Hindi Kavita
हिंदी कविता
प्रेममालिका भारतेंदु हरिश्चंद्र
Premamalika Bharatendu Harishchandra
राग यथा-रुचि
1. प्यारी छबि की रासि बनी
प्यारी छबि की रासि बनी।
जाहि बिलोकि निमेष न लाग्त श्री वृषभानु-जनी॥
नंद-नंदन सों बाहु मिथुन करि ठाढ़ी जमुना-तीर।
करक होत सौतिन के छबि लखि सिंह-कमर पर चीर॥
कीरति की कन्या जग-धन्या अन्या तुला न बाकी।
वृश्चिक सी कसकति मोहन हिय भौंह छबीली जाकी॥
धन धन रूप देखि जेहि प्रति छिन मकरध्वज-तिय लाजै।
जुग कुच-कुंभ बढ़ावत सोभा मीन नयन लखि भाजै॥
बैस संधि संक्रौन समय तन जाके बसत सदाई।
2. आजु तन नीलाम्बर अति सोहै
आजु तन नीलाम्बर अति सोहै।
तैसे ही केश खुले मुख ऊपर देखत ही मन मोहै॥
मनु तन मन लियो जीति चंद्रमा सौतिन मध्य बँध्यो है।
कै कवि निज जिजमान जूथ में सुंदर आइ बस्यो है॥
श्री जमुना-जल कमल खिल्यो कोउ लखि मन अलि ललच्यो है।
जीति नमोगुन कों ताके सिर मनु सतगुन निवस्यो है॥
सघन तमाल कुंज में मनु कोऊ कुंद फूल प्रगट्यो है।
'हरीचंद' मोहन-मोहनि छबि बरनै सो कवि को है॥
राग सारंग
3. आव पिय पलकन पै धरि पाँव
आव पिय पलकन पै धरि पाँव।
ठीक दुपहरी तपत भूमि में नांगे पद मत आव॥
करुना करि मेरो कह्यौ मानि कैं धूपहि में मति धाव।
मुरझानो लागत मुख-पंकज चलत चहूँ दिसि दाव॥
जा पद कों निज कुच अरु कर पैधरत करत सकुचाव।
जाको कमला राखत है नित कर में करि करि चाव॥
जमैं कली चुभत कुसुमन की कोमल अतिहि सुभाव।
जो मन हृदय-कमल पै बिहरत इसि-दिन प्रेम-प्रभाव॥
सोइ कोमल चरनन सों मो हित धावत हौ ब्रजराव।
'हरीचंद' ऐसो मति कीजै सह्यौ न जात बनाव॥
4. नैना मानत नाहीं, मेरे नैना मानत नाहीं
नैना मानत नाहीं, मेरे नैना मानत नाहीं।
लोक-लाज सीकर में जकरे तऊ उतै खिंच जाहीं॥
पचि हारे गुरुजन सिख दै कै सुनत नहीं कछु कान।
मानत कह्यौ नाहिं काहू को, जानत भए अजान॥
निज चबात सुनि औरहु हरखत, उलटी रीति चलाई।
मदिरा प्रेम पिये पागल ह्वै इत उत डोलत धाई॥
पर-बस भए मदन-मोहन के रंग रँगे सब त्यागी।
'हरीचंद' तजि मुख कमलन अलि रहैं कितै अनुरागी॥
5. नैन भरि देखि लेहु यह जोरी
नैन भरि देखि लेहु यह जोरी।
मनमोहन सुंदर नटनागर, श्री वृषभानु-किसोरी॥
कहा कहौं छबि कहि नहिं आवै, वे साँवर यह गोरी।
ये नीलाम्बर सारी पहिनें, उनको पीत पिछौरी॥
एक रूप एक भेस एक बय, बरनि सकै कवि को री।
'हरीचंद' दोऊ कुंजन ठाढ़े, हँसत करत चित-चोरी॥
6. सखी री देखहु बाल-बिनोद
सखी री देखहु बाल-बिनोद ।
खेलत राम-कृष्ण दोऊ आँगन किलकत हँसत प्रमोद ।।
