चिन्ता - 'अज्ञेय' | Chinta - 'Agyeya'

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Sachchidananda-Hirananda-Vatsyayan-Agyeya
 
चिन्ता - 'अज्ञेय' | Chinta - 'Agyeya'(toc)
एकायन

121. सखि! आ गये नीम को बौर - 'अज्ञेय'

सखि! आ गये नीम को बौर!
हुआ चित्रकर्मा वसन्त अवनी-तल पर सिरमौर।
आज नीम की कटुता से भी लगा टपकने मादक मधु-रस!
क्यों न फड़क फिर उठे तड़पती विह्वलता से मेरी नस-नस!
सखि! आ गये नीम को बौर!
'प्रणय-केलि का आयोजन सब करते हैं सब ठौर'-
कठिन यत्न से इसी तथ्य के प्रति मैं नयन मूँद लेती हूँ-
किन्तु जगाता पड़कुलिया का स्वर कह एकाएक, 'सखी, तू?'
सखि! आ गये नीम को बौर!
प्रिय के आगम की कब तक है बाट जोहनी और?
फैलाये पाँवड़े सिरिस ने बुन-बुन कर सौरभ के जाल-
और पलाश आरती लेने लिये खड़े हैं दीपक-थाल!
सखि! आ गये नीम को बौर!
लाहौर, 1934

122. पथ पर निर्झर-रूप बहे - 'अज्ञेय'

पथ पर निर्झर-रूप बहे।
प्रलयंकर पीड़ाएँ बोलीं, 'तेरी प्रणय-क्रियाएँ हो लीं।'
किस उत्सर्ग-भरे सुख से मैं ने उन के आघात सहे!
मैं ही नहीं, अखिल जग ही तो, रहा देखता उसे, स्तिमित हो!
सृष्टि विवश बह गयी वहाँ तो गति-रोधन की कौन कहे!
प्रणय? प्राण तो मर कर जागे! क्षण में लुट कर उस के आगे।
अनुभूति-द्युति-अनुगम-इच्छुक गिरते-पड़ते प्राण रहे!
पथ पर निर्झर-रूप बहे!
डलहौजी, जुलाई, 1934

123. मैंने तुम से कभी कुछ नहीं माँगा - 'अज्ञेय'

मैं ने तुम से कभी कुछ नहीं माँगा।
किन्तु, जब मधु-सन्ध्या के धुँधलके में मैं पश्चिमी आकाश को देखती बैठी होती हूँ, जब स्निग्ध-तप्त समीर नीबू के सौरभ-भार से झूमता हुआ मुझे छू जाता है, तब मैं अपने भीतर एक रिक्ति पाती हूँ और अनुभव करती हूँ कि तुमने मुझे प्रेम से वंचित रखा है।
मैं ने तुम्हें कभी कुछ नहीं दिया।
किन्तु जब उस घोर नीरव दोपहरी में मैं आकाश-समुद्र की उड़ती हुई छिन्न बादल-फेन देखती हूँ, और बुलबुल सहसा एकाकी पीड़ा के स्वर में सिसक उठती है, तब मैं जान जाती हूँ कि मेरा हृदय अब मेरा नहीं रहा है।
लाहौर, अगस्त, 1936

124. मधु मंजरि - 'अज्ञेय'

मधु मंजरि, अलि, पिक-रव, सुमन, समीर-
नव-वसन्त क्या जाने मेरी पीर!
प्रियतम क्यों आते हैं मधु को फूल,
जब तेरे बिन मेरा जीवन धूल?
लाहौर, अगस्त, 1936

125. करुणे, तू खड़ी-खड़ी क्या सुनती - 'अज्ञेय'

करुणे, तू खड़ी-खड़ी क्या सुनती!
उस निर्झरिणी की कल-धारा को बाँधे क्या कूल-किनारा!
देव-गिरा के मुक्तक-दाने खड़ी रहेगी कब तक गुनती?
अखिल जगत् की स्तब्ध अंजली से पावन-पीड़ा बह निकली!
तू मुग्धा, हतसंज्ञ करों से उन फूलों में क्या है चुनती!
पाएगी क्या! स्वयं अकिंचन दे बिखरे निज उर का रोदन!
बुझ जाएगी वह द्युति तो तू खड़ी ही रहेगी कर धुनती!
करुणे, तू खड़ी-खड़ी क्या सुनती!
लाहौर, 1936

126. पुजारिन कैसी हूँ मैं नाथ - 'अज्ञेय'

पुजारिन कैसी हूँ मैं नाथ!
झुका जाता लज्जा से माथ!
छिपे आयी हूँ मन्दिर-द्वार छिपे ही भीतर किया प्रवेश।
किन्तु कैसे लूँ वदन निहार-छिपे कैसे हो पूजा शेष!
दया से आँख मूँद लो देव! नहीं माँगूँगी मैं वरदान,
तुम्हें अनदेखे दे कर भेंट-तिमिर में हूँगी अन्तर्धान।
ध्यान मत दो तुम मेरी ओर-न पूछो क्या लायी हूँ साथ!
गान से भरा हुआ यह हृदय-अघ्र्य को चित-तत्पर ये हाथ!
पुजारिन कैसी हूँ मैं नाथ!

127. टूट गये सब कृत्रिम बन्धन - 'अज्ञेय'

टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
नदी लाँघ कूलों की सीमा, अर्णव-ऊर्मि हुई, गति-भीमा;
अनुल्लंघ्य, यद्यपि अति-धीमा है तुझ को मेरा आवाहन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
छिन्न हुआ आचार-नियन्त्रण-कैसे बँधे प्रणय-आक्रन्दन?
दृष्टि-वशीकृत उर का स्पन्दन तुझे मानता है जीवन-धन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
देय? स्वयं ही हूँ मैं दाता! फिर तेरा संकेत बुलाता!
बिना लुटाये कोई पाता? लो! देती हूँ अपना जीवन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!

128. जब मैं कोई उपहार ले कर - 'अज्ञेय'

जब मैं कोई उपहार ले कर तेरे आगे उपस्थित होती हूँ, तब मेरे प्राण इस भावना से भर-भर आते हैं कि वह तेरे योग्य नहीं है। तब, तुझे कैसे वह भेंट चढ़ाऊँ?
किन्तु यह मैं भूल जाती हूँ कि अब कभी कोई वस्तु मेरी आँखों में अन्यून और निर्दोष नहीं होगी; क्योंकि वे आँखें अब मेरी नहीं हैं, उन में से तो तेरी निरपेक्ष सर्वदर्शी दृष्टि झाँक रही है...
1934

129. उर-मृग! बँधता किस बन्धन में - 'अज्ञेय'

उर-मृग! बँधता किस बन्धन में!
थकित हुए स्वच्छन्द प्राण क्या भटक-भटक कर घन निर्जन में!
अर्ध-निमीलित हैं क्यों लोचन, स्थिर क्यों चपल पदों का स्पन्दन;
किस गुरु-भार दबा सुन्दर तन-किस आकर्षक सम्मोहन में?
जग की बिखरी गरिमा रोयी: तेरी अनुपम छवि क्यों खोयी?
निरुपम सखा न पाया कोई उस अबाध सुन्दर कानन में?
ओ चिर-बन्दी स्वतन्त्रता के, अति परिचय से ही उकता के,
स्वेच्छा ही से उसे लुटा के
उन्मुख किधर, विकल किस क्षण में!
उर-मृग! बँधता किस बन्धन में!
लाहौर, 1934

130. कहीं किसी ने गाया - 'अज्ञेय'

कहीं किसी ने गाया:
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है
कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
मेरा मन भर आया...
प्रियतम, कभी तुम्हारे मुख से ये ही शब्द सुने थे मैं ने-
अनजाने में मन के धागे से यह बेध गुने थे मैं ने
आज चीर परदा अतीत का यही वाक्य तारे-सा चमका:
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
जाने किस विस्मृति के क्षण में, किस सुकृति के आकर्षण में,
या कि देव के चरण-स्तवन में,
प्राण, तुम्हारे मुख-पाटल से
हिमकण-जैसे कोमल ज्योत्स्ना जैसे चंचल
परिमल से वे शब्द झरे थे!
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
मेरे इस लम्बे जीवन में दो स्मृतियाँ हैं, प्राण, तुम्हारी:
उन से पहले, उन से आगे एक निविड रजनी है सारी!
-एक, जब कि पहले-पहले ही सहसा चौंक मुझे लखते ही,
मानो बुझ कर, मानो जल कर, अपने ही में सिमट-सँभल कर
बैठ रहे थे तुम, नीरव, नत-मस्तक!
मैं-हाँ, मैं भी बोल नहीं पायी थी कब तक!
-और दूसरी, जब मैं कौशल से छिपे-छिपे आ निकट तुम्हारे, छल से
वे दो वाक्य सुने थे, जाने किस के प्रति उच्चारित
किन्तु जिन्हें सुन मेरा कण-कण हुआ कंटकित, पुलकित:
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
आज चीर परदा अतीत का यही वाक्य तारे-सा चमका;
कहीं किसी ने गाया:
'मैं तेरा हूँ-तू मेरा है, कैसा यह प्रेम घनेरा है!'
मेरा मन भर आया...
लाहौर, 1936

131. घन-गर्जन - 'अज्ञेय'

घन-गर्जन सुन नाचे मत्त मयूर-
प्रियतम! तुम हो मुझ से कितनी दूर!
'कदली, कदम, पिकाकुल कल-सरि-कूल'-
निर्मम! कभी सकूँगी तुम को भूल?
लाहौर, अगस्त, 1936

