Hindi Kavita
हिंदी कविता
बीजुरी काजल आँज रही - माखनलाल चतुर्वेदी
Bijuri Kajal Aanj Rahi - Makhanlal Chaturvedi
बीजुरी काजल आँज रही-गीत - माखनलाल चतुर्वेदी
गगन की रानी के छुप-छुप बीजुरी काजल आँज रही
बादलों के घिर आने से प्रात भी अच्छी सांझ रही ।
सांवली और कुआँरी-सी मगन माटी ने खोले केश
गोद पर लहर-लहर आये विविध रंगों के हिलते वेश ।
छू उठी, छुपा हृदय गुस्ताख, तुम्हारी निखरी-सी पहचान
और वे मृग-तृष्णा हो गये तुम्हारी यादों के मेहमान ।
मधुर निर्यात और आयात, साधते हो दोनों के खेल
छनक में निकल चले-से दूर पलकों में पल-पल बढ़ता मेल ।
तुम्हारे खो जाने में दूख, तुम्हारे पा जाने में आज-
भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज ।
तुम्हारी टीसें हबस रहीं, बेलि पर सपने साज रहीं
गगन की रानी चुप-चुप बीजुरी काजल आँज रही ।
वर्षा ने आज विदाई ली - माखनलाल चतुर्वेदी
वर्षा ने आज विदाई ली जाड़े ने कुछ अंगड़ाई ली
प्रकृति ने पावस बूँदो से रक्षण की नव भरपाई ली।
सूरज की किरणों के पथ से काले काले आवरण हटे
डूबे टीले महकन उठ्ठी दिन की रातों के चरण हटे।
पहले उदार थी गगन वृष्टि अब तो उदार हो उठे खेत
यह ऊग ऊग आई बहार वह लहराने लग गई रेत।
ऊपर से नीचे गिरने के दिन रात गए छवियाँ छायीं
नीचे से ऊपर उठने की हरियाली पुन: लौट आई।
अब पुन: बाँसुरी बजा उठे ब्रज के यमुना वाले कछार
धुल गए किनारे नदियों के धुल गए गगन में घन अपार।
अब सहज हो गए गति के वृत जाना नदियों के आर पार
अब खेतों के घर अन्नों की बंदनवारें हैं द्वार द्वार।
नालों नदियों सागरो सरों ने नभ से नीलांबर पाए
खेतों की मिटी कालिमा उठ वे हरे हरे सब हो आए।
मलयानिल खेल रही छवि से पंखिनियों ने कल गान किए
कलियाँ उठ आईं वृन्तों पर फूलों को नव मेहमान किए।
घिरने गिरने के तरल रहस्यों का सहसा अवसान हुआ
दाएँ बाएँ से उठी पवन उठते पौधों का मान हुआ।
आने लग गई धरा पर भी मौसमी हवा छवि प्यारी की
यादों में लौट रही निधियाँ मनमोहन कुंज विहारी की।
सिर पर पाग, आग हाथों में - माखनलाल चतुर्वेदी
सिर पर पाग, आग हाथों में
रख पानी का घड़ा
जवानी, देख कि प्रियतम खड़ा ।
मटर इसी पर झूल उठी है
सरसों कैसी फूल उठी है
गंगा इसकी छवि विलोक कर
सीधा रस्ता भूल उठी है।
श्रम, तेरे मन्दिर का एक
पुजारी कितना बड़ा?
आज अपनी पर आये खड़ा !
सिर पर पाग, आग हाथों में
रख पानी का घड़ा
जवानी, देख कि प्रियतम खड़ा ।
सरजू इसे राम कहती है
यमुना घनश्याम कहती है
ग्रामीणों की टोली, पागल
इसको राम-राम कहती है !
कला ! कल्पना से कह इस पर
बन्दनवारें चढ़ा !
सफल कर जीवन यह बेगढ़ा !
सिर पर पाग, आग हाथों में
रख पानी का घड़ा
जवानी, देख कि प्रियतम खड़ा ।
उठती हुई जवानी इसकी
कितनी ताने टूट रहीं
इसकी अमर उमर दुनिया में
अनुपम रहीं, अटूट रहीं !
रस, कि राग का विष इससे
मत माँगो यह अलमस्त खड़ा !
