बच्चे - माँ भाग 25 - मुनव्वर राना | Bacche - Maa Part 25 - Munawwar Rana
तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नहीं उठ्ठी
उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था
रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम
कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता
धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारखाने तक पहुँचता है
मैं चाहूँ तो मिठाई की दुकानें खोल सकता हूँ
मगर बचपन हमेशा रामदाने तक पहुँचता है
हवा के रुख़ पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा
कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा
इक सुलगते शहर में बच्चा मिला हँसता हुआ
सहमे—सहमे—से चराग़ों के उजाले की तरह
मैंने इक मुद्दत से मस्जिद नहीं देखी मगर
एक बच्चे का अज़ाँ देना बहुत अच्छा लगा
इन्हें अपनी ज़रूरत के ठिकाने याद रहते हैं
कहाँ पर है खिलौनों की दुकाँ बच्चे समझते हैं
ज़माना हो गया दंगे में इस घर को जले लेकिन
किसी बच्चे के रोने की सदाएँ रोज़ आती हैं