Hindi Kavita
हिंदी कविता
बावरा अहेरी - 'अज्ञेय' | Bawara Aheri - 'Agyeya' (toc)
1. जनवरी छब्बीस - 'अज्ञेय'
(1)
आज हम अपने युगों के स्वप्न को
यह नयी आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
आज हम अक्लान्त, ध्रुव, अविराम गति से बढ़े चलने का
कठिन व्रत धर रहे हैं
आज हम समवाय के हित, स्वेच्छया
आत्म-अनुशासन नया यह वर रहे हैं।
निराशा की दीर्घ तमसा में सजग रह हम
हुताशन पालते थे साधना का-
आज हम अपने युगों के स्वप्न को
आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
(2)
सुनो हे नागरिक! अभिनव सभ्य भारत के नये जनराज्य के
सुनो! यह मंजूषा तुम्हारी है।
पला है आलोक चिर-दिन यह तुम्हारे स्नेह से, तुम्हारे ही रक्त से।
तुम्हीं दाता हो, तुम्हीं होता, तुम्हीं यजमान हो।
यह तुम्हारा पर्व है।
भूमि-सुत! इस पुण्य-भू की प्रजा, स्रष्टा तुम्हीं हो इस नये रूपाकार के
तुम्हीं से उद्भूत हो कर बल तुम्हारा
साधना का तेज-तप की दीप्ति-तुम को नया गौरव दे रही है!
यह तुम्हारे कर्म का ही प्रस्फुटन है।
नागरिक, जय! प्रजा-जन, जय! राष्ट्र के सच्चे विधायक, जय!
हम आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं: और मंजूषा तुम्हारी है
और यह आलोक तुम्हारे ही अडिग विश्वास का आलोक है।
किन्तु रूपाकार यह केवल प्रतिज्ञा है
उत्तरोत्तर लोक का कल्याण ही है साध्य:
अनुशासन उसी के हेतु है।
(3)
यह प्रतिज्ञा ही हमारा दाय है लम्बे युगों की साधना का,
जिसे हम ने धर्म जाना।
स्वयं अपनी अस्थियाँ दे कर हमीं ने असत् पर सत् की
विजय का मर्म जाना।
सम्पुटित पर हाथ, जिस ने गोलियाँ निज वक्ष पर झेलीं,
शमन कर ज्वार हिंसा का-
उसी के नत-शीश धीरज को हमारे स्तिमित चिर-संस्कार ने
सच्चा कृती का कर्म जाना।
साधना रुकती नहीं: आलोक जैसे नहीं बँधता।
यह सुघर मंजूष भी झर गिरा सुन्दर फूल है पथ-कूल का।
माँग पथ की इसी से चुकती नहीं।
फिर भी बीन लो यह फूल
स्मरण कर लो इसी पथ पर गिरे सेनानी जयी को,
बढ़ चलो फिर शोध में अपने उसी धुँधले युगों के स्वप्न की
जिसे हम आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
आज हम अपने युगों के स्वप्न को यह नयी आलोक-मंजूषा
समर्पित कर रहे हैं।
इलाहाबाद, 26 जनवरी, 1950
2. घास-फूस धैर्य का - 'अज्ञेय'
दृश्यों के अंतराल में
जीवन बिला गया
संशय के दंश से
साहस तिलमिला गया
प्यार पर हारा नहीं
अमल विनय से
घास-फूल धैर्य का
चुपके खिला गया!
इलाहाबाद, 23 फरवरी, 1950
3. खद्योत दर्शन - 'अज्ञेय'
चाँद तो थक गया, गगन भी बादलों से ढक गया
बन तो बनैला है-अभी क्या ठिकाना कितनी दूर तक फैला है!
अन्धकार। घनसार।
अरे पर देखो तो वो पत्तियों में
जुगनू टिमक गया!
बैजनाथ कांगड़ा, जून, 1950
4. तारा दर्शन - 'अज्ञेय'
हम ने हाथ नहीं बढ़ाया: हम ने आँखों से चूम लिया।
खड़े ही रहे हम, थिर, हाँ, हमारे भीतर ही ब्रह्मांड घूम लिया।
'कितनी दूर होते हैं तारे', हम सोचते तो सोचते ही रह जाते-
'कब भला भाग्य जागेंगे हमारे?'
