Hindi Kavita
हिंदी कविता
गिरिजा कुमार माथुर - प्रसिद्ध रचनाएँ,कविताएँ
Girija Kumar Mathur - Selected Poetry
हिंदी जन की बोली है - गिरिजा कुमार माथुर
एक डोर में सबको जो है बाँधती
वह हिंदी है,
हर भाषा को सगी बहन जो मानती
वह हिंदी है।
भरी-पूरी हों सभी बोलियां
यही कामना हिंदी है,
गहरी हो पहचान आपसी
यही साधना हिंदी है,
सौत विदेशी रहे न रानी
यही भावना हिंदी है।
तत्सम, तद्भव, देश विदेशी
सब रंगों को अपनाती,
जैसे आप बोलना चाहें
वही मधुर, वह मन भाती,
नए अर्थ के रूप धारती
हर प्रदेश की माटी पर,
'खाली-पीली-बोम-मारती'
बंबई की चौपाटी पर,
चौरंगी से चली नवेली
प्रीति-पियासी हिंदी है,
बहुत-बहुत तुम हमको लगती
'भालो-बाशी', हिंदी है।
उच्च वर्ग की प्रिय अंग्रेज़ी
हिंदी जन की बोली है,
वर्ग-भेद को ख़त्म करेगी
हिंदी वह हमजोली है,
सागर में मिलती धाराएँ
हिंदी सबकी संगम है,
शब्द, नाद, लिपि से भी आगे
एक भरोसा अनुपम है,
गंगा कावेरी की धारा
साथ मिलाती हिंदी है,
पूरब-पश्चिम/ कमल-पंखुरी
हम होंगे कामया - गिरिजा कुमार माथुर
बहोंगे कामयाब, होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
नहीं डर किसी का आज
नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज के दिन
हम होंगे कामयाब एक दिन
बरसों के बाद कभी - गिरिजा कुमार माथुर
बरसों के बाद कभी
हम तुम यदि मिलें कहीं,
देखें कुछ परिचित से,
लेकिन पहिचानें ना।
याद भी न आये नाम,
रूप, रंग, काम, धाम,
सोचें,यह सम्भव है -
पर, मन में मानें ना।
हो न याद, एक बार
आया तूफान, ज्वार
बंद, मिटे पृष्ठों को -
पढ़ने की ठाने ना।
बातें जो साथ हुई,
बातों के साथ गयीं,
आँखें जो मिली रहीं -
उनको भी जानें ना।
कौन थकान हरे जीवन की - गिरिजा कुमार माथुर
कौन थकान हरे जीवन की?
बीत गया संगीत प्यार का,
रूठ गयी कविता भी मन की ।
वंशी में अब नींद भरी है,
स्वर पर पीत सांझ उतरी है
बुझती जाती गूंज आखिरी
इस उदास बन पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है,
अब सपनों में शेष रह गई
सुधियां उस चंदन के बन की ।
रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्वर सकुचाए,
म्लान दिया बत्ती की बेला
थके प्रवासी की आंखों में
आंसू आ आ कर कुम्हलाए,
कहीं बहुत ही दूर उनींदी
झांझ बज रही है पूजन की ।
कौन थकान हरे जीवन की?
ढाकबनी - गिरिजा कुमार माथुर
लाल पत्थर लाल मिटृटी
लाल कंकड़ लाल बजरी
लाल फूले ढाक के वन
डाँग गाती फाग कजरी
सनसनाती साँझ सूनी
वायु का कंठला खनकता
झींगुरों की खंजड़ी पर
झाँझ-सा बीहड़ झनकता
कंटकित बेरी करौंदे
महकते हैं झाब झोरे
सुन्न हैं सागौन वन के
कान जैसे पात चौड़े
ढूह, टीेले, टोरियों पर
धूप-सूखी घास भूरी
हाड़ टूटे देह कुबड़ी
चुप पड़ी है देह बूढ़ी
ताड़, तेंदू, नीम, रेंजर
चित्र लिखी खजूर पांतें
छाँह मंदी डाल जिन पर
ऊगती हैं शुक्ल रातें
बीच सूने में
बनैले ताल का फैला अतल जल
थे कभी आए यहाँ पर
छोड़ दमयंती दुखी नल
भूख व्याकुल ताल से ले
मछलियाँ थीं जो पकाईं
शाप के कारन जली ही
वे उछल जल में समाईं
है तभी से साँवली
