Hindi Kavita
हिंदी कविता
युगाधार - सोहन लाल द्विवेदी
Yugadhar - Sohan Lal Dwivedi
मज़दूर - सोहन लाल द्विवेदी
पृथ्वी की छाती फाड़, कौन यह अन्न उगा लाता बहार?
दिन का रवि-निशि की शीत कौन लेता अपनी सिर-आँखों पर?
कंकड़ पत्थर से लड़-लड़कर, खुरपी से और कुदाली से,
ऊसर बंजर को उर्वर कर, चलता है चाल निराली ले।
मज़दूर भुजाएँ वे तेरी, मज़दूर, शक्ति तेरी महान;
घूमा करता तू महादेव! सिर पर लेकर के आसमान!
पाताल फोड़कर, महाभीष्म! भूतल पर लाता जलधारा;
प्यासी भूखी दुनिया को तू देता जीवन संबल सारा!
खेती ले लाता है कपास, धुन-धुन, बुनकर अंबार परम;
इस नग्न विश्व को पहनाता तू नित्य नवीन वस्त्र अनुपम।
नंगी घूमा करती दुनिया, मिलता न अन्न, भूखों मरती,
तू छिपा राज्य-उत्थानों में, तू छिपा कीर्ति के गानों में;
मजदूर! भुजाएँ तेरी ही दुर्गों के श्रृंग-उठानों में।
तू छिपा नवल निर्माणों में, गीतों में और पुराणों में;
युग का यह चक्र चला करता तेरी पद-गति की तानों में।
तू ब्रह्मा-विष्णु रहा सदैव, तू है महेश प्रलयंकर फिर।
हो तेरा तांडव, शुंभ! आज हो ध्वंस, सृजन मंगलकर फिर!
अभियान-गीत - सोहन लाल द्विवेदी
चलो आज इस जीर्ण पुरातन
भव में नव निर्माण करो,
युग-युग से पिसती आई
मानवता का कल्याण करो !
बोलो कब तक सडा करोगे
तुम यों गन्दी गलियों में ?
पथ के कुत्तों से भी जीवन
अधम संभाल पसलियों में ?
दोगे शाप विधाता को लख
धनकुबेर रंगरलियों में,
किन्तु न जानोगे अपने को
क्योंकि घिरे हो छलियों में !
कोटि- कोटि शोषित -पीड़ित तुम
उठो आज निज त्राण करो ?
चलो आज इस जीर्ण पुरातन
भव में नव निर्माण करो ?
उठो किसानो ! देखो तुमने
जग का पोषण-भरण किया,
किन्तु तुम्हीं भूखे सो रहते
हूक छिपाए, मूक हिया !
रात-रात भर दिन-दिन भर
तुमने शोणित का दान दिया;
मिट्टी तोड़ उगाया अंकुर
ग्राम मरा, पर नगर जिया !
तुम अगणित नंगे भिखमंगे
अधिक न मन म्रियमाण करो,
चलो, आज इस जीर्ण पुरातन
भव में नव निर्माण करो ?
व्यर्थ ज्ञान विज्ञान सभी कुछ
समझो अब है आज यहाँ,
घर में जब यों आग लगी है
घर की जाती लाज जहाँ !
राज्य तंत्र के यंत्र बने
धनपति करते हैं राज जहाँ,
यह क्या किया पाप तुमने ?
घुटते जीवन के साज यहाँ !
आग फूंक दो कंगालों में
कंकालों में प्राण भरो !
चलो, आज इस जीर्ण पुरातन
भव में नव निर्माण करो ?
कणिका - सोहन लाल द्विवेदी
उदय हुआ जीवन में ऐसे
परवशता का प्रात ।
आज न ये दिन ही अपने हैं
आज न अपनी रात!
पतन, पतन की सीमा का भी
होता है कुछ अन्त !
उठने के प्रयत्न में
लगते हैं अपराध अनंत !
यहीं छिपे हैं धन्वा मेरे
यहीं छिपे हैं तीर,
मेरे आँगन के कण-कण में
सोये अगणित वीर!
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