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भग्नदूत - 'अज्ञेय' | Bhagnadoot - 'Agyeya' (toc)
1. विकल्प - 'अज्ञेय'
वेदी तेरी पर माँ, हम क्या शीश नवाएँ?
तेरे चरणों पर माँ, हम क्या फूल चढ़ाएँ?
हाथों में है खड्ग हमारे, लौह-मुकुट है सिर पर-
पूजा को ठहरें या समर-क्षेत्र को जाएँ?
मन्दिर तेरे में माँ, हम क्या दीप जगाएँ?
कैसे तेरी प्रतिमा की हम ज्योति बढ़ाएँ?
शत्रु रक्त की प्यासी है यह ढाल हमारी दीपक-
आरति को ठहरें या रण-प्रांगण में जाएँ?
2. पूर्व-स्मृति - 'अज्ञेय'
पहले भी मैं इसी राह से जा कर फिर-फिर हूँ आया-
किन्तु झलकती थी इस में तब मधु की मन-मोहक माया!
हरित-छटामय-विटप-राजि पर विलुलित थे पलाश के फूल-
मादकता-सी भरी हुई थी मलयानिल में परिमल धूल!
पागल-सी भटकी फिरती थी वन में भौंरों की गुंजार,
मानो पुष्पों से कहती हो, 'मधुमय है मधु का संसार!'
कुंजों में तू छिपती फिरती-करती सरिता-सी कल्लोल,
व्यंग्य-भाव से मुझ से कहती, 'क्या दोगे फूलों का मोल?'
हँस-हँस कर तू थी खिल जाती सुन कर मेरी करुण पुकार-
'मायाविनि! मरीचिका है यह, या छलना, या तेरा प्यार?'
कई बार मैं इसी राह से जा फिर-फिर हूँ आया-
किन्तु झलकती थी इस में तब मधु की मन-मोहक माया!
चला जा रहा हूँ इस पथ से ले निज मूक व्यथा उद्भ्रान्त,
किन्तु आज छाया है इस पर नीरव-सा नीरस एकान्त!
पुष्पच्छटा-विहीन खड़े रोते-से लखते हैं तरुवर-
पीड़ा की उच्छ्वासों-सी कँपती हैं शाखाएँ सरसर!
बीता मधु, भूला मधु-गायन बिखरी भौंरों की गुंजार;
दबा हुआ सूने में फिरता वन-विहगों का हाहाकार!
अन्तस्तल में मीठा-मीठा गूँज रहा तेरा उपहास-
मानव-मरु में कहाँ छिपाऊँ मैं अपने प्राणों की प्यास?
कई बार मैं इसी राह से जा कर फिर-फिर हूँ आया-
किन्तु कहाँ इस में पाऊँ वह मधु की मन-मोहक माया!
दिल्ली जेल, नवम्बर, 1931
3. सम्भाव्य - 'अज्ञेय'
सम्भव था रजनी रजनीकर की ज्योत्स्ना से रंजित होती,
सम्भव था परिमल मालति से ले कर यामिनि मंडित होती!
सम्भव था तब आँखों में सुषमा निशि की आलोकित होती,
पर छायी अब घोर घटा, गिरते केवल शिशराम्बुद मोती!
सम्भव था वन की वल्लरियाँ कोकिल-कलरव-कूजित होतीं,
राग-पराग-विहीना कलियाँ भ्रान्त भ्रमर से पूजित होतीं;
सम्भव था मम जीवन में गायन की तानें विकसित होतीं,
पर निर्मम नीरव इस ऋतु में नीरव आशा की स्मित होतीं!
सम्भव था नि:सीम प्रणय यदि आँखों से आँखें मिल जातीं,
सम्भव था मेरी पीड़ा भी सुखमय विस्मृति में रल जाती-
सम्भव था उजड़े हृदयों में प्रेमकली भी फिर खिल आती!
किन्तु कहाँ! सम्भाव्य स्मृति से सिहर-सिहर उठती यह छाती!
दिल्ली जेल, अक्टूबर, 1931
4. क्योंकर मुझे भुलाओगे - 'अज्ञेय'
दीप बुझेगा पर दीपक की स्मृति को कहाँ बुझाओगे?
तारें वीणा की टूटेंगी-लय को कहाँ दबाओगे?
फूल कुचल दोगे तो भी सौरभ को कहाँ छिपाओगे?
मैं तो चली चली, पर अब तुम क्योंकर मुझे भुलाओगे?