सुनसान जंगल की किनारी
हैं तभी से ताल की
सब मछलियाँ मनहूस काली
पूर्व से उठ चाँद आँधा
स्याह जल में चमचमाता
बनचमेली की जड़ों से
नाग कसकर लिपट जाता
कोस भर तक केवड़े का
है गसा गुंजान जंगल
उन कटीली झाड़ियों में
उलझ जाता चाँद चंचल
चाँदनी की रैन चिड़िया
गंध कलियों पर उतरती
मूँद लेती नैन गोरे
पाँख धीरे बंद करती
गंध घोड़े पर चढ़ीं
दुलकी चली आतीं हवाएँ
टाप हल्के पड़ें जल में
गोल लहरें उछल आएँ
सो रहा बन ढूह सोते
ताल सोता तीर सोते
प्रेतवाले पेड़ सोते
सात तल के नीर सोते
ऊँघती है रूँद
करवट ले रही है घास ऊँची
मौन दम साधे पड़ी है
टोरियों की रास ऊँची
साँस लेता है बियाबाँ
डोल जातीं सुन्न छाँहें
हर तरफ गुपचुप खड़ी हैं
जनपदों की आत्माएँ
ताल की है पार ऊँची
उतर गलियारा गया है
नीम, कंजी, इमलियों में
निकल बंजारा गया है
बीच पेड़ों की कटन में
हैं पड़े दो चार छप्पर
हाँडियाँ, मचिया, कठौते
लट्ठ, गूदड़, बैल, बक्खर
राख, गोबर, चरी, औंगन
लेज, रस्सी, हल, कुल्हाड़ी
सूत की मोटी फतोही
चका, हँसिया और गाड़ी
धुआँ कंडों का सुलगता
भौंकता कुत्ता शिकार
है यहाँ की जिंदगी पर
शाप नल का स्याह भारी
भूख की मनहूस छाया
जब कि भोजन सामने हो
आदमी हो ठीकरे-सा
जबकि साधन सामने हो
धन वनस्पति भरे जंगल
और यह जीवन भिखरी
शाप नल का घूमता है
भोथरे हैं हल-कुल्हाड़ी
हल कि जिसकी नोक से
बेजान मिट्टी झूम उठती
सभ्यता का चाँद खिलता
जंगलों की रात मिटती
आइनों से गाँव होते
घर न रहते धूल कूड़ा
जम न जाता ज़िंदगी पर
युगों का इतिहास-घूरा
मृत्यु-सा सुनसान बनकर
जो बनैला प्रेत फिरता
खाद बन जीवन फसल की
लोक मंगल रूप धरता
रंग मिट्टी का बदलता
नीर का सब पाप धुलता
हरे होते पीत ऊसर
स्वस्थ हो जाती मनुजता
लाल पत्थर, लाल मिट्टी
लाल कंकड़, लाल बजरी
फिर खिलेंगे झाक के वन
फिर उठेगी फाग कजरी।
आदमी की अनुपात - गिरिजा कुमार माथुर
दो व्यक्ति कमरे में
कमरे से छोटे —
कमरा है घर में
घर है मुहल्ले में
मुहल्ला नगर में
नगर है प्रदेश में
प्रदेश कई देश में
देश कई पृथ्वी पर
अनगिन नक्षत्रों में
पृथ्वी एक छोटी
करोड़ों में एक ही
सबको समेटे हैं
परिधि नभ गंगा की
लाखों ब्रह्मांडों में
अपना एक ब्रह्मांड
हर ब्रह्मांड में
कितनी ही पृथ्वियाँ
कितनी ही भूमियाँ
कितनी ही सृष्टियाँ
यह है अनुपात
आदमी का विराट से
इस पर भी आदमी
ईर्ष्या, अहं, स्वार्थ, घृणा, अविश्वास लीन
संख्यातीत शंख-सी दीवारें उठाता है
अपने को दूजे का स्वामी बताता है
देशों की कौन कहे
एक कमरे में
दो दुनिया रचाता है ।
दो पाटों की दुनिया - गिरिजा कुमार माथुर
दो पाटों की दुनिया
चारों तरफ शोर है,
चारों तरफ भरा-पूरा है,
चारों तरफ मुर्दनी है,
भीड और कूडा है।
हर सुविधा
एक ठप्पेदार अजनबी उगाती है,
हर व्यस्तता
और अधिक अकेला कर जाती है।
हम क्या करें-
भीड और अकेलेपन के क्रम से कैसे छूटें?
राहें सभी अंधी हैं,
ज्यादातर लोग पागल हैं,
अपने ही नशे में चूर-
वहशी हैं या गाफिल हैं,
खलानायक हीरो हैं,
विवेकशील कायर हैं,
थोडे से ईमानदार-
हम क्या करें-
अविश्वास और आश्वासन के क्रम से कैसे छूटें?