सिर पर पाग, आग हाथों में
रख पानी का घड़ा
जवानी, देख कि प्रियतम खड़ा ।
(1957)
चोरल - माखनलाल चतुर्वेदी
(1)
चढ़ चलो कि यह धारों की शोभा न्यारी
सागौन-वनश्री, सावन के बहते स्वर,
पाषाणों पर पंखे झल-झल दोलित-सी
नभ से बातें करती बैठी अपने घर !
संध्या हो आयी तारे पहरा देते
इसके अन्तर को छविधर घहरा देते!
ये बढ़ी लाल चट्ठान नुकीली ऐसे
गिरिवर अविन्ध्य को विन्ध्य कहें भी कैसे ।
'चोरल' की दौड़ें, क्या छू लें, क्या छोड़ें
इस राजमार्ग पर अपने वस्त्र निचोड़ें !
पगडण्डी पद-मखमलिया है, बाँकी है
क्या प्रकृति-वधु, स्वर भरे इधर झांकी है !
डालों पर, पंछी जैसे कुछ गाने में
आ रहा मजा, पथ भूल-भूल जाने में।
ऊँचे बट देखें या नीचे की दूबें
भूले भटके भी यहाँ न कोई ऊबें!
मलयज मन्दारों उलझ छिपा-छी खेलें
बन्दनवारें बन उठीं वनों की बेलें !
पंचम के स्वर, उड़ता संगीत संभाले
सारस दल लांघे वन्य-प्रान्त उजियाले ।
मानो नभ के आँगन में खेल बिछाकर ।
गा रहे गीत, उड़ हौले से अकुलाकर
क्या महफिल आज लगी, चिड़ियों को देखा ?
डालों पर अपनी हरी खींच कर रेखा
चिलबिल-चिलबिल बस चैन कहाँ, कैसे हो,
फुदक साँस, उड़ चली, तुम्हारी जग हो !
( 2 )
चोरल है ।
ग्वाले-ग्वालिन हैं गायें हैं
क्या उन्हें देखने मेघ खूब छाये हैं ?
इस वन-रानी पर गगन द्रवित हो आया
हँस-हँस कर शिर पर इन्द्र-धनुष पहनाया
स्तन से मीठी, यह मस्त चाल गरबीली
हंसी, शुभदा, श्यामला, लाल यह पीली ।
पूछें इन पर बन चंवर कि डोल रही हैं
राजत्व प्रकृति इन पर रंग ढोल रही है ।
वह आम्र-डाल पर कोयल कूक उठी है
मधुरायी वन-वैभव लख विवश लुटी है ।
जब गायें लगतीं संध्या में ग्वालिन-घर
जब तालें दे वे झरना, बूंदों के स्वर,
अंगुलियों की परियाँ क्षण आती-जातीं
मटकियों दूध, अपने घर वे पा जातीं ।
छोटे से ग्वाल-किशोर यशोदा-मां के
ये माँग उठे हैं दूध गीत गा-गा के ।
छवि निरख-निरख कह उठी विन्ध्य वन-रानी
तुम "दूधों न्हायो, पूतों फलो" भवानी !
( 3 )
तुम संभल-संभल उतरो प्रिय पगडण्डी से
कुछ इधर-उधर जो किया कि ढुलक पड़ोगे !
यह प्रकृति-कृति या अगम मुक्ति का घर है
यह नया-नया है जितना और बढ़ोगे !
तट चोरल के नटिनी-सी तटिनी जाती
यह राग कौन-सा कुशल निम्नगा गाती ?
ऊंचे चढ़ाव, नीचे उतार, दृग मीचे
गिरि से गिरकर गा उठी गोद को सींचे !
चट्टानें चुभ आयीं कोमल अंगों में
आ गयी विकृति, विधि रचे विविध रंगों में ।
गिर पड़ी गगन से, रोती है, समझा ले
इसकी माँ से कह दो चट गोद उठा ले ।
यह पत्थर की चट्टानों पर अलबेला
विधि-हरियाली पर लगा रंग का मेला
होनी बन, अनहोनी छवि ताक रहा है
फूलों की आँखों निज कृति झांक रहा है।
फूलों के मुकुट लिये डालों की परियां
श्रृंगार कर रहीं हिलती-सी वल्लरियां !