तारागण के कम्पन में तुम मेरे आँसू देखोगे,
सलिला की कलकल ध्वनि में तुम मेरा रोना लेखोगे।
पुष्पों में, परिमल समीर में व्याप्त मुझी को पाओगे,
मैं तो चली चली, पर प्रियवर! क्योंकर मुझे भुलाओगे?
दिल्ली जेल, सितम्बर, 1931
5. गीति - १ - 'अज्ञेय'
माँझी, मत हो अधिक अधीर।
साँझ हुई सब ओर निशा ने फैलाया निडाचीर,
नभ से अजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर,
किन्तु सुनो! मुग्धा वधुओं के चरणों का गम्भीर
किंकिणि-नूपुर शब्द लिये आता है मन्द समीर।
थोड़ी देर प्रतीक्षा कर लो साहस से, हे वीर-
छोड़ उन्हें क्या तटिनी-तट पर चल दोगे बेपीर?
माँझी, मत हो अधिक अधीर।
दिल्ली जेल, नवम्बर, 1931
6. गीति - २ - 'अज्ञेय'
वे छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।
आती है दुकूल से मृदुल किसी के नूपुर की झंकार,
काँप-काँप कर 'ठहरो! ठहरो!' की करती-सी करुण पुकार
किन्तु अँधेरे में मलिना-सी, देख, चिताएँ हैं उस पार
मानो वन में तांडव करती मानव की पशुता साकार।
छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।
जाना बहुत दूर है पागल-सी घहराती है जल-धार,
झूम-झूम कर मत्त प्रभंजन करता है भय का संचार
पर मीलित कर आँखों को तू तज दे जीवन के आधार-
ऊषा गगन में नाच रही होगी जब पहुँचेंगे उस पार!
छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।
दिल्ली जेल, नवम्बर, 1931
7. बत्ती और शिखा - 'अज्ञेय'
मेरे हृदय-रक्त की लाली इस के तन में छायी है,
किन्तु मुझे तज दीप-शिखा के पर से प्रीति लगायी है।
इस पर मरते देख पतंगे नहीं चैन मैं पाती हूँ-
अपना भी परकीय हुआ यह देख जली मैं जाती हूँ।
दिल्ली जेल, नवम्बर, 1931
8. तुम और मैं - 'अज्ञेय'
मैं मिट्टी का दीपक, मैं ही हूँ उस में जलने का तेल,
मैं ही हूँ दीपक की बत्ती, कैसा है यह विधि का खेल!
तुम हो दीप-शिखा, मेरे उर का अमृत पी जाती हो-
जला-जला कर मुझ को ही अपनी तुम दीप्ति बढ़ाती हो।
तुम हो प्रलय-हिलोर, तुम्हीं हो घोर प्रभंजन झंझावात,
तुम ही हो आलोक-स्तम्भ, कर देती हो आलोकित रात।
मैं छोटी-सी तरिणी-सा तेरी लपेट में बहता हूँ-
फिर भी पथ-दर्शन की आशा से चोटें सब सहता हूँ।
दिल्ली जेल, नवम्बर, 1931
9. घट - 'अज्ञेय'
कंकड़ से तू छील-छील कर आहत कर दे
बाँध गले में डोर, कूप के जल में धर दे।
गीला कपड़ा रख मेरा मुख आवृत कर दे-
घर के किसी अँधेरे कोने में तू धर दे।
जैसे चाहे आज मुझे पीडि़त कर ले तू,
जो जी आवे अत्याचार सभी कर ले तू।
कर लूँगा प्रतिशोध कभी पनिहारिन तुझ से;
नहीं शीघ्र तू द्वन्द्व-युद्ध जीतेगी मुझ से!
निज ललाट पर रख मुझ को जब जाएगी तू-
देख किसी को प्रान्तर में रुक जाएगी तू,
भाव उदित होंगे जाने क्या तेरे मन में-
सौदामिनि-सी दौड़ जाएगी तेरे तन में;
मन्द-हसित, सव्रीड झुका लेगी तू माथा,
तब मैं कह डालूँगा तेरे उर की गाथा!
छलका जल गीला कर दूँगा तेरा आँचल,
अत्याचारों का तुझ को दे दूँगा प्रतिफल!