तर्क सभी अच्छे हैं,
अंत सभी निर्मम हैं,
आस्था के वसनों में,
कंकालों के अनुक्रम हैं,
प्रौढ सभी कामुक हैं,
जवान सब अराजक हैं,
बुध्दिजन अपाहिज हैं,
मुंह बाए हुए भावक हैं।
हम क्या करें-
तर्क और मूढता के क्रम से कैसे छूटें!
हर आदमी में देवता है,
और देवता बडा बोदा है,
हर आदमी में जंतु है,
जो पिशाच से न थोडा है।
हर देवतापन हमको
नपुंसक बनाता है
हर पैशाचिक पशुत्व
नए जानवर बढाता है,
हम क्या करें-
देवता और राक्षस के क्रम से कैसे छूटें?
बरसों के बाद कभी
बरसों के बाद कभी,
हम-तुम यदि मिलें कहीं,
देखें कुछ परिचित से,
लेकिन पहिचानें ना।
याद भी न आए नाम,
रूप, रंग, काम, धाम,
सोचें,
यह सम्भव है-
पर, मन में मानें ना।
हो न याद, एक बार
आया तूफान, ज्वार
बंद, मिटे पृष्ठों को-
पढने की ठानें ना।
बातें जो साथ हुईं,
बातों के साथ गईं,
आंखें जो मिली रहीं-
उनको भी जानें ना।
पन्द्रह अगस्त - गिरिजा कुमार माथुर
१
आज जीत की रात
पहरुए! सावधान रहना
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना
२
प्रथम चरण है नए स्वर्ग का
है मंज़िल का छोर
इस जनमंथन से उठ आई
पहली रत्न-हिलोर
अभी शेष है पूरी होना
जीवन-मुक्ता-डोर
क्योंकि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर
ले युग की पतवार
बने अम्बुधि समान रहना।
३
विषम शृंखलाएँ टूटी हैं
खुली समस्त दिशाएँ
आज प्रभंजन बनकर चलतीं
युग-बंदिनी हवाएँ
प्रश्नचिह्न बन खड़ी हो गईं
यह सिमटी सीमाएँ
आज पुराने सिंहासन की
टूट रही प्रतिमाएँ
उठता है तूफ़ान, इन्दु! तुम
दीप्तिमान रहना।
४
ऊँची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी
छायाओं का डर है
शोषण से है मृत समाज
कमज़ोर हमारा घर है
किन्तु आ रहा नई ज़िन्दगी
यह विश्वास अमर है
जन-गंगा में ज्वार,
लहर तुम प्रवहमान रहना
पहरुए! सावधान रहना।
नया बनने का दर्द - गिरिजा कुमार माथुर
पुराना मकान
फिर पुराना ही होता है
-उखड़ा हो पलस्तर
खार लगी चनखारियाँ
टूटी महरावें
घुन लगे दरवाजे
सील भरे फर्श,
झरोखे, अलमारियाँ
-कितनी ही मरम्मत करो
चेपे लगाओ
रंग-रोगन करवाओ
चमक नहीं आती है
रूप न सँवरता है
नींव वही रहती है
कुछ भी न बदलता है
-लेकिन जब आएँ
नई दुनिया की चुनौतियाँ
नई चीजों की आँधियाँ
घर हो-
या व्यवस्था हो
नक्शा यदि बदला नहीं
नया कुछ हुआ नहीं
बखिए उधेड़ता
वक्त तेजी से आता है
जो कुछ है सड़ा-गला
सब कुछ ढह जाता है
-यों तो पुराना कभी व्यर्थ नहीं होता है
वह एक रंगीन डोर है
रोम रोम बँधी जिससे
एक-एक पीढ़ियाँ
माटी से बनी देह
रंग, रूप, बीज-कोष
अपनी पहचान-गन्ध
संस्कार सीढ़ियाँ!
