Hindi Kavita
हिंदी कविता
नज़्में - इब्न-ए-इंशा
Poems in Hindi - Ibn-e-Insha
फ़र्ज़ करो - इब्न-ए-इंशा
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी आधी हम ने छुपाई हो
फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूँढे हम ने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सच-मुच के मय-ख़ाने हों
फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूटा झूटी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में साँस भी हम पर भारी हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बजोग का हम ने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो
देख मिरी जाँ कह गए बाहू कौन दिलों की जाने 'हू'
बस्ती बस्ती सहरा सहरा लाखों करें दिवाने 'हू'
जोगी भी जो नगर नगर में मारे मारे फिरते हैं
कासा लिए भबूत रमाए सब के द्वारे फिरते हैं
शाइ'र भी जो मीठी बानी बोल के मन को हरते हैं
बंजारे जो ऊँचे दामों जी के सौदे करते हैं
इन में सच्चे मोती भी हैं, इन में कंकर पत्थर भी
इन में उथले पानी भी हैं, इन में गहरे सागर भी
गोरी देख के आगे बढ़ना सब का झूटा सच्चा 'हू'
डूबने वाली डूब गई वो घड़ा था जिस का कच्चा 'हू'
इक बार कहो तुम मेरी हो - इब्न-ए-इंशा
हम घूम चुके बस्ती बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोके में
तुम कब तक दूर झरोके में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
(दीद=दर्शन, सेरी=तॄप्ति,
सूद-ख़सारे=लाभ-हानि)
इस बस्ती के इक कूचे में - इब्न-ए-इंशा
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना
उस नार में ऐसा रूप न था जिस रूप से दिन की धूप दबे
इस शहर में क्या क्या गोरी है महताब-रुख़े गुलनार-लबे
कुछ बात थी उस की बातों में कुछ भेद थे उस की चितवन में
वही भेद कि जोत जगाते हैं किसी चाहने वाले के मन में
उसे अपना बनाने की धुन में हुआ आप ही आप से बेगाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
ना चंचल खेल जवानी के ना प्यार की अल्हड़ घातें थीं
बस राह में उन का मिलना था या फ़ोन पे उन की बातें थीं
इस इश्क़ पे हम भी हँसते थे बे-हासिल सा बे-हासिल था
इक ज़ोर बिफरते सागर में ना कश्ती थी ना साहिल था
जो बात थी इन के जी में थी जो भेद था यकसर अन-जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इक रोज़ मगर बरखा-रुत में वो भादों थी या सावन था
दीवार पे बीच समुंदर के ये देखने वालों ने देखा
मस्ताना हाथ में हाथ दिए ये एक कगर पर बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई जब सैलानी घर लौट गए
क्या रात थी वो जी चाहता है उस रात पे लिक्खें अफ़साना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
हाँ उम्र का साथ निभाने के थे अहद बहुत पैमान बहुत
वो जिन पे भरोसा करने में कुछ सूद नहीं नुक़सान बहुत
वो नार ये कह कर दूर हुई 'मजबूरी साजन मजबूरी'
ये वहशत से रंजूर हुए और रंजूरी सी रंजूरी?
उस रोज़ हमें मालूम हुआ उस शख़्स का मुश्किल समझाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
गो आग से छाती जलती थी गो आँख से दरिया बहता था
हर एक से दुख नहीं कहता था चुप रहता था ग़म सहता था
नादान हैं वो जो छेड़ते हैं इस आलम में नादानों को
उस शख़्स से एक जवाब मिला सब अपनों को बेगानों को
'कुछ और कहो तो सुनता हूँ इस बाब में कुछ मत फ़रमाना'
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
अब आगे का तहक़ीक़ नहीं गो सुनने को हम सुनते थे
उस नार की जो जो बातें थीं उस नार के जो जो क़िस्से थे
इक शाम जो उस को बुलवाया कुछ समझाया बेचारे ने
उस रात ये क़िस्सा पाक किया कुछ खा ही लिया दुखयारे ने
क्या बात हुई किस तौर हुई अख़बार से लोगों ने जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक इंशा नाम का दीवाना
हर बात की खोज तो ठीक नहीं तुम हम को कहानी कहने दो
उस नार का नाम मक़ाम है क्या इस बात पे पर्दा रहने दो
हम से भी तो सौदा मुमकिन है तुम से भी जफ़ा हो सकती है
ये अपना बयाँ हो सकता है ये अपनी कथा हो हो सकती है
वो नार भी आख़िर पछताई किस काम का ऐसा पछताना?