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931
10. अपना गान - 'अज्ञेय'
इसी में ऊषा का अनुराग इसी में भरी दिवस की श्रान्ति,
इसी में रवि के सान्ध्य मयूख इसी में रजनी की उद्भ्रान्ति;
आद्र्र-से तारों की कँपकँपी व्योमगंगा का शान्त प्रवाह,
इसी में मेघों की गर्जना इसी में तरलित विद्युद्ïदाह;
कुसुम का रस परिपूरित हृदय मधुप का लोलुपतामय स्पर्श,
इसी में काँटों का काठिन्य, इसी में स्फुट कलियों का हर्ष;
इसी में बिखरा स्वर्ण-पराग, इसी में सुरभित मन्द बतास,
ऊर्मि-माला का पागल नृत्य, ओस की बूँदों का उल्लास;
विरहिणी चकवी का क्रन्दन परभृता-भाषित कोयल तान,
इसी में अवहेला ही टीस इसी में प्रिय का प्रिय आह्वान;
भरी आँखों की करुणा-भीख रिक्त हाथों से अंजलि-दान,
पूर्ण में सूने की अनुभूति-शून्य में स्वप्नों का निर्माण;
इसी में तेरा क्रूर प्रहार, इसी में स्नेह-सुधा का दान-
कहूँ इस को जीवन-इतिहास या कहूँ केवल अपना गान?
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931
11. लक्षण - 'अज्ञेय'
आँसू से भरने पर आँखें और चमकने लगती हैं।
सुरभित हो उठता समीर जब कलियाँ झरने लगती हैं।
बढ़ जाता है सीमाओं से जब तेरा यह मादक हास,
समझ तुरत जाता हूँ मैं-'अब आया समय बिदा का पास।'
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931
12. दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब - 'अज्ञेय'
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
तब ललाट की कुंचित अलकों-
तेरे ढरकीले आँचल को,
तेरे पावन-चरण कमल को,
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।
मैं तो केवल तेरे पथ से
उड़ती रज की ढेरी भर के,
चूम-चूम कर संचय कर के
रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।
पागल झंझा के प्रहार सा,
सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,
सब कुछ ही यह चला जाएगा-
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब!
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931
13. प्रश्नोत्तर - 'अज्ञेय'
प्रिय! मेरे चरणों से पागल-सी ये लहरें टकराती हैं,
मेरे सूने उर-निकुंज में क्या कह-कह कर जाती हैं?
एक बार तेरे सुन्दर चरणों को जब वे छू लेती हैं-
'नहीं पुन: यह भाग्य मिलेगा', यही सोच वे रो देती हैं।
प्रिय! जब मेरे गात्रों में आ कर छिप जाता है मलयानिल,
तब किस ध्वनि से मुखरित हो उठता है मेरा विलुलित आँचल?
तेरा कुसुम-कलेवर पहले ही है उस से अधिक सुवासित-
यही देख वह ठंडी आहें भर लेता है हो कर लज्जित!
प्रिय! जब तुझ को मिलने आती हूँ मैं खेतों में से हो कर,
तब क्यों सुमन नाच उठते हैं अपने तन की सुध-बुध खो कर?
इतनी सुन्दर हो कर भी बनी हुई है इतनी भोली-
यही देख मन-रंजित हो तुझ से करते हैं सुमन ठठोली!
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931
14. प्रातः कुमुदिनी - 'अज्ञेय'
खींच कर ऊषा का आँचल इधर दिनकर है मन्द हसित,
उधर कम्पित हैं रजनीकान्त प्रतीची से हो कर चुम्बित।
देख कर दोनों ओर प्रणय खड़ी क्योंकर रह जाऊँ मैं?
छिपा कर सरसी-उर में शीश आत्म-विस्मृत हो जाऊँ मैं!
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931
15. कविता - 'अज्ञेय'
मानस-मरु में व्यथा-स्रोत स्मृतियाँ ला भर-भर देता था,
वर्तमान के सूनेपन को भूत द्रवित कर देता था,
वातावलियों से ताडि़त हो लहरें भटकी फिरती थीं-
कवि के विस्तृत हृदय-क्षेत्र में नित्य हिलोरें करती थीं।
चिर-संचय से धीरे-धीरे कवि-मानस भी भर आया
किन्तु न फूट निकलने के पथ भाव-तरंगिनि ने पाया।
फिर भी कूलों से पागल-सा छलक गया वह पारावार-
'कविता! कविता!' कहता उस में बहा जा रहा सब संसार!
अमृतसर जेल, दिसम्बर, 1931
16. क्रान्ति-पथे - 'अज्ञेय'
तोड़ो मृदुल वल्लकी के ये सिसक-सिसक रोते-से तार,
दूर करो संगीत-कुंज से कृत्रिम फूलों का शृंगार!