पर हम सोच कुछ सके नहीं, पल अपलक
खड़े रहे, उद्ग्रीव मानो चातक रह जाए ठिठक,
फिर, हाँ, स्वाती तो हमारी आँखों में ही उतर आया!
(खड़े रहे हम, थिर, हाँ, हम ने हाथ नहीं बढ़ाया।)
वसिष्ठ मुनि मनाली, जून, 1950
5. काँगड़े की छोरियाँ - 'अज्ञेय'
काँगड़े की छोरियाँ कुछ भोरियाँ सब गोरियाँ
लाला जी, जेवर बनवा दो खाली करो तिजोरियाँ!
काँगड़े की छोरियाँ!
ज्वार-मका की क्यारियाँ हरियाँ-भरियाँ प्यारियाँ
धन-खेतों में प्रहर हवा की सुना रही है लोरियाँ-
काँगड़े की छोरियाँ!
पुतलियाँ चंचल कालियाँ कानों झुमके-बालियाँ
हम चौड़े में खड़े लुट गये बनी न हम से चोरियाँ-
काँगड़े की छोरियाँ!
काँगड़े की छोरियाँ कुछ भोरियाँ सब गोरियाँ।
काँगड़ा-नूरपुर (बस में), 24 जून, 1950
6. तुम फिर आ गए, क्वाँर? - 'अज्ञेय'
भाले की अनी-सी बनी बगुलों की डार,
फुटकियाँ छिट-फुट गोल बाँध डोलती
सिहरन उठती है एक देह में
कोई तो पधारा नहीं, मेरे सूने गेह में-
तुम फिर आ गये, क्वाँर?
दिल्ली, अक्टूबर, 1950
7. चाँदनी जी लो - 'अज्ञेय'
शरद चाँदनी बरसी
अँजुरी भर कर पी लो।
ऊँघ रहे हैं तारे सिहरी सरसी
ओ प्रिय कुमुद ताकते अनझिप
क्षण में तुम भी जी लो।
सींच रही है ओस हमारे गाने
घने कुहासे में झिपते चेहरे पहचाने
खम्भों पर बत्तियाँ खड़ी हैं सीठी
ठिठक गये हैं मानो पल-छिन आने-जाने।
उठी ललक हिय उमँगा अनकहनी अलसानी
जगी लालसा मीठी
खड़े रहो ढिंग, गहो हाथ पाहुन मनभाने,
ओ प्रिय, रहो साथ
भर-भर कर अँजुरी पी लो
बरसी शरद चाँदनी
मेरा अन्त:स्पन्दन तुम भी क्षण-क्षण जी लो!
शरद चाँदनी बरसी अँजुरी भर कर पी लो।
दिल्ली, 22 अक्टूबर, 1950
8. झरने के लिए - 'अज्ञेय'
हवा से सिहरती हैं पत्तियाँ-किन्तु झरने के लिए।
उमँगती हैं छालियाँ
किसी दूर कछार पर खा कर पछाड़ें फिर बिखरने के लिए!
मरणधर्मा है सभी कुछ किन्तु फिर भी वहो, मीठी हवा,
जीवन की क्रियाओं को तुम्हीं तो तीव्र करती हो!
बहो, मीठी हवा, तुम बहती रहो,
पगली हवा, गति बढ़े जीवन की।
उभरने के लिए
जीवन-यदपि मरने के लिए-
सिहर झरने के लिए!
दिल्ली, 26 नवम्बर, 1950
9. उगा तारा - 'अज्ञेय'
ऊगा तारा:
मैं ने देखा नहीं कि कब बुझ गया
लाल आलोक सूर्य का। पर जब देखा, देखा यही:
कि पेड़ों-चट्टानों में उलझी हारी हुई लालिमा में द्योतित है शुक्र
अकेला तारा।
फिर आएँगे और:
कवि कह गये कि हाँ, जब सिंह चला जाता है
तब आते हैं-
नहीं! नहीं, वह मेरा शुक्र
कभी उच्छिष्ट नहीं खाता है!