कबहुँ घूटूरुअन दौरत दोऊ मिलि धूल-धूसरित गात ।
देखि-देखि यह बाल चरित छबि, जननी बलि-बलि जात ।।
झगरत कबहुँ दोऊ आनंद भरि, कबहुँ चलत हैं धाय ।
कबहुँ गहत माता की चोटी, माखन माँगत आय ।।
घर घर तें आवत ब्रजनारी, देखन यह आनंद ।
बाल रूप क्रीड़त हरि आँगन, छबि लखि बलि 'हरिचंद' ।।
राग केदारा चौताल
7. अरी हरि या मग निकसे आइ अचानक
अरी हरि या मग निकसे आइ अचानक, हों तो झरोखे ठाढ़ी।
देखत रूप ठगौरी सी लागी, बिरह-बेलि उर बाढ़ी॥
गुरुजन के भय संग गई नहिं, रह गई मनौ चित्र लिखि काढ़ी।
'हरीचंद' बलि ऐसी लाज में लगौ री आग, हौं बिरह दुख दाढ़ी॥
8. अरी सखि गाज परौ ऐसी लोक-लाज पै
अरी सखि गाज परौ ऐसी लोक-लाज पै, मदन-मोहन संग जान न पाई।
हौं तो झरोखे ठाढ़ी देखत ही कछु, आए इतै में कन्हाई॥
औचक दीठि परी मेरे तन, हँसि कछु बंसी बजाई।
'हरीचंद' मोहिं बिबस छोड़ि कैं, तन-मन लीनौं संग लाई॥
राग बिहगरा
9. सखी मोरे सैंया नहिं आये
सखी मोरे सैंया नहिं आये, बीति गई सारी रात।
दीपक-जोति मलिन भई सजनी, होय गयो परभात।
देखत बाट भई यह बिरियाँ, बात कही नहिं जात।
'हरीचंद' बिन बिकल बिरहिनी ठाढ़ी ह्वै पछितात॥
10. सखी मोहि पिया सों मिलाय दै
सखी मोहि पिया सों मिलाय दै, दैहों गरे को हार।
मग जोहत सारी रैन गँवाई, मिले न नंद-कुमार।
उन पीतम सौं यों जा कहियो, तुम बिन ब्याकुल नार।
'हरीचंद' क्यों सुरति बिसारी, तुम तो चतुर खिलार॥
11. नैन भरि देखौ गोकुल-चंद
नैन भरि देखौ गोकुल-चंद।
श्याम बरन तन खौर बिराजत, अति सुंदर नंद-नंद।
विथुरी अलकैं मुख पै झलकैं, मनु दोऊ मन के फंद।
मुकुट लटक निरखत रबि लाजत, छबि लखि होत अनंद।
संग सोहत बृषभानु-नंदिनी, प्रमुदित आनंद-कंद।
'हरीचंद' मन लुब्ध मधुप तहँ पीवत रस मकरंद॥
12. नैन भरि देखौ श्री राधा बाल
नैन भरि देखौ श्री राधा बाल।
मुख छबि लखी पूरन ससि लाजत, सोभा अतिहि रसाल।
मृग से बैन, कोकिल सी बानी अरु गयंद सी चाल।
नख सिका लौं सब सहजहि सुंदर, मनहुँ रूप की जाल।
बृंदाबन की कुंज गलिन में, संग लीने नंदलाल।
'हरीचंद' बलि बलि या छबि पर, राधा रसिक गोपाल॥
13. सखी हम कहा करैं कित जायँ
सखी हम कहा करैं कित जायँ।
बिनु देखे वह मोहनि-मूरति नैना नाहिं अघायँ॥
कछु न सुहात धान-धन पति-सुत मात-पिता परिवार।
बसति एक हिय में उनकी छबि, नैननि वही निहार॥
बैठत उठत सयन सोवत निस चलत फिरत सब ठौर।
नैनन तै वह रूप रसीलो, टरत न एक पल और॥
हमरे तन धन सरबस मोहन, मन बच क्रम चित माहिं।
पै उनके मन की गति सजनी, जानि परत कछु नाहिं॥