भूलो कोमल, स्फीत स्नेह स्वर, भूलो क्रीडा का व्यापार,
हृदय-पटल से आज मिटा दो स्मृतियों का अभिनव संसार!
भैरव शंखनाद की गूँजें फिर-फिर वीरोचित ललकार,
मुरझाये हृदयों में फिर से उठे गगन-भेदी हुंकार!
धधक उठे अन्तस्तल में फिर क्रान्ति-गीतिका की झंकार-
विह्वल, विकल, विवश, पागल हो नाच उठे उन्मद संसार!
दीप्त हो उठे उरस्थली में आशा की ज्वाला साकार,
नस-नस में उद्दंड हो उठे नवयौवन रस का संचार!
तोड़ो वाद्य, छोड़ दो गायन, तज दो सकरुण हाहाकार,
आगे है अब युद्धक्षेत्र-फिर, उस के आगे-कारागार!
दिल्ली जेल, 18 फरवरी, 1932
17. रहस्य - 'अज्ञेय'
मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो,
दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो!
यदि उस में प्रतिबिम्बित हो मुख सस्मित, सानुराग, अम्लान,
'प्रेम-स्निग्ध है मेरा उर भी', तत्क्षण तुम यह लेना जान!
यदि मुख पर सोती अवहेला या रोती हो विकल व्यथा;
दया-भाव से झुक जाना, प्रिय! समझ हृदय की करुण व्यथा!
मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो,
दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो!
दिल्ली जेल, 18 फरवरी, 1932
18. पराजय-गान - 'अज्ञेय'
विजय? विजेता! हा! मैं तो हूँ स्वयं पराजित हो आया!
जग में आदर पाने के अधिकार सभी मैं खो आया।
नहीं शत्रु को शोणित-सिक्त, धराशायी कर आया हूँ,
नहीं छीन कर संकुल रण में शत्रु-पताका लाया हूँ।
नहीं सुनाने आया हूँ मैं, वीरों की वीरत्व-कथा;
हो कर विजित, विमुख हो रण से घर आया हूँ यथा-तथा।
गया कभी था अखिल विश्व को जीत स्वयं शासन करने-
गर्वपूर्ण उन्नत ललाट पर भैरव शोण-तिलक धरने;
समर-भूमि की लाल धूल में बिखर गयीं वे आशाएँ
आया हूँ मैं पलट आज, खो अपनी सब अभिलाषाएँ।
मैं हूँ विजित, तिरस्कृत, घायल अंग हुए जाते हैं श्रान्त,
लौट किन्तु आया हूँ घर को जाने किस आशा में भ्रान्त!
केवल कहीं किसी के टूटे हृदय-गेह के कोने में
सुप्त प्रणय के आँचल में मुँह छिपा, दीन हो रोने में-
इतने ही तक सीमित है मम घायल प्राणों की अब प्यास
और कहीं आश्रय पाने की नहीं रही अब मुझको आस!
भग्न गेह की टूटी प्राचीरों का कर फिर से निर्माण,
आत्म-भत्र्सना की छाया में सुला-सुला बिखरे अरमान
अन्धकार में तड़प-तड़प कर मुझ को अब सो जाने दो-
विजिगीषा की स्मृति में विजित-व्यथा को आज भुलाने दो!
दिल्ली जेल, 16 फरवरी, 1932
19. कहो कैसे मन को समझा लूँ - 'अज्ञेय'
कहो कैसे मन को समझा लूँ?
झंझा के द्रुत आघातों-सा, द्युति के तरलित उत्पातों-सा
था वह प्रणय तुम्हारा, प्रियतम!
फिर क्यों, फिर क्यों इच्छा होती बद्ध इसे कर डालूँ?
सान्ध्य-रश्मियों के उच्छ्वासों, ताराओं की कम्पित साँसों-सा
था मिलन तुम्हारा, प्रियतम!
फिर क्यों, फिर क्यों आँखें कहतीं, उर में इसे बसा लूँ?
उल्का कुल की रज परिमल-सी, जल-प्रपात के उत्थित जल-सी,
थी वह करुणा-दृष्टि तुम्हारी-
फिर क्यों, प्रियतम! अन्तर रोता युग-युग उस को पा लूँ?
कहो कैसे मन को समझा लूँ?