मैं जो रहा अनमना-देखा नहीं हारना रवि का
याद कर रहा था वह दिन-क्षण-वह युग-सन्धि
हार जब सब कुछ, झुक कर
अन्धकार के आगे घुटने टेक दीन होने को
काँप रहा था तन-तब
तुम ने सहसा मुझे जगा कर उस हतप्रज्ञ पराजय की तन्द्रा से
देख मुझे स्थिर आँखों से (बुध-शुक्र युगल मेरे मानस का)
यही कहा था:
देखो, अब भी चमक रहा है तारा!
शुक्र अकेला तारा तब से चमक रहा है
कितने हार चुके हैं सूरज
कितनी हेरा गयीं लालियाँ कितने पत्रहीन सूखे पेड़ों में।
लो प्रणाम लो, तारे
आँखों के, प्राणों के, सूनी सन्ध्याओं के एक सहारे!
ऊगा तारा:
पेड़ों-चट्टानों में उलझी हारी हुई लालिमा में द्योतित है एक
अकेला तारा
शुक्र
हमारा।
चौंसठ योगिनी, भेड़ाघाट (जबलपुर), 3 जनवरी, 1951
10. वह नाम - 'अज्ञेय'
...यही तो गा रहे हैं पेड़
यही सरिता की लहर में काँपता है
यही धारा के प्रपातित बिन्दुओं का हास है।
...इसी से मर्मरित होंगी लताएँ,
सिहर कर झर जाएँगी कलियाँ अदेखी
मेघ घन होंगे, बलाकाएँ उड़ेंगी,
झाडिय़ों में चिहुँक कर पंछी
उभारे लोम, सहसा बिखर कर उड़ जाएँगे
ओस चमकेगी विकीरित रंग का उल्लास ले पहली किरण में।
...फैली धुन्ध में बाँधे हुए है अखिल संसृति
नियम में शिव के यही तो नाम...
यही तो नाम-जिसे उच्चारते ये ओठ आतुर
झिझक जाते हैं।
...पास आओ
जागरित दो मानसों के संस्फुरण में
नाम वह संगीत बन कर मुखर होता है।
कहाँ हैं दोनों तुम्हारे हाथ-सम्पुटित कर के मुझे दो:
कोकनद का कोष वह गुंजरित होगा नाम से-
उस नाम से...
भेड़घाट (जबलपुर), 4 जनवरी, 1951
11. वहाँ रात - 'अज्ञेय'
पत्थरों के उन कँगूरों पर
अजानी गन्ध-सी अब छा गयी होगी उपेक्षित रात।
बिछलती डगर-सी सुनसान सरिता पर
ठिठक कर सहम कर थम गयी होगी बात।
अनमनी-सी धुन्ध में चुपचाप
हताशा में ठगे-से, वेदना से, क्लिन्न, पुरनम टिमकते तारे।
हार कर मुरझा गये होंगे अँधेरे से बिचारे-
विरस रेतीली नदी के दोनों किनारे।
रुके होंगे युगल चकवे बाँध अन्तिम बार
जल पर
वृत्त मिट जाते दिवस के प्यार का-
अपनी हार का।
गन्ध-लोभी व्यस्त मौना कोष कर के बन्द
पड़ी होगी मौन
समेटे पंख, खींचे डंक, मोम के निज भौन में निष्पन्द!
पंचमी की चाँदनी कँपती उँगलियों से
आँख पथरायी समय की आँज जावेगी।
लिखत को 'आज' की फिर पोंछ 'कल' के लिए पाटी माँज जावेगी।
कहा तो सहज, पीछे लौट देखेंगे नहीं-
पर नकारों के सहारे कब चला जीवन?
स्मरण को पाथेय बनने दो:
कभी भी अनुभूति उमड़ेगी प्लवन का सान्द्र घन भी बन!
इलाहाबाद, 19 जनवरी, 1951
12. प्रथम किरण - 'अज्ञेय'
भोर की प्रथम किरण फीकी।
अनजाने जागी हो याद किसी की-
अपनी मीठी नीकी।
धीरे-धीरे उदित
रवि का लाल-लाल गोला
चौंक कहीं पर
छिपा मुदित बनपाखी बोला
दिन है जय है यह बहुजन की।
प्रणति, लाल रवि, ओ जन-जीवन
लो यह मेरी
सकल भावना तन की, मन की-
वह बनपाखी जाने गरिमा
महिमा
मेरे छोटे चेतन छन की!