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
ये बातें झूटी बातें हैं - इब्न-ए-इंशा
ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम 'इंशा'-जी का नाम न लो क्या 'इंशा'-जी सौदाई हैं
हैं लाखों रोग ज़माने में क्यूँ इश्क़ है रुस्वा बे-चारा
हैं और भी वजहें वहशत की इंसान को रखतीं दुखियारा
हाँ बे-कल बे-कल रहता है हो पीत में जिस ने जी हारा
पर शाम से ले कर सुब्ह तलक यूँ कौन फिरेगा आवारा
ये बातें झूटी बातें ये लोगों ने फैलाईं हैं
तुम 'इंशा'-जी का नाम न लो क्या 'इंशा'-जी सौदाई हैं
ये बात अजीब सुनाते हो वो दुनिया से बे-आस हुए
इक नाम सुना और ग़श खाया इक ज़िक्र पे आप उदास हुए
वो इल्म में अफ़लातून सुने वो शेर में तुलसीदास हुए
वो तीस बरस के होते हैं वो बी-ए एम-ए पास हुए
ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम 'इंशा'-जी का नाम न लो क्या 'इंशा'-जी सौदाई हैं
गर इश्क़ किया है तब क्या है क्यूँ शाद नहीं आबाद नहीं
जो जान लिए बिन टल न सके ये ऐसी भी उफ़्ताद नहीं
ये बात तो तुम भी मानोगे वो 'क़ैस' नहीं फ़रहाद नहीं
क्या हिज्र का दारू मुश्किल है क्या वस्ल के नुस्ख़े याद नहीं
ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम 'इंशा'-जी का नाम न लो क्या 'इंशा'-जी सौदाई हैं
वो लड़की अच्छी लड़की है तुम नाम न लो हम जान गए
वो जिस के लम्बे गेसू हैं पहचान गए पहचान गए
हाँ साथ हमारे 'इंशा' भी इस घर में थे मेहमान गए
पर उस से तो कुछ बात न की अंजान रहे अंजान गए
ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम 'इंशा'-जी का नाम न लो क्या 'इंशा'-जी सौदाई हैं
जो हम से कहो हम करते हैं क्या 'इंशा' को समझाना है
उस लड़की से भी कह लेंगे गो अब कुछ और ज़माना है
या छोड़ें या तकमील करें ये इश्क़ है या अफ़साना है
ये कैसा गोरख-धंदा है ये कैसा ताना-बाना है
ये बातें कैसी बातें हैं जो लोगों ने फैलाई हैं
तुम 'इंशा'-जी का नाम न लो क्या 'इंशा'-जी सौदाई हैं
सब माया है - इब्न-ए-इंशा
सब माया है, सब ढलती फिरती छाया है
इस इश्क़ में हम ने जो खोया जो पाया है
जो तुम ने कहा है, 'फ़ैज़' ने जो फ़रमाया है
सब माया है
हाँ गाहे गाहे दीद की दौलत हाथ आई
या एक वो लज़्ज़त नाम है जिस का रुस्वाई
बस इस के सिवा तो जो भी सवाब कमाया है
सब माया है
इक नाम तो बाक़ी रहता है, गर जान नहीं
जब देख लिया इस सौदे में नुक़सान नहीं
तब शम्अ पे देने जान पतिंगा आया है
सब माया है
मालूम हमें सब क़ैस मियाँ का क़िस्सा भी
सब एक से हैं, ये राँझा भी ये 'इंशा' भी
फ़रहाद भी जो इक नहर सी खोद के लाया है
सब माया है
क्यूँ दर्द के नामे लिखते लिखते रात करो
जिस सात समुंदर पार की नार की बात करो
उस नार से कोई एक ने धोका खाया है?
सबब माया है
जिस गोरी पर हम एक ग़ज़ल हर शाम लिखें
तुम जानते हो हम क्यूँकर उस का नाम लिखें
दिल उस की भी चौखट चूम के वापस आया है
सब माया है
वो लड़की भी जो चाँद-नगर की रानी थी
वो जिस की अल्हड़ आँखों में हैरानी थी
आज उस ने भी पैग़ाम यही भिजवाया है
सब माया है
जो लोग अभी तक नाम वफ़ा का लेते हैं
वो जान के धोके खाते, धोके देते हैं
हाँ ठोक-बजा कर हम ने हुक्म लगाया है
सब माया है
जब देख लिया हर शख़्स यहाँ हरजाई है
इस शहर से दूर इक कुटिया हम ने बनाई है
और उस कुटिया के माथे पर लिखवाया है
सब माया है
एक लड़का - इब्न-ए-इंशा
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों
एक मेले में पहुँचा हुमकता हुआ
जी मचलता था एक एक शय पर
जैब ख़ाली थी कुछ मोल ले न सका
लौट आया लिए हसरतें सैंकड़ों
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों
ख़ैर महरूमियों के वो दिन तो गए
आज मेला लगा है उसी शान से
आज चाहूँ तो इक इक दुकाँ मोल लूँ
आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ
ना-रसाई का अब जी में धड़का कहाँ
पर वो छोटा सा अल्हड़ सा लड़का कहाँ
ये बच्चा किस का बच्चा है - इब्न-ए-इंशा
(हब्शा या एरेटेरिया के क़हत-ज़दा इलाक़ों में
इंसानी ज़िंदगी की अर्ज़ानी देख कर ये नज़्म
वजूद में आई। जहां इंसानों और मवेशियों के
गल्ले दाने और पानी भटकते भटकते गिर
कर जान दे देते हैं। इब्न-ए-इंशा की इस
नज़्म का इन्तिसाब यूनिसेफ़ के नाम है
जो दुनिया भर भूके बच्चों क़ाबिल-ए-क़द्र
कारनामा अंजाम दे रही है।)
1
ये बच्चा कैसा बच्चा है
ये बच्चा काला काला सा
ये काला सा मटियाला सा
ये बच्चा भूका भूका सा
ये बच्चा सूखा सूखा सा
ये बच्चा किस का बच्चा है
ये बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पे तन्हा बैठा है
ना इस के पेट में रोटी है
ना इस के तन पर कपड़ा है
ना इस के सर पर टोपी है
ना इस के पैर में जूता है
ना इस के पास खिलौनों में
कोई भालू है, कोई घोड़ा है
ना इस का जी बहलाने को
कोई लोरी है, कोई झूला है
ना इस की जेब में धेला है
ना इस के हाथ में पैसा है
ना इस के अम्मी अब्बू हैं
ना इस की आपा ख़ाला है
ये सारे जग में तन्हा है
ये बच्चा कैसा बच्चा है
2
ये सहरा कैसा सहरा है
ना इस सहरा में बादल है
ना इस सहरा में बरखा है
ना इस सहरा में बाली है
ना इस सहरा में ख़ोशा है
ना इस सहरा में सब्ज़ा है
ना इस सहरा में साया है
ये सहरा भूक का सहरा है
ये सहरा मौत का सहरा है
3
ये बच्चा कैसे बैठा है
ये बच्चा कब से बैठा है
ये बच्चा क्या कुछ पूछता है
ये बच्चा क्या कुछ कहता है
ये दुनिया कैसी दुनिया है
ये दुनिया किस की दुनिया है
4
इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्ज़ा है
कहीं बादल घिर घिर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं ऊँचे महल अटारीयाँ हैं
कहीं महफ़िल है कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाज़ार सजे
ये रेशम है ये दीबा है
कहीं ग़ल्ले के अम्बार लगे
सब गेहूँ धान मुहय्या है
कहीं दौलत के संदूक़ भरे
हाँ ताँबा सोना रूपा है
तुम जो माँगो सो हाज़िर है
तुम जो चाहो सो मिलता है
इस भूक के दुख की दुनिया में
ये कैसा सुख का सपना है
वो किस धरती के टुकड़े हैं
ये किस दुनिया का हिस्सा है
5
हम जिस आदम के बेटे हैं
ये उस आदम का बेटा है
ये आदम एक ही आदम है
ये गोरा है या काला है
ये धरती एक ही धरती है
ये दुनिया एक ही दुनिया है
सब इक दाता के बंदे हैं
सब बंदों का इक दाता है
कुछ पूरब पच्छम फ़र्क़ नहीं
इस धरती पर हक़ सब का है
6
ये तन्हा बच्चा बे-चारा
ये बच्चा जो यहाँ बैठा है
इस बच्चे की कहीं भूक मिटे
(क्या मुश्किल है हो सकता है)
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
(हाँ दूध यहाँ बहतेरा है)
इस बच्चे का कोई तन ढाँके
(क्या कपड़ों का यहाँ तोड़ा है)
इस बच्चे को कोई गोद में ले
(इंसान जो अब तक ज़िंदा है)
फिर देखे कैसा बच्चा है
ये कितना प्यारा बच्चा है
7
इस जग में सब कुछ रब का है
जो रब का है वो सब का है
सब अपने हैं कोई ग़ैर नहीं
हर चीज़ में सब का साझा है
जो बढ़ता है जो उगता है
वो दाना है या मेवा है
जो कपड़ा है जो कम्बल है
जो चाँदी है जो सोना है
वो सारा है इस बच्चे का
जो तेरा है जो मेरा है
ये बच्चा किस का बच्चा है
ये बच्चा सब का बच्चा है!