मार्च, 1932
20. दीपावली का एक दीप - 'अज्ञेय'
दीपक हूँ, मस्तक पर मेरे अग्निशिखा है नाच रही-
यही सोच समझा था शायद आदर मेरा करें सभी।
किन्तु जल गया प्राण-सूत्र जब स्नेह नि:शेष हुआ-
बुझी ज्योति मेरे जीवन की शव से उठने लगा धुआँ
नहीं किसी के हृदय-पटल पर थी कृतज्ञता की रेखा
नहीं किसी की आँखों में आँसू तक भी मैं ने देखा!
मुझे विजित लख कर भी दर्शक नहीं मौन हो रहते हैं;
तिरस्कार, विद्रूप-भरे वे वचन मुझे आ कहते हैं:
'बना रखी थी हमने दीपों की सुन्दर ज्योतिर्माला-
रे कृतघ्न! तूने बुझ कर क्यों उसको खंडित कर डाला?'
अमृतसर जेल, अप्रैल, 1932
21. नहीं तेरे चरणों में - 'अज्ञेय'
कानन का सौन्दर्य लूट कर सुमन इकट्ठे कर के
धो सुरभित नीहार-कणों से आँचल में मैं भर के,
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार!
खड़ा रहूँगा तेरे आगे क्षण-भर मैं चुपका-सा,
लख कर मेरे कुसुम जगेगी तेरे उर में आशा,
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा कुछ उपहार!
तोड़-मरोड़ फूल अपने मैं पथ में बिखराऊँगा,
पैरों से फिर कुचल उन्हें, मैं पलट चला जाऊँगा
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार!
क्यों? मैं ने भी तेरे हाथों सदा यही पाया है-
सदा मुझे जो प्रिय था उस को तू ने ठुकराया है!
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार!
शायद आँखें भर आवें-आँचल से मुख ढँक लूँगा;
आँखों में, उर में क्या है, यह तुझे न दिखने दूँगा!
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा कुछ उपहार!
दिल्ली जेल, अप्रैल, 1932
22. प्रस्थान - 'अज्ञेय'
रण-क्षेत्र जाने से पहले सैनिक! जी भर रो लो!
अन्तर की कातरता को आँखों के जल से धो लो!
मत ले जाओ साथ जली पीड़ा की सूनी साँसें,
मत पैरों का बोझ बढ़ाओ ले कर दबी उसाँसें।
वहाँ? वहाँ पर केवल तुम को लड़-लड़ मरना होगा,
गिरते भी औरों के पथ से हट कर पडऩा होगा।
नहीं मिलेगा समय वहाँ यादें जीवित करने को,
नहीं निमिष-भर भी पाओगे हृदय दीप्त करने को।
एक लपेट-धधकती ज्वाला-धूमकेतु फिर काला,
शोणित, स्वेद, कीच से भर जाएगा जीवन-प्याला!
अभी, अभी पावन बूँदों से हृदय-पटल को धो लो-
तोड़ो सेतुबन्ध आँखों के, सैनिक! जी भर रो लो!
दिल्ली जेल, 23 अप्रैल, 1932
23. असीम प्रणय की तृष्णा - 'अज्ञेय'
(1)
आशाहीना रजनी के अन्तस् की चाहें,
हिमकर-विरह-जनित वे भीषण आहें
जल-जल कर जब बुझ जाती हैं,
जब दिनकर की ज्योत्स्ना से सहसा आलोकित
अभिसारिका ऊषा के मुख पर पुलकित
व्रीडा की लाली आती है,
भर देती हैं मेरा अन्तर्ï जाने क्या-क्या इच्छाएँ-
क्या अस्फुट, अव्यक्त, अनादि, असीम प्रणय की तृष्णाएँ!
भूल मुझे जाती हैं अपने जीवन की सब कृतियाँ:
कविता, कला, विभा, प्रतिभा-रह जातीं फीकी स्मृतियाँ।
अब तक जो कुछ कर पाया हूँ, तृणवत् उड़ जाता है,
लघुता की संज्ञा का सागर उमड़-उमड़ आता है।
तुम, केवल तुम-दिव्य दीप्ति-से, भर जाते हो शिरा-शिरा में,
तुम ही तन में, तुम ही मन में, व्याप्त हुए ज्यों दामिनी घन में,
तुम, ज्यों धमनी में जीवन-रस, तुम, ज्यों किरणों में आलोक!
(2)
क्या दूँ, देव! तुम्हारी इस विपुला विभुता को मैं उपहार?
मैं-जो क्षुद्रों में भी क्षुद्र, तुम्हें-जो प्रभुता के आगार!
अपनी कविता? भव की छोटी रचनाएँ जिस का आधार?