132. बहुत अब आँखें रो लीं - 'अज्ञेय'

बहुत अब आँखें रो लीं!
नामहीन-या प्रियतम?-पीड़ा की क्रीड़ाएँ हो लीं।
काँपी दूर उषा की आभा, कमल-कली में गौरव जागा-
'जीती हूँ!' अनुभूति-विकल हो मुकुलित पलकें खोलीं।
फूट पड़ा नभ का अन्तस्तल बिखरी विश्व-हृदय की हलचल;
'रोते क्यों? जी तो लो!' यों अरुणाली किरणें बोलीं।
मेरा मुरझा तनु मदिर-लाल, कट गिरा भयंकर काल-जाल,
प्रियतम! रजनी के विष-प्याले में क्या औषध घोली?
वह निशि का कृत्रिम पागलपन, प्रणय-मधुर है यह प्रातस्तन,
जीवन-मधु के ओसकणों से हम ने आँखें धो लीं!
सुरभित अनिल-हिलोरें डोलीं, चौंकीं अभिलाषाएँ भोलीं,
उर की अमर, चिरन्तन प्यासें बहुत देर अब सो लीं!
बहुत अब आँखें रो लीं!
प्रियतम! चिर-प्रणयी! अब पीड़ा की क्रियाएँ हो लीं!
1934

133. मैं अपने पैरों के किंकिण - 'अज्ञेय'

मैं अपने पैरों के किंकिण-नुपूर खोल कर तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ। तुम्हारे समीप आ कर मैं ने अपने लौट जाने के सामथ्र्य का त्याग कर दिया है।
मैं अपनी भुजाओं से वलयादि भूषण उतार कर तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ।
तुम्हारे पाश्र्व में खड़ी हो कर मैं ने अपनी सारी क्षमताएँ तुम्हारी सेवा में समर्पित कर दी हैं।
मैं अपनी कटि की मणि-मेखला अलग कर के तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ।
तुम्हारे आश्रय की छाया में मैं ने अपनी सब क्षमताएँ तुम्हारे विश्वास के आगे लुटा दी हैं।
मैं अपने वक्ष से यह हार निकाल कर तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ।
तुम्हारे तेज के अनुगत हो कर मैं ने अपने हृदय की घनीभूत ज्वाला तुम्हें उत्सर्ग कर दी है।
मैं अपने शीश का यह एकमात्र कवरी-कुसुम निकाल कर तुम्हारे चरणों में अर्पण करती हूँ।
तुम्हारे हो कर मैं ने अपने अन्तिम दुर्ग का द्वार भी तुम्हारे लिए खोल दिया है-अपना अभिमान तुम्हारे पथ में बिखरा दिया है।
इस प्रकार, अपना सब वैभव दूर कर, अपने प्राणों की अत्यन्त अकिंचनता में मैं अपने-आप को तुम्हें देती हूँ।
1934

134. विजयी! मैं इस का प्रतिदान नहीं माँगती - 'अज्ञेय'

विजयी!
मैं इस का प्रतिदान नहीं माँगती।
यह भी नहीं कि तुम इन्हें ग्रहण ही करो।
भेंट का साफल्य उसे दे देने में ही है, उस की स्वीकृति में नहीं। तुम नि:शंक हो कर इन्हें ठुकराओ और अपने विजय-पथ पर बढ़े चले जाओ!
विजयी!
1934

135. किन्तु विजयी! यदि तुम बिना माँगे ही - 'अज्ञेय'

किन्तु विजयी! यदि तुम बिना माँगे ही, स्वेच्छा से अपने अन्त:करण के छलकते हुए सम्पूर्णत्व से विवश हो कर, अपने विजय-पथ पर रुक कर कुछ दे दोगे तो...
तो तुम देखोगे, तुम्हारा विजय-पथ समाप्त हो गया है, तुम्हारी विजय-यात्रा पूरी हो गयी है, तुम अपने विश्राम-स्थल पर पहुँच गये हो।
मेरे प्रेम में!
1934

136. तुम चिर-अखंड आलोक - 'अज्ञेय'

तुम चिर-अखंड आलोक!
तुम खर-निदाघ-ज्वाल की ऊध्र्वंग तप्त पुकार
तुम सघन-पावस व्योम से उल्लास धारासार,
तुम शीत के विच्छिन्न धूमिल कम्पमय संसार-
तुम मधु निशा के विपुल पुलकित प्राण-रस-संचार!
तुम समय-वयस सहचर, तुम्हें बाँधे जगत का भार,
पर सह-पथिक आदिम अनादि तुम्हीं अपरिमित प्यार।
तुम सकल जीवन की तृषा तुम हूक एक सदेह-
तुम स्वाति-से चल-तरल किन्तु सदा अचंचल स्नेह!
तुम चिर-अखंड आलोक!
1934

137. मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ - 'अज्ञेय'

मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।
जब कभी पथ पर जाते हुए तुम्हारे अदृश्य चरणों की चाप मैं सुन लेती हूँ, और एक अकथ्य भाव से भर उठती हूँ जिसे तुम नहीं जानते, तभी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।
जब कभी अनजाने में तुम्हारे अपूर्व सौन्दर्य की एक झाँकी मिल जाती है, और मैं उसे देखते-देखते संसार के प्रति अन्धी हो जाती हूँ, तभी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।
प्रियतम! इस जीवन में और इस से पूर्व हजार बार मैं ने अपना जीवन तुम्हें अर्पण किया है, फिर भी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।
1934

138. मत पूछो, शब्द नहीं कह सकते - 'अज्ञेय'

मत पूछो, शब्द नहीं कह सकते!
स्वरगत यदि हो मेरा मौन, तुम्हारे प्राण नहीं सह सकते!
देखो, शिरा-शिरा है सिहरी-बहा ले चली अनुभवी-लहरी-
अन्तर्मुख कर सब संज्ञाएँ, तुम्हीं क्यों न उस में बह सकते?
छू कर ही क्या जाता जाना दो प्राणों का ताना-बाना?
नीरवता का खर-स्वर सुनते, मौन नहीं क्या तुम रह सकते?
मत पूछो, शब्द नहीं कह सकते!
डलहौजी, अगस्त, 1934

139. मैं गाती हूँ - 'अज्ञेय'

मैं गाती हूँ, पर गीतों के भाव जगाने वाला तू,
मैं गति हूँ, पर मेरी गति में जीवन लाने वाला तू!
मैं वीणा हूँ-या हूँ उस के टूटे तारों की वाणी-
उस से सम्मोहन, संजीवन ध्वनि उपजाने वाला तू!
मैं आरती किन्तु प्राणों के मंगल-दीप जलाता तू,
मैं बहुरंगों की बिछलन, पर उस से चित्र बनाता तू!
तुहिन-बिन्दु मैं किन्तु किरण तू उस को चमकाने वाली-
मैं प्रेरण, तू जीवनदाता, मैं प्रतिमा, निर्माता तू!
डलहौजी, जुलाई, 1934

140. प्राण अगर निर्झर से होते - 'अज्ञेय'

प्राण अगर निर्झर-से होते पृथ्वी-सा यह मेरा जीवन-
तू होता सुदूर वारिधि-सा तेरी स्मृति लहरों की गर्जन;
प्रणय! अंक तेरे में खोने मैं युग-युग बहती ही बहती,
अथक स्वरों से, अनगिन दिन तक वही बात बस कहती रहती!
हा, विडम्बना! हो निर्वाक् नहीं जो कहते-कहते थकती-
अब वाणी पा कर भी प्रणय! नहीं तुझ से ही हूँ कह सकती!
मुझ में युग-युग हँसते तेरी विपुला आभा के लघु जल-कण
प्राण अगर निर्झर-से होते पृथ्वी-सा यह मेरा जीवन!
1934

141. मेरे इस जीर्ण कुटीर में - 'अज्ञेय'

मेरे इस जीर्ण कुटीर में-जिस में वर्षा, वायु, निदाघ, शीत, वसन्त की असंख्य सुरभियों और जीवन की असंख्य पीड़ाओं, प्रत्येक ने अपने-अपने सुभीते के लिए असंख्य प्रवेश-मार्ग बना रखे हैं-द्वार एक ही है।
यह वह द्वार है जिस की आड़ में खड़े हो कर मैं ने पहले-पहल तुम्हें देखा था, या मात्र एक बार देखा था, क्योंकि एक बार तुम्हें देख कर इन आँखों ने तुम्हारी छवि को ओझल कब होने दिया!
एक दिन मैं उसी द्वार के सहारे मूक खड़ी थी। सन्ध्या थी, किन्तु ऐसी मेघाच्छन्न कि उस में न विविध रंगों का विन्यास था, न पक्षियों का आकुल कलरव, न मेरे प्राणों में ही वह भव्य, विस्मित लालसा और आशंका के सम्मिलन से कम्पायमान प्रतीक्षा थी जिस से-फिर मेरा चिर-परिचय हो गया...मैं देख रही थी पथ की ओर; तभी तुम उस पर से हो कर जा रहे थे। तुम ने मुझे देखा-तुम ने यह देखा कि मैं वहाँ मूक खड़ी तुम्हें निहार रही हूँ।
तुम्हें किसने कहा था कि तुम उसी प्रकार निरीह उपेक्षा में मत चले जाओ, किसने कहा था कि मेरी ओर न देख कर भी मेरी उत्सुकता को जान कर, मानो उसी के बराबर उठ आओ, उसे स्वीकार कर लो और ले जाओ, कि मैं खड़ी रह जाऊँ-पूर्ववत् किन्तु अपूर्व, पूर्ण किन्तु लुटी हुई, सार्थक किन्तु व्यर्थ!
तुम चले गये। उसी दिन के बाद, जाने कितनी वर्षाएँ आयीं, अभिसार की सूनी रातें लिये; कितनी आँधियाँ बहीं, तृष्णाओं की धूल उड़ाती हुई; कितने बसन्त आये सौरभ-भार लिये; कितने जीवन-अनुभव आये अकथ पीडाएँ सँभाले; और प्रत्येक ने अपने-अपने लिए असंख्य मार्ग बना लिये। किन्तु मैं जानती हूँ, उस दिन से मेरे छिन्न-भिन्न जीर्ण कुटीर में एक ही द्वार है जिस की आड़ से मैं ने तुम्हें देखा था, देखती हूँ, और देखती रहूँगी।
1934