कल हम ने सपना देखा है - इब्न-ए-इंशा
कल हम ने सपना देखा है
जो अपना हो नहीं सकता है
उस शख़्स को अपना देखा है
वो शख़्स कि जिस की ख़ातिर हम
इस देस फिरें उस देस फिरें
जोगी का बना कर भेस फिरें
चाहत के निराले गीत लिखें
जी मोहने वाले गीत लिखें
धरती के महकते बाग़ों से
कलियों की झोली भर लाएँ
अम्बर के सजीले मंडल से
तारों की डोली भर लाएँ
हाँ किस के लिए सब उस के लिए
वो जिस के लब पर टेसू हैं
वो जिस के नैनाँ आहू हैं
जो ख़ार भी है और ख़ुश्बू भी
जो दर्द भी है और दारू भी
वो अल्लहड़ सी वो चंचल सी
वो शायर सी वो पागल सी
लोग आप-ही-आप समझ जाएँ
हम नाम न उस का बतलाएँ
ऐ देखने वालो तुम ने भी
उस नार की पीत की आँचों में
इस दिल का तीना देखा है?
कल हम ने सपना देखा है
क्या धोका देने आओगी - इब्न-ए-इंशा
हम बंजारे दिल वाले हैं
और पैंठ में डेरे डाले हैं
तुम धोका देने वाली हो?
हम धोका खाने वाले हैं
इस में तो नहीं शर्माओगी?
क्या धोका देने आओगी?
सब माल निकालो, ले आओ
ऐ बस्ती वालो ले आओ
ये तन का झूटा जादू भी
ये मन की झूटी ख़ुश्बू भी
ये ताल बनाते आँसू भी
ये जाल बिछाते गेसू भी
ये लर्ज़िश डोलते सीने की
पर सच नहीं बोलते सीने की
ये होंट भी, हम से क्या चोरी
क्या सच-मुच झूटे हैं गोरी?
इन रम्ज़ों में इन घातों में
इन वादों में इन बातों में
कुछ खोट हक़ीक़त का तो नहीं?
कुछ मैल सदाक़त का तो नहीं?
ये सारे धोके ले आओ
ये प्यारे धोके ले आओ
क्यूँ रक्खो ख़ुद से दूर हमें
जो दाम कहो मंज़ूर हमें
इन काँच के मनकों के बदले
हाँ बोलो गोरी क्या लोगी?
तुम एक जहान की अशरफ़ियाँ?
या दिल और जान की अशरफ़ियाँ?
लोग पूछेंगे - इब्न-ए-इंशा
लोग पूछेंगे क्यूँ उदास हो तुम
और जो दिल में आए सो कहियो!
'यूँही माहौल की गिरानी है'
'दिन ख़िज़ाँ के ज़रा उदास से हैं'
कितने बोझल हैं शाम के साए
उन की बाबत ख़मोश ही रहियो
नाम उन का न दरमियाँ आए
नाम उन का न दरमियाँ आए
उन की बाबत ख़मोश ही रहियो
'कितने बोझल हैं शाम के साए'
'दिन ख़िज़ाँ के ज़रा उदास से हैं'
'यूँही माहौल की गिरानी है'
और जो दिल में आए सौ कहियो!
लोग पूछेंगे क्यूँ उदास हो तुम?