सुमिरन वही, ध्यान उनको ही, मुख में उनको नाम।
दूजी और नाहिं गति मेरी, बिनु मोहन घन-श्याम॥
नैना दरसन बिन नित तलफैं, बचन सुनन कों कान।
बात करन कों रसना तलफै, मिलिबे कों ए प्रान॥
हम उनकी सब भाँति कहावहिं, जगत-बेद सरनाम।
लोक-लाज पति गुरुजन तजिकै, एक भज्यौ घनश्याम॥
सब ब्रज बरजौ, परिजन खीझौ, हमरे तो हरि प्रान।
'हरीचंद' हम मगन प्रेम-रस, सूझत नाहिंन आन॥
ठुमरी
14. तू मिलि जा मेरे प्यारे
तू मिलि जा मेरे प्यारे।
तेरे बिन मनमोहन प्यारे, ब्याकुल प्रान हमारे।
'हरीचंद' मुखड़ा देखला जा, इन नैनन के तारे॥
राग रामकली
15. ऐसी नहिं कीजै लाल
ऐसी नहिं कीजै लाल, देखत सब संग को बाल;
काहे हरि गए आजु बहुतै इतराई।
सूधे क्यौं न दान लेहु, अँचरा मेरो छाँड़ि देहु;
जामैं मेरी लाज रहै, करौ सो उपाई।
जानत ब्रज प्रीत सबै, औरहू हँसेंगे अबै;
गोकुल के लोग होत बड़े ही चवाई।
'हरीचंद' गुप्त प्रीति, बरसत अति रस की रीति;
नेकहू जो जानै कोई, प्रगटत रस जाई॥
16. छाँड़ो मेरी बहियाँ लाल
छाँड़ो मेरी बहियाँ लाल, सीखी यह कौन चाल;
हा हा तुम परसत तन, औरन की नारी।
अँगुरी मेरी मुरुक गई, परसत तन पीर भई;
भीर भई देखत सब ठाढ़ीं ब्रज-नारी।
बाट परौ ऐसी बात, मोहिं तौ नहीं सुहात;
काहे इतरात करत अपनो हठ भारी।
'हरीचंद' लेहु दान, नाहीं तौ परैगी जान;
नैंक करौ लाज, छाँड़ौ अंचल गिरिधारी॥
राग सारंग
17. हमारे घर आओ आजु प्रीतम प्यारे
हमारे घर आओ आजु प्रीतम प्यारे।
फूलन ही की सेज बिछाई, फूलन के चौबारे।
कोमल चरनन हित फूलन के रचि पाँवड़े सँवारे।
'हरीचंद' मेरो मन फूल्यौ, आओ भँवर मतवारे॥
राग विभास
18. आजु उठि भोर बृषभानु की नंदिनी
आजु उठि भोर बृषभानु की नंदिनी,
फूल के महल तें निकस ठाढ़ी भई।
खसित सुभ सीस तें कलित कुसुमावली,
मधुप की मंडली मत्त रस ह्वै गई।
कछुक अलसात सरसात सकुचात अति,
फूल की बास चहुँ ओर मोदित छई।
दास 'हरिचंद' छबि देखि गिरिदर लाल,
पीत-पट लकुट सुधि भूलि आनंद-मई॥
19. अहो हरि ऐसी तौ नहिं कीजै
अहो हरि ऐसी तौ नहिं कीजै।
अपनी दिसि बिलोकि करुनानिधि हमरे दोस न लीजै॥
तुव माया मोहित कहँ जानै कैसे मति रस भीजै।
'हरीचंद' पहिलें अपनो करि फिर काहे तजि दीजै॥
राग सोरठ
20. बनी यह सोभा आजु भली
बनी यह सोभा आजु भली।
नथ में पोही प्रान-पिआरे निज कर कुसुम कली॥
झीने बसन बिथुर रहीं अलकैं श्री बृषभानु-लली।
यह छबि लखि तन-मन-धन बार्यौ तहँ 'हरिचंद' अली॥
21. फबी छबि थोरे ही सिंगार
फबी छबि थोरे ही सिंगार।
बिना कंचुकी बिन कर कंकन सोभा बढ़ी अपार॥