इलाहाबाद-दिल्ली (रेल में), 3 फरवरी, 1951
13. हवाई यात्रा - 'अज्ञेय'
फैला है पठार, सलवट की ओट बिछा है कन्धा:
काली परती, भूरे ऊसर, तोतापरी खेत गेहूँ के,
कितनी हैं थिगलियाँ पुराने इस कन्धे पर!
सिलीं मेंड़ की या पगडंडी की जर्जर डोरी से-
उपयोगी थिगलियाँ।
कहीं पर
किसी मनचले कलाकार की आँकी-बाँकी हरी लीक
कुलिया की।
कन्धे पर यह जमी हुई है चौसर:
इतनी ऊँचे से गोटें तो नहीं दीखतीं
पर घर पहचाने जाते हैं।
इधर रहा यह गोल रहँट का:
काले-चिट्टे चींटे खींच रहे हैं एक सुरमचू,
सुरमेदानी नहीं दीखती: मस्से-सा कुएँ का मुँह है।
उधर बिछे हैं ढेर नाज के-टीले खलिहानों के-
सोने के मन-लोभन पाँसे।
मैं तो हूँ उड़ रहा खिलाड़ी:
जाने-अनजाने माने हूँ जोखम का है खेल हवाई यात्रा।
पर नीचे चौसर के अगल-ब गल जो पाँसे डाले खेल बिछाये
हरदम रहता-
उस अपने आड़ी किसान की जोखम मुझ से बहुत बड़ी है-
मैं जो अपनी एक जान को ही चिपटे हूँ-
वह अपने आगे-पीछे सैकड़ों पीढिय़ाँ दाँव-दाँव पर बद देता है।
ऊँचाई कम चली: शीघ्र ही वायुयान उतरेगा।
बड़े शहर के ढंग और हैं: हम गोटें हैं वहाँ:
दाँव गहरे हैं उस चौपट के।
दिल्ली-बम्बई, 23 मार्च, 1951
14. हवाएँ चैत की - 'अज्ञेय'
बह चुकी बहकी हवाएँ चैत की
कट गईं पूलें हमारे खेत की
कोठरी में लौ बढ़ा कर दीप की
गिन रहा होगा महाजन सेंत की।
गुरदासपुर, अमृतसर (बस में), 23 अप्रैल, 1951
15. शरद की साँझ के पंछी - 'अज्ञेय'
ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से
भार-मुक्त से तिर जाते हैं
पंछी डैने बिना फैलाये ।
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ
उमगते स्वर
जो कभी नहीं भीतर से फूटे
कभी नहीं जो मैं ने -
कहीं किसी ने - गाये ।
किन्तु अधूरा है आकाश
हवा के स्वर बन्दी हैं
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -
हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ
जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर
तारों मे स्थिर मेरे तारे,
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।
भार-मुक्त
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।
यह लो:
लाली से में उभर चम्पई
उठा दूज का चाँद कँटीला ।
दिल्ली, 8 मई, 1951
16. मालाबार का एक दृश्य - 'अज्ञेय'
तालों के जाल घने, कहीं लदे-छदे
कहीं ठूँठ तने; केलों के कुंज बने, सीसल की मेंड़ बँधे।
कबरी में खोंस फूल गुड़हल का सुलगे अंगार-सा
साड़ी लाल धारे
-ज्वार-माल डाले मूर्ति आबनूस काठ की-
सेंहुड़ के सामने कँटीली खड़ी बाला मालाबार की।
जून, 1951
17. वेदना की कोर - 'अज्ञेय'
चेतना की नदी बहती जाए तेरी ओर
मौन तेरे ध्यान में मैं रहूँ आत्म-विभोर
अलग हूँ, पर विरह की धमनी तड़पती लिये स्पन्दित स्नेह
और मेरे प्यार में, ओ हृदय के आलोक मेरे
वेदना की कोर।
दिल्ली, अगस्त, 1951
18. बावरा अहेरी - 'अज्ञेय'
भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथः
छोटी-छोटी चिड़ियाँ
मँझोले परेवे
बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले
डौल के बैडौल
उड़ने जहाज़
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली
उपयोग-सुंदरी
बेपनाह कायों कोः
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि
रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को
हरा देगी!
बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखे आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे –
बावरे अहेरी
दिल्ली, 2 सितम्बर, 1951
19. वर्षांत - 'अज्ञेय'
जिस दिन आया था वसन्त, उपवन में जागी हँसी अतर्कित,
हम सोच रहे थे,
ऋतुओं के अनुक्रम में पहली मधु है, शीत, शरद् या वर्षा
जिस दिन फूटा तारा-नभ की छाती मानो हुए कंटकित-
हमें यही चिन्ता थी
तारों की किरणें किस कारण से काँपती हैं?
जिस दिन जागा भाव, उलझते बैठे थे हम
जाँच रहे थे भावन, चिन्तन, कर्म-प्रेरणा के सम्बन्ध परस्पर।
आज-
आज, हाँ-
इस बालू के तट पर-(किस का तट, जो अन्तहीन फैला ही फैला
दीठ जहाँ तक भी जाती है!)-
बैठे हम अवसन्न-भाव से पूछ रहे हैं:
कहाँ गया वह ज्वार, हमारा जीवन, यह हिल्लोलित सागर कैसे,
कहाँ गया?
लो: मुट्ठी भर रेत उठाओ:
ठीक कह रहा हूँ मैं, हँसी नहीं है,
उसे उँगलियों में से बह जाने दो: बस।
यों।
इस यों में ही हैं सब जिज्ञासाओं के उत्तर।
फिर भी
जिज्ञासा का उत्तर अन्त नहीं है
जीवन का कौतूहल है अदम्य: जीवन की आशा
नहीं छोड़ सकती अन्वेषण;
यह जो इतना लम्बा है कछार बालू का
पार कहीं इस का होना ही होगा
सागर की ही यह जूठन है:
पहुँच सकें हम, बस इतना है।
साथ चले रह सकते हो क्या?
बोलो, साथी, है क्या साहस?
दिल्ली, 1 जनवरी, 1952
20. दफ़्तर - 'अज्ञेय'
शाम
बाहर देख आया हूँ (और भी जाते हैं,
बीड़ी-सिगरेट फूँक आते हैं या कि पान खाते हैं
और जिस देह में है ख़ून नहीं, रसना में रस नहीं,
उस की लाल पीक से दीवारें रँग आते हैं)
मैं भी देख आया हूँ-
वही तो तारे हैं, वही आकाश है।
किन्तु यहाँ आस-पास घुमडऩ है, त्रास है
मशीनों की गडग़ड़ाहट में
भोली (कितनी भोली) आत्माओं की अनुरणन की मोहमयी प्यास है।
यन्त्र हमें दलते हैं और हम अपने को छलते हैं,
'थोड़ा और खट लो, थोड़ा और पिस लो-
यन्त्र का उद्देश्य तो बस शीघ्र अवकाश, और अवकाश,
एक मात्र अवकाश है!'
बाहर हैं वे-वही तारे, वही एक शुक्र तारा,
वही सूनी ममता से भरा आकाश है!
दिल्ली, 20 मार्च, 1952
21. जाता हूँ सोने - 'अज्ञेय'
अकारण उदास भर सहमी उसाँस अपने सूने कोने
(कहाँ तेरी बाँह?) मैं जाता हूँ सोने।
फीके अकास के तारों की छाँह में बिना आस, बिना प्यास
अन्धा बिस्वास ले, कि तेरे पास आता हूँ मैं तेरा ही होने।
अपने घरौंदे के उदास सूने कोने
मैं जाता हूँ सोने।
दिल्ली, 4 अगस्त, 1952
22. संध्या तारा - 'अज्ञेय'
कभी मैं चाहता हूँ कभी पहचान लेता हूँ
कभी मैं जानता हूँ चाहना-पहचानना कुछ भी नहीं बा की-
तुम्हें मैं ने पा लिया है।
कभी बदली की तहों में डूब जाता है सुलगता लाल दिन का,
बलाका रेख-सी स्मृति की कभी नभ पार करती चली जाती है
कभी आँगन में अकेले सद्य जागे मुग्ध शिशु जैसा
स्वत: सम्पूर्ण तारा चमक आता है।
कानपुर (रेल में), 2 सितम्बर, 1952
23. तड़िदर्शन - 'अज्ञेय'
अरे किसे तुम पकड़ते हो? आकाश में असंख्य तारे हैं
दूर हैं, अज्ञात हैं, इसीलिए वे हमारे हैं।
बा की यहाँ?-क्यों व्यर्थ अकड़ते हो?
