
राह में जाने कहाँ कट-सा गिरा कब जाल कोई-
चुम्बनों की छाप से यह पुलक मेरा गात आया।
ओ सखे! बोलो कहाँ से तुम हुए थे साथ मेरे-
किस समय तुम ने गहे थे इस निविड में हाथ मेरे?
किन्तु दाता विनोदी यह तुम्हारी देन कैसी?
छोडऩे भव को चला था लौट घर परिणीत आया!
घुमड़ आयी है घटा, चल रही आँधी सनसनाती,
आज किन्तु कठोर उस की चोट मुझ को छू न पाती-
रण-विमुख भी आज मुझ को कवच मेरा मिल गया है-
मर्म मेरे को लपेटे है तुम्हारी स्निग्ध छाया!
राह में तुम क्यों भला आते पकडऩे हाथ मेरे?
तब रहे क्या उस जगत में भी सदा तुम साथ मेरे?
और मैं तुम को भुला कर क्षुद्र ममताएँ समेटे-
माँगता दर-दर फिरा दर-दर गया था दुरदुराया!
देख तब तुमने लिये होंगे सभी उत्पात मेरे
वासना की मार से जब झुलसते थे गात मेरे!
और फिर भी तुम झुके मुझ पर, छिपा ली लाज मेरी-
इस कुमति को साथ अपने एक आसन पर बिठाया!
प्यार का मैं था भिखारी प्यार ही धन था तुम्हारा;
मुझ मलिन को बीच पथ में अंक ले तुम ने दुलारा।
यह तुम्हारा स्पर्श या संजीवनी मैं पा गया हूँ-
असह प्राणोन्मेष से व्याकुल हुई यह जीर्ण काया।
ओठ सूखे थे, तभी था घुमड़ता अवसाद मन में,
पर तुम्हारे परस ने प्रिय भर दिया आह्लाद मन में।
टिमटिमाने में धुआँ जो दीप मेरा दे रहा था-
उमड़ उस के तृषित उर में स्नेह-पारावार आया!
मैं अनाथ भटक रहा था किन्तु आज सनाथ आया-
निज कुटीर-द्वार पर मैं प्रिय तुम्हारे साथ आया!
मैं जगत को प्यार करके लौट आया!
बडोदरा, 9 सितम्बर, 1936
99. तुम्हारे प्रणय का कुहरा - 'अज्ञेय'
तुम्हारे प्रणय का कुहरा आँसुओं की नमी से और सहानुभूति की तरलता से सजीव हो रहा है, और मैं उस सजीव यवनिका को भेदता हुआ चला जा रहा हूँ।
लालसा के घने श्यामकाय वृक्ष और अज्ञात विरोधों की झाडिय़ाँ उस कुहरे में छिपी रहती हैं, और देखने में नहीं आतीं। किन्तु जब मैं आगे बढऩे को होता हूँ, तब उन से टकरा कर रुक जाता हूँ। तब उन का वास्तविक स्थूल, अप्रसाध्य, अव्याकृत कठोरत्व प्रकट हो जाता है।
मैं तुम्हारे प्रणय के घने कुहरे को भेदता चला ज रहा हूँ।
अमृतसर जेल, 25 फरवरी, 1933
100. निराश प्रकृति - 'अज्ञेय'
निराश प्रकृति विहाग गा रही है; मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में मौन खड़ा हूँ।
आकाश की आकारहीनता की करुण पुकार की तरह टिटिहरी रो रही है-'चीन्हूँ! चीन्हूँ!' पर अपनी अभिलाषाओं के साकार पुंज को कहीं चीन्ह नहीं पाती!
दूर कुएँ पर रहट चल रहा है। उस की थकी हुई पीड़ा फफक-फफक कर कहती है, 'पालूँगी! पालूँगी!' पर स्वभाव से अस्थिर पानी बहता ही चला जाता है।
रात की साँय-साँय करती हुई नीरवता कहती है, 'मुझ में सब कुछ स्थिर है,' पर अवसाद की भाप-भरी साँस की तरह से दो सारस उसके हृदय को चीरते हुए चले जा रहे हैं।
निराश प्रकृति विहाग गा रही है, पर मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में मौन खड़ा हूँ!