दिल इक कुटिया दश्त किनारे - इब्न-ए-इंशा
दुनिया-भर से दूर ये नगरी
नगरी दुनिया-भर से निराली
अंदर अरमानों का मेला
बाहर से देखो तो ख़ाली
हम हैं इस कुटिया के जोगी
हम हैं इस नगरी के वाली
हम ने तज रक्खा है ज़माना
तुम आना तो तन्हा आना
दिल इक कुटिया दश्त किनारे
बस्ती का सा हाल नहीं है
मुखिया पीर प्रोहित प्यादे
इन सब का जंजाल नहीं है
ना बनिए न सेठ न ठाकुर
पैंठ नहीं चौपाल नहीं है
सोना रूपा चौकी मसनद
ये भी माल-मनाल नहीं है
लेकिन ये जोगी दिल वाला
ऐ गोरी कंगाल नहीं है
चाहो जो चाहत का ख़ज़ाना
तुम आना और तन्हा आना
आहू माँगे बन का रमना
भँवरा चाहे फूल की डाली
सूखे खेत की कोंपल माँगे
इक घनघोर बदरिया काली
धूप जले कहीं साया चाहें
अंधी रातें दीप दिवाली
हम क्या माँगें हम क्या चाहें
होंट सिले और झोली ख़ाली
दिल भँवरा न फूल न कोंपल
बगिया ना बगिया का माली
दिल आहू न धूप न साया
दिल की अपनी बात निराली
दिल तो किसी दर्शन का भूका
दिल तो किसी दर्शन का सवाली
नाम लिए बिन पड़ा पुकारे
किसे पुकारे दश्त किनारे
ये तो इक दुनिया को चाहें
इन को किस ने अपना जाना
और तो सब लोगों के ठिकाने
अब भटकें तो आप ही भटकें
छोड़ा दुनिया को भटकाना
गीत कबत और नज़्में ग़ज़लें
ये सब इन का माल पुराना
झूटी बातें सच्ची बातें
बीती बातें क्या दोहराना
अब तो गोरी नए सिरे से
अँधियारों में दीप जलाना
मजबूरी? कैसी मजबूरी
आना हो तो लाख बहाना
आना इस कुटिया के द्वारे
दिल इक कुटिया दश्त किनारे
चाँद के तमन्नाई - इब्न-ए-इंशा
शहर-ए-दिल की गलियों में
शाम से भटकते हैं
चाँद के तमन्नाई
बे-क़रार सौदाई
दिल-गुदाज़ तारीकी
रूह-ओ-जाँ को डसती है
रूह-ओ-जाँ में बस्ती है
शहर-ए-दिल की गलियों में
ताक शब की बेलों पर
शबनमीं सरिश्कों की
बे-क़रार लोगों ने
बे-शुमार लोगों ने
यादगार छोड़ी है
इतनी बात थोड़ी है
सद हज़ार बातें थीं
हीला-ए-शकेबाई
सूरतों की ज़ेबाई
कामतों की रानाई
इन सियाह रातों में
एक भी न याद आई
जा-ब-जा भटकते हैं
किस की राह तकते हैं
चाँद के तमन्नाई
ये नगर कभी पहले
इस क़दर न वीराँ था
कहने वाले कहते हैं
क़र्या-ए-निगाराँ था
ख़ैर अपने जीने का
ये भी एक सामाँ था
आज दिल में वीरानी
अब्र बन के घिर आई
आज दिल को क्या कहिए
बा-वफ़ा न हरजाई
फिर भी लोग दीवाने
आ गए हैं समझाने
अपनी वहशत-ए-दिल के
बुन लिए हैं अफ़्साने
ख़ुश-ख़याल दुनिया ने
गर्मियाँ तो जाती हैं
वो रुतें भी आतीं हैं
जब मलूल रातों में
दोस्तों की बातों में
जी न चैन पाएगा
और ऊब जाएगा
आहटों से गूँजेगी
शहर-ए-दिल की पहनाई
और चाँद रातों में
चाँदनी के शैदाई
हर बहाने निकलेंगे
आज़माने निकलेंगे
आरज़ू की गहराई
ढूँडने को रुस्वाई
सर्द सर्द रातों को
ज़र्द चाँद बख़्शेगा
बे-हिसाब तन्हाई
बे-हिजाब तन्हाई
शहर-ए-दिल की गलियों में
लब पर नाम किसी का भी हो - इब्न-ए-इंशा
लब पर नाम किसी का भी हो, दिल में तेरा नक़्शा है
ऐ तस्वीर बनाने वाली जब से तुझ को देखा है
बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
नीले पर्बत ऊदी धरती, चारों कूट में तू ही तू
तुझ से अपने जी की ख़ल्वत तुझ से मन का मेला है
आज तो हम बिकने को आए, आज हमारे दाम लगा
यूसुफ़ तो बाज़ार-ए-वफ़ा में, एक टिके को बिकता है
ले जानी अब अपने मन के पैराहन की गिर्हें खोल
ले जानी अब आधी शब है, चार तरफ़ सन्नाटा है
तूफ़ानों की बात नहीं है, तूफ़ाँ आते जाते हैं
तू इक नर्म हवा का झोंका, दिल के बाग़ में ठहरा है
या तू आज हमें अपना ले, या तू आज हमारा बन
देख कि वक़्त गुज़रता जाए कौन अबद तक जीता है
फ़र्दा महज़ फ़ुसूँ का पर्दा, हम तो आज के बंदे हैं
हिज्र ओ वस्ल, वफ़ा और धोका सब कुछ आज पे रक्खा है
झुलसी सी इक बस्ती में - इब्न-ए-इंशा
हाँ देखा कल हम ने उस को देखने का जिसे अरमाँ था
वो जो अपने शहर से आगे क़र्या-ए-बाग़-ओ-बहाराँ था
सोच रहा हूँ जंग से पहले, झुलसी सी इस बस्ती में
कैसा कैसा घर का मालिक, कैसा कैसा मेहमाँ था
सब गलियों में तरनजन थे और हर तरनजन में सखियाँ थीं
सब के जी में आने वाली कल का शौक़-ए-फ़रावाँ था
मेलों ठेलों बाजों गांजों बारातों की धूमें थीं
आज कोई देखे तो समझे, ये तो सदा बयाबाँ था
चारों जानिब ठंडे चूल्हे, उजड़े उजड़े आँगन हैं
वर्ना हर घर में थे कमरे, हर कमरे में सामाँ था
उजली और पुर-नूर शबीहें रोज़ नमाज़ को आती थीं
मस्जिद के इन ताक़ों में भी क्या क्या दिया फ़रोज़ाँ था
उजड़ी मंडी, लाग़र कुत्ते, टूटे खम्बे ख़ाली खेत
क्या इस नहर के पुल के आगे ऐसा शहर-ए-ख़मोशाँ था
आज कि इक रोटी की ख़ातिर कार्ड दिखाता फिरता है
पूरे कम्प को रोटी दे दे ऐसा ऐसा दहक़ाँ था
ताब नहीं हर एक से पूछें बाबा तुझ पर क्या गुज़री
एक को रोक के पूछा हम ने, सीना उस का बरयाँ था
बोला लोग तो आएँ जाएँ बस्ती को फिर बसना है
मेरे तिनकों की ख़ातिर आया सारा तूफ़ाँ था
आग के अंदर और तपिश है, आग के बाहर और ही आँच