अरे, सब एक-से बेचारे हैं!
दिल्ली, सितम्बर, 1952
24. विज्ञप्ति - 'अज्ञेय'
फूल को प्यार करो पर झरे तो झर जाने दो,
जीवन का रस लो: देह-मन-आत्मा की रसना से
पर जो मरे उसे मर जाने दो।
जरा है भुजा तितीर्षा की: मत बनो बाधा-
जिजीविषु को तर जाने दो।
आसक्ति नहीं, आनन्द है सम्पूर्ण व्यक्ति की अभिव्यक्ति:
मरूँ मैं, किन्तु मुझे घोषित यह कर जाने दो।
भीमताल, देहरादून (मोटर में), 24 सितम्बर, 1952
25. सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम - 'अज्ञेय'
सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम।
एक सिहरन, जो मन को रोमांचित कर जाय
एक विकसन, जो मन को रंजित कर जाय
एक समर्पण जो आत्मा को तल्लीनता दे।
अँधेरी रात जागते शिशु की तरह मुस्करा उठे;
दिन हो एक आलोक-द्वार जिस से मुझे जाना है।
(समय मेरा रथ और उल्लास मेरा घोड़ा।)
मेरा जीवन-घास की पत्ती से झूलती हुई यह अयानी ओस-बूँद-
सूर्य की पहली किरण से जगमगा उठे और स्वयं किरणें
विकीरित करने लगे।
मेरा कर्म मेरे गले का जुआ नहीं, वह जोती हुई भूमि बन जाय
जिस में मुझे नया बीज बोना है।
गाते हुए गान
गाते हुए मन्त्र
गाते हुए नाम:
सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम।
दिल्ली, अक्टूबर, 1952'
26. नख शिख - 'अज्ञेय'
तुम्हारी देह
मुझ को कनक-चम्पे की कली है
दूर ही से स्मरण में भी गन्ध देती है।
(रूप स्पर्शातीत वह जिस की लुनाई
कुहासे-सी चेतना को मोह ले)
तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस-बूँदें हैं
अछूती, ज्योतिमय, भीतर द्रवित।
(मानो विधाता के हृदय में
जग गयी हो भाप करुणा की अपरिमित।)
तुम्हारे ओठ-
पर उसे दहकते दाडि़म-पुहुप को
मूक तकता रह सकूँ मैं-
(सह सकूँ मैं
ताप ऊष्मा का मुझे जो लील लेती है!)
दिल्ली, 26 नवम्बर, 1952
27. शोषक भैया - 'अज्ञेय'
डरो मत शोषक भैया: पी लो
मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है हृद्य है
पी लो शोषक भैया: डरो मत।
शायद तुम्हें पचे नहीं-- अपना मेदा तुम देखो, मेरा क्या दोष है।
मेरा रक्त मीठा तो है, पर पतला या हल्का भी हो
इसका ज़िम्मा तो मैं नहीं ले सकता, शोषक भैया?
जैसे कि सागर की लहर सुन्दर हो, यह तो ठीक,
पर यह आश्वासन तो नहीं दे सकती कि किनारे को लील नहीं लेगी
डरो मत शोषक भैय: मेरा रक्त ताज़ा है,
मेरी लहर भी ताज़ा और शक्तिशाली है।
ताज़ा, जैसी भट्ठी में ढलते गए इस्पात की धार,
शक्तिशाली, जैसे तिसूल: और पानीदार।
पी लो, शोषक भैया: डरो मत।
मुझ से क्या डरना?