142. शशि जब जा कर - 'अज्ञेय'

शशि जब जा कर फिर आये-सरसी तब शून्य पड़ी थी!
सुख से रोमांचित होती कुमुदिनी कहीं न खड़ी थी।
शशि मन में हँस कर बोले-'मुग्धा से परिणति होगी?
सरसी में शीश छिपा कर मुझ से क्या मान करोगी?'
ओ दर्प-मूढ़ शशि! सोचो-मानिनि क्या मान छिपाती?
या उस में आवृत हो कर अधिकाधिक सम्मुख आती?
वह छिपी लिये यह इच्छा-भूला सुख पुन: जगा ले-
तेरा ही शीतल चंचल कर उस को ढूँढ़ निकाले!
1934

143. गंगा-कूल सिराने - 'अज्ञेय'

गंगा-कूल सिराने ओ लघु दीप-
मूक दूत से जाओ सिन्धु समीप!
ढुलक-ढुलक! नयनों से आँसू-धार!
कहाँ भाग्य ले उन के पाँव पखार!
लाहौर, 1935

144. पीठिका में शिव-प्रतिमा - 'अज्ञेय'

पीठिका में शिव-प्रतिमा की भाँति मेरे हृदय की परिधि में तुम्हारा अटल आसन है।
मैं स्वयं एक निरर्थक आकार हूँ, किन्तु तुम्हारे स्पर्श से मैं पूज्य हो जाती हूँ क्योंकि तुम्हारे चरणों का अमृत मेरे शरीर में संचारित होता है।
1935

145. पथ में आँखें आज बिछीं - 'अज्ञेय'

पथ में आँखें आज बिछीं प्रियदर्शन! तेरा दर्शन पा के,
तोड़ बाँध अस्तित्व मात्र के आज प्राण बाहर हैं झाँके;
पर मानस के तल में जागृति-स्मृति यह तड़प-तड़प कहती है-
प्रेयस! मन के किरण-कर तुझे घेरे ही तो रहे सदा के!
1935

146. आओ, इस अजस्र निर्झर के - 'अज्ञेय'

आओ, इस अजस्र निर्झर के तट पर प्रिय, क्षण-भर हम नीरव
रह कर इस के स्वर में लय कर डालें
अपने प्राणों का यह अविरल रौरव!
प्रिय! उस की अजस्र गति क्या कहती है?
'शक्ति ओ अनन्त! ओ अगाध!'
प्राणों की स्पन्दन गति उस के साथ-साथ रहती है-
'मेरा प्रोज्ज्वल क्रन्दन हो अबाध!'
प्रिय, आओ इस की सित फेनिल स्मित के नीचे
तप्त किन्तु कम्पन-श्लथ हाथ मिला कर
शोणित के प्रवाह में जीवन का शैथिल्य भुला कर
किसी अनिर्वच सुख से आँखें मीचे
हम खो जावें, वैयक्तिक पार्थक्य मिटा कर!
ग्रथित अँगुलियाँ, कर भी मिले परस्पर-
प्रिय, हम बैठ रहें इस तट पर!
औ अजस्र सदा यह निर्झर गाता जाए, गाता जाए, चिर-एकस्वर!
पर, एकस्वर क्यों? देखो तो, उड़ते फेनिल
रजतकणों में बहुरंगों का नर्तन!
क्यों न हमारा प्रणय रहेगा स्वप्निल छायाओं का शुभ्र चिरन्तन दर्पण!
इन सब सन्देहों को आज भुला दो!
क्षण की अजर अमरता में बिखरा दो!
उर में लिये एक ललकार, सुला दो,
चिर जीवन की ओछी नश्वरताएँ! सब जाएँ, बह जाएँ;
यह अजस्र बहता है निर्झर!
आओ, अंजलि-बद्ध खड़े हम शीश नवा लें।
उठे कि सोये प्राणों में पीड़ा का मर्मर-
हम अपना-अपना सब कुछ दे डालें
मैं तुम को, तुम मुझे, परस्पर पा लें!
मूक हो, वह लय गा लें...जो अजस्र बहुरंगमयी, जैसी यह निर्झर-यह अजस्र जो बहता निर्झर!
डलहौजी, अक्टूबर, 1934

147. प्रियतम! देखो - 'अज्ञेय'

प्रियतम! देखो, नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-शृंगों को ठुकरा कर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आयी है!
समुद्र से मिल जाने के पहले उसने अपनी चिर-संचित स्मृतियाँ, अपने अलंकार-आभूषण, अपना सर्वस्व, अलग करके एक ओर रख दिया है, जहाँ वह एक परित्यक्त केंचुल-सा मलिन पड़ा हुआ है।
और, प्रियतम! इतना ही नहीं, वह देखो नदी ने यद्यपि कुछ दूर तक समुद्र को रँग दिया है अवश्य, तथापि अपने मिलन में उस ने अपना स्वभाव भी उत्सर्ग कर दिया है, वह अपने प्रणयी के साथ लवण और अग्राह्य हो गयी है!
प्रियतम! देखो...

148. मैं अमरत्व भला क्यों माँगूँ - 'अज्ञेय'

मैं अमरत्व भला क्यों माँगूँ?
प्रियतम, यदि नितप्रति तेरा ही स्नेहाग्रह-आतुर कर-कम्पन
विस्मय से भर कर ही खोले मेरे अलस-निमीलित लोचन;
नितप्रति माथे पर तेरा ही ओस-बिन्दु-सा कोमल चुम्बन
मेरी शिरा-शिरा में जाग्रत किया करे शोणित का स्पन्दन;
उस स्वप्निल, सचेत निद्रा में प्रियतम! मैं कब जागूँ!
मैं अमरत्व भला कब माँगूँ!
डलहौजी, 1934

149. प्रियतम, क्यों यह ढीठ समीरण - 'अज्ञेय'

प्रियतम, क्यों यह ढीठ समीरण,
किस अनजाने क्षण में आ कर, जाता है बिखरा-बिखरा कर
मेरे राग-भरे ओठों को सम्भ्रम नीरव कम्पन?
प्रियतम, क्यों यह सौरभ छलिया,
मेरा दीर्घ प्रयास विफल कर, इस अबाध में गल-घुल-मिल कर
समुद्र परस्पर उलझा जाता मेरी अलकावलियाँ?
प्रियतम, क्यों ये हिमकर-तारे,
तम से भर कर मेरे लोचन हर कर उन का अभिव्यंजन-धन
मुझे लूट तमसा रजनी में लुट-लुट जाते सारे?
प्रियतम क्यों यह गति जीवन की,
कर अविभूत अखिल अवनी को चली लीलने प्रणय-कली को
सृष्टि जीत कर भी रह जाती भूखी मेरे धन की?
प्रियतम मेरी ओछी क्षमता,
प्रेमशक्ति भी पा न बढ़ी क्यों? मैं निर्वाक् विमूढ़ खड़ी क्यों?
अपने को अपनाने में विघ्न हुई क्यों ममता!
लाहौर, 1935

150. मेरे आरती के दीप - 'अज्ञेय'

मेरे आरती के दीप!
झिपते-झिपते बहते जाओ सिन्धु के समीप!
तुम स्नेह-पात्र उर के मेरे-
मेरी आभा तुम को घेरे!
अपना राग जगत का विस्मृत आँगन जावे लीप?
मेरे आरती के दीप!
हम-तुम किस के पूजा-साधन? किस को न्यौछावर अपना मन?
प्रियतम! अपना जीवन-मन्दिर कौन दूर द्वीप!
मेरे आरती के द्वीप!
डलहौजी, 1935

151. मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा - 'अज्ञेय'

मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा!
तुम होओ जीवन के स्वामी, मुझ से पूजा पाओ-
या मैं होऊँ देवी जिस पर तुम अघ्र्य चढ़ाओ,
तुम रवि जिस को तुहिन बिन्दु-सी मैं मिट कर ही जानूँ-
या मैं दीप-शिखा जिस पर तुम जल-जल जीवन पाओ;
क्यों यह विनिमय जब हम दोनों ने अपना कुछ नहीं रखा?
मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा!
क्यों तुम दूर रहो जैसे सन्ध्या से सन्ध्या-तारा?
मैं क्यों बद्ध, अलग, जैसे वारिधि से अलग किनारा?
हमें बाँधने का साहस क्यों मधुर नियम भी पाएँ?
तुम अबाध, मैं भी अबाध, हो अनथक स्नेह हमारा!
प्रिय-प्रेयसि रह कर कब किसने उस का सच्चा रूप लखा!
मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा!
1934

152. यह भी क्या बन्धन ही है - 'अज्ञेय'