मुलतान जेल, 2 नवम्बर, 1933
101. जब तुम चली जा रही थीं - 'अज्ञेय'
जब तुम चली जा रही थीं, तब मैं तुम्हारे पथ की एक ओर खड़ा था।
तुम से बात करने का साहस मुझ में नष्ट हो चुका था। मैं ने डरते-डरते तुम्हारे अंचल का छोर पकड़ लिया।
(न जाने मैं ने ऐसा क्यों किया? मुझे तुम से कुछ पाने की इच्छा नहीं थी।)
तुम रुक गयीं, किन्तु कुछ बोलीं नहीं, न तुमने मेरी ओर देखा ही। मैं बार-बार तुम्हारे मुख को अपनी ओर फिराता, किन्तु तुम फिर घूम जातीं। अन्त में मैं ने डरते-डरते अपना मस्तक तुम्हारे अधरों पर रख दिया।
(न जाने मैं ने ऐसा क्यों किया? मुझे तुम से कुछ पाने की इच्छा नहीं थी।)
किन्तु जब तुम इसी प्रकार निश्चल खड़ी रहीं, तुम्हारे अधर हिले भी नहीं, न तुमने मुख ही फेरा, तब मुझे व्यथा और क्षोभ हुआ, और मैं तुम्हें वहीं छोड़ कर चला आया।
दिल्ली जेल, 13 नवम्बर, 1932
102. अब भी तुम निर्भीक हो - 'अज्ञेय'
अब भी तुम निर्भीक हो कर मेरी अवहेलना कर सकती हो।
क्योंकि तुम गिर चुकी हो, पर ओ घृणामयी प्रतिमे! अभी हमारा प्रेम नहीं मरा।
तुम अब भी इतनी प्रभावशालिनी हो कि मुझे पीड़ा दे सकती हो, और मैं अब भी इतना निर्बल हूँ कि उस से व्यथित हो सकता हूँ।
दिल्ली जेल, 26 अक्टूबर, 1932
103. विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा - 'अज्ञेय'
विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा!
पुंजीभूते प्रणय-वेदने! आज विस्मृता हो जा!
क्या है प्रेम? घनीभूता इच्छाओं की ज्वाला है!
क्या है विरह? प्रेम की बुझती राख-भरा प्याला है!
तू? जाने किस-किस जीवन के विच्छेदों की पीड़ा-
नभ के कोने-कोने में छा बीज व्यथा का बो जा!
विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा!
नाम प्रणय, पर अन्त:स्थल में फूट जगाने वाली!
एकाकिनि, पर जग-भर को उद्भ्रान्त नचानेवाली!
अरी, हृदय की तृषित हूक-उन्मत्त वासना-हाला!
क्यों उठती है सिहर-सिहर, आ! मम प्राणों में सो जा!
विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा!
पुंजीभूते प्रणय-वेदने! आज विस्मृता हो जा!
दिल्ली जेल, 4 जुलाई, 1932
104. प्रत्यूष के क्षीणतर होते - 'अज्ञेय'
प्रत्यूष के क्षीणतर होते हुए अन्धकार में क्षितिज-रेखा के कुछ ऊपर दो तारे चमक रहे हैं।
मुझ से कुछ दूर वृक्षों के झुरमुट की घनी छाया के अन्धकार में दो खद्योत जगमगा रहे हैं।
नदी का मन्दगामी प्रवाह आकाश के न जाने किस छोर से थोड़ा-सा आलोक एकत्रित कर सीसे-सा झलक रहा है।
मैं एक अलस जिज्ञासा से भरा सोच रहा हूँ कि जो अभेद अन्धकार मुझे घेरे हुए है, मुझ में व्याप्त हो रहा है और मेरे जीवन को बुझा-बुझा देता है, उस की सीमा कहाँ है!