मालव का कृषक संभाले कांधे पर हल
अनुभव करता खेतों पर बैलों का बल ।
किस अजब ठाठ से जाता है मस्ताना
वैभव इसके श्रम पर बलि है, अब जाना ।
(1957-चोरल=विन्ध्य के एक बहुत सुहावने
झरने का नाम है, जो बढ़कर नदी हो गया है ।)
यह तो करुणा की वाणी है - माखनलाल चतुर्वेदी
तुम इस बोली में मत बोलो
यह तो करुणा की वाणी है।
उतरो, चढ़ो, चलो, घूमो
पलटो, पर हार नहीं मानो;
पत्थर, मिट्टी, लोहा, सोना
रोकें, उपहार नहीं मानो ।
बिन्दु-बिन्दु टुकड़े होते हैं
तुम संग्रह का गर्व करो;
बढ़ो, बाढ़ की धारा में
उस मनमानी की दौड़ भरो।
सिंहासन, मुकुट, मुखारविन्द
बढ़ती धारा के कायल हैं;
जो गरज उठें, गिर पड़ें, घने हों-
धनश्याम हैं, बादल हैं।
चलनी में छान रहा कोई
बूँदों-बूँदों को गगन चढ़ा;
पर्वत, पत्थर, कुछ भी बोलें
वह दौड़ रहा है बढ़ा-बढ़ा ।
वह शैल, भूमि की उँगली का
केवल मनहरण इशारा हैं:
यह धारा जी की फिसलन का
मन को अनमोल सहारा है!
तुम सिर देते सकुचाते थे
तरु ने फूलों को फेंक दिया!
उसकी इस एक अदा में यों
भू ने भूलों को फेंक दिया।
फल, फूल, पत्र सब धीरे से
उठते हैं, मिट-मिट जाते हें,
मानो वे राम कहानी-सी
मानव से कहने आते हैं ।
बोलों के मोलों महँगी-सी
मत बोलो गर्व-भरी वाणी;
हर घुटन साँस लिख लेती है,
हारों में चढ़ता है पानी!
मैं उन्नत शिर का गर्व करूं
तुम गिरे अश्रुयों उतर पड़ो;
मैं लिये चाँदनी छा जाऊँ
तुम बन प्रकाश भू पर विचरो !
(3 फरवरी 1958)
छबियों पर छबियाँ बना रहा बनवारी - माखनलाल चतुर्वेदी
जब तरल करों से बाँट रहा बून्दें अपार
हिल रहा है हवा के झोंकों पर जो बार-बार
जो खींच रसा के कीचड़ से रस-रूप-ज्वार
पत्तों, डालों, फूलों को बाँट रहा उदार !
तब कौन कि जो उसकी लहरों को टोके
ऊँचे उठते हरिताभ तत्व को रोके
बूंदें नीचे को झरझर गिरती सहस बार
तरु ऊगे, उठे, बढ़े, निकल आये हजार
किरनें इन पर झुक-झुक कर हेरा-फेरी
सौन्दर्य-कोष देने में करें न देरी ।
ऊंचे उठतों की कौन करे बदनामी ?
चढ़ने-बढ़ने में ये हैं अपने स्वामी ।
फूलों से देखो कीचड़ का यह नाता
किस ढब गढ़ता है स्वाद, सुगन्ध विधाता !
चढ़ कर गिरते हैं मातृ-भूमि की गोद
है कौन कि छीने इनका उठता मोद ।
लीला-ललाम, यों सुबह-शाम पर वारी
कुंजों को गढ़ता, देखो कुंजबिहारी !
यह फूलों और फलों को दुलार रहा है
तुमको मौन उन्मत्त पुकार रहा है ।
यों लूट-लूट प्रकृति की महिमा सारी
छवियों पर छवियाँ बना रहा बनवारी
दुनिया बांढ़ों से इसे पुकार रही है
झरने की वानी चरन पखार रही है ।
रातों के तारे नित पहरा देते हैं
दिन में दिनमणि यौवन गहरा देते हैं ।।
(मई 1958)
आता-सा अनुराग - माखनलाल चतुर्वेदी
माटी से उठ कर आता-सा अनुराग
जब फूल-फूल बनता कलियों का भाग,
तब मुझको मिलते, आते मेरे बाँटे
संकेत भेजते वायु और सन्नाटे।
मैं चल पड़ता हूँ, कलियों के मधु-गाँव
हौले से रखता हूँ, गन्धों पर पाँव
मैं काला, वे उजली भरपूर सुगन्ध
गुन-गुन कर ढूंढ रहा उनका अनुबन्ध ।
ग्रंथों में मुझ पर क्या लिक्खा क्या जानूं
पंथों में क्या बीती कैसे पहचानूँ!