खसि रही तन तें तनसुख सारी खुलि रहे सौंधे बार।
'हरीचंद' मनमोहन प्यारो रीझ्यौ है रिझवार॥
22. आजु सिर चूड़ामनि अति सोहै
आजु सिर चूड़ामनि अति सोहै।
जूड़ो कसि बाँध्यो है प्यारी पीतम को मन मोहै॥
मानहुँ तम के तुंग सिखर पै बाल चंद उदयो है।
'हरीचंद' ऐसी या छबि कों बरनि सकै सो को है॥
राग विभास
23. भोर भये जागे गिरिधारी
भोर भये जागे गिरिधारी।
सगरी निसि रस बस कर बितई, कुंज-महल सुखकारी।
पट उतारि तिय-मुख अवलोकत चंद-बदन छवि भारी।
बिलुलित केस पीक अरु अंजन फैली बदन उज्यारी।
नाहिं जगावत जानि नींद बहु समुझि सुरति-श्रम भारी।
छबि लखि मुदित पीत पट कर लै रहे भँवर निरुवारी।
संगम धुनि मधुरै सुर गावत चौंकि उठी तब प्यारी।
रही लपटाइ जंभाइ पिया उर, 'हरीचंद' बलिहारी॥
24. जागे माई सुंदर स्यामा-स्याम
जागे माई सुंदर स्यामा-स्याम।
कछु अलसात जँभात परस्पर टूटि रही मोतिन की दाम।
अधखुले नैन प्रेम की चितवनि, आधे-आधे वचन ललाम।
बिलुलति अलक मरगजे बागे नख-छत उरसि मुदाम।
संगम गुन गावत ललितादिक, बाजत बीन तीन सुर ग्राम।
'हरीचंद' यह छबि लखि प्रमुदित तृन तोरत ब्रज-वाम॥
राग देस
25. बेगाँ आवो प्यारा बनवारी म्हारी ओर
बेगाँ आवो प्यारा बनवारी म्हारी ओर।
दीन बचन सुनताँ उठि धावौ नेकु न करहु अबारी।
कृपासिंधु छाँड़ौ निठुराई अपनो बिरुद सँभारी।
थानै जग दीनदयाल कहै छै क्यों म्हारी सुरत बिसारी।
प्राण दान दीजै मोहि प्यारा हौं छूँ दासी थारी।
क्यों नहिं दीन बैण सुनो लालन कौन चूक छे म्हारी।
तलफैं प्रान रहें नहिं तन में बिरह-बिथा बढ़ी भारी।
'हरीचंद' गहि बाँह उबारौ तुम तौ चतुर बिहारी॥
राग सारंग
26. जयति वेणुधर चक्रधर शंखधर
जयति वेणुधर चक्रधर शंखधर पद्मधर गदाधर शृंगधर वेत्रधारी।
मुकुटधर क्रीटधर पीतपट-कटिनधर कंठ कौस्तुभ धरन दु:खहारी।
मत्स को रूप धरि बेद प्रगटित करन, कच्छ को रूप जल-मंथनकारी।
दलन हिरनाच्छ को बाराह को रूप धरि, दन्त के अग्र धर पृथ्वि भारी।
रूप नरसिंह धर भक्त रच्छा करन, हिरनकश्यप-उदर नख बिदारी।
रूप बावन धरन छलन बलिराज को, परसुधर रूप छत्री सँहारी।
राम को रूप धर नास रावन करन, धनुषधर तीरधर जित सुरारी।
मुशलधर हलधरन नीलपट सुभगधर, उलटि करषन करन जमुन-वारी।
बुद्ध को रूप धरि बेद निंदा करन, रूप धरि कल्कि कलजुग-सँघारी।
जयति दशरूपधर कृष्ण कमलानाथ, अतिहि अज्ञात लीला बिहारी।
गोपधर गोपिधर जयति गिरिराजधर, राधिका के बाहु पर बाहु धारी।
भक्तधर संतधर सोइ 'हरीचंद' धर, बल्लभाधीष द्विज वेषकारी॥
राग बिहाग
27. जयति राधिकानाथ चंद्रावली-प्रानपति