जो कुछ पुराना है मोहक तो लगता है
टूटने का दर्द मगर सहना ही पड़ता है
बहुत कुछ टूटता है
तब नया बनता है
ख़ुशबू बहुत है - गिरिजा कुमार माथुर
मेरे युवा-आम में नया बौर आया है
ख़ुशबू बहुत है क्योंकि तुमने लगाया है
आएगी फूल-हवा अलबेली मानिनी
छाएगी कसी-कसी अँबियों की चाँदनी
चमकीले, मँजे अंग
चेहरा हँसता मयंक
खनकदार स्वर में तेज गमक-ताल फागुनी
मेरा जिस्म फिर से नया रूप धर आया है
ताज़गी बहुत है क्योंकि तुमने सजाया है
अन्धी थी दुनिया या मिट्टी-भर अन्धकार
उम्र हो गई थी एक लगातार इन्तज़ार
जीना आसान हुआ तुमने जब दिया प्यार
हो गया उजेला-सा रोओं के आर-पार
एक दीप ने दूसरे को चमकाया है
रौशनी के लिए दीप तुमने जलाया है
कम न हुई, मरती रही केसर हर साँस से
हार गया वक़्त मन की सतरंगी आँच से
कामनाएँ जीतीं जरा-मरण-विनाश से
मिल गया हरेक सत्य प्यार की तलाश से
थोड़े ही में मैंने सब कुछ भर पाया है
तुम पर वसन्त क्योंकि वैसा ही छाया है
अनकही बात - गिरिजा कुमार माथुर
बोलते में
मुस्कराहट की कनी
रह गई गड़ कर
नहीं निकली अनी
खेल से
पल्ला जो उँगली पर कसा
मन लिपट कर रह गया
छूटा वहीं
बहुत पूछा
पर नहीं उत्तर मिला
हैं लजीले मौन
बातें अनगिनी
अर्थ हैं जितने
न उतने शब्द हैं
बहुत मीठी है
कहानी अनसुनी
ठीक कर लो
अलग माथे पर पड़ी
ठीक से
आती नहीं है चाँदनी
याद यह दिन रहे
चाहें दूर से
दूर ही से सही
आए रोशनी
मैं कैसे आनन्द मनाऊँ - गिरिजा कुमार माथुर
मैं कैसे आनन्द मनाऊँ
तुमने कहा हँसूँ रोने में रोते-रोते गीत सुनाऊँ
झुलस गया सुख मन ही मन में
लपट उठी जीवन-जीवन में
नया प्यार बलिदान हो गया
पर प्यासी आत्मा मँडराती
प्रीति सन्ध्या के समय गगन में
अपने ही मरने पर बोलो कैसे घी के दीप जलाऊँ
गरम भस्म माथे पर लिपटी
कैसे उसको चन्दन कर लूँ
प्याला जो भर गया ज़हर से
सुधा कहाँ से उसमें भर लूँ
कैसे उसको महल बना दूँ
धूल बन चुका है जो खँडहर
चिता बने जीवन को आज
सुहाग-चाँदनी कैसे कर दूँ
कैसे हँस कर आशाओं के मरघट पर बिखराऊँ रोली
होली के छन्दों में कैसे दीपावलि के बन्द बनाऊँ
चाँदनी की रात है - गिरिजा कुमार माथुर
चाँदनी की रात है तो क्या करूँ
ज़िन्दगी में चाँदनी कैसे भरूँ
दूर है छिटकी छबीली चाँदनी
बहुत पहली देह-पीली चाँदनी
चौक थे पूरे छुई के : चाँदनी
दीप ये ठण्डे रुई के : चाँदनी
पड़ रही आँगन तिरछी चाँदनी
गन्ध चौके भरे मैले वसन
गृहिणी चाँदनी
याद यह मीठी कहाँ कैसे धरूँ
असलियत में चाँदनी कैसे भरूँ
फूल चम्पे का खिला है चाँद में
दीप ऐपन का जला है चाँद में
चाँद लालिम उग कर उजला हुआ
कामिनी उबटन लगा आई नहा
राह किसकी देखती यह चाँदनी
दूर देश पिया, अकेली चाँदनी
चाँदनी की रात है तो क्या करूँ
आसुँओं में चाँदनी कैसे भरूँ
शहर, कस्बे, गाँव, ठिठकी चाँदनी
एक जैसी पर न छिटकी चाँदनी
कागजों में बन्द भटकी चाँदनी
राह चलते कहाँ अटकी चाँदनी
हविस, हिंसा, होड़ है उन्मादिनी
शहर में दिखती नहीं है चाँदनी
चाँदनी की रात है तो क्या करूँ
कुटिलता में चाँदनी कैसे भरूँ
गाँव की है रात चटकी चाँदनी
है थकन की नींद मीठी चाँदनी
दूध का झरता बुरादा : चाँदनी
खोपरे की मिगी कच्ची चाँदनी
उतर आई रात दूर विहान है