यह भी क्या बन्धन ही है?
ध्येय मान जिस को अपनाया मुक्त-कंठ से जिस को गाया
समझा जिस को जय-हुंकार, पराजय का क्रन्दन ही है?
अरमानों के दीप्त सितारे जिस में प्रतिपल अनगिन बारे
मेरे स्वप्नों का प्रशस्त-पथ आशाहीन गगन ही है?
तुझे देख जो अन्तर रोया, कम्पित विह्वलता में खोया,
अटल मिलन की ज्योति न हो कर पीड़ा का स्पन्दन ही है?
यह भी क्या बन्धन ही है?
1934

153. मेरी पीड़ा - 'अज्ञेय'

मेरी पीड़ा मेरी ही है तुम्हें गीत ही मैं दूँगी-
यदि असह्य हो, क्षण-भर चुप रह यति मैं उसे छिपा लूँगी!
1934

154. शायद तुम सच ही कहते थे - 'अज्ञेय'

शायद तुम सच ही कहते थे-वह थी असली प्रेम-परीक्षा!
मेरे गोपनतम अन्तर के रक्त-कणों से जीवन-दीक्षा!
पीड़ा थी वह, थी जघन्य भी, तुम थे उस के निर्दय दाता!
तब क्यों मन आहत होकर भी तुम पर रोष नहीं कर पाता?
तर्क सुझाता घृणा करूँ, पर यही भाव रहता है घेरे-
तुम इस नयी सृष्टि के स्रष्टा क्रूर, क्रूर, पर प्रणयी मेरे!
लाहौर, अप्रैल, 1935

155. ओ तू - 'अज्ञेय'

ओ तू, जिसे आज मैं ने सह-पथिक लिया है मान,
दे मत कुछ, न माँग तू मुझ से कोई भी वाग्दान,
लेन-देन ही है क्या इस परमाहुति का सम्मान?
जहाँ दान है वहाँ कभी टिक सकते हैं अधिकार?
शब्दों ही में बँध जाएगा आत्माओं का प्यार?
माँग न अनुमति, आ तू! सारे खुले पड़े हैं द्वार!
काया-छाया, ज्योति-तिमिर में रहे परस्पर भाव-
मुझे परस्परता में भी कटु झलक रहा अलगाव-
हम-तुम पहुँचें जहाँ न हों सीमाएँ और दुराव!
ईश्वर बन कर मन्त्र शक्ति से छू दे मेरा भाल-
दानव हो कर चूर-चूर कर दे मेरा कंकाल-
मात्र पुरुष रह बाँध भुजों से मर्माहत कर डाल!*
मुझे सिखा दे सुनना केवल तेरा ही निर्देश-
तेरे अभयद कर की छाया में करना उन्मेष,
अपना रहना अपनेपन को दे कर तेरे वेश!
1935

156. चक्रवाकवधुके - 'अज्ञेय'

'चक्रवाकवधुके! आमन्त्रयस्व सहचरं। उपस्थिता रजनी।'
गोधूली की अरुणाली अब बढ़ते-बढ़ते हुई घनी,
वधुके, जाने दो सहचर को अब है उपस्थिता रजनी!
दिन में था सुख-साथ, किन्तु अब अवधि हो गयी उस की शेष-
पीड़ा के गायन में हो स्वप्नों का कम्पित नयन-निमेष!
रजनी है अवसान; समाप्त प्रणय है, पर देखो? सब ओर-
विरह-व्यथा की है विह्वल रक्तिम रागिनी बनी अवनी!
वधुके, जाने दो सहचर को अब है उपस्थिता रजनी!
1935
इस छन्द की पहली और तीसरी पंक्ति ब्राउनिंग की एक कविता की पंक्तियों का स्वच्छन्द अनुवाद है।

157. मैंने देखा - 'अज्ञेय'

मैं ने देखा सान्ध्य क्षितिज को चीर, गगन में छाये तुम;
मैं ने देखा, खेतों में से धीरे-धीरे आये तुम।
शशि टटोलते आये किरण-करों से रजनी को तम में-
देखा, तुम समीप आ कर भी रुके निमिष-भर सम्भ्रम में।
देखा, देख मुझे तुमने संजीवन-घूँट पिया-
देखा, शब्द-विवश तुम ने मुझ को बाँहों में बाँध लिया।
जाना, आँखें भिंचीं, मिलीं, मानो कर अधरों को निर्देश-
जाना, प्राण-प्राण का अन्तर हुआ सदा के लिए अशेष।
पर-इस से आगे-असह्य स्पन्दन में मन जाता है भूल
स्मृति भी धीरे से कहती है, फूल, फूल, बस अगणित फूल।
1935

158. प्रदोष की शान्त और नीरव भव्यता - 'अज्ञेय'

प्रदोष की शान्त और नीरव भव्यता से मुग्ध हो कर दार्शनिक बोला, 'ईश्वर कैसा सर्वज्ञ है! दिवस के तुमुल और श्रम के बाद कितनी सुखद है यह सन्ध्याकालीन शान्ति!'
निश्चल और तरल वातावरण को चीरती हुई, दार्शनिक का ध्यान भंग करती हुई, न जाने कहाँ से आयी चक्रवाकी की करुण पुकार, 'प्रियतम, तुम कहाँ हो?'
1935

159. अपने तप्त करों में ले कर - 'अज्ञेय'

अपने तप्त करों में ले कर तेरे दोनों हाथ-
मैं सोचा करती हूँ जाने कहाँ-कहाँ की बात!
तेरा तरल-मुकुर क्यों निष्प्रभ शिथिल पड़ा रहता है
जब मेरे स्तर-स्तर से ज्वाला का झरना बहता है?
क्यों, जब मैं ज्वाला में बत्ती-सी बढ़ती हूँ आगे-
अग्निशिखा-से तुम ऊपर ही ऊपर जाते भागे?
मैं सोचा करती हूँ जाने कहाँ-कहाँ की बात-
अपने तप्त करों में ले कर तेरे दोनों हाथ!
1935

160. प्रियतम! जानते हो - 'अज्ञेय'

प्रियतम! जानते हो, सुधाकर के अस्त होते ही कुमुदिनी क्यों नत-मस्तक हो कर सो जाती है?
इसलिए नहीं कि वह प्रणय से थकी होती है।
इसलिए नहीं कि वह वियोग नहीं सह सकती।
इसलिए नहीं कि वह सूर्य के प्रखर ताप से कुंठित हो जाती है।
प्रियतम! वह इसलिए है कि वह एक बार फिर सुधाकर की शीतल ज्योत्स्ना में जागने का सुख अनुभव करना चाहती है, वह चाहती है सुधाकर के कोमल स्पर्श से चौंक कर, उठ कर, एक अलस, सलज्ज विस्मय में सिमटते हुए भी प्रकट हो कर पूछना, 'जीवन, तुम्हीं हो?'
1935

161. प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की - 'अज्ञेय'

प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
आँखें व्यथा कहे देती हैं खुली जा रही स्पन्दित छाती,
अखिल जगत् ले आज देख जी भर मुझ गरीबनी की थाती,
सुन ले, आज बावली आती
गाती अपनी अवश प्रभाती:
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
बीती रात, प्रात-शिशु को उर से चिपटाये आयी ऊषा-
लुटा रही हूँ गली-गली मैं अपने प्राणों की मंजूषा-
मुझ पगली की बिखरी भूषा-
आज गूदड़ी में मेरी उन की मणियों की माला चमकी-
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
मेरा परिचय? रजनी मेरी माँ थी, तारे सहचर,
मेरा घर? जग को ढँप लेने वाला नंगा अम्बर-
मेरा काम? सुनाना दर-दर
महिमा उस निर्मम की!
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
मैं पागल हूँ? हाँ, मैं पागल, ओ समाज धीमान्, सयाने!
तेरी पागलपन की जूठन मैं ने बीनी दाने-दाने-
यही दिया मुझ को विधना ने,
मैं भिखमंगी इस आलम की!
तू सँभाल ले अपना वैभव अपने बन्द खज़ाने कर ले,
ओ अश्रद्धा के कुबेर! निज उर से बोझ घृणा के भर ले-
तेरे पास बहुत है तो तू उसे छिपा कर धर ले-
मुझ को क्या देता है धमकी
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
मैं दीना हूँ, मेरा धन है प्यार यही तेरा ठुकराया,
किन्तु बटाने को उतना ही मेरा मन व्याकुल हो आया-
एक अकेली ज्योति-किरण से पुलक उठी है मेरी काया,
मैं क्यों मानूँ सत्ता तम की?
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
तू इन आँखों के आगे बस स्थिर रह अरे अनोखे मेरे,
खड्गधार की राह बना कर पास आ रही हूँ मैं तेरे,
मुझ को कैसे घाट-बसेरे?
मेरी खेल बड़े जोखम की!
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
वन में रात पपीहे बोले, घन में रात दामिनी दमकी-
नभ में प्रात छा गयी स्मित उस अभिसारी मेरे निरुपम की-
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
कलकत्ता, 1939

162. शशि रजनी से कहता है - 'अज्ञेय'

शशि रजनी से कहता है, 'प्रेयसि, बोलो क्या जाऊँ?'
कहता पतंग से दीपक, 'यह ज्वाला कहो बुझाऊँ?'
तुम मुझ से पूछ रहे हो-'यह प्रणय-पाश अब खोलूँ?'
इस को उदारता समझूँ-या वक्ष पीट कर रो लूँ!
1935

163. मृत्यु अन्त है - 'अज्ञेय'