वह मैं नहीं, वह तो तुम्हारा-मेरा सम्बन्ध है जो तुम्हारा काल है
शोषक भैया!
दिल्ली, 1953
28. अंधड़ - 'अज्ञेय'
झरने दो
साँस-साँस से भरने दो धूल! धूसरित करने दो
देह को-जो दूध की धुली तो नहीं! सिहरने दो।
झरने दो।
तिरने दो
पौन के हिंडोलों में पत्तियों को गिरने दो।
टूटने दो टहनियाँ फूटने दो शूल। फिर वायुमंडल को थिरने दो
निथुरे समीर पर बिथुरे सुवास, अरे फूल! मधु है, सुमिरने दो!
तिरने दो!
रसने दो
आकाश का विदग्ध उर उमसने दो कसने दो
घुमडऩे-उमडऩे दो, दुर्निवार मेघ को रस-धार बरसने दो!
स्नेह की बौछार तले धरती को पागल-सी हँसने दो-
मेरा मुग्ध मानस विकसने दो!
रसने दो!
आने दो
हहराती इस लहर को काट कर गिराने दो कूल।
उसी के वक्ष पर फिर पछाड़ खाने दो, सुध बिसराने दो-
गल कर वत्सल हो जाने दो।
आने दो!
दिल्ली, 26 मार्च, 1953
29. आज तुम शब्द न दो - 'अज्ञेय'
आज तुम शब्द न दो, न दो, कल भी मैं कहूँगा।
तुम पर्वत हो, अभ्र-भेदी शिला-खंडों के गरिष्ठ पुंज
चाँपे इस निर्झर को रहो, रहो,
तुम्हारे रन्ध्र-रन्ध्र से तुम्हीं को रस देता हुआ फूट कर मैं बहूँगा।
तुम्हीं ने दिया यह स्पन्द
तुम्हीं ने धमनी में बाँधा है लहू का वेग यह मैं अनुक्षण जानता हूँ।
गति जहाँ सब कुछ है, तुम धृति पारमिता, जीवन के सहज छन्द
तुम्हें पहचानता हूँ।
माँगो तुम चाहे जो: माँगोगे, दूँगा; तुम दोगे जो मैं सहूँगा।
आज नहीं, कल सही
कल नहीं, युग-युग बाद ही:
मेरा तो नहीं है यह
चाहे वह मेरी असमर्थता से बँधा हो।
मेरा भाव-यन्त्र? एक मडिय़ा है सूखी घास-फूस की
उस में छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान-
साध्य नहीं मुझ से, किसी से चाहे सधा हो।
आज नहीं, कल सही
चाहूँ भी तो कब तक छाती में दबाये यह आग मैं रहूँगा?
आज तुम शब्द न दो, न दो-कल भी मैं कहूँगा।
दिल्ली, 21 अगस्त, 1953
30. यह दीप अकेला - 'अज्ञेय'
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो
यह जन है: गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा: ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा: ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय: यह मेरा: यह मैं स्वयं विसर्जित:
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह मधु है: स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर: फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
नयी दिल्ली ('आल्प्स' कहवाघर में), 18 अक्टूबर, 1953
31. उषा दर्शन - 'अज्ञेय'
मैं ने कहा, डूब चाँद!
रात को सिहरने दे, कुइँयों को मरने दे,
आक्षितिज तम फैल जाने दे।
-पर तम थमा और मुझ ही में जम गया।
मैं ने कहा-उठ रही लजीजी भोर-रश्मि, सोयी
दुनिया में तुझे कोई देखे मत, मेरे भीतर समा जा तू,
चुपके से मेरी यह हिमाहत नलिनी खिला जा तू।
-वो प्रगल्भा मानमयी
बावली-सी उठ सारी दुनिया में फैल गयी।
दिल्ली, 23 अक्टूबर, 1953
32. जो कहा नहीं गया - 'अज्ञेय'
है, अभी कुछ और जो कहा नहीं गया।
उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गयी,
सुख की स्मिति कसक-भरी, निर्धन की नैन-कोरों में काँप गयी,
बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गयी।
अधूरी हो, पर सहज थी अनुभूति:
मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गयी-
फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।
पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।
निर्विकार मरु तक को सींचा है
तो क्या? नदी-नाले, ताल-कुएँ से पानी उलीचा है
तो क्या? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तैरा हूँ, पारंगत हूँ,
इसी अंहकार के मारे
अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया: नत हूँ
उस विशाल में मुझ से बहा नहीं गया।
इस लिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया।
शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ है
पर इसी लिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
शायद केवल इतना ही: जो दर्द है
वह बड़ा है, मुझ से ही सहा नहीं गया।
तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया।
दिल्ली, 27 अक्टूबर, 1953
33. देह-वल्ली - 'अज्ञेय'
देह-वल्ली!