शायद कोई दिवाना होगा बे-शक चाक-गिरेबाँ था
घूम रहा है पीत का प्यासा - इब्न-ए-इंशा
देख तो गोरी किसे पुकारे
बस्ती बस्ती द्वारे द्वारे
बर में झोली हाथ में कासा
घूम रहा है पीत का प्यासा
दिल में आग दबी है डरना
आँखों में अश्कों का झरना
लब पर दर्द का बारा-मासा
घूम रहा है पीत का प्यासा
काँटों से छलनी हैं पाँव
धूप मिली चेहरे पर छाँव
आस मिली आँखों में निरासा
घूम रहा है पीत का प्यासा
बात हमारी मान के गोरी
सब दुनिया से चोरी चोरी
घूँघट का पट खोल ज़रा सा
घूम रहा है पीत का प्यासा
सूरत है 'इंशा'-जी की सी
बाल परेशाँ आँखें नीची
नाम भी कुछ 'इंशा'-जी का सा
घूम रहा है पीत का प्यासा
सोच नहीं साजन को बुला ले
आगे बढ़ सीने से लगा ले
तुझ-बिन दे इसे कौन दिलासा
घूम रहा है पीत का प्यासा
दिल पीत की आग में जलता है - इब्न-ए-इंशा
दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता रहे उसे जलने दो
इस आग से लोगो दूर रहो ठंडी न करो पंखा न झलो
हम रात दिना यूँ ही घुलते रहें कोई पूछे कि हम को ना पूछे
कोई साजन हो या दुश्मन हो तुम ज़िक्र किसी का मत छेड़ो
सब जान के सपने देखते हैं सब जान के धोके खाते हैं
ये दीवाने सादा ही सही पर इतने भी सादा नहीं यारो
किस बैठी तपिश के मालिक हैं ठिठुरी हुई आग के अंगियारे
तुम ने कभी सेंका ही नहीं तुम क्या समझो तुम क्या जानो
दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता है इसे जलने दो
इस आग से तुम तो दूर रहो ठंडी न करो पंखा न झलो
हर महफ़िल में हम दोनों की क्या क्या नहीं बातें होती हैं
इन बातों का मफ़्हूम है क्या तुम क्या समझो तुम क्या जानो
दिल चल के लबों तक आ न सका लब खुल न सके ग़म जा न सका
अपना तो बस इतना क़िस्सा था तुम अपनी सुनाओ अपनी कहो
वो शाम कहाँ वो रात कहाँ वो वक़्त कहाँ वो बात कहाँ
जब मरते थे मरने न दिया अब जीते हैं अब जीने दो
दिल पीत की आग में जलता है हाँ जलता रहे इसे जलने दो
इस आग से 'इंशा' दूर रहो ठंडी न करो पंखा न झलो
लोगों की तो बातें सच्ची हैं और दिल का भी कहना करना हुआ
पर बात हमारी मानो तो या उन के बनो या अपने रहो
राही भी नहीं रहज़न भी नहीं बिजली भी नहीं ख़िर्मन भी नहीं
ऐसा भी भला होता है कहीं तुम भी तो अजब दीवाने हो
इस खेल में हर बात अपनी कहाँ जीत अपनी कहाँ मात अपनी कहाँ
या खेल से यकसर उठ जाओ या जाती बाज़ी जाने दो
दिल पीत की आग में जलता है
ऐ मिरे सोच-नगर की रानी - इब्न-ए-इंशा
तुझ से जो मैं ने प्यार किया है तेरे लिए? नहीं अपने लिए
वक़्त की बे-उनवान कहानी कब तक बे-उनवान रहे
ऐ मिरे सोच-नगर की रानी ऐ मिरे ख़ुल्द-ए-ख़याल की हूर
इतने दिनों जो मैं घुलता रहा हूँ तेरे बिना यूँही दूर ही दूर
सोच तो क्या फल मुझ को मिला मैं मन से गया फिर तन से गया
शहर-ए-वतन में अजनबी ठहरा आख़िर शहर-ए-वतन से गया
रूह की प्यास बुझानी थी पर यहाँ होंटों की प्यास भी बुझ न सकी
बचते सँभलते भी एक सुलगता रोग बनी मिरे जी की लगी
दूर की बात न सोच अभी मिरे हात में तू ज़रा हात तो दे
तुझ से जो मैं ने प्यार किया है तेरे लिए? नहीं अपने लिए
बाग़ में है इक बेले का तख़्ता भीनी है इस बेले की सुगंध
ऐ कलियो क्यूँ इतने दिनों तुम रक्खे रहीं इसे गोद में बंद
कितने ही हम से रूप के रसिया आए यहाँ और चल भी दिए
तुम हो कि इतने हुस्न के होते एक न दामन थाम सके
सेहन-ए-चमन पर भौउँरों के बादल एक ही पल को छाएँगे
फिर न वो जा कर लौट सकेंगे फिर न वो जा कर आएँगे
ऐ मिरे सोच-नगर की रानी वक़्त की बातें रंग और बू
हर कोई साथ किसी का ढूँडे गुल हों कि बेले मैं हूँ कि तू
जो कुछ कहना है अभी कह ले जो कुछ सुनना है सुन ले
तुझ से जो मैं ने प्यार किया है तेरे लिए? नहीं अपने लिए
दिल की न पूछो क्या कुछ चाहे दिल का तो फैला है दामन
गीत से गाल ग़ज़ल सी आँखें साअद-ए-सीमीं बर्ग-ए-दहन
जूड़े के इन्हीं फूलों को देखो कल की सी इन में बास कहाँ
एक इक तारा कर के डूबी माथे की तन्नाज़ अफ़्शाँ
सहने का दुख सह न सके हम कहने की बातें कह न सके
पास तिरे कभी आ न सके हम दूर भी तुझ से रह न सके
किस से कहे अब रूह की बिपता किस को सुनाए मन की बात
दूर की राह भटकता राही जीवन-रात घनेरी रात
होंटों की प्यास बुझानी है अब तिरे जी को ये बात लगे न लगे
तुझ से जो मैं ने प्यार किया है तेरे? लिए नहीं अपने लिए
ये कौन आया - इब्न-ए-इंशा
'इंशा'-जी ये कौन आया किस देस का बासी है
होंटों पे तबस्सुम है आँखों में उदासी है
ख़्वाबों के गुलिस्ताँ की ख़ुश-बू-ए-दिल-आरा है
या सुब्ह-ए-तमन्ना के माथे का सितारा है
तरसी हुई नज़रों को अब और न तरसा रे
ऐ हुस्न के सौदागर ऐ रूप के बंजारे
रमना दिल-ए-'इंशा' का अब तेरा ठिकाना हो
अब कोई भी सूरत हो अब कोई बहाना हो
ख़ाकिस्तर-ए-दिल को है फिर शोला-ब-जाँ होना
हैरत का जहाँ होना हसरत का निशाँ होना
ऐ शख़्स जो तू आकर यूँ दिल में समाया है
तू दर्द कि दरमाँ है तो धूप कि साया है?