मृत्यु अन्त है सब कुछ ही का फिर क्यों धींगा-धींगी, देरी?
मुझे चले ही जाना है तो बिदा मौन ही हो फिर मेरी!
होना ही है यह, तो प्रियतम! अपना निर्णय शीघ्र सुना दो-
नयन मूँद लूँ मैं तब तक तुम रस्सी काटो, नाव बहा दो!
1935

164. प्रियतम, एक बार और - 'अज्ञेय'

प्रियतम, एक बार और, एक क्षण-भर के लिए और!
मुझे अपनी ओर खींच कर, अपनी समर्थ भुजाओं से अपने विश्वास-भरे हृदय की ओर खींच कर, संसार के प्रकाश से मुझे छिपा कर, एक बार और खो जाने दो, एक क्षण-भर के लिए और समझने दो कि वह आशंका निर्मूल है, मिथ्या है!
1935

165. जाना ही है तुम्हें - 'अज्ञेय'

जाना ही है तुम्हें, चले तब जाना,
पर प्रिय! इतनी दया दिखाना, मुझ से मत कुछ कह कर जाना!
सेवक होवे बाध्य कि अनुमति ले कर जावे,
और देवता भी भक्तों के प्रति यह शिष्टाचार दिखावे;
पर तुम, प्राण-सखा तुम! मेरे जीवन-खेलों के चिर-सहचर!
क्यों उस का सुख नष्ट करोगे पहले ही से बिदा माँग कर!
किसी एक क्षण तक अपना वह खेल अनवरत होता जावे;
मैं यह समझी रहूँ कि जैसे भूत युगों में तुम संगी थे, वैसे,
साथ रहेगा आगामी भी युगों-युगों तक।
फिर, क्षण-भर में तुम अदृश्य, मैं अपलक,
पीड़ा-विस्मय में लखती रह जाऊँ, कहाँ रहे तुम; और न उत्तर पाऊँ-
एक थपेड़े में बुझ जावे जीवन-दीपक का आह्लाद-
किन्तु बिदा के क्षण के क्षण-भर बाद!
मेरे जीवन के स्मित! तुम को रो कर बिदा न दूँगी-
आँखों से ओझल होने तक कहती यही रहूँगी:
'आओ प्रियतम! आओ प्रियतम! पवन-तरी है मेरा जीवन,
तुम उस के सौरभ-नाविक बन, दशों दिशा छा जाओ, प्रियतम!'
जाना ही है तुम्हें, चले तब जाना,
पर प्रिय! इतनी दया दिखाना-मुझ से मत कुछ कह कर जाना!
1935

166. मानस के तल के नीचे - 'अज्ञेय'

मानस के तल के नीचे है नील अतल लहराता
तल पर लख अपनी छाया तू लौट-लौट क्यों जाता?
है काम मुकुर का केवल करना मुख-छवि प्रतिबिम्बित-
क्या इसी मात्र से उस की है यथार्थता परिशंकित?
1936

167. मैं समुद्र-तट पर उतराती - 'अज्ञेय'

मैं समुद्र-तट पर उतराती एक सीपी हूँ, और तुम आकाश में मँडराते हुए तरल मेघ।
तुम अपनी निरपेक्ष दानशीलता में सर्वत्र जो जल बरसा देते हो, उस की एक ही बूँद मैं पाती हूँ, किन्तु मेरे हृदय में स्थान पा कर वही मोती हो जाती है।
मैं समुद्र-तट पर उतराती एक सीपी हूँ, और तुम आकाश में मँडराते हुए तरल मेघ।
हमारे जीवन एक-दूसरे से एक अपरिहार्य बन्धन में बँधे हुए हैं जिस की प्रेरणा है तुम्हारी शक्ति और मेरी व्यथा में एक अमूल्य रत्न की उत्पत्ति करना; किन्तु फिर भी तुम मुझ से कितनी दूर हो, कितने स्वच्छन्द, और मैं इस विशाल समुद्र से कैसी घिरी हुई, कितनी क्षुद्र!

168. जब तुम मेरी ओर - 'अज्ञेय'

जब तुम मेरी ओर अपनी अपलक आँखों से एक अद्भुत जिज्ञासा-भरी दृष्टि से देखते हो, जिस में संसार-भर की कोई माँग है, तब प्राणों के एक कम्पन के साथ मैं बदल जाती हूँ, मुझे एक साथ ही ज्ञान होता है कि मैं अखिल सृष्टि हूँ, और क्षुद्र हूँ, कुछ नहीं हूँ।
प्रियतम! प्रेम हमें उठाता है, या गिराता है, या उठने और गिराने मात्र की तुच्छ तुलनाओं से परे कहीं फेंक देता है...

169. जितनी बार - 'अज्ञेय'

जितनी बार मैं नभ में कोई तारा टूट कर गिरता हुआ देखती हूँ, उतनी बार मेरा अन्तर किसी पूर्व निर्देश-हीन प्रार्थना से कह उठता है: 'मुझे, उस से अनन्त संयोग प्राप्त हो जाए!'
कहते हैं कि तारे के टूटने और लुप्त हो जाने के अन्तरावकाश में उत्पन्न और व्यक्त अभिलाषा पूर्ण हो जाती है।
पर हमारा मिलन तो पहले ही अभिन्न है, तुम और मैं तो पहले ही अनन्त संयोग में एक हो कर खो चुके हैं; तब यह शकुन कैसे फलित होगा, तब यह अभिलाषा कैसे पूर्ण होगी-जो अलग ही नहीं है वे एक कैसे होंगे?
पर फिर इस अभिलाषा का उद्भव क्यों होता है?
मैं नहीं जानती! मैं नहीं जानती!
केवल, जितनी बार मैं नभ में कोई तारा टूट कर गिरता हुआ देखती हूँ उतनी ही बार मेरा अन्तर किसी पूर्वनिर्देश-हीन प्रार्थना से कह उठता है, 'मुझे उस से अनन्त संयोग प्राप्त हो जाए!'

170. रवि गये जान जब निशि ने - 'अज्ञेय'

रवि गये-जान जब निशि ने घूँघट से बाहर देखा;
शशि के मुरझाये मुख पर पायी विषाद की रेखा।
प्रियतम से मिलने सत्वर सम्भ्रान्त चली वह आयी।
उस को निज अंग लगा कर शशि ने जीवन-गति पायी,
'रविरोष अभी बाकी है', 'मिलनोचित समय' नहीं है
'नीलाम्बर व्यस्त हुआ है', 'भूषण-लडिय़ाँ बिखरी हैं',
कब सोचा यह सब निशि ने?
जब उस की स्त्री-आत्मा का आह्वान किया प्रकृति ने?

171. उल्लस शशि ने क्रीड़ा में - 'अज्ञेय'

उल्लस शशि ने क्रीड़ा में, बीतीं कुछ विह्वल घड़ियाँ।
(कब तक न बनी ही जातीं उस प्रणय-लड़ी की कड़ियाँ।)
रवि के आने पर शशि ने ली बिदा निशा से सत्वर।
चल दिया लिये प्राणों में निज सफल प्रेम का निर्झर!
'निशि को व्यक्तित्व नहीं' है, 'मैं ही हूँ उस का जीवन',
'ये ओस-बिन्दु हैं उस के बिखरे मूर्च्छित आँसू-कन,'
क्या देखा यह सब शशि ने?
जब उस के पुरुष-प्रणय को साफल्य दिया प्रकृति ने?
1934

172. जब मैं वाताहत झरते - 'अज्ञेय'

जब मैं वाताहत झरते फूल सरीखी उस के पैरों में जा गिरी, तब उसने निर्मम स्वर में पूछा-
जिस देवता के वरदान का भार सहने की क्षमता तुझ में नहीं थी, उसे तूने अपनी आराधना द्वारा क्यों प्रसन्न किया?

173. रोते-रोते कंठ-रोध है - 'अज्ञेय'

रोते-रोते कंठ-रोध है जब हो जाता,
उस विषन्न नीरव क्षण में ही
कहती गिरा तुम्हारी, स्नेही
शान्त भाव से-
'किस सुख में भूली हो, उन्मन?'
जिस से तड़प उठा है जीवन,
निर्मम! वही भुलाता!
गाते-गाते हो जाता स्वर-भंग कभी तो
उस के कम्पन को इंगित कर,
मादक आँखों में क्रीड़ा भर
तुम कहते हो-
'गायन इतना मीठा क्यों है?'
उस में विकल व्यथा-पुट जो है,
प्रियतम? हाय, तभी तो!

174. मैं तुम्हारे प्रेम की - 'अज्ञेय'

मैं तुम्हारे प्रेम की उस प्रोज्ज्वल उड़ान को नहीं पा सकती, पर उसे स्थायित्व देने वाली मैं ही तो हूँ।
तुम जलते हुए अंगारे हो, मैं उस पर छायी हुई राख का पुंज। तुम धधकते हो, मैं उस भीषण ज्वाला की दीप्ति नहीं पाती; पर तुम अपनी अन्तज्र्वाला को बिखरा कर शान्त हो जाते हो, मैं तब भी तो अपनी अभ्यस्त स्निग्ध गर्मी लिये तुम्हें आवृत किये रहती हूँ...
तुम मेरे अस्तित्व के भी प्राण हो, मैं तुम्हारी शक्ति की संरक्षिका मात्र।
यह मेरा स्वार्थ नहीं है कि मैं तुम्हारी प्रलय-क्षम शक्ति को फूटने नहीं देती, अपने सुख के लिए छिपाये रखती हूँ। क्यों कि देखो, जब भी कृतित्व की आँधी हमारी ओर आती है तभी मैं अपना अस्तित्व खो कर उड़ जाती हूँ और तुम्हारे प्रोज्ज्वल ताप को और भी दीप्त हो लेने देती हूँ!