कैसे उस की गरिमा में भर दूँ गहराता पारावार?
अपने निर्मित चित्र? वही जो असफलता के शव पर स्तूप?
तेरे कल्पित छाया-अभिनय की छाया के भी प्रतिरूप!
अपनी जर्जर वीणा के उलझे-से तारों का संगीत?
जिसमें प्रतिदिन क्षण-भंगुर लय बुद्बुद होते रहें प्रमीत!
(3)
विश्वदेव! यदि एक बार,
पा कर तेरी दया अपार, हो उन्मत्त, भुला संसार-
मैं ही विकलित, कम्पित हो कर-नश्वरता की संज्ञा खो कर,
हँस कर, गा कर, चुप हो, रो कर-
क्षण-भर झंकृत हो-विलीन हो-होता तुम से एकाकार!
बस एक बार!
दिल्ली जेल, मई, 1932
24. शिशिर के प्रति - 'अज्ञेय'
मेरे प्राण-सखा हो बस तुम एक, शिशिर!
छायी रहे चतुर्दिक् शीतल छाया,
रोमांचित, ईषत्कम्पित होती रहे क्षीण यह काया;
ऊपर नील गगन में, धवल-धवल, कुछ फटे-फटे से,
अपने ही आन्तरिक क्षोभ से सकुचे, कटे-कटे से,
जीवन में उद्देश्यहीन-सी गति से आगे बढ़ते बादल-
घिरे रहें बादल, पर बरस न पावें-
मेरे भी-मैं रहूँ नियन्त्रित, मूक, यदपि आँखें भर आवें।
अरे ओ मेरे प्राण-सखा, शिशिर!
सूनी-सूनी, खड़ी ठिठुरती, पर्णहीन वृक्षों की पाँत,
सिर पर काली शाखें मानो झुलस गये हों गात;
कहीं न फूल न पत्ते, अंकुर तक भी दीख न पावें,
नहीं सिद्धि के सुखद फलों की स्मृतियाँ हमें चिढ़ावें-
सम-दु:खी ओ विधुर शिशिर!
केवल दूर खड़ी, सकुचाती, कुछ-कुछ डरी हुई-सी,
आगे बढ़ती, फिर-फिर रुक-रुक जाती, सहम गयी-सी,
वह-भावी वसन्त ही आशा-वह, तेरी जीवन-आधार!
सखे! सदा वह दूर रहेगी-निष्कलंक वह आभा,
हम-तुम उस को छू न सकेंगे-हम-तुम, जिनके कर कलुषित हैं
अन्तर्दाह धुएँ से!
चाहते ही हम रह जावेंगे, नहीं कभी पावेंगे!
फिर भी-वैसी ही मेरे प्राणों में रहे अनबुझी आशा,
झिपती चाहे जावे, किन्तु न बुझने पावे!
इन प्राणों में, जो होते ही रहे सदा विफल-प्रयास-
कभी न कुछ भी कर पाये-रोने तक को समझे आयास!
केवल भर रहे अस्फुट आकांक्षाओं से-
भरे रहे, बस! भरे रहे, हा! फूट न पाये।
यह साकांक्ष विफलता ही रहे धुरी उस मैत्री की
जिस पर घूम रहे हैं प्राण, पा कर साथ तुम्हारा-
अरे, समदु:खी, सहभोगी, ओ वंचित प्राण-सखा, शिशिर!
दिल्ली जेल, सितम्बर, 1932
25. कवि - 'अज्ञेय'
एक तीक्ष्ण अपांग से कविता उत्पन्न हो जाती है,
एक चुम्बन में प्रणय फलीभूत हो जाता है,
पर मैं अखिल विश्व का प्रेम खोजता फिरता हूँ,
क्यों कि मैं उस के असंख्य हृदयों का गाथाकार हूँ।
एक ही टीस से आँसू उमड़ आते हैं,
एक झिड़की से हृदय उच्छ्वसित हो उठता है।
पर मैं अखिल विश्व की पीड़ा संचित कर रहा हूँ-
क्यों कि मैं जीवन का कवि हूँ।
दिल्ली जेल, सितम्बर, 1932
26. अनुरोध - 'अज्ञेय'
अभी नहीं-क्षण भर रुक जाओ, महफिल के सुनने वालो!
मत संचित हो कोसो, हे संगीत सुमन चुनने वालो!
नहीं मूक होगी यह वाणी, भंग न होगी तान-
टूट गयी यदि वीणा तो भी झनक उठेंगे प्राण!
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1932
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