नैनाँ तिरे जादू हैं गेसू तिरे ख़ुश्बू हैं
बातें किसी जंगल में भटका हुआ आहू हैं
मक़्सूद-ए-वफ़ा सुन ले क्या साफ़ है सादा है
जीने की तमन्ना है मरने का इरादा है
पिछले-पहर के सन्नाटे में - इब्न-ए-इंशा
पिछले पहर के सन्नाटे में
किस की सिसकी किस का नाला
कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में दर आया है
ज़ोर हवा का टूट चुका है
खुले दरीचे की जाली से
नन्ही नन्ही बूँदें छन कर
सब कोनों में फैल गई हैं
और मिरे अश्कों से
उन के हाथ का तकिया भीग गया है
कितनी ज़ालिम
कितनी गहरी तारीकी है
खुला दरीचा थर-थर-थर-थर काँप रहा है
भीगी मिट्टी सौंधी ख़ुश्बू छोड़ रही है
ऊदे बादल
काले अम्बर की झीलों में डूब गए हैं
किस के रुख़्सारों की लर्ज़िश देख रहा हूँ
किस की ज़ुल्फ़ों की शिकनों से खेल रहा हूँ
चुपके चुपके लेटे लेटे सोच रहा हूँ
पिछले पहर का सन्नाटा है
किस की सिसकी किस का नाला
कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में दर आया है
घने दरख़्तों में पुर्वा की सीटी गूँजी
दो दिक्शों में क़ैदी रूहें चीख़ रही हैं
कोनों में दुबके हुए झींगर चिल्लाते हैं
मेहराबों से भूतों के सर टकराते हैं
क़िलए के इक बुर्ज के अंदर
एक परी (शीलाट की रानी)
ख़ंदक़ के अन-देखे पानी की गहराई
अंदेशे के बालिश्तों से माप रही है
माज़ी की डेवढ़ी की चिलमन
खुले दरीचे की जाली से
छन छन आएँ
रूप की जोत हिना की लाली कल की यादें
सौंधी ख़ुश्बू ठंडी बूँदें
कल के बासी आँसू जिन से
फ़र्दा के बालीं का पर्दा भीग रहा है
सेहर-ज़दा महबूस हसीना
सपनों के शीलाट की रानी
आईनों में हुस्न-ए-शिकस्ता देख रही है
कितने चेहरे टूटे टूटे
पहचाने अन-पहचाने से
आगे पीछे आगे पीछे भाग रहे हैं
क़िलए के आसेब की सूरत किस की सिसकी किस का नाला
कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में दर आया है
बिछड़े लोगो पियारे लोगो
चाहें भी तो नाम तुम्हारे जान सकेंगे?
कैसे मानें तुम को हमारे
जी लेने की मर लेने की
ख़ुशी हुई अफ़्सोस हुआ है
तुम क्या जानो
किस के हाथ का तकिया
किस के गर्म अश्कों से भीग रहा है
खुले दरीचे की जाली से चिमटी आँखो
इक लम्हे के कौंदे में तुम
किन किन अजनबी चीज़ों को पहचान सकोगी
जीवन-खेल में हारे लोगो
बिछड़े लोगो पियारे लोगो
बरखा की लम्बी रातों में
कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में
पिछले पहर के सन्नाटे में
रोते रोते जागने वाले
हम लोगों को सो लेने दो
और सवेरा हो लेने दो
ऐ मतवालो! नाक़ों वालो! - इब्न-ए-इंशा
ऐ मतवालो नाक़ों वालो देते हो कुछ उस का पता
नज्द के अंदर मजनूँ नामी एक हमारा भाई था
आख़िर उस पर क्या कुछ बीती जानो तो अहवाल कहो
मौत मिली या लैला पाई? दीवाने का मआल कहो
अक़्ल की बातें कहने वाले दोस्तों ने उसे समझाया
उस को तो लेकिन चुप सी लगी थी ना बोला ना बाज़ आया
ख़ैर अब उस की बात को छोड़ो दीवाना फिर दीवाना
जाते जाते हम लोगों का एक संदेसा ले जाना
आवारा आवारा फिरना छोड़ के मंडली यारों की
देख रहे हैं देखने वाले 'इंशा' का अब हाल वही
क्या अच्छा ख़ुश-बाश जवाँ था जाने क्यूँ बीमार हुआ
उठते बैठते मीर की बैतें पढ़ना उस का शिआर हुआ
तौर-तरीक़ा उखड़ा-उखड़ा चेहरा पीला सख़्त मलूल
राह में जैसे ख़ाक पे कोई मसला मसला बाग़ का फूल
शाम सवेरे बाल बिखेरे बैठा बैठा रोता है
नाक़ों वालो! इन लोगों का आलम कैसा होता है
अपना भी वो दोस्त था हम भी पास उस के बैठ आते हैं
इधर उधर के क़िस्से कह के जी उस का बहलाते हैं
उखड़ी-उखड़ी बात करे है भूल के अगला याराना
कौन हो तुम किस काम से आए? हम ने न तुम को पहचाना
जाने ये किस ने चोट लगाई जाने ये किस को प्यार करे
तुम्ही कहो हम किस को ढूँडें आहें खींचे नाम न ले
पीत में ऐसे जान से यारो कितने लोग गुज़रते हैं
पीत में नाहक़ मर नहीं जाते पीत तो सारे करते हैं
ऐ मतवालो नाक़ों वालो! नगरी नगरी जाते हो
कहीं जो उस की जान का बैरी मिल जाए ये बात कहो
चाक-गिरेबाँ इक दीवाना फिरता है हैराँ हैराँ
पत्थर से सर फोड़ मरेगा दीवाने को सब्र कहाँ
तुम चाहो तो बस्ती छोड़े तुम चाहो तो दश्त बसाए
ऐ मतवालो नाक़ों वालो वर्ना इक दिन ये होगा
तुम लोगों से आते जाते पूछेंगे 'इंशा' का पता
फिर शाम हुई - इब्न-ए-इंशा
फैलता फैलता शाम-ए-ग़म का धुआँ
इक उदासी का तनता हुआ साएबाँ
ऊँचे ऊँचे मिनारों के सर पे रवाँ
देख पहुँचा है आख़िर कहाँ से कहाँ
झाँकता सूरत-ए-ख़ैल-ए-आवारगाँ
ग़ुर्फ़ा ग़ुर्फ़ा बहर काख़-ओ-कू शहर में
दफ़अतन सैल-ए-ज़ुल्मात को चीरता
जल उठा दूर बस्ती का पहला दिया
पंछियों ने भी पच्छिम का रस्ता लिया
ख़ैर जाओ अज़ीज़ो मगर देखना
एक जुगनू भी मिशअल सी ले के चला
है उसे भी कोई जुस्तुजू शहर में?
