मेरे सपने - सुव्रत शुक्ल Mere Sapne - Suvrat Shukla

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मेरे सपने - सुव्रत शुक्ल
Mere Sapne - Suvrat Shukla

जो विधान था किया विहित, उसको पूर्ण किया हमने
बहुत किए व्यय धन, श्रम, काल, किए संघर्ष बहुत हमने।
बन जायेंगे दो वर्षो में शिक्षक, देखे थे आंखो ने सपने,
हो जायेंगे पूरे सबके जो देखे हैं सपने हमने।
है दुर्भाग्य, विफल शासन है , कुछ भी कहा जाता अब,
क्या अब बीत रही इस दिल पर, दर्द सहा ना जाता अब।
आशाएं पड़ गईं शून्य, अपने भी अब मुख मोड़ रहे,
मेरे सपने मेरे आगे क्यों तड़प तड़प दम तोड़ रहे।।

कहते हैं एक बुरी बला, आचार संहिता कहलाती,
रोटी ठंडी पड़ जाती है,जब यही बला है आ जाती।
कोई भर्ती या रोजगार की बात असंभव हो जाती,
फिर तैयारी कर रहे युवा की सांसे मंथर हो जाती।
काल चक्र ने हम युवकों का, कैसा चक्र चलाया है,
हम सबके जीवन में क्यों यह घना अंधेरा छाया है।
कोई जो संभ्रांत जड़ों से जुड़े हुए होते हैं,
उनके परिजन दुःख में उनके साथ खड़े होते हैं।
किन्तु अकिंचन, दीन, हीन, फिर भी पढ़ने वाला है, 
 साथ खड़ा न कोई, उसके अश्रु पोछने वाला है।
वही युवा जिनकी आंखों में अश्रु ठहर जाते हैं,
छत से रस्सी बांध स्वयं, परलोक चले जाते हैं।
आगामी कल के भविष्य, क्यों सफर अधूरा छोड़ रहे।
मेरे सपने मेरे आगे क्यों तड़प तड़प दम तोड़ रहे।।

"होइहै सोई जो राम रचि राखा" पंक्ति नहीं किंचित यह ठीक,
वो कायर, नर नहीं , हीन है, छोड़ नहीं सकता जो, लीक।
नियति बदलना अगर न आया , तो उतना ही पाओगे,
वीर, श्रमी, उद्यमियों से जो बचा ,वही खाओगे।
और अगर पग बढ़े, रक्त उबला यह भाग्य बदलने को,
नस- नस में शोणित भर जाए, दिल हो रहा उछलने को।
वही समय होगा, संवरेगा , आने वाला कल अपना,
बहे पसीना, रक्त, बहे, भले संग न हो कोई अपना।
मत करना परवाह , किसी की , रण में ऐसी होड़ रहे,
मेरे सपने मेरे आगे क्यों तड़प तड़प दम तोड़ रहे।।


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