जयति राधिकानाथ चंद्रावली-प्रानपति
घोष-कुल-सकल-संतान-हारी ।
गोपिका-कुमुद-बन-चंद्र सांवर बरन
हरन बहु बिरह आनन्दकारी ।।
त्रिखित लोचन जुगल पान हित अमृतवपु
विमल-वृन्दाविपिन-भूमिचारी
गाय गिरिराज के हृदय आनंद करन
नित्य बिहबलकरन जमुन बारी ।।
नंद के हृदय आनंदवर्धित करन
मरनि जसुदा मनसि मौद भारी ।।
बाल क्रीड़ा करन नंद मंदिर सदा।
कुंज में प्रौढ़ लीला बिहारी ।।
गोप-सागर-रतन सकल गुन-गन भरे
कनित स्वर सप्त मुख मुरलिधारी ।।
मंजु मंजीर पद ललित कटि किंकिनी
उरसि बनमाल सुन्दर सँवारी ।।
सदा निज भक्त संताप आरति-हरन
करन रस-दान अपनो बिचारी ।
दास 'हरिचंद' कलि वल्लभाधीश हवै
प्रगट अज्ञात लीला बिहारी ।
राग देव
28. स्यामा जी देखो आवै छे थारो रसियो
स्यामा जी देखो आवै छे थारो रसियो।
कछु गातो, कछु सैन बतातो, कछु लखिकै हँसियो।
मोर मुकुट वाके सीस सोहणों पीताम्बर कटि कसियो।
'हरीचंद' पिय प्रेम रंगीलो थाके मन बसियो॥
29. म्हारी सेजाँ आवो जी लाल बिहारी
म्हारी सेजाँ आवो जी लाल बिहारी।
रंग-रँगीली सेज सँवारी, लागी छे आशा थारी।
बिरह-बिथा बाढ़ी घणी ही, मैंसौं नहिं जात सँभारी।
'हरीचंद' सो जाय कहो कोऊ तलफै छे थारे बिन प्यारी॥
राग बिहाग
30. हम तो श्री वल्लभ ही को जानैं
हम तो श्री वल्लभ ही को जानैं।
सेवत वल्लभ-पद-पंकज को, वल्लभ ही को ध्यानैं।
हमरे मात-पिता गुरु वल्लभ, और नहीं उर आनैं।
'हरीचंद' वल्लभ-पद-बल सों, इन्द्रहु को नहिं मानैं॥
31. अहो प्रभु अपनी ओर निहारौ
अहो प्रभु अपनी ओर निहारौ।
करिकै सुरति अजामिल गज की, हमरे करम बिसारौ।
'हरीचंद' डूबत भव-सागर, गहि कर धाइ उबारौ॥
32. हम तो मोल लिए या घर के
हम तो मोल लिए या घर के।
दास-दास श्री वल्लभ-कुल के, चाकर राधा-बर के।
माता श्री राधिका पिता हरि बंधु दास गुन-कर के।
'हरीचंद' तुम्हरे ही कहावत, नहिं बिधि के नहिं हर के॥
राग परज
33. तुम क्यों नाथ सुनत नहिं मेरी
तुम क्यों नाथ सुनत नहिं मेरी।
हमसे पतित अनेकन तारे, पावन है बिरुदावलि तेरी।
दीनानाथ दयाल जगतपति, सुनिये बिनती दीनहु केरी।
'हरीचंद' को सरनहिं राखौ, अब तौ नाथ करहु मत देरी॥
राग बिहाग
34. अहो हरि वेहू दिन कब ऐहैं
अहो हरि वेहू दिन कब ऐहैं ।
जा दिन में तजि और संग सब हम ब्रज-बास बसैहैं ।।
संग करत नित हरि-भक्तन को हम नेकहु न अघैहैं ।
सुनत श्रवण हरि-कथा सुधारस महामत्त हवै जैहैं ।।
कब इन दोउ नैनन सों निसि दिन नीर निरंतर बहिहैं ।
'हरिचंद' श्री राधे राधे कृष्ण कृष्ण कब कहिहैं ।।