175. क्यों पूछ-पूछ जाती है - 'अज्ञेय'

क्यों पूछ-पूछ जाती है तारक-नयनों की झपकी-
क्या अभी अलक्षित ही हैं किरणें तेरे दीपक की?
इस जीवन के सागर में मेरा रस-बिन्दु कहाँ है?
सब ओर चाँदनी छिटकी-मेरी ही इन्दु कहाँ है?
शशि घन में छिप सकता है-मेरा शशि नहीं छिपेगा-
पर इस अभिमान भरोसे कब तक यह प्राण रहेगा?
'आओगे', इस आशा में 'हो दूर' की छिपी तड़पन-
जब स्रोत हुआ हालाहल कैसी तन्मयता, जीवन!
अच्छा होता कि हताशा अतिशय पूरी हो जाती-
तेरी अनुपस्थिति से ही मैं अपने प्राण बसाती!
जब विरह पहुँच सीमा पर आत्यन्तिक हो जाता है-
हो कर वह आत्म-भरित तब प्रियतम को पा जाता है।
सागर जब छलक-छलक कर भी शून्य अमा पाता है-
तब किस दुस्सह स्पन्दन से उस का उर भर आता है!
1935

176. दूर, नील आकाश के पट पर - 'अज्ञेय'

दूर, नील आकाश के पट पर खचित-से,उस खँडहर के झरोखे में पड़कुलिया का जोड़ा बैठा है।
बेरी के वृक्ष पर बैठी हुई चील कठोर किन्तु उग्र अनुभूति-भरी पुकार द्वारा आकाश में उड़ते हुए अपने सहचर को बुला रही है।
अनभ्राकाश की विस्तीर्ण हल्की नीलिमा में दोपहरी का प्रकाश विलीन या व्याप्त हो कर एक अदृश्य किन्तु तीखी ज्योति से
चमक रहा है।
मैं बिल्कुल अकेली हूँ।
फिर भी न जाने क्यों, मेरे हृदय में वह जिज्ञासु तड़पन नहीं पूछती कि 'प्रियतम, तुम कहाँ हो!'...

177. जाते-जाते कहते हो - 'अज्ञेय'

जाते-जाते कहते हो-'जीवन, अब धीरज धरना!'
क्यों पहले ही न बताया मत प्रेम किसी से करना!
तुम कहते तो मैं सुनती? मैं आहुति स्वयं बनी थी!
मेरी हतसंज्ञ विवशता में चेतनता कितनी थी!
मेरे धीरज से तुम को क्या? अब इस को खोने दो,
परिमाण प्रणय के ही में बस रोने दो, रोने दो!
1935

178. जीवन तेरे बिन भी है - 'अज्ञेय'

जीवन तेरे बिन भी है!
पत्र नहीं, फल-फूल नहीं हैं परिमल नहीं पराग नहीं है
शिशिर-तिमिर में नन्दन-कानन ही अब विजन विपिन भी है।
व्यथा भार के बोझल पलक, अश्रु-तुहिन आँखों से ढलके,
प्राणों पर तमसा छायी है पर सुनती हूँ दिन भी है!
बहा जा रहा काल निरन्तर, घड़ी-घड़ी पल-पल गिन-गिन कर
पर वियोग-रजनी की साँसें दीर्घ नहीं, अनगिन भी हैं!
मिलन यहाँ है मिथ्या, माया तथ्य लुटी आत्मा ने पाया
बँधी हुई तो रही सदा से, हाय आज विरहिन भी है।
दीप, लुटा दो अब यह ज्वाला, ऊषा में भविष्य है काला,
ज्योति काँपती थी सन्ध्या में, प्रात: काल मलिन भी है!
जीवन तेरे बिन भी है!

179. विस्मृति-विषाक्त - 'अज्ञेय'

विस्मृति-विषाक्त हाला भी पिला दो!
प्राण वीणा मृत्यु-राग में हिला दो!
तम ने चारों ओर घेरा, उचट गया जब प्यार तेरा।
टूटा जीवन-द्वीप मेरा-
कुचल दो इस को धूल में मिला दो!
मन के सारे तार टूटे, पीड़ा धारासार फूटे।
पर कैसे यह प्यार छूटे?
इस के छिन्न प्राण को भी जला दो!
प्रणयी का सान्निध्य खोया, युगों-युगों का स्नेह सोया,
प्राणों का कंकाल रोया-
मर्मान्तक यह पीड़ा भी सुला दो!
विस्मृति-विषाक्त हाला भी पिला दो!
प्राण-वीणा मृत्यु राग में हिला दो!
1939

180. ओ तेरा यह अविकल मर्मर - 'अज्ञेय'

ओ तेरा यह अविकल मर्मर!
ओ पथ-रोधक चट्टानों को भी खंडित कर देने वाले!
ओ प्रत्यवलोकन के हित भी रुक कर साँस न लेने वाले!
विफल जगत् का हृदय चीर कर कर्म-तरी के खेने वाले!
तू हँसता है, या तुझ को हँसती है कोई निर्दय नियति,
तू बढ़ता है, या कि तुझे ले बही जा रही जीवन की गति!
ओ अजस्र, ओ पीड़ा-निर्झर! ओ तेरा यह अविकल मर्मर!
तेरी गति में इन आँखों को पीड़ा ही पीड़ा क्यों दीखी?
तीखेपन के कारण? पर मदिरा भी तो होती है तीखी!
मदिरा में भी चंचल बुद्बुद, मदिरा भी करती है विह्वल;
मदिरा में भी तो कोई सम्मोहन रहता ही है बेकल!
पर-अजस्रता! इस गतिमान चिरन्तनता की
मदिरा की मादकता में होती क्या झाँकी?
कसक अजस्र एक मात्र पीड़ा की!
ओ अजस्र ओ पीड़ा निर्झर! ओ तेरा यह अविकल मर्मर!
कुछ भी हो हम-तुम चिरसंगी इस जगती में
बढ़ते ही बस जाने वाले, द्रुत गति, धीमे,
विजित, विजेता; गतियुत, परिमित; आगे बढऩे को अभिप्रेरित-
अपर नियन्त्रण किन्तु किसी से बाधित;
तुम, उस अनुल्लंघ्य गति-क्रम से-मैं, पाषाण-हृदय प्रियतम से!
ओ अजस्र, ओ पीड़ा-निर्झर! ओ तेरा यह अविकल मर्मर!
प्रणयी निर्झर! आओ, हम दोनों के प्राणों में पीड़ा-झंझा के झोंके
एक बवंडर आज उठावें-बाँध तोड़ कर सतत जगावें
विवश पुकारें जो नभ पर छा जावें!
एक मूक आह्वान, सदा एकस्वर,
कहता जावे, कहता जावे, निर्झर
दोनों ही के अन्तरतम की गूढ़ व्यथाएँ
वे उद्विग्न, अबाध, अगाध, अकथ्य कथाएँ!
डलहौजी, अक्टूबर, 1934

181. जग में हैं अगणित दीप जले - 'अज्ञेय'

जग में हैं अगणित दीप जले।
वे जलते-जलते जाते हैं, फिर निर्वापित हो जाते हैं,
तब जग उन्हें बहा आता है;
उस को उन का मोह नहीं है-'जल-जल कर फिर बुझना ही है,
इस गति से छुटकारा बोलो कौन कहाँ पाता है?'
कुछ भी हो, पर आज उधर जग में हैं अगणित दीप जले!
एक खड़ी हूँ मैं भी ले कर जो न कभी आलोकित होगा-
प्यार जगाता है, पीड़ा का जलना भी होगा अँधियारा-
मुझे घेर बहती जाती है एक विषैली धूमिल तारा।
खोना भी खो कर रोना भी, यह किन पापों का फल भोगा!
किन्तु उधर जग में हैं अगणित दीप जले!
एक ओर सारी जगती की ज्योतिर्माला-
और इधर, यह पीड़ा-अम्बर काला!
फिर भी, मैं भी दीपक थामे खड़ी हुई हूँ,
स्मृति की स्पन्दित टीसों ही से जीवित पड़ी हुई हूँ...
और उधर जग में हैं अगणित दीप जले!
आज, जगत् की सुन्दरता जब छीन ले गया पतझर-
उसे भुलाने वह जाता है ये सब अगणित दीप जला कर।
इधर खड़ी मैं सोच रही हूँ-
जिसे भूलना है, उस का ही आश्रय ले कर उसे भुलाना!
मैं ऐसी विफला चेष्टा में निरत नहीं हूँ!
यदपि आज जग में हैं अगणित दीप जले!
पतझर, पतझर, पतझर, पतझर...
गिरते पत्तों का यह अविकल सरसर,
कहता जाता है-सुन्दरता नश्वर, नश्वर!
मेरे हाथों का यह दीपक, मेरे प्राणों का यह स्पन्दन,
तड़प-तड़प कर करता जाता उस का खंडन!
गये दिनों में भी, नहीं जब पात झरे थे,
डार-डार पर जब फूलों के भार भरे थे,
अवनी-भर पर खेल रही थीं यौवन-जीवन की छायाएँ
मृदु अनामिका से मलयानिल
देता भाल-बिन्दु-सा परिमल,
गले-गले में डाल-डाल जाता सौरभ-मालाएँ!-
गये दिनों में कभी, अपरिचित एक बटोही आया,
उस के निर्मम हाथों मैं ने दीप एक बस पाया।
अंक छिपाये, भर-भर स्नेह लिये यह अभी खड़ी हूँ
और पात झरते जाते हैं, और, नहीं वह आया!
और उधर जग मैं हैं अगणित दीप जले!
बुझे-अनजले दीपक! मेरे जीवन की सुन्दरते!
अब अपने संकेत! नहीं क्यों छूट हाथ में गिरते!
गया बटोही, बीता मधु भी, फूल हो गये स्मृतियाँ
अब सूखी जीवन-शाखा के पात-पात हैं झरते!
पर जीवन-सर्वस्व! रहो बन मेरे एक सहारे
जग के दीपक एक-एक निर्वापित होंगे सारे!
वे मरणोन्मुख सफल-और तुम असफल जीवन-आतुर,
तुम पीड़ा हो, पर अजस्र; वे सुख हैं पर क्षणभंगुर!
मैं हूँ अन्धकार में पर विश्वास भरी हूँ रोती-
पीड़ा जाग रही है यद्यपि दीप-शिखा है सोती-
वे सब-विधि से गये छले-जग में हैं अगणित दीप जले!
1935