आसमाँ पर रवाँ सुरमई बादलो
हाँ तुम्हीं क्या उड़ो और ऊँचे उड़ो
बाग़-ए-आलम के ताज़ा शगुफ़्ता गुलू
बे-नियाज़ाना महका करो ख़ुश रहो
लेकिन इतना भी सोचा, कभी ज़ालिमो!
हम भी हैं आशिक़-ए-रंग-ओ-बू शहर में
कोई देखे ये मजबूरियाँ दूरियाँ
एक ही शहर में हम कहाँ तुम कहाँ
दोस्तों ने भी छोड़ी हैं दिल-दारियाँ
आज वक़्फ़-ए-ग़म-ए-उल्फ़त-ए-राएगाँ
हम जो फिरते हैं वहशत-ज़दा सरगिराँ
थे कभी साहिब-ए-आबरू शहर में
लोग तानों से क्या क्या जताते नहीं
ऐसे राही तो मंज़िल को पाते नहीं
जी से इक दूसरे को भुलाते नहीं
सामने भी मगर आते जाते नहीं
और जाएँ तो आँखें मिलाते नहीं
हाए क्या क्या नहीं गुफ़्तुगू शहर में
चाँद निकला है दाग़ों की मिशअल लिए
दूर गिरजा के मीनारों की ओट से
आ मिरी जान आ एक से दो भले
आज फेरे करें कूचा-ए-यार के
और है कौन दर्द-आश्ना बावरे!
एक मैं शहर में, एक तू शहर में
ये सराए है - इब्न-ए-इंशा
ये सराए है यहाँ किस का ठिकाना ढूँडो
याँ तो आते हैं मुसाफ़िर सो चले जाते हैं
हाँ यही नाम था कुछ ऐसा ही चेहरा-मोहरा
याद पड़ता है कि आया था मुसाफ़िर कोई
सूने आँगन में फिरा करता था तन्हा तन्हा
कितनी गहरी थी निगाहों की उदासी उस की
लोग कहते थे कि होगा कोई आसेब-ज़दा
हम ने ऐसी भी कोई बात न देखी उस में
ये भी हिम्मत न हुई पास बिठा के पूछें
दिल ये कहता था कोई दर्द का मारा होगा
लौट आया है जो आवाज़ न उस की पाई
जाने किस दर पे किसे जा के पुकारा होगा
याँ तो हर रोज़ की बातें हैं ये जीतें मातें
ये भी चाहत के किसी खेल में हारा होगा
एक तस्वीर कुछ आप से मिलती जुलती
एक तहरीर थी पर उस का तो क़िस्सा छोड़ें
चंद ग़ज़लें थीं कि लिक्खें कभी लिख कर काटें
शेर अच्छे थे जो सुन लो तो कलेजा थामो
बस यही माल मुसाफ़िर का था हम ने देखा
जाने किस राह में किस शख़्स ने लूटा उस को
गुज़रा करते हैं सुलगते हुए बाक़ी अय्याम
लोग जब आग लगाते हैं बुझाते भी भी नहीं
अजनबी पीत के मारों से कसी को क्या काम
बस्तियों वाले कभी नाज़ उठाते भी नहीं
छीन लेते हैं किसी शख़्स के जी का आराम
फिर बुलाते भी नहीं पास बिठाते भी नहीं
एक दिन सुब्ह जो देखा तो सराए में न था
जाने किस देस गया है वो दिवाना ढूँडो!!