28 नवम्बर, 1932, दिल्ली जेल
105. मेरे प्राण आज कहते हैं - 'अज्ञेय'
मेरे प्राण आज कहते हैं वह प्राचीन, अकथ्य कथा,
जिस में व्यक्त हुई थी प्रथम पुरुष की प्रणय-व्यथा!
फिर भी पर वह चिर-नूतन हो सकती नहीं पुरानी,
जब तक तुझ में जीवन है मुझ में उस का आकर्षण,
जब तक तू रूप-शिखा-सी मैं विकल आत्म-आवेदन;
तेरी आँखों में रस है मेरी आँखों में पानी!
जब तक मानव मानव है वह आदिम एक कहानी;
प्रणय कथा यह प्रथम पुरुष से भी प्राचीन
तब, जब सफल-समापन में हो जावे वह चिर-लीन!
लाहौर किला, 26 मार्च, 1934
106. तुम में या मुझ में - 'अज्ञेय'
तुम में या मुझ में या हमारे प्रणय-व्यवहार में, अभिजात कुछ भी नहीं है। केवल हम तीनों के मिलने से उत्पन्न हुई आत्म-बलिदान की कामना ही अभिजात है।
तुममें, या मुझ में, या हमारे प्रेम में ही, अजस्रता नहीं है। केवल हम तीनों के संघर्षण से उत्पन्न होने वाली पीड़ा ही अजस्र है।
दिल्ली जेल, 1 मार्च, 1933
107. कभी-कभी मेरी आँखों के आगे - 'अज्ञेय'
कभी-कभी मेरी आँखों के आगे से मानो एकाएक परदा हट जाता है-और मैं तुम में निहित सत्य को पहचान लेता हूँ।
प्रेम में बन्धन नहीं है। हमें जो प्रिय वस्तु को स्वायत्त करने की इच्छा होती है-वह इच्छा जिसे हम प्रेम का आकर्षण कहते हैं-वह केवल हमारी सामाजिक अधोगति का एक गुबार है।
हमने प्रेम की सरलता नष्ट कर दी है। हमने अपने धार्मिक और सामाजिक संस्कारों में बाँध कर उसे एक मोह-जाल मात्र बना दिया है।
प्रेम आकाश की तरह स्वच्छ और सरल है। हम और तुम उस में उडऩे वाले पक्षी हैं-चाहे किधर भी उड़ें, उस का विस्तार हमें घेरे रहता है और हमें धारण करता है। और उसके असीम ऐक्य में लीन हो कर भी हम एक-दूसरे के अधीन नहीं होते, अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं नष्ट करते। 'बन्धन में स्वातन्त्र्य' नामक शब्दजाल को प्रेम समझने वाली अवस्था से हम बहुत परे हैं।
किन्तु 'प्रेम अधिकार नहीं है,' यह ज्ञान मुझे तभी होता है जब मैं तुम्हें स्वायत्त कर लेता हूँ।
दिल्ली जेल, 31 दिसम्बर, 1932
108. उखड़ा-सा दिन - 'अज्ञेय'
उखड़ा-सा दिन, उखड़ा-सा नभ, उचटे-से हेमन्ती बादल-
क्या इसी शून्य में खोएगा अपना दुलार का अन्तिम पल?
ढलते दिन में तन्द्रा-सी से सहसा जग कर अलसाया-सा,
करतल पर तेरे कुन्तल धर मैं बैठा हूँ भरमाया-सा-
भटकी-सी मेरी अनामिका सीमन्त टोहती है तेरा...
है जहाँ किसी एकाकी ने संयोग लिखा तेरा-मेरा।
यह लघु क्षण अक्षर है, अव्यय, तद्गत हम, सुख-आलस्य-विकल;
ओ दिन अलसाये हेमन्ती, धीरे ढल, धीरे-धीरे ढल!
कलकत्ता, 12 जनवरी, 1939
109. तुम मेरे जीवन-आकाश में - 'अज्ञेय'
तुम मेरे जीवन-आकाश में मँडराता हुआ एक छोटा-सा मेघपुंज हो।
तुम तन्वंगी हो, तुम लचीली और तरल हो, तुम शुभ्र और नश्वर हो।
जीवन में आनन्द-लाभ के लिए जिन-जिन उपकरणों की आवश्यकता है, वे सभी तुम में उपस्थित हैं।
फिर भी, तुम मेरे जीवन-आकाश में मँडराता हुआ एक छोटा मेघपुंज मात्र हो!