मैं उन पर गुन-गुन करूँ और वे डोलें
उनकी पंखुड़ियाँ मेरी बोली बोलें !
मैं नहीं जानता, बीत गयीं सो रातें
मैं नहीं जानता, कल-किरणों की घातें,
उनकी मधु-गंधें निरख-निरख छू जाना
मैं मलय-गन्ध पर सीखा गूँज सजाना ।
यह मलय और वह माटी बस क्या कहने
निर्मात्री दोनों हैं आपस में बहनें,
इनकी गोदों ही में कलियां हिलती हैं
खिलती हैं, मुझको वे हाजिर मिलती हैं,
गूंजों में भर-भर अर्पण अतल-वितल में
मैं रख-रख आता उनके चरण-कमल में ।
बेले हों, तरु हों, माटी के सब जाये
कलियों के घर जाता हूँ बिना बुलाये ।
कलियों का आँचल ही मेरा ईश्वर है
मधु-गंधों हिलता-डुलता प्रभु-मन्दिर है ।
जग के इस सिकुड़े पाप-पुण्य से ऊपर
गूँजें निर्माण किया करतीं मेरा घर ।
ऊँचे उड़ते, जिस-जिसने मुझको चीन्हा
वे बोले, प्यारा है मिलिन्द मधु-भीना ।
(2 अगस्त 1958)
तारों के हीरे गुमे - माखनलाल चतुर्वेदी
तारों के हीरे गुमे मेघ के घर से
जब फेंक चुके सर्वस्व तभी तुम बरसे !
खो बैठे चांदनियों-सी उजली रातें
जब तम करता हँस कर प्रकाश से बातें ।
जब उषा कर रही हाथ जोड़ सन्ध्या-सी
जब रात लग उठी विधवा-सी, बन्ध्या-सी ।
सपनों-सा स्वर पर पानी उतर रहा था
सन्ध्या को वैभव ऊगा सँवर रहा था।
मस्ती उतरी थी, भू पर हो दीवानी
जब बरस उठी थी रिमझिम एक कहानी ।
डालों फूला 'छू जाना' झूल रहा था
तरुयों को पहना स्वयं दुकूल रहा था ।
रानी-सी मलयज मन्द-मन्द झरती थी
वह कोटि-कोटि कलियां जीती-मरती थीं ।
चाँदी के डोले, चाँदी के ढीमर थे
चाँदी के राजकुमार मजे अम्बर थे।
चाँदी उतरी थी तम पर राज रही थी
चाँदी के घर चाँदी की लाज रही थी।
तम तरुओं के नीचे बारी-बारी
छुपता-मिलता-सा, बना आज से सारी---
गति का रथ उसकी रुका, बेड़ियाँ पहने
बन्दी बैठा था, पहन जेल के गहने !
दौड़ी आती जल-ज्योति अलकनन्दा-सी
तम के झुरमुट, वृन्दावन की वृन्दा-सी ।
सोने के घर से नीलम बरस रहे थे
चाँदी से ढल-ढल कर तम बरस रहे थे ।
(अगस्त 1958)
यह उत्सव है - माखनलाल चतुर्वेदी
भर-भर आया है सावन नयनों का
पुतली पर कोई झूल गया चुप-चुप-सा
इस प्रथम चरण ने वरण कर लिये सपने
हम सब समेट लाये थे अपने-अपने,
शिशु अन्धुकार पर बिखर गगन के तारे
स्तन नहीं मिला, फिरते थे मारे-मारे
जब भूल चुका 'निज-पर' का जीवन-गान
उस दिन अनन्त से हुई नयी पहचान,
नभ पर लटके से इन्द्रधनुष चूते थे
डालियाँ झुका कर तरु वसुधा छूते थे,
इस व्याप्त गगन के मोह-पंख से प्यारे
हिलते-डुलते थे, तारे न्यारे-न्यारे ।
कितना प्रभात था, उषा गगन पर छायी
फूलों की डालों चढ़ी सवारी आयी !
यों है; ये पलकें भू-रानी ने खोलीं
कोमल गंधें, वृक्षों के सर चढ़ बोलीं
भर-भर आया है सावन नयनों का
यह उत्सव है अधबोले नयनों का ।
(अगस्त 1958)
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