हम से पूछो तो न आएगा वो जाने वाला
तुम तो नाहक़ को भटकने का बहाना ढूँडो
याँ तो आया जो मुसाफ़िर यूँ ही शब-भर ठहरा
ये सराए है यहाँ किस का ठिकाना ढूँडो
दिल-आशोब - इब्न-ए-इंशा
यूँ कहने को राहें मुल्क-ए-वफ़ा की उजाल गया
इक धुँद मिली जिस राह में पैक-ए-ख़याल गया
फिर चाँद हमें किसी रात की गोद में डाल गया
हम शहर में ठहरें, ऐसा तो जी का रोग नहीं
और बन भी हैं सूने उन में भी हम से लोग नहीं
और कूचे को तेरे लौटने का तो सवाल गया
तिरे लुत्फ़-ओ-अता की धूम सही महफ़िल महफ़िल
इक शख़्स था इंशा नाम-ए-मोहब्बत में कामिल
ये शख़्स यहाँ पामाल रहा, पामाल गया
तिरी चाह में देखा हम ने ब-हाल-ए-ख़राब इसे
पर इश्क़ ओ वफ़ा के याद रहे आदाब इसे
तिरा नाम ओ मक़ाम जो पूछा, हँस कर टाल गया
इक साल गया, इक साल नया है आने को
पर वक़्त की भी अब होश नहीं दीवाने को
दिल हाथ से इस के वहशी हिरन की मिसाल गया
हम अहल-ए-वफ़ा रंजूर सही, मजबूर नहीं
और शहर-ए-वफ़ा से दश्त-ए-जुनूँ कुछ दूर नहीं
हम ख़ुश न सही, पर तेरे सर का वबाल गया
अब हुस्न के गढ़ और शहर-पनाहें सूनी हैं
वो जो आश्ना थे उन सब की निगाहें सूनी हैं
पर तू जो गया हर बात का जी से मलाल गया
मुन्नी तेरे दाँत कहाँ हैं - इब्न-ए-इंशा
मुन्नी तेरे दाँत कहाँ हैं
दाँत थे मैं ने दूध पिला कर सात बरस में पाले
आ कर उन को ले गए चूहे लम्बी मोंछों वाले
गुड़ का उन को माट मिला था मीठा और मज़ेदार
लाख ख़ुशामद कर के मुझ से ले लिए दाँत उधार
मुन्नी तेरे दाँत कहाँ हैं
बिल्ली थी इक मामी मौसी चुपके चुपके आई
पंजों पर थी देग की खुरचन होंटों पर बालाई
बोली गुड़ के माट पे मैं ने चूहे देखे चार
हिस्सा आधों-आध रहेगा दे दो दाँत उधार
मुन्नी तेरे दाँत कहाँ हैं
बा'द में बूढ़ा मोती आया रोनी शक्ल बनाए
बोला बीबी इस बिल्ली का कुछ तो करें उपाए
दूध न छोड़े गोश्त न छोड़े हैं बुढ्ढा लाचार
इस को करूँ शिकार जो मुझ को दे दो दाँत उधार
अच्छी मुन्नी तुम ने अपने इतने दाँत गँवाए
कुछ चूहों ने कुछ बिल्ली ने कुछ मोती ने पाए
बाक़ी जो दो-चार रहे हैं वो हम को दिलवाओ
इक दावत में आज मिलेंगे तिक्के और पोलाव
मुर्ग़ी के पाए का सालन बैगन का आचार
दोगी या किसी और से माँगूँ
हाँ दिए उधार
बाबा हाँ हाँ दिए उधार
मुन्नी तेरे दाँत कहाँ हैं
कुछ दे इसे रुख़्सत कर - इब्न-ए-इंशा
कुछ दे इसे रुख़्सत कर क्यूँ आँख झुका ली है
हाँ दर पे तिरे मौला! 'इंशा' भी सवाली है
इस बात पे क्यूँ इस की इतना भी हिजाब आए
फ़रियाद से बे-बहरा कश्कोल से ख़ाली है
शायर है तो अदना है, आशिक़ है तो रुस्वा है
किस बात में अच्छा है किस वस्फ़ में आली है
किस दीन का मुर्शिद है, किस केश का मोजिद है
किस शहर का शहना है किस देस का वाली है?
ताज़ीम को उठते हैं इस वास्ते दिल वाले
हज़रत ने मशीख़त की इक तरह निकाली है
आवारा ओ सरगर्दां कफ़नी-ब-गुलू-पेचाँ
दामाँ भी दुरीदा है गुदड़ी भी सँभाली है
आवारा है राहों में, दुनिया की निगाहों में
इज़्ज़त भी मिटा ली है तम्कीं भी गँवा ली है
आदाब से बेगाना, दर आया है दीवाना
ने हाथ में तोहफ़ा है, ने साथ में डाली है
बख़्शिश में तअम्मुल है और आँख झुका ली है
कुछ दर पे तिरे मौला, ये बात निराली है
'इंशा' को भी रुख़्सत कर, 'इंशा' को भी कुछ दे दे
'इंशा' से हज़ारों हैं, 'इंशा' भी सवाली है
कातिक का चाँद - इब्न-ए-इंशा
चाँद कब से है सर-ए-शाख़-ए-सनोबर अटका
घास शबनम में शराबोर है शब है आधी
बाम सूना है, कहाँ ढूँडें किसी का चेहरा
(लोग समझेंगे कि बे-रब्त हैं बातें अपनी)
शेर उगते हैं दुखी ज़ेहन से कोंपल कोंपल
कौन मौसम है कि भरपूर हैं ग़म की बेलें
दूर पहुँचे हैं सरकते हुए ऊदे बादल
चाँद तन्हा है (अगर उस की बलाएँ ले लें?)
दोस्तो जी का अजब हाल है, लेना बढ़ना
चाँदनी रात है कातिक का महीना होगा
मीर-ए-मग़्फ़ूर के अशआर न पैहम पढ़ना
जीने वालों को अभी और भी जीना होगा
चाँद ठिठका है सर-ए-शाख़-ए-सनोबर कब से
कौन सा चाँद है किस रुत की हैं रातें लोगो
धुँद उड़ने लगी बुनने लगी क्या क्या चेहरे
अच्छी लगती हैं दिवानों की सी बातें लोगो
भीगती रात में दुबका हुआ झींगर बोला
कसमसाती किसी झाड़ी में से ख़ुश्बू लपकी
कोई काकुल कोई दामन, कोई आँचल होगा
एक दुनिया थी मगर हम से समेटी न गई
ये बड़ा चाँद चमकता हुआ चेहरा खोले
बैठा रहता है सर-ए-बाम-ए-शबिस्ताँ शब को
हम तो इस शहर में तन्हा हैं, हमीं से बोले
कौन इस हुस्न को देखेगा ये इस से पूछो
सोने लगती है सर-ए-शाम ये सारी दुनिया
इन के हुजरों में न दर है न दरीचा कोई
इन की क़िस्मत में शब-ए-माह को रोना कैसा
इन के सीने में न हसरत न तमन्ना कोई
किस से इस दर्द-ए-जुदाई की शिकायत कहिए
याँ तो सीने में नियस्तां का नियस्तां होगा
किस से इस दिल के उजड़ने की हिकायत कहिए
सुनने वाला भी जो हैराँ नहीं, हैराँ होगा
ऐसी बातों से न कुछ बात बनेगी अपनी
सूनी आँखों में निराशा का घुलेगा काजल
ख़ाली सपनों से न औक़ात बनेगी अपनी
ये शब-ए-माह भी कट जाएगी बे-कल बे-कल
जी में आती है कि कमरे में बुला लें इस को
चाँद कब से है सर-ए-शाख़-ए-सनोबर अटका
रात उस को भी निगल जाएगी बोलो बोलो
बाम पर और न आएगा किसी का चेहरा
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Ibn-e-Insha) #icon=(link) #color=(#2339bd)
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