182. रहने दे इन को निर्जल - 'अज्ञेय'

रहने दे इन को निर्जल ये प्यासी भी जी लेंगी-
युग-युग में स्नेह-ललायित पर पीड़ा भी पी लेंगी!
अपनी वेदना मिटा लूँ? उन का वरदान अमर है!
जी अपना हलका कर लूँ? वह उन की स्मृति का घर है!
सर्वथा वृथा ही तूने ओ काल! इन्हें ललकारा।
तू तृण-सा बह जाए यदि फूटे भी आँसू धारा।
आँखें मधु माँग रही हैं, पर पीड़ा भी पी लेंगी;
रहने दे इन को निर्जल ये प्यासी भी जो लेंगी!
1936

183. नित्य ही सन्ध्या को - 'अज्ञेय'

नित्य ही सन्ध्या को, कुमुदिनी स्वप्न में देखा करती है कि चन्द्रोदय हो गया है, और वह अभी सोयी पड़ी है, और चन्द्र आ कर अपने शुभ्र, कोमल, हिम-शीतल ज्योत्स्ना-करों से उसे उठा कर कहता है, 'प्रिये, अभी उठी नहीं?'
इस कल्पना से उस का अलसाया हुआ शरीर सिहर उठता है।
पर नित्य की सन्ध्या को, कुमुदिनी निराशा की विवशता से उत्पन्न आशा ले कर अपने हृदय की मधु-मंजूषा खोल कर, शशि के आने से पहले ही सत्कार-तत्पर हो कर खड़ी हो जाती है।
जो कल्पना स्वयं अपने विनाश का आधार होती है, वह वास्तविकता के निर्माण में सहायक नहीं होती!
1936

184. गायक! रहने दो इन को - 'अज्ञेय'

गायक! रहने दो इन को, ये कातर तार बिचारे
रुद्ध स्वर के ही खिंचाव से टूट रहे हैं सारे!
यदपि नहीं निज व्यथा-कथा रोते-रोते वे थकते-
मीड़ न दो! आशा का कम्पन तार नहीं सह सकते!
1936

185. समीरण के झोंके में - 'अज्ञेय'

समीरण के झोंके में फूल हँसते हैं, और खिल कर एकाएक कह देते हैं, 'प्रियतम, अब जाना मत!'
पर मेरी वाणी तुम्हारे आने पर भी स्तब्ध, मूढ़, नीरव ही रह जाती है।
समीरण फूलों को झुला कर कहता है, 'अब सो जाओ!' और जाते हुए उन के अलस ओठों पर चुम्बन अंकित कर जाता है।
तुम्हारे जाने पर मेरी इच्छा यों ही रह जाती है कि मुझ पर कहीं तुम्हारा चिह्न हो जिसे मैं मरते समय भी अभिमान और शान्तिपूर्वक धारण कर सकूँ!
1936

186. क्या खंडित आशाएँ ही हैं - 'अज्ञेय'

क्या खंडित आशाएँ ही हैं धन अपने जीवन का?
क्यों टूट नहीं जाता है धीरज इस कुचले मन का?
कहते हैं, घटनाओं की पहले घिरतीं छायाएँ-
क्यों नहीं मिलन-क्षण में ही फिर मेरा माथा ठनका?
1936

187. आज विदा - 'अज्ञेय'

आज विदा!
पीड़ा के दिन बीते जाते-कभी प्राण जागेंगे, गाते।
याद मुझे भी तब कर लेना प्रियतम! यदा-कदा!
टूट जाएँ इस जग के बन्धन-एक रहेगा अन्त:स्पन्दन!
स्मृति ही नहीं, बसेंगे मुझ में तेरे प्राण सदा!
पर, आज विदा!
1936

188. दीपक के जीवन में - 'अज्ञेय'

दीपक के जीवन में कई क्षण ऐसे आते हैं, जब वह अकारण ही, या किसी अदृश्य कारण से, एकाएक अधिक दीप्त हो उठता है, पर वह सदा उसी प्रोज्ज्वलतर दीप्ति से नहीं जल सकता।
प्रेम के जीवन में भी कई ऐसे क्षण आते हैं जब अकस्मात् ही उसका आकर्षण दुर्निवार हो उठता है, पर वह सदा उसी खिंचाव को सहन नहीं कर सकता।
फिर, प्रियतम! हम क्यों चाहते हैं सदा इस ऊध्र्वगामी ज्वाला की उच्चतम शिखा पर आरूढ़ रहना!
1936

189. दोनों पंख काट कर मेरे - 'अज्ञेय'

दोनों पंख काट कर मेरे-
मुझ को ला फेंका निर्मोही तूने किस घनघोर अँधेरे!
थे अभ्यासी प्राण अनन्त गगन में विचरण करने के-
गीतों में नभ, नभ में निज निर्बाध गीत बस भरने के।
किसी विफलता में सब हेरे।
आज तुम्हारी किरण कभी जो भटकी-सी आ जाती है-
अक्षमता के विवश ज्ञान से और मुझे तड़पाती है।
रो लेती हूँ आँखें फेरे।
किन्तु तुझे क्या कहूँ कि तूने ही उडऩा सिखलाया था;
क्षेत्र नहीं है, पर अनुभव-उपहार तुझी से पाया था।
प्राण ऋणी हैं फिर भी तेरे!
यद्यपि ला फेंका निर्मोही तूने किस घनघोर अँधेरे-
दोनों पंख काट कर मेरे!
1936

190. पुरुष! जो मैं देखती हूँ - 'अज्ञेय'

पुरुष! जो मैं देखती हूँ, वह मैं हूँ नहीं, किन्तु जो मैं हूँ उसे मत ललकारो!
तुम्हें क्या यह विश्वास हो गया है कि मुझ में अनुभूति-क्षमता नहीं है?
तुम क्या सचमुच ही मानते हो कि मैं केवल मोम की पुलती हूँ, कोमल, चिकनी, बाह्य उत्ताप से पिघल सकने वाली, किन्तु स्वयं तपाने के, भस्म करने के लिए सर्वथा असमर्थ?
मुझ में भी उत्ताप है, मुझ में भी दीप्ति है, मैं भी एक प्रखर ज्वाला हूँ। पर मैं स्त्री भी हूँ, इसलिए नियमित हूँ, तुम्हारी सहचरी हूँ, इसलिए तुम्हारी मुखापेक्षी हूँ, इसलिए प्रणयिनी हूँ, इसलिए तुम्हारे स्पर्श के आगे विनम्र और कोमल हूँ।
पुरुष, जो मैं दीखती हूँ, वह मैं हूँ नहीं, किन्तु जो मैं हूँ, उसे मत ललकारो!
डलहौजी, सितम्बर, 1934

191. मैं तुम से अनेक बार - 'अज्ञेय'

मैं तुम से अनेक बार जान-बूझ कर झूठ कहती आयी हूँ। किन्तु उस के लिए मेरे हृदय में अनुताप नहीं है, क्योंकि मैं नित्य ही आत्म-दमन की घोर यातना में उस का प्रायश्चित कर लेती हूँ।
मैं अपने को एक बार तुम्हें समर्पित कर चुकी हूँ। मैं ने अपना अस्तित्व मिटा दिया है। अब जो मैं हूँ वह है केवल तुम्हारी रुचियों, तुम्हारी इच्छाओं, तुम्हारी कामनाओं, तुम्हारी भूख-प्यास, तुम्हारे आदर्श की पूर्ति में निरत हो कर अपने को मटियामेट कर देने वाली मेरी शक्ति, जिस का तुम ने वरण किया है।
इस प्रकार अपने में केवल मात्र तुम्हें प्रतिबिम्बित करने की उत्सर्गपूर्ण चेष्टा में मैं तुम से अनेक बार जान-बूझ कर झूठ कहती आयी हूँ, किन्तु उसके लिए मेरे हृदय में अनुपात नहीं है, क्योंकि मैं नित्य ही आत्म-दमन की घोर यातना में उस का प्रायश्चित कर लेती हूँ।
डलहौजी, सितम्बर, 1934

192. प्रियतम! कैसे तुम्हें समझाऊँ - 'अज्ञेय'

प्रियतम! कैसे तुम्हें समझाऊँ कि वह अहंकार नहीं है?
वह आत्म-दमन है, घोर यातना है,
किन्तु वह मेरा स्त्रीत्व का अभिमान भी है,
मेरे प्राणों की अभिन्नतम पीड़ा
जिस के बिना मैं जी नहीं सकती!
डलहौजी, सितम्बर, 1934

193. चौंक उठी मैं - 'अज्ञेय'