वक्त का ठहराव है सुनसान है
चाँदनी है फसल
ठंडे बाजरे की ज्वार की
गोल नन्हे चाँद से दाने
उजरिया मटीले घर-द्वार की
एक मुट्ठी चाँदनी भी रह न पाई
जब्र लूटे धूजते संसार की
दबे नंगे पाँव लुक-छिप भागती है
धूल की धौरी नदी गलियार की
चुक गई सारी उमर की चाँदनी
बाल सन से ऊजरे ज्यों चाँदनी
कौड़ियों-सी बिछी उजली चाँदनी
कौड़ियों के मोल बिकती चाँदनी
और भी लगती सुहानी चाँदनी
धान, चावल, चून होती चाँदनी
चाँदनी की रात है तो क्या करूँ
पंजरों में चाँदनी कैसे भरूँ
गाँव का बूढ़ा कहे सुन चाँदनी
रात काली हो कि होवे चाँदनी
गाँव पर अब भी अँधेरा पाख है
साठ बरसों में न बदली चाँदनी
फिर मिलेगी कब दही-सी चाँदनी
दूध, नैनू, घी, मही-सी चाँदनी
चाँदनी की रात है तो क्या करूँ
डण्ठलों में चाँदनी कैसे भरूँ
विदा समय क्यों भरे नयन हैं - गिरिजा कुमार माथुर
विदा समय क्यों भरे नयन हैं
अब न उदास करो मुख अपना
बार-बार फिर कब है मिलना
जिस सपने को सच समझा था —
वह सब आज हो रहा सपना
याद भुलाना होंगी सारी
भूले-भटके याद न करना
चलते समय उमड़ आए इन पलकों में जलते सावन हैं।
कैसे पी कर खाली होगी
सदा भरी आँसू की प्याली
भरी हुई लौटी पूजा बिन
वह सूनी की सूनी थाली
इन खोई-खोई आँखों में —
जीवन ही खो गया सदा को
कैसे अलग अलग कर देंगे
मिला-मिला आँखों की लाली
छुट पाएँगे अब कैसे, जो अब तक छुट न सके बन्धन हैं।
जाने कितना अभी और
सपना बन जाने को है जीवन
जाने कितनी न्यौछावर को
कहना होगा अभी धूल कन
अभी और देनी हैं कितनी —
अपनी निधियाँ और किसी को
पर न कभी फिर से पाऊँगा
उनकी विदा समय की चितवन
मेरे गीत किन्हीं गालों पर रुके हुए दो आँसू कन हैं
विदा समय क्यों भरे नयन हैं
भूले हुओं का गीत - गिरिजा कुमार माथुर
बरसों के बाद कभी
हम तुम यदि मिलें कहीं
देखें कुछ परिचित से
लेकिन पहिचानें ना
याद भी न आए नाम
रूप रंग, काम, धाम
सोचें
यह संभव है
पर, मन में मानें ना
हो न याद, एक बार
आया तूफ़ान, ज्वार
बन्द मिटे पृष्ठों को
पढ़ने की ठानें ना
बातें जो साथ हुईं
बातों के साथ गईं
आँखें जो मिली रहीं
उनको भी जानें ना ।
भटका हुआ कारवाँ - गिरिजा कुमार माथुर
उन पर क्या विश्वास जिन्हें है अपने पर विश्वास नहीं
वे क्या दिशा दिखाएँगे, दिखता जिनको आकाश नहीं
बहुत बड़े सतरंगे नक़्शे पर
बहुत बड़ी शतरंज बिछी
धब्बोंवाली चादर जिसकी
कटी, फटी, टेढ़ी, तिरछी
जुटे हुए हैं वही खिलाड़ी
चाल वही, संकल्प वही
सबके वही पियादे, फर्जी
कोई नया विकल्प नहीं
चढ़ा खेल का नशा इन्हें, दुनिया का होश-हवास नहीं
दर्द बँटाएँगे क्या, जिनको अपने से अवकाश नहीं
एक बाँझ वर्जित प्रदेश में
पहुँच गई जीवन की धारा
भटक रहा लाचार कारवाँ
लुटा-पिटा दर-दर मारा
बिक्री को तैयार खड़ा
हर दरवाजे झुकनेवाला
अदल-बदल कर पहन रहा है
खोटे सिक्कों की माला
इन्हें सबसे ज़्यादा दुख का है कोई अहसास नहीं
अपनी सुख-सुविधा के आगे, कोई और तलाश नहीं
ख़त्म हुई पहचान सभी की
अजब वक़्त यह आया है
सत्य-झूठ का व्यर्थ झमेला
सबने खूब मिटाया है
जातिवाद का ज़हर किसी ने
घर-घर में फैलाया है
वर्तमान है वृद्ध
भविष्यत अपने से कतराया है
उठती हैं तूफ़ानी लहरें, तट का है आभास नहीं