दिल्ली जेल, 1 मार्च, 1933
110. मुझे जो बार-बार - 'अज्ञेय'
मुझे जो बार-बार यह भावना होती है कि तुम मुझे प्रेम नहीं करतीं, यह केवल लालसा की स्वार्थमयी प्रेरणा है।
मैं अपने को संसार का केन्द्र समझ कर चाहता हूँ कि वह मेरी परिक्रमा करे। मुझे अभी तक यह ज्ञान नहीं हुआ कि केन्द्र न मैं हूँ न तुम; जिस प्रकार हमारा संसार मेरे और तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार हम-तुम भी संसार से स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते। मैं, तुम और संसार, तीनों का एकीकरण ही हमारे प्रेम का सच्चा रूप है।
इस ज्ञान के उद्रेक में मैं फिर, अपनी स्वतन्त्र इच्छा से तुम्हें वरता हूँ। विवश हो कर नहीं, मूक अभिमान से दंशित हो कर नहीं-अपने, तुम्हारे, और संसार के अनन्त ऐक्य की संज्ञा से प्रेरित हो कर पुन: तुम्हारे आगे अपने को निछावर करता हूँ।
दिल्ली जेल, 28 नवम्बर, 1932
111. आओ, हम-तुम अपने संसार का - 'अज्ञेय'
आओ, हम-तुम अपने संसार का फिर से निर्माण करें।
हम बहुत ऊँचा उडऩा चाहते थे-सूर्य के ताप से हमारे पंख झुलस गये। उस वातावरण में हमारा स्थान नहीं था।
हम अपना नीड़ पृथ्वी पर बनाएँगे।
नहीं, वृक्ष की डालों पर नहीं; वहाँ भी पवन का वेग हमें कष्ट देगा। हम अपना छोटा-सा नीड़ इस भूमि पर ही बनाएँगे।
हम ने बहुत मान किया है।
किन्तु भूमि पर हमारे घर में अब वह अभिमान नहीं होगा। लोग हमें अति क्षुद्र समझ कर ठुकराना भी भूल जाएँगे।
नहीं, हम अपने लिए एक नीड़ भी क्यों बनाएँ?
हमें अपना स्वत्व कहने को कुछ नहीं चाहिए। हम भूमि पर रहेंगे-केवल हम-तुम, और हमारे आगे निस्सीम संसार। जब हमारे पास कुछ भी नहीं रहेगा जो दुनिया हम से छीन सके, तब हमारे जीवन में विष-बीज बोने कोई नहीं आएगा।
अत: आओ, हम-तुम अपने संसार का फिर से निर्माण करें।
दिल्ली जेल, 2 नवम्बर, 1932
112. वह पागल है - 'अज्ञेय'
वह पागल है। मैं उस का निरन्तर प्रयास देख कर उसे समझाता हूँ, 'पागल! ओ पागल! तू इस टूटे हुए कलश में पानी क्यों भरता है? इस का क्या फल होगा? यह पानी बह कर लाभहीन अनुभव की रेत में सूख जाएगा, और तू प्यासा खड़ा देखता रहेगा।'
किन्तु वह मानो अलौकिक ज्ञान पाकर बड़ी दृढ़ निष्ठा से कहता है: 'जहाँ जल गिरता है, वहाँ जीवन प्रकट होता है। दु:ख ही में सुख का अंकुर है।'
वह पागल है! असाध पागल है!
