चारबाग स्‍टेशनः प्‍लाटफार्म नं० 7–एक - वीरेन डंगवाल Viren Dangwal Part 9

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हिंदी कविता

चारबाग स्‍टेशनः प्‍लाटफार्म नं० 7–एक - वीरेन डंगवाल Viren Dangwal Part 9


‘तुम झूठे ओ’
यही कह रही बार-बार प्‍लाटफार्म की वह बावली
‘शुद्ध पेयजल’ के नलके से एक अदृश्‍य बरतन में पानी भरते हुए

घण्‍टे भर से टोंटी को छोड़ा नहीं है उसने
क्‍या वह मुझसे कह रही थी
या सचमुच लगातार बहते हुए उस नल से ?
‘शोषिता व व्‍यभिचरिता’
जैसे मैल की परत परत लिपी हुई है
उसके वजूद पर
वह भी पैदा हुई थी एक स्‍त्री के पेट से
उसका भी घर होना था
अभी तो अअपना कण्‍टर बजाता
शकल से ही मुश्‍टण्‍ड
एक दूध वाला
जा रहा है उसकी तरफ
चेहरे पर शराब-भरी फुसलाहट लिए
Viren-Dangwal

चारबाग स्‍टेशनः प्‍लाटफार्म नं० 7–दो -वीरेन डंगवाल

मक्खियां उड़ रहीं
अंतिम फरवरी की धूप में
चारबाग लखनऊ के प्‍लाटफार्म नं. सात पर बेशुमार मक्खियां
हवा में अभिनीत होते एक विलक्षण समूह नृत्‍य में तल्‍लीन

सर्दियों ने बहुत सताया उन्‍हें
उनके अल्‍पपारदर्शी डैनों की सूक्ष्‍म तंत्रि‍काओं में
निस्‍तब्‍ध जमी रही ठण्‍ड
अब जाकर आया है उनकी मुक्ति का अस्‍थाई पर्व
और उनका भी
जो महीनों बाद बिना गले-ठिठुरे
अपने से दूने आकार के रासायनिक टाट के
सफेद थैले लेकर
लाइनों के बीच के मल और पार की हरी दूब को लांघते हुए
बटोर रहे कांच-प्‍लास्टिक की खाली बोतलें
थैलियां-गत्‍ते-कागज और पन्नियां
मक्खियों के साथ इन आबाल-वृद्ध-नर-नारियों का
एक अत्‍यन्‍त घनिष्‍ठ किंवा रहस्‍यपूर्ण रिश्‍ता है
जो दरअसल रहस्‍य नहीं भी है

चारबाग स्‍टेशनः प्‍लाटफार्म नं० 7–तीन - वीरेन डंगवाल

प्‍लाटफार्म नं. सात है यह, उत्‍तर रेलवे की सारी उपेक्षित
रेलगाडियों का कटरा
एक आत्‍मीय हिकारत के साथ ‘गदहा लाइन’
नाम दिया है इसे
कुलियों, रेल के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों
और चारबाग के उचक्‍के एवं निरीह
दोनों प्रकार के स्‍थाई नागरिकों ने

किन्‍तु रहो हे !
रसज्ञों के हृदय को विचलित कर देने वाली
यह घिसी-पिटी घृणास्‍पद दृश्‍यावली अवांछित है
जबकि उतरा है सुमधुर वसन्‍त
अवध की बच रही घनी अमराइयों में
और दशहरी की सद्यः प्रस्‍फुटित
आम्रमंजरियों की सुगन्‍ध में
घोली जा रहीं
मादक तीव्रगंधा आधुनिकतम कीटनाशी दवाएं
कृषि साधन सहकारी समिति से
कर्ज में लेकर

सो रहो-रहो अवधेश्‍वरी कण्‍टर बजने दो !

वसन्‍त यदि समग्र है
तो ये पुष्‍पवल्लिकाएं उन
कीट-पतंगों के लिए भी
जिनके नाम केवल नकलची वनस्‍पतिशास्‍त्रि‍यों को पता हैं
अथवा उनके देशज संस्‍करण
अध्‍यवसायी भूमिहीन कृषि कार्यकर्ताओं को
थोड़ा, उन वानर यूथों के लिए भी यह वसन्‍त
जिन्‍होंने काफी तंग किया
नागरजनों को कटु हेमंत में
जब किंचित आहार भी एक असीम अनुकम्‍पा था
जहां से भी वह मिले उस की
और नरम गन्‍ने, पके कदलीफलगुच्‍छ अथवा अनान्‍नास का
रसपान करने को आतुर
हाथियों के उन गठे हुए समूहों के लिए भी यह
जिनमें से एकाध को खेद लिया जाना था
बांस की कोंपलों से ढंके उस गहरे खड्ड में
झिलमिलाती लालटेनों और ब्रह्मपुत्र जैसे विस्‍तीर्ण-लहराते
  भटियाली गान गाते
अंधेरे में खेदा लगाने वालों के करूण कंठ स्‍वरों की पृष्‍ठभूमि मेंः
‘ये कहां भेज दिया तूने, हे मां...’

सदा ही अपने तर्कों के प्रतिकूल जाता है यह वसन्‍त
यही उसका जटिल सौन्‍दर्य है
वह सदा हमें समूह से विलग करने वाले
फरेब लालच और पराजयों के कातर
आर्तनाद सो सचेत करता है
और कुछ को उधर ही धकेलता भी है

चारबाग स्‍टेशनः प्‍लाटफार्म नं० 7-चार - वीरेन डंगवाल

प्‍लाटफार्म नं. सात है यह
उत्‍तर रेलवे की सारी उपेक्षित रेलगाडियों का कटरा
मेलें, राजधानियां, शताब्दियां चूमती हुई जा रहीं
नवाबों की सरजमीन लखनऊ की
बुर्जियों, मीनारों, महापुरूष प्रतिमाओं और
अहर्निश विलास निद्रा में डूबे उन महापुरूषों को भी
जिनमें कोई वाणी का जादूगर कानून का महारथी
कोई चापलूसों का सिकंदर
जीवनी लेखक
कोई आंकड़ों का उस्‍ताद

भू-माफिया, ड्रग-तस्‍कर, भूतपूर्व बन्‍दूकबाज
किसी ने जीवन ही समर्पित कर दिया कथक के लिए
तो कोई अक्षत यौवना किशोरियों और उम्‍दा जर्दा-पान मसाला का शौकीन
कोई कत्‍लो-गारत में ऐसा निष्‍णात
कि अपनी भंगेड़ी मुस्‍कुराहट के साथ
कुछ देते-बांटते भी
आहिस्‍ता से जानें ले लेता है

अंधेरा नहीं है
कोई जुलूस भी नहीं
एक विशालकाय स्‍टेडियम है मधुमास का
और सुसज्जित दर्शकदीर्घा में बैठे
प्रतिस्‍पर्धी खिलाड़ी मुदित भाव से देख रहे
मैदान में लठ्ठम-लठ्ठा होती
कंगलों की टोलियों को

‘शायर हो मत चुपके रहो
इस चुप में जानें जाती हैं’ कहते थे उस्‍ताद
मीर तकी मीर
सो चारबाग स्‍टेशन की गदहा लाइन पर
मन ही मन यही दोहराते
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं
बरेली मुगलसराय पसिंजर की
जो अनिश्चिकालीन विलम्‍ब से है.

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