रूप को एक बार बेझिझक देख लो।
पिंजरा है? पर मन इसी में से उपजा।
जिस की उन्नति शक्ति आत्मा है।
देखो देह-वल्ली। भव्य बीज रूपाकारों का:
'निर्गन्धा इव किंशुका:!'
गन्ध के उपभोक्ता किन्तु कहें तो-
कब हम वसन्त के उन्मेष को नहीं उस एक संकेत से पहचान सके?
कब वह नहीं हुआ जीवन के चिरन्तन स्वयम्भाव का प्रतीक?
देखो: व्रीडाहीन। इस कान्ति को आँखों में समेट लो।
देखो रूप-नामहीन एक ज्योति
अस्मिता इयत्ता की ज्वाला अपराजिता अनावृता।
दिल्ली, 15 नवम्बर, 1953
34. ये मेघ साहसिक सैलानी - 'अज्ञेय'
ये मेघ साहसिक सैलानी!
ये तरल वाष्प से लदे हुए
द्रुत साँसों से लालसा भरे
ये ढीठ समीरण के झोंके
कंटकित हुए रोएं तन के
किन अदृश करों से आलोड़ित
स्मृति शेफाली के फूल झरे!
झर झर झर झर
अप्रतिहत स्वर
जीवन की गति आनी-जानी!
झर -
नदी कूल के झर नरसल
झर - उमड़ा हुआ नदी का जल
ज्यों क्वारपने की केंचुल में
यौवन की गति उद्दाम प्रबल
झर -
दूर आड़ में झुरमुट की
चातक की करूण कथा बिखरी
चमकी टिटीहरी की गुहार
झाऊ की साँसों में सिहरी
मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं
वे चकित मृगी सी आँखडि़याँ
झर!सहसा दर्शन से झंकृत
इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ!
झर -
अंतरिक्ष की कौली भर
मटियाया सा भूरा पानी
थिगलियाँ भरे छीजे आँचल-सी
ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी
हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे
बढ़ चले अटपटे पैरों से
छिन लता-गुल्म छिन वानीरे
झर झर झर झर
द्रुत मंद स्वर
आये दल बल ले अभिमानी
ये मेघ साहसिक सैलानी!
कम्पित फरास की ध्वनि सर सर
कहती थी कौतुक से भर कर
पुरवा पछवा हरकारों से
कह देगा सब निर्मम हो कर
दो प्राणों का सलज्ज मर्मर
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र
इन नभ के प्रहरी तारों से!
ओ कह देते तो कह देते
पुलिनों के ओ नटखट फरास!
ओ कह देते तो कह देते
पुरवा पछवा के हरकारों
नभ के कौतुक कंपित तारों
हाँ कह देते तो कह देते
लहरों के ओ उच्छवसित हास!
पर अब झर-झर
स्मृति शेफाली
यह युग-सरि का
अप्रतिहत स्वर!
झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे
जीवन के अंधड़ में पिटते
मरूथल के रेणुक कण रूखे!
झर -
जीवन गति आनी जानी
उठती गिरतीं सूनी साँसें
लोचन अन्तस प्यासे भूखे
अलमस्त चल दिये छलिया से
ये मेघ साहसिक सैलानी!
दिल्ली, 1942
35. नदी के द्वीप - 'अज्ञेय'
हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।
और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।
द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियती है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -
तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।
इलाहाबाद, 11 सितम्बर, 1949
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Sachchidananda Hirananda) #icon=(link) #color=(#2339bd)