35. अहो हरि वह दिन बेगि दिखाओ
अहो हरि वह दिन बेगि दिखाओ ।
दै अनुराग चरन-पंकज को सुत-पितु-मोह मिटाओ ।।
और छोड़ाइ सबै जग-वैभव नित ब्रजवास बसाओ ।।
जुगल-रूप-रस-अमृत-माधुरी निस दिन नैन पिआओ ।।
प्रेम-मत्त हवै डोलत चहुँ दिसि तन की सुधि बिसराओ ।
निस दिन मेरे जुगल नैन सों प्रेम-प्रवाह बहाओ ।।
श्री वल्लभ-पद-कमल अमल मैं मेरी भक्ति दृढ़ाओ ।
'हरीचंद' को राधा-माधव अपनो करि अपनाओ ।।
36. रसने, रटु सुंदर हरि नाम
रसने, रटु सुंदर हरि नाम।
मंगल-करन हरन सब असगुन करन कल्पतरु काम।
तू तौ मधुर सलौनो चाहत प्राकृत स्वाद मुदाम।
'हरीचंद' नहिं पान करत क्यों कृष्ण-अमृत अभिराम॥
राग भैरव
37. लाल यह बोहनियाँ की बेरा
लाल यह बोहनियाँ की बेरा।
हौं अबहीं गोरस लै निकसी बेचन काज सबेरा।
तुम तौ याही ताक रहत हौ, करत फिरत मग फेरा।
'हरीचंद' झगरौ मति ठानौ ह्वैहै आजु निबेरा॥
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38. ऊधो जो अनेक मन होते
ऊधो जो अनेक मन होते
तो इक श्याम-सुन्दर को देते, इक लै जोग संजोते।
एक सों सब गृह कारज करते, एक सों धरते ध्यान।
एक सों श्याम रंग रंगते, तजि लोक लाज कुल कान।
को जप करै जोग को साधै, को पुनि मूँदे नैन।
हिए एक रस श्याम मनोहर, मोहन कोटिक मैन।
ह्याँ तो हुतो एक ही मन, सो हरि लै गये चुराई।
'हरिचंद' कौउ और खोजि कै, जोग सिखावहु जाई॥
39. ब्रज के लता पता मोहि कीजै
ब्रज के लता पता मोहि कीजै ।
गोपी पद-पंकज पावन की रज जामैं सिर भीजै ।
आवत जात कुंज की गलियन रूप सुधा नित पीजै ।
श्री राधे राधे मुख यह बर मुंह मांग्यौ हरि दीजै ।
40. विनती सुन नन्द-लाल
विनती सुन नन्द-लाल बरजो क्यौं न अपनो बाल ।
प्रातकाल आइ आइ, अम्बर लै भागे ।
भोर होत जमुन तीर जुरि जुरि सब गोपी भोर
न्हात जबै बिमल नीर शीत अतिहि जागै ।
लेत बसन मन चुराइ कदम चढ़त तुरत धाइ
ठाढ़ी हम नीर माहिं नांगी सकुचाहीं ।
'हरीचंद' ऐसो हाल करत नित्य प्रति गोपाल
ब्रज में कहो कैसे बसैं, अब निबाह नाहीं ।
41. मारग रोकि भयो ठाढ़ो
मारग रोकि भयो ठाढ़ो, जान न देत मोहि पूछत है तू को री ।
कौन गाँव कहा नाँव तिहारो ठाढ़ि रहि नेक गोरी ।।
'हरीचन्द' मिलि विहरत दोऊ रैननि नन्दकुंवर वृषभानु किशोरी ।।
42. प्यारै जू तिहारी प्यारी
प्यारै जू तिहारी प्यारी अति ही गरब भरी ।
हठ की हठीली ताहि आपु ही मनाइए ।
नैकहू न माने सब भाँति हौं मनाय हारी
आपुहि चलिए ताहि बात बहराइए ।
जैसे बनै तैसे ताहि पग पिर लाइए ।।
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