दिल्ली जेल, 15 नवम्बर, 1932
113. भीम-प्रवाहिनी - 'अज्ञेय'
भीम-प्रवाहिनी नदी के कूल पर बैठा मैं दीप जला-जला कर उस में छोड़ता जा रहा हूँ।
प्रत्येक दीप का विसर्जन कर मैं सोचता हूँ-'यही मेरा अन्तिम दीप है।'
किन्तु जब वह धीरे-धीरे बहुत दूर निकल कर दृष्टि से ओझल हो जाता है, जब श्यामा नदी के वक्ष पर, उस के क्षीण हास्य की अन्तिम आलोक-रेखा बुझ जाती है, तब अपने आगे असंख्य तारकों से भरे नभ-मण्डल का शीतल और नीरव सूनापन देख कर मेरे भीरु हृदय में फिर एक बन्धु की चाह जाग्रत हो उठती है। मैं फिर एक दीप जला कर उसे जल पर तैरा देता हूँ।
उस का कम्पित और अनिश्चयपूर्ण नृत्य देख कर मुझे मालूम होता है कि मैं अकेला नहीं हूँ-कोई अपनी क्षण-भंगुर ज्योति से मुझे सान्त्वना दे रहा है।
मैं अपने सारे दीप बहा चुका हूँ। वह, जिसे मैं लिये खड़ा हूँ, यही एकमात्र बच गया है।
इस की कम्पित शिखा से मेरे आस-पास एक छोटा-सा आलोकित वृत्त बन रहा है। उसे देख कर मैं अनुभव करता हूँ कि मैं किसी अज्ञात स्नेह और सहानुभूति से घिरा हुआ हूँ।
अन्तिम बन्धु! मैं तुम्हारा विसर्जन नहीं कर सकूँगा। तुम्हें यहीं कूल पर छोड़ कर मैं स्वयं चला जा रहा हूँ।
मेरे क्षणिक जीवन के क्षणिकतर स्मृति-चिह्न के समान यहाँ जलते रहो, कुछ काल के लिए-मेरे चले जाने तक-और उस स्थान को आलोकित किये रहो जिस पर खड़े हो कर मैं ने अपने सारे दीप भीम-प्रवाहिनी नदी के वक्ष पर विसर्जित कर दिये हैं।
दिल्ली जेल, 19 दिसम्बर, 1932
114. हमारा प्रेम - 'अज्ञेय'
हमारा प्रेम एक प्रज्वलित दीप है। तुम उस दीप की शिखा हो, मैं उस की छाया।
मेरे अन्तर की दुर्दनीय लालसाएँ अन्धकार की लपलपाती जिह्वाओं-सी तुम्हें ग्रसने आती हैं, और तुम्हारी कान्ति पर क्रूर आक्रमण करती हैं। तुम एकाएक काँप उठती हो, मानो अभी मुझे छोड़ कर चली जाओगी।
किन्तु तुम्हारा अवसाद क्षण ही भर में धुआँ हो कर उड़ जाता है-और तुम्हारी काया फिर अपनी अम्लान आभा से दीप्त हो उठती है। मैं भी स्थिर हो कर अपने स्थान पर आ जाता हूँ, और दीप की आड़ से तुम्हारा अनिन्द्य और अनिर्वचनीय सौन्दर्य देखा करता हूँ।
हमारा प्रेम एक प्रज्वलित दीप है। तुम उस दीप की शिखा हो, मैं उस की छाया।
दिल्ली जेल, 15 दिसम्बर, 1932
115. मैं तुम्हें संपूर्णतः जान गया हूँ - 'अज्ञेय'
मैं तुम्हें सम्पूर्णत: जान गया हूँ।
तुम क्षितिज की सन्धि-रेखा के आकाश हो, और मैं वहीं की पृथ्वी।
हम दोनों अभिन्न हैं, तथापि हमारे स्थूल आकार अलग-अलग हैं; हम दोनों ही सात्त्विक हैं, पर हमारा अस्तित्व नहीं है; हम दोनों के प्रस्तार सीमित हैं, फिर भी हमारा मिलन अनन्त और अखंड है।
मैं तुम्हें सम्पूर्णत: जान गया हूँ।
दिल्ली जेल, 17 फरवरी, 1933
116. मेरे उर की आलोक-किरण - 'अज्ञेय'
मेरे उर की आलोक-किरण!
तेरी आभा से स्पन्दित है मेरा अस्फुट जीवन क्षण-क्षण!