पृथ्वी है, सागर सूरज है लेकिन अभी प्रकाश नहीं ।
इतिहास की कालहीन कसौटी - गिरिजा कुमार माथुर
बन्द अगर होगा मन
आग बन जाएगा
रोका हुआ हर शब्द
चिराग बन जाएगा ।
सत्ता के मन में जब-जब पाप भर जाएगा
झूठ और सच का सब अन्तर मिट जाएगा
न्याय असहाय, ज़ोर-जब्र खिलखिलाएगा
जब प्रचार ही लोक-मंगल कहलाएगा
तब हर अपमान
क्रान्ति-राग बन जाएगा
बन्द अगर होगा मन
आग बन जाएगा
घर की ही दीवार जब जलाने लगे घर-द्वार
रोशनी पलट जाए बन जाए अन्धकार
पर्दे में भरोसे के जब पलने लगे अनाचार
व्यक्ति मान बैठे जब अपने को अवतार
फिर होगा मन्थन
सिन्धु झाग बन जाएगा
बन्द अगर होगा मन
आग बन जाएगा
घटना हो चाहे नई बात यह पुरानी है
भय पर उठाया भवन रेत की कहानी है
सहमति नहीं है मौन, विरोध की निशानी है
सन्नाटा बहुत बड़े अंधड़ की वाणी है
टूटा विश्वास अगर
गाज बन जाएगा
बन्द अगर होगा मन
आग बन जाएगा ।
मेरे सपने बहुत नहीं हैं - गिरिजा कुमार माथुर
मेरे सपने बहुत नहीं हैं —
छोटी-सी अपनी दुनिया हो,
दो उजले-उजले से कमरे
जगने को-सोने को,
मोती-सी हों चुनी किताबें
शीतल जल से भरे सुनहले प्यालों जैसी
ठण्डी खिड़की से बाहर धीरे हँसती हो
तितली-सी रंगीन बगीची;
छोटा लॉन स्वीट-पी जैसा,
मौलसिरी की बिखरी छितरी छाँहों डूबा —
हम हों, वे हों
काव्य और संगीत-सिन्धु में डूबे-डूबे
प्यार भरे पंछी से बैठे
नयनों से रस-नयन मिलाए,
हिल-मिलकर करते हों
मीठी-मीठी बातें
उनकी लटें हमारे कन्धों पर मुख पर
उड़-उड़ जाती हों,
सुशर्म बोझ से दबे हुए झोंकों से हिल कर
अब न बहुत हैं सपने मेरे
मैं इस मंज़िल पर आ कर
सब कुछ जीवन में भर पाया ।
सार्थकता - गिरिजा कुमार माथुर
तुमने मेरी रचना के
सिर्फ एक शब्द पर
किंचित मुस्का दिया
- अर्थ बन गई भाषा
छोटी सी घटना थी
सहसा मिल जाने की
तुमने जब चलते हुए
एक गरम लाल फूल
होठों पर छोड दिया
-घटना सच हो गई
संकट की घडियों में
बढते अंधकार पर
तुमने निज पल्ला डाल
गांठ बना बांध लिया
- व्यथा अमोल हो गई
मुझसे जब मनमाना
तुमने देह रस पाकर
आंखों से बता दिया
-उम्र अमर हो गई
अ-नया वर्ष - गिरिजा कुमार माथुर
अ-नया वर्ष
इसके पहले कि हम एक कविता तो दूर
एक अच्छा खत ही लिख पाते
इसके पहले कि हम किसी शाम
बिना साथ ही उदास हुए हंस पाते
इसके पहले कि हम एक दिन
सिर्फ एक ही दिन
पूरे दिन की तरह बिता पाते
इसके पहले कि हम किसी व्यक्ति
या घटना या स्थान या स्थिति से
बिना ऊबे हुए
अपरिचित की तरह मिले पाते
इसके पहले कि
सुख के और संकट के क्षणों को
हम अलग-अलग करके
समझ पाते
इसके पहले
इसके पहले
एक और अर्थहीन बरसा गीत गया।
अनबींधे मन का गीत - गिरिजा कुमार माथुर
जल तो बहुत गहरा था
कमलों तक समझे हम
झील वह अछूती थी
पुरइन से ढंकी हुई
सूरज से अनबोली
चाँद से न खुली हुई
कई जन्म अमर हुए
कोरी अब सिर्फ देह
पहली ही बिजली
हमें नौका-सी बाँध गई
लहरें किन्तु भीतर थीं
रोओं तक समझे हम
तट से बंधा मन
छाया कृतियों में मग्न रहा
स्वप्न की हवाओं में
तिरती हुयी गन्ध रहा
अतल बीच
सीपी का ताला निष्कलंक रहा
जादू का महल एक
नीचे ही बन्द रहा
अनटूटा था तिलिस्म
बाँहों में समझे हम
एक दिन शुरू के लम्बे कुन्तल
खुले दर्पण में