चौंक उठी मैं, मुझे न जाने क्यों सहसा आभास हुआ-
तेरे स्नेहसिक्त कर ने मेरी अलकों का छोर छुआ!
कितना दु:सह उल्लास हुआ!
टूट गया वह जागृत-स्वप्न कि जिस में मन उलझाये थी-
जाना, वही बुलाता है जिस पर मैं ध्यान जमाये थी।
प्राणों में जिसे बसाये थी।
कहाँ! किसी सूखे-से तरु से पात गिरे थे दो झर कर-
और फरास किसी झोंके से आहत रोये थे सर-सर!
दुख-भरे, दीन पीड़ा-जर्जर!
डलहौजी, सितम्बर, 1934

194. प्रिय, तुम हार-हार कर जीते - 'अज्ञेय'

प्रिय, तुम हार-हार कर जीते!
जागा सोया प्यार सिहर कर, प्राण-अघ्र्य से आँखें भर-भर।
स्पर्श तुम्हारे से जीवित हैं, दिन वे कब के बीते!
कैसे मिलन-विरह के बन्धन? क्यों यह पीड़ा का आवाहन?
कोष कभी जो साथ भरे थे हो सकते क्या रीते!
प्रिय, तुम हार-हार कर जीते!
1936

195. तेरी स्मित-ज्योत्स्ना के - 'अज्ञेय'

तेरी स्मित-ज्योत्स्ना के अर्णव में मैं अपना आप डुबो लूँ-
तेरी आँखों में आँखें खो अपना अपनापन भी खो लूँ-
बह जावे प्राणों में संचित युग-युग का वह कलुष व्यथा का-
तेरे आँचल से मुँह ढँक एक बार मैं जी भर रो लूँ!
1936

196. इस मन्दिर में तुम होगे क्या - 'अज्ञेय'

इस मन्दिर में तुम होगे क्या?
इन उपासकों से क्या मुझ को? ये तो आते ही रहते हैं।
जहाँ देव के चरण छू सके-सौरभ-निर्झर ही बहते हैं।
अब भी जीता पदस्पर्श? मुझ को यह बदला दोगे क्या?
कितने वर्ष बाद आयी हूँ उन पर अपनी भेंट चढ़ाने!
मैं चिर, विमुख, झुका कर मस्तक कालान्तर को आज भुलाने!
क्या बोलूँ-यदि बोल भी सकूँ! तुम आदेश करोगे क्या?
पीठ शून्य भी हो, आँखें क्यों करें न चरण-स्मृति का तर्पण!
देव! देव! उर आरति-दीपक! यह लो मेरा मूक समर्पण!
मेरी उग्र दिदृक्षा को माया से भी न वरोगे क्या?
इस मन्दिर में तुम होगे क्या?
1936

197. प्रियतम, आज बहुत दिन बाद - 'अज्ञेय'

प्रियतम, आज बहुत दिन बाद!
आँखों में आँसू बन चमकी तेरी कसक भरी-सी याद!
आज सुना है युगों-युगों पर तेरे स्वर का मीठा मर्मर-
जिसे डुबाये था अब तक जग का वह निष्फल रौरव-नाद!
प्रियतम, आज बहुत दिन बाद!
छिन्न हुआ अँधियारा अम्बर, चला लोचनों से बह झर-झर
विपुल राशि में संचित था जो मेरे प्राणों में अवसाद!
प्रियतम, आज बहुत दिन बाद!
रो लेने दो मुझ को जी भर-यही आज सुख सब से बढ़ कर!
मुझे न रोको आज कि मुझ पर छाया है उत्कट उन्माद!
प्रियतम, आज बहुत दिन बाद!
1936

198. रजनी ऊषा में हुई मूक - 'अज्ञेय'

रजनी ऊषा में हुई मूक कुछ रो-रो कर, कुछ काँप-काँप;
इस असह ज्योति से बचने को मैं ने मुख अपना लिया ढाँप!
याचना मात्र से कैसे निधि पा लेगा जो था सदा क्षुद्र?
युग-युग की प्यासी हो कर भी धूली क्या पी लेगी समुद्र!
मैं झुकूँ, डुबाते बह जाओ ओ मेरे ही दुर्धर प्रवाह-
हे अतुल! सोख लो अपने में मेरे उर का खद्योत दाह!
1935

199. अगर तुम्हारी उपस्थिति में मैं - 'अज्ञेय'

अगर तुम्हारी उपस्थिति में मैं अभिमान और अहंकार से भर जाती हूँ-
तो, प्रिय! तुम उस धूली के अभिमान की याद कर लिया करो जो कि तुम्हारे पैरों के नीचे कुचली जा कर क्रुद्ध सर्प की तरह फुफकार कर उठ खड़ी होती है।
डलहौजी, सितम्बर, 1935

200. बार-बार रौरव जग का - 'अज्ञेय'

बार-बार रौरव जग का मेरा आह्वान किया करता है:
मेरी अन्तज्र्योति बुझा देने को तम से नभ भरता है।
पर प्रियतम! जिन प्राणों पर पड़ चुकी कभी भी तेरी छाया-
उन्हें खींच लेने की शक्ति कहाँ से लावे उसकी माया!
नीरव उर-मन्दिर में यह मन तेरा ध्यान किया करता है-
यदपि सदा रौरव जग का मेरा आह्वान किया करता है।
1935

201. मेरे उर में जिस भव्य आराधना का - 'अज्ञेय'

मेरे उर में जिस भव्य आराधना का उपकरण हो रहा है, तुम उस के लक्ष्य, मेरे आराध्य, नहीं हो।
मेरे उरस्थ मेरा तुम्हारे प्रति प्रेम-उस प्रेमव्रत के सम्यक् उद्यापन की कामना में निरत मेरी उग्र शक्ति-ही मेरी आराध्य है।
तुम? तुम हो उस आराधना के आरती-दीप, मेरे सहयोगी, मेरी उपासना को दीप्ति देने वाले, मेरे प्रज्वलित प्राण! पर मेरे उर में जिस भव्य आराधना का उपकरण हो रहा है, तुम उस के लक्ष्य, मेरे आराध्य, नहीं हो।
1936

202. मानव से कुछ ही ऊँचे - 'अज्ञेय'

मानव से कुछ ही ऊँचे, पर देव के समीप!
प्रियतम, प्राण, जीवन-दीप!
पार्थिव सुख-दुख ओछे बन्धन, कभी देख निर्बलता का क्षण,
घोट डालते क्रूर करों से उर में छिपा हुआ भी स्पन्दन!
कब की भूली, आज जगी हूँ, पुन: खोजने तुझे लगी हूँ,
इतने नीरस दिन बीते पर अब भी तेरे प्रेम पगी हूँ।
तुझ से प्लावित मेरा स्तर-स्तर फिर भी क्षण-भर तुझे अलग कर,
क्षमा माँग विनती करती हूँ-प्रेम यदपि है सदा अनश्वर,
उसे भूमि से ऊँचा रखना, दिव्य के समीप!
प्रियतम, प्राण, जीवन-दीप!
1936

203. शीत के घन अम्बर को चीर - 'अज्ञेय'

शीत के घन अम्बर को चीर
स्नेह-स्पर्श-सा बहता आया सुरभित मलय-समीर।
वन की वल्लरियाँ फिर फूलीं, सुरभि-हिंडोलों ही पर झूलीं
उल्लस स्वर से फिर-फिर बोला पीपल-तरु पर कीर!
नीरसता भी हुई पल्लवित, मेरा अंग-अंग मधु-प्लावित,
मद-रस से भर हरी हो गयी मेरे उर की पीर।
तेरा प्यार, सुरभि-सा कोमल, अंग-राग-सा छाया परिमल,
आयी हूँ अवगाहन करने स्नेह-तरी के तीर!
शीत-शिशिर के सूखे सपने, फिर अब क्यों दिन होंगे अपने?
अब मधु ही है प्राण हमारा हम-तुम एक शरीर!
शीत के घन अम्बर को चीर!
1935

204. ओ अप्रतिम उरस्थ देवता मेरे - 'अज्ञेय'

ओ अप्रतिम उरस्थ देवता मेरे!
मेरा जीवन तेरी वेदी, अंजलि बेसुध प्राणों ने दी;
पीड़ा से तीखे, हृद्भेदी
भावों से जलते दीपों की सदा आरती तुझ को घेरे!
फूल नहीं थे, तू ले आया, मैं अवाक् थी, तू ने गाया:
बिना किये पूजा फल पाया,
मिटते-मिटते जाना मैं ने लीन हुई मैं उर में तेरे!
ओ अप्रतिम उरस्थ देवता मेरे!
1936

205. आशा के उठते स्वर पर मैं - 'अज्ञेय'

आशा के उठते स्वर पर मैं मौन, प्राण, रह जाऊँ!
आशा, मधु, द्वार प्रणय का-इस से आगे क्या गाऊँ?
जीवन-भर धक्के खाये, आहत भी हुए विलम्बित;
पर दीप रहे यदि जलता तो शिखा क्यों न हो कम्पित?
विश्वात्मा ही यह जाने हम सुखी हुए या असफल;
मैं कहूँ कि यदि हम हारे-वह हार बड़ी है कोमल!
कर पार समुद्र जीवन का हम पीछे लौट न देखें
बढ़ते अनन्त तक जावें इस से गुरु क्या सुख लेखें!
आशा, मधु, द्वार प्रणय का-इस से आगे क्या गाऊँ?
आशा के उठते स्वर पर मैं मौन प्राण रह जाऊँ!
1936

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