मैं ने रजनी का भार सहा, तम वार-पार का ज्वार बहा-
पर तारों का आलोक तरल मुझ को चिर अस्वीकार रहा;
सुख-शय्या का आह्वान मिला-मति-भ्रामक स्वप्न-वितान मिला-
पर तेरे जागरूक प्रहरी का खड्गहस्त ही प्यार रहा!
तेरे वर से है अनल-गर्भ बन गया इयत्ता का कण-कण!
मेरे उर की आलोक-किरण!
मेरठ, 8 फरवरी, 1940
117. तुम चैत्र के वसंत की तरह हो - 'अज्ञेय'
तुम चैत्र के वसन्त की तरह हो, प्राप्ति से शून्य किन्तु आशा से परिपूरित!
जिस प्रकार चैत्र में पुरानी त्वचा झड़ चुकी होती है, शिशिर का कठोरत्व नष्ट हो चुकता है, विटप-श्रेणियाँ नयी-नयी कोंपलों से भूषित हो उठती हैं, विश्व-भर नयी सृष्टि के मादक आनन्द से भर उठता है-
किन्तु उस सृष्टि के अवतंस, उस आनन्द की सफलता के उच्छ्वास, नये वसन्त कुसुम अभी प्रकट नहीं हो पाते;
उसी प्रकार मैं तुम्हारे शरीर का चिर-नूतन सौन्दर्य देखता हूँ, तुम्हारे अनुराग की ज्योत्स्ना, तुम्हारे प्रेम की दीप्ति-
किन्तु यह सब कुछ होते हुए भी तुम्हें नहीं पाता!
तुम चैत्र के वसन्त की तरह हो, प्राप्ति से शून्य किन्तु आशा से
दिल्ली जेल, 10 अप्रैल, 1933
118. अल्लाह के - 'अज्ञेय'
अल्लाह के निन्नानबे नामों की तरह तुम्हारी विरुदावली भी असम्पूर्ण ही रह जाती है।
तुम्हारे अनेक रूपों को विश्व देखता है और प्यार करता है, किन्तु तुम्हारा जो अत्यन्त अपनापन है, तुम्हारे अस्तित्व का सार, उसे कोई देखता या जानता नहीं।
जो तुम्हारे उस रूप को पहचान सकता है, उसके तुम सम्पूर्णत: वश हो जाओगी। जो तुम्हारे उस नाम का उच्चारण कर सकता है, वह तुम्हारा सखा है, पति, राजा, देवता और ईश्वर है।
किन्तु अल्लाह के निन्नानबे नामों की तरह तुम्हारी विरुदावली भी असम्पूर्ण रह जाती है।
दिल्ली जेल, 10 अप्रैल, 1933
119. इस अपूर्ण जग में कब किसने - 'अज्ञेय'
इस अपूर्ण जग में कब किसने
प्रिय, तेरा रहस्य पहचाना?
क्यों न हाथ फिर मेरा काँपे
छू माला का अन्तिम दाना?
लाहौर, 12 दिसम्बर, 1934
120. निष्पत्ति - 'अज्ञेय'
निष्पत्ति
प्रियतमे! तुम मुझे कहती हो कि मैं उस अनुभूति के बारे में लिखूँ, पर मैं लिख नहीं पाता।
मैं उस पक्षी की तरह हूँ जो सूर्य के तेज को छू कर आया है, किन्तु जो थका हुआ पंख खोले पृथ्वी पर पड़ा है, जो सूर्य की ओर भी दीन दृष्टि से देखता है और कुछ दूर पर स्वच्छ नीर के सरोवर की ओर भी, किन्तु न उड़ पाता है और न उस नीर तक ही पहुँच पाता है...
मैं अब भी उस अनुभूति की तेजोमय पीड़ा से काँप रहा हूँ-किन्तु वह गगनचुम्बी उड़ान...
प्रियतमे! तुम मुझ से कहती हो कि मैं उस अनुभूति के बारे में लिखूँ पर मैं लिख नहीं पाता...
लाहौर, अप्रैल, 1934