भिन्न स्वाह लिपि देखी
प्यासे आकर्षण में
मन था अनबींधा
बिंधी देहों के बन्धन में
अंजलियां भूखी थीं
आधे दिए अर्पण में
आया जब और चाँद
झील की तलहटी में
तब मीठी आँखों के
अर्थों को समझे हम
जल तो बहुत गहरा था
कमलों तक समझे हम ।
न्यूयॉर्क की एक शाम - गिरिजा कुमार माथुर
देश काल तजकर मैं आया
भूमि सिन्धु के पार सलोनी
उस मिट्टी का परस छुट गया
जैसे तेरा प्यार, सलोनी
दुनिया एक मिट गई, टूटे
नया खिलौना ज्यों मिट्टी का
आँसू की सी बूंद बन गया
मोती का संसार, सलोनी
स्याह सिन्धु की इस रेखा पर
ये तिलिस्म-दुनिया झिलमिल है
हुमक उमगती याद फेन-सी
छाती में हर बार, सलोनी
सभी पराया सभी अचीन्हा
रंग हज़ारों पर मन सूना
नभ-भवनों में याद आ रहे
वे कच्चे घर-द्वार, सलोनी
गालों की गोराई जैसा
यह पतझर का मौसम आया
झरी उमंगें मेपिल सी
सुख-सेव झरे छतनार, सलोनी
यह वैभव विलास की दुनिया
ऋतु रोमानी तन रोमांचित
कहीं नयन मिल होते शीतल
अपने मन अंगार, सलोनी।
चेहरे पर आती हैं परछाइयाँ - गिरिजा कुमार माथुर
ये नई उम्र वाले गठीले बदन
ये नई काट के अंगबेधी वसन
हर सड़क पर
चटख रंग की बाढ़
बेफ़िक्र चलती हुईं
देहधारी शिखाएँ गरम
फूल की नोक चुभती निकलती हुईं
रुकी दृष्टि हटती
लिहाजों भरी सब्र करती, संभलती
धुरी छोड़ देती है लेकिन
शुरू से अधूरी, पियासी, थमी
कुछ पुराने खुमारों की गहराइयाँ
मेरे चेहरे पर आती हैं परछाइयाँ
उड़े तूफान पर
जब ज़रा हीरा आया
रुके, साँस ली
तेज़ जाती हुई एक झाँकी दिखी
स्वप्न-सी उम्र की
आँख झपकी
कि बदली समूची छटा दृश्य की
मंच घूमा
बिठा दर्शकों में गया
बीच अभिनय
अभी तो खड़े पात्र थे
भाव मुद्रा धरे
प्यार आधा किए
वक्ष आधे मिले
बाँह आधी उठी
बात आधी कही !
फिर यही है हवा
कासनी नीलिमा
फिर वही दुष्ट मौसम
शरम तोड़ता
फिर वही फूल पीले
नए घोंसले
फिर वही घास पर
धूप का हाशिया
फिर वही चाँदनी
तेज, उत्कट युवा
फिर अछूती डगर
उम्र उठता नशा
जलते प्रश्न - गिरिजा कुमार माथुर
जगमग होते कलश-कंगूरे
रंगों की झरती बरसात
चमक चंदोवे कंगने पहिने
खुश है राजनगर की रात
खुश हैं हम भी-
पर फिर दिखते
वे उदास चेहरे गुमनाम
दूर टिमटिमाते गाँवों के
उठ आते हैं दर्द तमाम
खुश हैं हम-
है झुका न माथा
अग्नि-परीक्षा में हर बार
बिना तेज़ सामाजिक गति के
नहीं मिटेगा हाहाकार
बड़ी चुनौती खड़ी सामने
नहीं राह पर बिछे गुलाब
नई शक्ति देकर अब जनता
मांग रही है नए जवाब
सोच रहा हूँ-
क्या आज़ादी है मेले-ठेले का नाम
सिर्फ तमाशा है परेड का?
सजी झांकियों का अभिराम
आज़ादी का अर्थ, न कुर्सी
बंगला, अमला या धन धाम
रौब-दाब, भाषण, मालाएँ
परमिट, तमग़े और इनाम
यह न तस्करों की आज़ादी
दो नम्बर दुनिया बदनाम
जात-पांत की धक्का शाही
फूट, लूट, हत्या, कुहराम
टक्कर खाते आम आदमी
हर काग़ज़ पर लिक्खा दाम
बिना-चढ़ावे के न सरकता
एक इंच भी पहिया जाम
क्यों है अब हर चीज बिकाऊ
शुद्ध न कोई कारोबार
यह मशीन चीकट काजल से
बड़ी सफाई है दरकार
माना बदला है काफ़ी कुछ
तेज़ नहीं लेकिन रफ़्तार
रक्षित जन हो, दुष्ट दमन हो
समय-शक्ति फिर रही पुकार
गूंज रहे मेरे शब्दों में
सब कुछ सहते कंठ अपार
मेरी कविता के दर्पन में
झाँक रहा असली संसार !
सूरज का पहिया - गिरिजा कुमार माथुर
मन के विश्वास का यह सोनचक्र रुके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी, चुके नहीं
उम्र रहे झलमल
ज्यों सूरज की तश्तरी
डंठल पर विगत के
उठे भविष्य सन्दली
आँखों में धूप लाल
छाप उन ओठों की
जिसके तन रोओं में
चन्दरिमा की कली
छाँह में बरौनियों के चाँद कभी थके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
मन में विश्वास
भूमि में ज्यों अंगार रहे
अगरई नज़रों में
ज्यों अलोप प्यार रहे
पानी में धरा गन्ध
रूख में बयार रहे
इस बिचार बीज की
फसल बार-बार रहे
मन में संघर्ष फाँस गड़कर भी दुखे नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
आगम के पन्थ मिलें
रांगोली रंग भरे
सँतिए-सी मंज़िल पर
जन भविष्य दीप धरे
आस्था चमेली पर
न पूरी सांझ घिरे
उग्र महागीत बने
सदियों में गूँज भरे
पाँव में अनीति के मनुष्य कभी झुके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
थकी दुपहरी में पीपल पर - गिरिजा कुमार माथुर
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में,
फूल आखिरी ये वसन्त के
गिरे ग्रीष्म के उष्म करों में
धीवर का सूना स्वर उठता
तपी रेत के दूर तटों पर
हल्की गरम हवा रेतीली
झुक चलती सूने पेड़ों पर ।
अब अशोक के भी थाले में
ढेर-ढेर पत्ते उड़ते हैं,
ठिठका नभ डूबा है रज में
धूल भरी नंगी सड़कों पर ।
वन-खेतों पर है सूनापन
खालीपन नि:शब्द घरों में,
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में ।
यह जीवन का एकाकीपन
गरमी के सुनसान दिनों सा,
अन्तहीन दोपहरी डूबा
मन निश्चल हैं शुष्क वनों-सा
ठहर गई हैं चीलें नभ में
ठहर गई है धूप-छांह भी
शून्य तीसरा पहर पास है
जलते हुए बन्द नयनों सा
कौन दूर से चलता आता,
इन गरमीले म्लान पथों में,
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में ।
व्यक्तित्व का मध्यान्तर - गिरिजा कुमार माथुर
लो आ पहुंचा सूरज के चक्रों का उतार
रह गई अधूरी धूप उम्र के आँगन में
हो गया चढ़ावा मन्द, वर्ण-अंगार थके
कुछ फूल शेष रह गए समय के दामन में
खण्डित लक्ष्यों के बेकल साये ठहर गए
थक गए पराजित यत्नों के अनरुके चरण
मध्याह्न बिना आए पियराने लगी धूप
कुम्हलाने लगा उमर का सूरजमुखी बदन
वह बाँझ अग्नि जो रोम-रोम में दीपित थी
व्यक्तित्व देह को जला स्वयं ही राख हुई
साहस गुमान की दोज उगी थी जो पहिले
वह पीत चन्द्रमा वाला अंधा पाख हुई
रंगीन डोरिर्यों ऊर्ध्व कामनाओं वाली
थे खींचे जिनसे नए नए आकाश दिए
हर चढ़े बरस ने तूफानी उँगलियां बढ़ा
अधजले दीप वे एक-एक कर बुझा दिए
तन की छाया-सी साथ रही है अडिग रात
पथ पर अपने ही चलते पाँव चमकते हैं
रह जाती ज्यों सोने की रेत कसौटी पर
सोने के बदले सिर्फ निशान झलकते हैं
आ रहीं अंधिकाएँ भरने को श्याम रंग
हर उजले रंग का चमक चन्दोवा मिटता है
नक्षत्र भावनाओं के बुझते जाते हैं
हर चाँद कामना का सियाह हो उगता है
हर काम अधूरे रहे, वर्ष रस के बीते
वय के वसन्त की सूख रही आख़िरी कली
तूफ़ान भंवर में पड़कर भी मोती न मिले
हर सीपी में सूनी वंध्या चीत्कार मिली
चल रहा उमर का रथ दिनान्त के पहियों पर
मंज़िलें खोखली, पथ ऊसर एकाकी है
गति व्यर्थ गई, उपलब्धिहीन साधना रही
मन में लेकिन संध्या की लाली बाक़ी है
इस लाली का मैं तिलक करूं हर माथे पर
दूँ उन सबको जो पीड़ित हैं मेरे समान
दुख, दर्द, अभाव भोगकर भी जो झुके नहीं
जो अन्यायों से रहे जूझते वक्ष तान
जो सज़ा भोगते रहे सदा सच कहने की
जो प्रभुता पद आतंकों से नत हुए नहीं
जो विफल रहे पर कृपा न माँगी घिघियाकर
जो किसी मूल्य पर भी शरणागत हुए नहीं ।
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